मनमोहन-सोनिया के मतभेद

manmohanकेंद्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार का शोर एक साल से मच रहा था. माना जा रहा था कि बड़ा फेरबदल होगा और वे मंत्री नहीं रहेंगे, जिनके काम का कोई असर नहीं दिखाई दे रहा तथा वे भी नहीं रहेंगे, जिनके खिला़फ संगीन आरोप लगे हैं. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. क्यों नहीं हुआ, यही रहस्य है और इस रहस्य के पीछे एक नहीं, कई कारण हैं. कई लोगों की आईबी क्लियरेंस ले ली गई, पर उन्हें मंत्रिमंडल में नहीं लिया गया और जिन्हें लिया गया, उन्हें लेकर कांग्रेस पार्टी में चर्चाएं चल रही हैं. इन सब बातों की जड़ में मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी और राहुल गांधी हैं. मंत्रिमंडल विस्तार से एक दिन पहले मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी में दो घंटे बातें हुईं. इस बातचीत में अहमद पटेल भी शामिल थे. अगले दिन, जिस दिन विस्तार होना था, सोनिया गांधी, राहुल गांधी और अहमद पटेल में फिर एक घंटे से ज़्यादा बातचीत हुई. इसके बाद सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह को फोन कर अपना फैसला सुनाया. इसीलिए शाम पांच बजे जब विस्तार हुआ तो केवल तीन लोगों को नए सदस्य के रूप में शपथ दिलाई गई और सैंतीस मंत्रियों का विभाग बदला. कई सदस्यों को राज्य मंत्री से मंत्री भी बनाया गया. आ़खिर क्या हुआ था 7 रेसकोर्स की मीटिंग में, जिसमें सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह और अहमद पटेल थे, और क्या हुआ था उस मीटिंग में, जिसमें सोनिया गांधी, राहुल गांधी और अहमद पटेल थे. इसकी निन्यान्बे प्रतिशत विश्वसनीय और सच्ची कहानी आपको बताते हैं.

मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के नाते अपने मंत्रिमंडल के लगभग दस मंत्रियों के कामकाज से खुश नहीं हैं. वह विस्तार के बहाने इन मंत्रियों को हटाना चाहते थे तथा नए लोगों को मंत्रिमंडल में लेना चाहते थे. प्रधानमंत्री ने तय कर लिया था कि कमलनाथ, सी पी जोशी, कांतिलाल भूरिया, मुरली देवड़ा, शैलजा, अंबिका सोनी को वह मंत्रिमंडल से हटा देंगे. पहली मीटिंग में सोनिया गांधी ने इसका विरोध किया. उन्होंने प्रधानमंत्री से कहा कि इससे बजट सेशन में परेशानी पैदा हो जाएगी, क्योंकि इन मंत्रालयों के बजट को न केवल अंतिम रूप देना है, बल्कि पेश भी करना है. दूसरा तर्क था कि कुछ राज्यों के चुनाव भी होने वाले हैं. प्रधानमंत्री की इस सूची में विलासराव देशमुख और वीरप्पा मोइली का भी नाम था. प्रधानमंत्री ने सोनिया गांधी की बातचीत सुनी, लेकिन उन्होंने कहा कि ये मंत्री न केवल अक्षम हैं, बल्कि इनकी शिकायतें भी हैं तथा इनमें से कुछ की वजह से बदनामी भी का़फी हुई है. दो घंटे बाद जब सोनिया गांधी प्रधानमंत्री आवास से निकलीं तो वह आश्वस्त नहीं थीं कि मनमोहन सिंह वही करेंगे या नहीं, जो वह चाहती हैं.

