मई में होंगे मध्‍यावधि चुनाव

mai me honge chunavअंतत: कांग्रेस पार्टी और सरकार ने फैसला कर लिया कि उन्हें बजट सत्र के दौरान या बजट सत्र समाप्त होते ही चुनाव में चले जाना है. देश की आर्थिक स्थिति तेज़ी से बिगड़ रही है. इसलिए यह फैसला लिया गया. यह भी फैसला लिया गया कि क़डा बजट लाया जाए. जितने भी उपाय आम जनता को परेशानी में डालने वाले हो सकते हैं, उन उपायों को लागू कर दिया जाए. आने वाला बजट भारत के संविधान में दिए गए सारे आश्वासनों और विश्वासों के खिला़फ होने वाला है. हमारा संविधान लोक कल्याणकारी राज्य की कल्पना करता है और हिंदुस्तान में रहने वाले हर नागरिक को रोटी-पानी, जान-माल, इज्ज़त इन सबकी रक्षा का वचन देता है. दैवीय आपदा हो या मानवीय आपदा हो, जनता के लिए सरकार ख़डी होगी, ऐसा संविधान कहता है. संविधान यह भी कहता है कि सामान्य परिस्थिति या अभूतपूर्व परिस्थिति नागरिकों का हित सर्वोपरि है. लेकिन आने वाला बजट 1991 से शुरू हुए बाजारोन्मुखी नीतियों की चरम परिणिति में बदलने वाला है. 91 के बाद हिंदुस्तान के संविधान को बिना बदले हुए संविधान की आत्मा के साथ सारी सरकारों ने खिलवा़ड किया और हिंदुस्तान को लोक कल्याणकारी राज्य की जगह बाजारोन्मुखी सरकार मिलती चली गई. इस बजट में ज़्यादातर सब्सिडी समाप्त हो जाएगी. टैक्स ब़ढ जाएंगे. बाज़ार नियंत्रित सिद्धांत अपनाए जाएंगे. इसके बाद कांग्रेस अगर हार गई तो आने वाली सरकार इसका खामियाज़ा उठाएगी, ऐसा मौजूदा नीति निर्धारकों का मानना है.

हालांकि 2009 में कांग्रेस पार्टी ने चुनाव जीतने के लिए नहीं लड़ा था. कांग्रेस पार्टी ने बेमन से चुनाव ल़डा था और यह मानकर चुनाव ल़डा था कि आर्थिक स्थिति बहुत खराब होगी और आने वाली सरकार उसका खामियाज़ा भुगतेगी. लेकिन भारतीय जनता पार्टी की महान होशियारी की वजह से वह चुनाव भी कांग्रेस आसानी के साथ जीत गई. यूपीए-2 का कार्यकाल शुरू हुआ, जिसने घोटालों की श्रृंखला का कीर्तिमान बना दिया. अब फिर यही फैसला हुआ है कि हमें जल्दी से जल्दी चुनाव में जाना चाहिए और जो सरकार आए उस सरकार को सारी विपदाओं का सामना करने के लिए छो़ड दिया जाए. कांग्रेस पार्टी के रणनीतिकारों का एक आकलन यह भी है कि ग़ैर कांग्रेसी दलों के नेतृत्व में सरकार बनेगी और उस सरकार को साल भर तक चलाया जाए और उसके बाद फिर चुनाव करा लिए जाएं, जिसमें कांग्रेस पार्टी को पूर्ण बहुमत मिल जाए. इस रणनीति पर अंतिम फैसला लिया जा चुका है. लेकिन आने वाला चुनाव जो 2014 में निर्धारित है, अब 2013 की अप्रैल से लेकर जून तक में होने की संभावना ब़ढ गई है. आने वाला चुनाव स़िर्फ चुनाव नहीं होगा. बहुत सारे राजनीतिक दलों के सिकु़डने और बहुत सारे व्यक्तित्वों कीपराजय का भी चुनाव होगा. कांग्रेस इस चुनाव में प्रियंका गांधी के सहारे उतरेगी और वह इस चुनाव में प्रियंका गांधी का नेतृत्व मज़बूत करना चाहेगी, चाहे उसे चुनाव हारना ही क्यों न प़डे. भविष्य की नेता के तौर पर प्रियंका गांधी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर पेश करना कांग्रेस की आगामी रणनीति का मुख्य बिंदु है. श्रीमती सोनिया गांधी अभी भी राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाना चाहती हैं. उनका मानना है कि मनमोहन सिंह बहुत वृद्ध हो चले हैं, इसलिए 2014 का चुनाव जीतकर राहुल गांधी को आगामी प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया जाए, लेकिन राहुल गांधी स्वयं प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहते. हमारी खोजबीन के अनुसार, राहुल गांधी अपना ज़्यादा समय अपनी मां के साथ हिंदुस्तान और विदेश में बिताना चाहते हैं. श्रीमती सोनिया गांधी की तबीयत खराब है, लेकिन वह इतनी भी खराब नहीं है कि तत्काल किसी अप्रिय घटना के घटने का डर पैदा कर दे. लेकिन सोनिया गांधी की ज़िंदगी के बचे हुए 10-15-20 साल ऐसे हों, जिनमें

