भारत के एक ताक़तवर मंत्री ने सीबीआई के डायरेक्टर को मिलने के लिए बुलाया. जब वे मिलने आए तो उस मंत्री ने चाय मंगवाई. जब चाय का पहला घूंट मंत्री और सीबीआई डायरेक्टर ने ले लिया तो मंत्री ने कुछ कहना चाहा. सीबीआई डायरेक्टर ने उन्हें रोकते हुए विनम्रता से कहा कि मंत्री जी, आपने बुलाया, मैं प्रोटोकाल के तहत आपसे मिलने चला आया. प्रोटोकाल कहता है कि जब भी कोई केंद्रीय मंत्री बुलाए, मुझे जाना चाहिए. पर अब जो भी आप मुझे कहेंगे या आदेश देंगे, उसे मुझे सुप्रीम कोर्ट को रिपोर्ट करना पड़ेगा. डायरेक्टर सीबीआई की बात सुनते ही उन केंद्रीय मंत्री के हाथ की प्याली कांप गई और चाय छलक गई.
भारतीय जनता पार्टी के सूत्र कुछ अदालतों का हवाला दे रहे हैं और कह रहे हैं कि विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज कुछ परेशानी में पड़ने वाली हैं. वे परेशानी में पड़ें या न पड़ें, पर मुंडे कांड भारतीय जनता पार्टी में चल रहे अंदरूनी झगड़ों को एक बार फिर बेनक़ाब कर गया है. इसी आपाधापी में अन्ना हजारे और बाबा रामदेव अपने-अपने को तौल रहे हैं. अन्ना हजारे उत्तर भारत में भ्रमण की योजना बना रहे हैं. उनकी यात्रा में कितने लोग इकट्ठे होते हैं, तय करेगा कि उनका और लोकपाल बिल का कितना आकर्षण बचा है. देश की राजनीति में एक तीसरी घटना और होने वाली है. नए सिरे से दलों के संबंध बनने और बिगड़ने वाले हैं. हमारी पुख्ता जानकारी के हिसाब से महाराष्ट्र में शिवसेना, दलित नेता रामदास अठावले और शरद पवार का गठजोड़ बनने वाला है. शरद पवार की तऱफ से यह प्रस्ताव शिवसेना के पास गया है कि शिवसेना भारतीय जनता पार्टी को छोड़े, उसके बाद शरद पवार कांग्रेस को छोड़ देंगे और ये तीनों मिलकर महाराष्ट्र में एक साथ कैंपेन करेंगे और सरकार बनाएंगे. अगर रामदास अठावले, शिवसेना और शरद पवार का गठजोड़ महाराष्ट्र में बनता है तो महाराष्ट्र का भविष्य आईने की तरह सा़फ है. फिर महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में नई सरकार बनेगी. राज ठाकरे को जितने वोट मिलने थे या जितना समर्थन मिलना था, वह पिछली बार मैक्सिमम मिल गया. अब राज ठाकरे को इससे ज़्यादा समर्थन नहीं मिलने वाला. यही सोचकर शरद पवार, उद्धव ठाकरे और रामदास अठावले तीनों मिलकर एक नए गठजोड़ के सूत्रपात की तैयारी कर रहे हैं, जो देश में बहुत बड़ा परिवर्तन भी ला सकता है. लेकिन इस हालत में और भ्रष्टाचार की नई खुलती कहानियों के बीच मध्य प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने मांग कर डाली है कि राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाना चाहिए. दो दिन बाद उन्होंने कहा कि उनका मतलब यह नहीं था कि मनमोहन सिंह को इस्ती़फा दे देना चाहिए. दिग्विजय सिंह की इस महत्वपूर्ण मांग के पीछे एक सोची-समझी रणनीति है.
सोनिया गांधी का कोर ग्रुप इस नतीजे पर पहुंचा है कि सरकार कोलैप्स की तऱफ बढ़ रही है. चिंता यह है कि जब विपक्ष कमज़ोर है, जनता में उसकी साख नहीं है, तब भी सरकार के कामकाज के तरीक़े की वजह से पार्टी साख खोती जा रही है.