दरअसल सोनिया गांधी और राहुल गांधी चाहते थे कि कपिल सिब्बल, अंबिका सोनी और चिदंबरम के विभाग बदले जाएं. अंबिका सोनी से नाराज़गी इसलिए थी कि उनके सूचना प्रसारण मंत्री रहते हुए हर चैनल पर कांग्रेस की, सोनिया गांधी की आलोचना हो रही थी, जिसे वह संभाल नहीं पा रही थीं. सोनिया गांधी के महामंत्रियों को लगता है कि वह यह जानबूझ कर रही हैं. चिदंबरम से इसलिए, क्योंकि चिदंबरम ने देश में ऐसा माहौल बना दिया, मानो क़ानून व्यवस्था केंद्र का विषय है. उनके बयान भी ऐसे आए, जैसे नक्सल हों या अपराधी, आतंकवादी हों या जालसा़ज, सबसे उन्हें या कहें कि केंद्र सरकार को निबटना है. राहुल गांधी के सख्त हस्तक्षेप से चिदंबरम चुप हुए थे, वरना लोग भूल गए थे कि कानून व्यवस्था राज्य का विषय है.

सोनिया गांधी का मानना है कि शरद पवार तो महंगाई बढ़ाने वाले बयान देते हैं, वह ठीक है, क्योंकि उनकी प्रतिबद्धता कांग्रेस के साथ नहीं है, लेकिन अंबिका सोनी क्यों नहीं समझतीं और देश को समझातीं कि महंगाई रोकना राज्यों का विषय है. केंद्र के नियंत्रण में सिर्फ गेहूं, चावल, चीनी, यूरिया और पेट्रोल है, बाकी सब राज्यों के दायरे में है. मनमोहन सिंह से नारा़जगी की एक वजह सोनिया गांधी की शरद पवार भी हैं. उन्हें लगता है कि प्रधानमंत्री और प्रणव मुखर्जी जानबूझ कर शरद पवार को न नियंत्रित कर पा रहे हैं और न समझा पा रहे हैं.

अगले दिन यानी उन्नीस जनवरी को, जिस दिन विस्तार होना था, दस जनपथ में राहुल और अहमद पटेल आए तथा सोनिया गांधी से एक घंटे बात की. तीनों ने तय किया कि प्रधानमंत्री से कहा जाए कि वह वही करें, जो कांग्रेस अध्यक्ष चाहती हैं. अहमद पटेल ने बारह बजे प्रधानमंत्री को सूचित किया. हमारी जानकारी बताती है कि प्रधानमंत्री ने कहा कि हटाने वाले मंत्रियों में एक नाम ऐसे मंत्री का भी है, जो उस सूची में है, जिसे जर्मनी के ल़िख-टेन-श्टाइन बैंक ने भेजा है और जो सीलबंद ल़िफा़फे में सुप्रीम कोर्ट के पास है. एक मंत्री का नाम नीरा राडिया के साथ भी वैसे ही उछलने वाला है, जैसा ए. राजा का उछला था. प्रधानमंत्री से कहा गया कि सारा मसला बाद में देखेंगे. तब प्रधानमंत्री ने कहा कि वह विभाग अवश्य बदलेंगे. और इसी पर समझौता हुआ. प्रधानमंत्री ने जो बदलाव किया, उसने देश के सामने कांग्रेस को अजीब स्थिति में खड़ा कर दिया. अगर मंत्रियों को अक्षम होने की वजह से बदला गया तो वे नए विभाग में क्या कमाल दिखाएंगे, या तो उसे लूटेंगे या बर्बाद करेंगे और अगर वे सक्षम थे तो उन्हें बदला क्यों गया, क्योंकि उन्हें साल भर तो समझने में ही लग जाएगा. कांग्रेस के वरिष्ठ लोगों का कहना है कि जिन्हें राज्यमंत्री से मंत्री बनाया गया, उनमें वे हैं जिनके पास न वोट की ताक़त है और न उनके समाज की. श्रीप्रकाश जायसवाल को मंत्री बनाने से कांग्रेस को चुनाव में कोई फायदा नहीं होने वाला. सलमान खुर्शीद का प्रमोशन नहीं हुआ, बल्कि डिमोशन हुआ है. उनके पास से कंपनी मामले ले लिए गए और जल संसाधन दे दिया गया. सलमान खुर्शीद को लेकर राहुल गांधी से शिकायतें की गई थीं कि अल्पसंख्यक मामले ये देखते नहीं, कारपोरेट अफेयर में व्यस्त रहते हैं. राहुल ने यह बात सोनिया गांधी को बताई. अजय माकन को भी राहुल गांधी और सोनिया गांधी पसंद नहीं करते, पर उन्हें भी मंत्री बना दिया गया. विभाग ऐसा दिया गया, खेल, जिसमें अभी करने के लिए कुछ भी नहीं है.