राहुल गांधी ने स्वयं प्रियंका गांधी से कहा है कि वह आगे आएं और कांग्रेस पार्टी की कमान हाथ में लें. सोनिया गांधी का मानना है कि प्रियंका गांधी में वह क़ुव्वत है कि वह अपने बूते सब कुछ चला लेंगी, लेकिन फिर भी वह यह चाहती हैं कि प्रियंका गांधी से पहले राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनें.

राहुल अपनी मां के साथ रह सकें, ऐसी ख्वाहिश दस जनपथ की ख़िडकियों से छनकर बाहर आई है. राहुल गांधी ने स्वयं प्रियंका गांधी से कहा है कि वह आगे आएं और कांग्रेस पार्टी की कमान हाथ में लें. सोनिया गांधी का मानना है कि प्रियंका गांधी में वह क़ुव्वत है कि वह अपने बूते सबकुछ चला लेंगी, लेकिन फिर भी वह यह चाहती हैं कि प्रियंका गांधी से पहले राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनें. एक सबसे ब़डा सवाल यह ख़डा हो रहा है कि केंद्र सरकार जिसके नेता प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हैं, जो घोटालों के बीच केंद्रबिंदु बन गए हैं, फैसला न लेने वाले प्रधानमंत्री के रूप में उन्हें आंका जाने लगा है. विदेशी मीडिया जो अब तक मनमोहन सिंह को हिंदुस्तान के भाग्यविधाता के रूप में या तारणहार के रूप में प्रस्तुत करता रहा है, अचानक उनके खिला़फ हो गया है. वह मीडिया अचानक मनमोहन सिंह के खिला़फ हो गया है. भारतीय जनता पार्टी में इतनी ताक़त नहीं बची कि वह मनमोहन सिंह को हटाने की कोशिश भी कर सके. भारतीय जनता पार्टी की विडंबना इससे भी ब़डी है. वह हर क़दम कांग्रेस की सलाह के बिना नहीं उठाती और ऐसे ही क़दम उठाती है, जिससे कांग्रेस पार्टी को मदद मिले. राहुल गांधी के लिए प्रधानमंत्री बनना इस समय सबसे आसान है, क्योंकि मुख्य विपक्षी पार्टी मनमोहन सिंह जी की जगह राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनते देखना चाहती है और कोई बाधा पैदा भी नहीं करना चाहती है. तब क्यों राहुल गांधी प्रधानमंत्री नहीं बन पा रहे हैं? इसकी ज़ड में मनमोहन सिंह का शक्तिशाली होना बताया जा रहा है. कहने के लिए सोनिया गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष हैं और सोनिया गांधी ही फैसले लेती हैं. लेकिन सच्चाई इसके बिल्कुल विपरीत है. सोनिया गांधी मनमोहन सिंह से मिलकर अपनी बात नहीं कह पातीं, चिट्ठियां लिखती हैं, उन चिट्ठियों पर मनमोहन सिंह अमल नहीं करते और मनमोहन सिंह सरकार को अपने दिमाग़ से एक निश्चित योजना के तहत चलाते जा रहे हैं. मनमोहन सिंह की सारी योजनाएं हिंदुस्तान को पूरी तरह अमेरिका के व़फादार सिपाही के रूप में बना देने की हैं. मनमोहन सिंह एक-एक क़दम ब़ढते चले जा रहे हैं. यह मध्यावधि चुनाव कांग्रेस की योजना के सफल होने में कितना मददगार होगा, कह नहीं सकते, लेकिन अभी तो कांग्रेस ने मुलायम सिंह को अपने से दूर कर लिया है. कांग्रेस की कोई योजना ऐसी नहीं है कि अगर आने वाले बजट सत्र में कोई कटौती प्रस्ताव आता है या कोई अविश्वास प्रस्ताव आता है या कोई ऐसी स्थिति बनती है, जिसमें फाइनेंस बिल पर हार की नौबत आ जाए तो कांग्रेस अपने को बचाने की कोशिश नहीं करेगी. उस स्थिति में मुलायम सिंह यादव और ममता बनर्जी मिलकर का़फी होंगे इस सरकार को सत्ता से हटाने के लिए. लेकिन लोकसभा में हार के बाद या प्रधानमंत्री के स्वेच्छा से इस्ती़फा देने के बाद भी केयरटेकर प्रधानमंत्री कांग्रेस का ही रहेगा और वह मनमोहन सिंह होंगे. मनमोहन सिंह भी यह चाहते हैं कि अब देश चुनाव की तऱफ ब़ढे, इसलिए बिना लोगों की परवाह किए हुए उन्होंने डीजल की क़ीमतों में अचानक पांच रुपये की वृद्धि कर दी, सरकार की यह योजना है कि बजट सत्र से ठीक पहले डीजल के दामों में और वृद्धि की जाए, ताकि सहयोगी दल सरकार से और दूर चले जाएं और सरकार को गिराने में मदद करें. कांग्रेस आगामी लोकसभा का चुनाव अकेले ही ल़डेगी. यूपीए का गठबंधन स़िर्फ सरकार चलाने तक के लिए है, चुनाव के लिए नहीं है, यह कांग्रेस के मन में सा़फ है, लेकिन यूपीए के सहयोगी दलों के मन में या सरकार का बाहर से समर्थन कर रहे दलों के मन में थो़डा सा भ्रम है. वे चाहते हैं कि कांग्रेस के साथ थो़डा सा तालमेल करके चुनाव ल़डें, जबकि कांग्रेस इसके लिए क़तई तैयार नहीं है. कांग्रेस जानती है कि इस समय भारतीय जनता पार्टी में कोई भी एक सर्वमान्य नेता नहीं है. भारतीय जनता पार्टी अपने को चुनाव के लिए कितना योग्य मानती है या सामना करने में कितनी मज़बूती दिखाएगी, यह अभी नहीं कहा जा सकता है. जब तक चुनाव की घोषणा नहीं होगी, तब तक नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में अपनी छवि चमकाते रहेंगे. लेकिन शायद भारतीय जनता पार्टी लोकसभा के लिए किसी और को नेता पद के योग्य माने, उस स्थिति में भारतीय जनता पार्टी में कई गुट काम कर रहे हैं. जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा जैसों का एक ग्रुप है. नितिन गडकरी का दूसरा ग्रुप है. आडवाणी जी का तीसरा ग्रुप है और नरेंद्र मोदी का चौथा ग्रुप है. दक्षिण के नेता इन्हीं ग्रुपों में कभी एक के साथ होते हैं, तो कभी दूसरे के साथ होते हैं. भाजपा आडवाणी जी को सनकी नेता मानती है. आडवाणी जी के यहां लोग जाते हैं, उनसे बातचीत करते हैं, लेकिन उनकी सलाह नहीं मांगते. हालांकि अभी भी देश में भारतीय जनता पार्टी की साख से ज़्यादा ब़डी साख श्री लालकृष्ण आडवाणी की है, लेकिन न केवल संघ बल्कि भाजपा के दूसरे नंबर और तीसरे नंबर के नेता अब आडवाणी जी की साख के साथ नहीं ख़डे हैं. मध्यावधि चुनाव से पहले, हमारी जानकारी के हिसाब से भाजपा में एक ब़डी टूट होगी. उस टूट का सूत्रधार कौन होगा और उस टूट का नेता कौन होगा, इस सवाल का जवाब अगले तीन महीने में मिलेगा. लेकिन यह फैसला लिया जा चुका है कि भारतीय जनता पार्टी को भी सिद्धांत के आधार पर तो़डा जाए.