राहुल गांधी ने बेनी प्रसाद वर्मा को कैबिनेट मंत्री बनाने की स़िफारिश की थी. प्रधानमंत्री ने मान भी लिया था, पर उन्हें शपथ दिलाई गई राज्य मंत्री की. एक घंटे के भीतर राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री से बात की और बेनी वर्मा को संकेत मिला कि उन्हें अप्रैल में मंत्री पद पर तरक्की दे दी जाएगी. श्रीकांत जेना को तरक्की न देने का उड़ीसा में बुरा संकेत गया है. कांग्रेस के लोगों का कहना है कि बेनी वर्मा को मंत्री न बनाने के पीछे प्रधानमंत्री ने एक संकेत राहुल गांधी को दिया कि वह सभी बातें नहीं मानेंगे तथा दूसरा बेनी वर्मा को कि आप अभी तो कांग्रेस में आए हैं. बेनी वर्मा के साथियों का कहना है कि कांग्रेस नासमझों की पार्टी है. शंकर सिंह बाघेला भाजपा से निकले, अपनी पार्टी बनाई और बाद में वह कांग्रेस में आए. आते ही उन्हें केंद्रीय मंत्री बना दिया गया और बाद में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष. इसी तरह राणे शिवसेना से आए, उन्हें मंत्रिमंडल में नंबर दो की जगह मिल गई. उनके बेटे को सांसद बना दिया. लेकिन बेनी वर्मा सारी जिंदगी सेक्युलर रहे, केंद्र में कैबिनेट मंत्री रहे और उन्हें अब जब कांग्रेस ने मंत्री बनाया तो राज्य मंत्री. कांगे्रस को यह भी नहीं समझ आया कि बेनी वर्मा के साथ उत्तर प्रदेश का महत्वपूर्ण पिछड़ा तबका कुर्मियों का है. राहुल गांधी और मनमोहन सिंह के अहम की लड़ाई में कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में अपना नुक़सान कर लिया, जहां चुनाव अगले साल होने वाले हैं.

सोनिया गांधी का मानना है कि शरद पवार तो महंगाई बढ़ाने वाले बयान देते हैं, वह ठीक है, क्योंकि उनकी प्रतिबद्धता कांग्रेस के साथ नहीं है, लेकिन अंबिका सोनी क्यों नहीं समझतीं और देश को समझातीं कि महंगाई रोकना राज्यों का विषय है. केंद्र के नियंत्रण में स़िर्फ गेहूं, चावल, चीनी, यूरिया और पेट्रोल है, बाक़ी सब राज्यों के दायरे में है. मनमोहन सिंह से नारा़जगी की एक वजह सोनिया गांधी की शरद पवार भी हैं. उन्हें लगता है कि प्रधानमंत्री और प्रणव मुखर्जी जानबूझ कर शरद पवार को न नियंत्रित कर पा रहे हैं और न समझा पा रहे हैं.