ऐसी स्थिति में मध्यावधि चुनाव में किसे फायदा होगा और किसे नुक़सान, इसके क़यास लगने लगे हैं. नीतीश कुमार में यह हिम्मत नहीं है कि वह सारे देश में घूमें और भारतीय जनता पार्टी से अलग होकर देश का नेतृत्व करें. हालांकि नीतीश कुमार उन चंद ग़ैर भाजपा, ग़ैर कांग्रेस नेताओं में हैं, जिन्हें लोग प्रधानमंत्री पद के योग्य मानते हैं. पर नीतीश के लिए सारा हिंदुस्तान नालंदा और बिहार है. उसके आगे वह सोचना ही नहीं चाहते. अगर परिस्थिति उन्हें प्रधानमंत्री बना दे तो उनके लिए पहली प्राथमिकता बिहार होगी, दूसरी प्राथमिकता बिहार होगी, तीसरी प्राथमिकता बिहार होगी. पिछले विधानसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश में सबसे ब़डी ताक़त के रूप में उभरे. मुलायम सिंह यादव ने अपने को दिल्ली के लिए इसलिए खाली रखा, क्योंकि उन्हें लगा कि अब व़क्त आ गया है कि प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी वह पेश करें और उन्होंने अपनी दावेदारी पेश भी की.

मध्यावधि चुनाव से पहले, हमारी जानकारी के हिसाब से भाजपा में एक ब़डी टूट होगी. उस टूट का सूत्रधार कौन होगा और उस टूट का नेता कौन होगा, इस सवाल का जवाब अगले तीन महीने में मिलेगा. लेकिन यह फैसला लिया जा चुका है कि भारतीय जनता पार्टी को भी सिद्धांत के आधार पर तो़डा जाए. ऐसी स्थिति में मध्यावधि चुनाव में किसे फायदा होगा और किसे नुक़सान, इसके क़यास लगने लगे हैं. नीतीश कुमार में यह हिम्मत नहीं है कि वह सारे देश में घूमें और भारतीय जनता पार्टी से अलग होकर देश का नेतृत्व करें. हालांकि नीतीश कुमार उन चंद ग़ैर भाजपा, ग़ैर कांग्रेस नेताओं में हैं, जिन्हें लोग प्रधानमंत्री पद के योग्य मानते हैं. पर नीतीश के लिए सारा हिंदुस्तान नालंदा और बिहार है. उसके आगे वह सोचना ही नहीं चाहते.

उनकी दावेदारी पेश करने के कुछ दिनों के भीतर ही खबरें बाहर आईं कि उनके पुत्र और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा कि अगर आप अभी दावेदारी पेश करेंगे तो केंद्र सरकार उन्हें उत्तर प्रदेश के लिए पैकेज नहीं देगी और वह असफल हो जाएंगे. इसलिए मुलायम सिंह ने गोल-मोल शब्दों में अपनी दावेदारी वापस भी ले ली. पर ग़ैर कांगे्रसी और ग़ैर भाजपाई दलों में मुलायम सिंह यादव प्रधानमंत्री पद के एक सशक्तउम्मीदवार हैं. उत्तर प्रदेश से ही दूसरी ब़डी राजनीतिक ताक़त के रूप में मायावती उभरी हैं. वह उत्तर प्रदेश में विधानसभा का चुनाव तो हार गईं, लेकिन उन्हें भरोसा है कि जिस तरह से सरकार की साख पर सवालिया निशान ख़डे हुए हैं, उसका फायदा उन्हें लोकसभा चुनाव में ज़रूर मिलेगा. मायावती किसी के साथ कोई समझौता नहीं करेंगी और अकेले उत्तर प्रदेश में चुनाव ल़डेंगी और उनका मानना है कि 30-35 सीटें जीतेंगी और इतनी ही सीटें जीतने का आकलन मुलायम सिंह यादव का भी है. लेकिन आखिर में प्रधानमंत्री पद के लिए कौन विजयी होगा और किसका चेहरा देखकर लोग वोट डालेंगे, इस सवाल का जवाब अभी किसी के पास नहीं है.

इन राजनीतिक दलों के अलावा जनरल वीके सिंह, अन्ना हजारे और बाबा रामदेव की अनदेखी नहीं की जा सकती. जनरल वीके सिंह देश में कई जगह घूमे हैं और उन्हें आम लोगों का भरपूर समर्थन मिला है. एक आकलन के हिसाब से जनरल वीके सिंह, अन्ना हजारे और बाबा रामदेव तीनों एक साथ चुनाव सभाएं करते हैं तो देश में अभूतपूर्व जनजागरण और एक नए विकल्प के पैदा होने की संभावना दिख सकती है. अन्ना हजारे की साख देश में अभी भी बहुत ज़्यादा है. लेकिन अन्ना हजारे राजनीतिक दल नहीं बनाना चाहते और उन्हीं के दबाव में राजनीतिक दल बनाने की प्रक्रिया को लेकर अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण ने एक खामोश रणनीति अख्तियार कर ली है. हालांकि खबर यह है कि ये लोग पार्टी बनाने की कार्रवाई शुरू कर चुके हैं. बाबा रामदेव का संगठन देश के लगभग 400 ज़िलों में फैल चुका है. जनरल वीके सिंह एक ऐसे चेहरे के रूप में सामने आए हैं, जो निष्कलंक हैं, बेदाग़ हैं और जिनकी समझ मध्यमार्गी वामपंथी नेता की बन रही है. इन तीनों की मिली हुई ताक़त किसी भी राजनीतिक समीकरण को ध्वस्त कर देने के लिए का़फी है और अगर ये तीनों एक साथ देश में घूम गए और लोगों का समर्थन इन्हें मिला तो एक नई तरह के जनता दल या एक नई तरह के राष्ट्रीय मोर्चे का उदय भी हो सकता है.