देश के लोगों जैसा आकलन कांग्रेस के लोगों का भी है. उनका मानना है कि अगर यह बदलाव नहीं होता तो ज्यादा अच्छा होता, क्योंकि तब प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष के बीच के मतभेद सामने नहीं आते और यह अति बुद्धिमानी भरा काम भी नहीं होता

इस विस्तार के अंतर्विरोध हैं. आरपीएन सिंह ने उत्तर प्रदेश में 18 हजार करोड़ की नई योजना सड़कों की बनाई, उन्हें हटाकर पेट्रोलियम भेज दिया और जितिन प्रसाद को भूतल परिवहन में. दोनों को समझने में ही छ: महीने लग जाएंगे. सीपी जोशी ने ग्रामीण विकास मंत्रालय के द्वारा मनरेगा का कोई फायदा नहीं उठाया, जबकि यह अकेली ऐसी योजना थी, जिसकी वजह से कांग्रेस हर प्रदेश में चुनाव जीत जाती. आज़ादी के बाद रोज़गार की इससे बड़ी योजना नहीं बनी थी, पर कांग्रेस इसका कोई फायदा न उठा पाई. अब इसका जिम्मा विलासराव देशमुख को दिया गया है, जो प्रधानमंत्री की उस लिस्ट में हैं, जिन्हें मंत्रिमंडल से हटाया जाना है.

सोनिया गांधी मुरली देवड़ा को पेट्रोलियम मंत्री के तौर पर ही चाहती थीं, लेकिन प्रधानमंत्री ने उन्हें हटाना प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया. उन्होंने विभाग बदला और जयपाल रेड्डी को पेट्रोलियम मंत्रालय दिया, जिनकी छवि ईमानदार मंत्री की है और जिनके बारे में आज तक अ़फवाह भी नहीं फैली है. कपिल सिब्बल सोनिया गांधी की पसंद नहीं हैं, लेकिन मनमोहन सिंह ने जैसे अंबिका सोनी के बारे में सोनिया की नहीं सुनी, वैसे ही सिब्बल के बारे में उनकी नहीं सुनी. राहुल गांधी और सोनिया गांधी चिदंबरम को भी पसंद नहीं कर रहे, पर मनमोहन सिंह उन्हें बनाए रखना चाहते हैं. अश्विनी कुमार को भी प्रधानमंत्री ने अपनी मर्ज़ी से राज्य मंत्री के रूप में शामिल किया है.

अब आपको बताते हैं कि किन्हें मंत्रिमंडल में शामिल होना था. इन सबकी आईबी क्लियरेंस प्रधानमंत्री ने मंगा ली थी. इनमें पहला नाम एम ए खान का है, जिन्हें तेलंगाना की वजह से मंत्रिमंडल में लिया जाना था. यह शिया समाज से ताल्लुक़ रखते हैं. दूसरा नाम परवे़ज हाशमी का है, जो कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव हैं, लेकिन जिन्हें राहुल गांधी ने मंत्रिमंडल में जाने नहीं दिया. परवे़ज राहुल गांधी के उत्तर प्रदेश ऑपरेशन में दिग्विजय सिंह के बाद दूसरे महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं. तीसरा नाम केशव राव का, चौथा नाम जयंती नटराजन और पांचवां नाम चरण दास महंत का है, जो छत्तीसगढ़ कांग्रेस के अध्यक्ष हैं.

देश के लोगों जैसा आकलन कांग्रेस के लोगों का भी है. उनका मानना है कि अगर यह बदलाव नहीं होता तो ज़्यादा अच्छा होता, क्योंकि तब प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष के बीच के मतभेद सामने नहीं आते और यह अति बुद्धिमानी भरा काम भी नहीं होता. इस विस्तार से न कोई असर पड़ा, कोई वोट कांग्रेस के साथ नहीं जुड़ा और जिससे वोट जुड़ता, बेनी प्रसाद वर्मा से, उसे बेइज़्ज़त किया. इतना ही नहीं, कमलनाथ, सीपी जोशी, कांति लाल भूरिया, मुरली देवड़ा, कुमारी शैलजा, अंबिका सोनी, चिदंबरम, अजय माकन ऐसे मंत्रियों के रूप में उभरे हैं, जिन पर दोनों में मतभेद हैं.