इसलिए भारत का आगामी चुनाव देखने योग्य होगा, जिसमें मुकेश अंबानी, अनिल अंबानी, रतन टाटा, कुमार मंगलम बिड़ला और छोटे-छोटे पूंजीपति जैसे संचेती ग्रुप, अंशुमान मिश्रा ग्रुप, टूजी और कोयला घोटाले से परेशानी में आए ग्रुप अपना रोल निभाना चाहेंगे. सीआईए हिंदुस्तान में एक अलग तरह का राजनीतिक समीकरण चाहती है. मौर्या होटल में सीआईए के लिए काम करने वाले लोगों के परमानेंट सुइट बुक हैं और दिल्ली का मौर्या होटल हिंदुस्तान में हथियार कंपनियों के नाम पर काम करने वाले उन लोगों का सबसे ब़डा अड्डा है, जो देश में सीआईए के लिए लॉबिंग कर रहे हैं. वहां पर केंद्रीय मंत्रियों को खुलेआम आते जाते, सुइट में बैठकर बहुत सारे काम करते हुए देखा जा सकता है, बहुत सारे लोग देखे गए हैं. विपक्ष के नेता भी इसमें शामिल हैं. मेरा अंदाज़ है कि सीआईए के पास उनकी तस्वीरें हैं, सीडी हैं, जिसकी वजह से वे सीआईए के चंगुल से निकल भी नहीं सकते हैं.

आने वाले मध्यावधि चुनाव, अगर हम इन्हें मध्यावधि कहें तो, या व़क्त से साल भर पहले होने वाले चुनाव को विश्लेषित करने से तो यही लगता है कि सरकार बनाने की इच्छाशक्ति न भाजपा की है, न कांगे्रस की है. उन सब दलों की है, जो ग़ैर कांग्रेसी और ग़ैर भाजपाई दल हैं, वे सरकार बनाना चहते हैं, लेकिन उनके सामने देश के लोगों को विश्वास दिलाने का एक ब़डा संकट पैदा हो गया है. जितनी बार भी ग़ैर कांगे्रसी और भाजपाई आपस में मिले हैं उनमें टूट ज़्यादा हुई है, एकता कम हुई है. लेकिन

जब-जब वे अटल जी के नेतृत्व में या नरसिम्हा राव या मनमोहन सिंह के नेतृत्व में साथ गए हैं, उन्होंने बहुत आदर्श ग़ुलामी का जीवन जिया है. इन सबके बीच, हिंदुस्तान की अर्थव्यवस्था, हिंदुस्तान की महंगाई, हिंदुस्तान का भ्रष्टाचार, हिंदुस्तान की शिक्षा और स्वास्थ्य की बदहाली लोगों के मन में ग़ुस्सा पैदा कर रही है और लेागों को ऐसा लगने लगा है कि यह सिस्टम फेल हो रहा है और इस मनोस्थिति का फायदा सीधे तौर पर देश में अगर किसी को मिला है तो नक्सलवादियों को मिला है. आगामी मध्यावधि चुनाव में नक्सलवादियों की सम्मिलित ताक़त को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता. लेकिन यह सा़फ है कि आने वाले मार्च से जून के बीच में देश में मध्यावधि चुनाव होने वाले हैं, जिसका फैसला लिया जा चुका है.

मध्यावधि चुनाव का असर

मध्यावधि चुनाव के फैसले का असर कई राज्यों पर पड़ने वाला है, जिसमें महाराष्ट्र पहले स्थान पर है. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को भी बदलने का फैसला कर लिया गया है. महाराष्ट्र  के नए मुख्यमंत्री नारायण राणे होंगे. नारायण राणे पहले शिवसेना के मुख्यमंत्री थे और बालासाहब ठाकरे के सबसे नज़दीकी थे. अब वह कांग्रेस के मुख्यमंत्री होंगे.

महाराष्ट्र के वर्तमान मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण की छवि प्रदेश में अच्छी है. उनकी बस एक ही कमी है कि वह दिल्ली को पैसा नहीं पहुंचा पा रहे हैं. अब उन्हें दिल्ली लाया जाएगा और पेट्रोलियम मंत्रालय दिया जाएगा. वर्तमान पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी को या तो आंध्रप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया जाएगा या राज्यपाल बनाकर भेज दिया जाएगा. मध्यावधि चुनाव के फैसले के मद्देनज़र कांग्रेस कुछ और लोगों को केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल कर सकती है.


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