तो क्या राहुल गांधी का असर सरकार में है? इसका सीधा जवाब है कि नहीं. सरकार उन्हें अभी परिपक्व नहीं मानती और प्रधानमंत्री, प्रणव मुखर्जी, शरद पवार और चिदंबरम उन्हें किसी लायक नहीं समझते. लेकिन संगठन में राहुल गांधी असरदार हैं. पर राहुल गांधी को, कितने भी मतभेद हो जाएं, कोई प्रधानमंत्री बनाने को तैयार नहीं है. कांग्रेस का इसमें कोई रोल नहीं है. इन चारों के रिश्ते कांग्रेस के लोगों से ज्यादा सहयोगियों से हैं. कोई सहयोगी उन्हें प्रधानमंत्री मानने को तैयार नहीं है. इसलिए कह सकते हैं कि मनमोहन सिंह का कोई विकल्प कांग्रेस में नहीं है. प्रणब मुखर्जी को सोनिया गांधी नहीं चाहेंगी.

इस पूरी स्थिति ने कांग्रेस को राज्यों में हास्यास्पद स्थिति में ला दिया है. न प्रधानमंत्री को, न सोनिया गांधी को और न राहुल गांधी के पास समय है कि वे राज्यों के आने वाले चुनावों की रणनीति बनाएं. आंध्र, केरल, तमिलनाडु, पांडिचेरी, प. बंगाल, उत्तर प्रदेश, असम और गुजरात ऐसे राज्य हैं, जहां चुनाव होने वाले हैं. इनमें से किस राज्य में कांग्रेस जीत रही है, कोई नहीं कह सकता. आज की तारी़ख में न मनमोहन सिंह कह सकते हैं और न सोनिया गांधी. कांग्रेस के लोगों की यही सबसे बड़ी चिंता है.

मैं जिन लोगों पर भरोसा कर सकता हूं, उनका कहना है कि राहुल गांधी का भी यह मानना है कि अगले छ: महीने या ज़्यादा से ज़्यादा साल भर तक ही यह सरकार चल पाएगी. आंतरिक दबाव बहुत ज़्यादा है. महंगाई और भ्रष्टाचार दो बड़े मुद्दे हैं, जो कांग्रेस पार्टी को हर राज्य में बिहार की गति में ले जाएंगे. अगर एक के बाद एक राज्य हारे तो क्या होगा. और ल़िख-टेन-श्टाइन बैंक की सूची में अगर एक केंद्रीय मंत्री का नाम है तो सरकार का क्या होगा. पेट्रोल की क़ीमतों को सरकार ने बाज़ार के हवाले कर दिया. नतीजा यह है कि जब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कू्रड आयल की कीमत कम हुई तो उसके अनुपात में पेट्रोल की क़ीमतों में मामूली कमी हुई, लेकिन जब वहां थोड़ी बढ़त हुई तो यहां जमकर दाम बढ़े. राहुल का नौजवानों को साथ रखने का सपना दम तोड़ रहा है, क्योंकि अस्सी प्रतिशत नौजवान लड़के-लड़कियों के पास मोपेड और मोटर साइकिलें हैं. राहुल इसका ज़िम्मेदार सरकार में उन तत्वों को मानते हैं, जो उन्हें असफल करना चाहते हैं.

इस सारी जानकारी का सार यही है कि कांग्रेस बिना दिमाग़, बिना समझ, बिना सोच और बिना कल्पना शक्ति के अपनी नीतियां तय कर रही है और वैसा ही उसकी सरकार कर रही है. सरकार और कांग्रेस संगठन उस कहावत को उलटा साबित करने में लगे हैं कि खुदा गंजे को ना़खून नहीं देता, पर यहां तो गंजे को ना़खून भी दिए हैं और तेज़ ना़खून दिए हैं. हर फैसला लहूलुहान करने वाला बनता जा रहा है.

 

 


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