देश को समझ लेना चाहिए कि कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस सरकार दो अलग-अलग चीज़ें हैं. इन दिनों दोनों आमने-सामने खड़ी हैं. कांग्रेस पार्टी में सोनिया गांधी सहित अहमद पटेल, मोती लाल वोरा, जनार्दन द्विवेदी और दिग्विजय सिंह इस नतीजे पर पहुंच गए हैं कि अगर ऐसा ही चलता रहा तो शायद कांग्रेस दोबारा सत्ता में नहीं आ पाएगी. इन दिनों कांग्रेस पार्टी के कोर ग्रुप में दिग्विजय सिंह डोमिनेट कर रहे हैं. अहमद पटेल और मोती लाल वोरा अक्सर ख़ामोश रहते हैं और दिग्विजय सिंह व जनार्दन द्विवेदी तार्किक बहस कर रणनीति बनाते हैं. यह अलग बात है कि बैठक के बाद अहमद पटेल और सोनिया गांधी की फिर बात होती है. मोतीलाल वोरा तभी अपनी राय देते हैं, जब सोनिया गांधी उनसे पूछती हैं. एक व्यक्ति और है, जिससे सोनिया गांधी राय लेती हैं, उनका नाम है पुलक चटर्जी.
दिग्विजय सिंह का मानना है कि किसी भी दल में इन दिनों एकता नहीं है, सभी आपस में लड़ रहे हैं और जनता उनसे ख़ुश नहीं है. यही सही व़क्त है कि देश की सरकार का नेतृत्व बदला जाए और राहुल गांधी के नेतृत्व में एक युवा सरकार बनाई जाए.
कांग्रेस सरकार के क्रियाकलाप, विपक्षी दलों में एक होने की छटपटाहट तथा अन्ना हजारे और रामदेव की संभावित रणनीति का मुक़ाबला करने की रणनीति दिग्विजय सिंह ने बनाई है. उनका मानना है कि किसी भी दल में इन दिनों एकता नहीं है. सभी आपस में लड़ रहे हैं और जनता उनसे ख़ुश नहीं है. इतना ही नहीं, किसी भी राजनीतिक दल में युवा नेतृत्व नहीं है और देश का नौजवान एक उपयुक्त नेता और उपयुक्त दल की तलाश में है. यही सही व़क्त है कि देश की सरकार का नेतृत्व बदला जाए और राहुल गांधी के नेतृत्व में एक युवा सरकार बनाई जाए. राहुल गांधी एक नया प्रोग्राम घोषित करें. संभवत: दिग्विजय सिंह के दिमाग़ में इंदिरा गांधी रही होंगी. इंदिरा गांधी ने पहले बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और बाद में ग़रीबी हटाओ का लुभावना नारा दिया था तथा देश में एक नई आशा पैदा की थी. अब दिग्विजय सिंह चाहते हैं कि पूरी कांग्रेस का कायाकल्प हो, इसकी शुरुआत दिल्ली की सरकार से हो.
राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने की संभावना से केवल विपक्षी दल ही हैरान नहीं हुए हैं, बल्कि कांग्रेस के भीतर भी भिनभिनाहट शुरू हो गई है. कांग्रेस के भीतर लगभग इस बात पर एक राय है कि लोकसभा का चुनाव उनके लिए टेढ़ी खीर साबित होने वाला है. हालांकि उन्हें इस बात से आराम भी मिलता है कि भाजपा का भी ग्राफ बन नहीं रहा है. पर कांग्रेस नेतृत्व उत्तर प्रदेश, गुजरात और आंध्र प्रदेश की गंभीरता को समझ रहा है. कर्नाटक में भी वह देवगौड़ा से नज़दीकी बनाना चाहता है, पर उसकी शुरुआत दिल्ली से हो, इस पर एक राय बन गई है. उत्तर प्रदेश के साथ दूसरे राज्यों में होने वाले चुनावों का सामना नए प्रधानमंत्री के चेहरे से हो, इस पर एक राय बन गई है. सोनिया गांधी इस पर ख़ामोश हैं, पर उन्हें भी लगता है कि दोबारा केंद्र में सरकार बनाने के लिए जो भी किया जा सकता है, करना चाहिए. एक और पेंच बीच में फंसा है. सुब्रमण्यम स्वामी पर राजनीतिक हलकों में भरोसा नहीं था, लेकिन वे टू जी मामले पर विश्वास में थे और उनके सतत प्रयास से इस मामले में ए राजा, कनीमोई सहित कई बड़े नाम तिहाड़ में हैं. ऐसा लगता है कि सीबीआई की पूरक एफआईआर में दो बड़े उद्योगपतियों के नाम भी आ सकते हैं. अब स्वामी कह रहे हैं कि टू जी की आंच टेढ़े ढंग से दस जनपथ तक पहुंच सकती है.
सुब्रमण्यम स्वामी पर राजनीतिक हलकों में भरोसा नहीं था, लेकिन वे टू जी मामले पर विश्वास में थे और उनके सतत प्रयास से इस मामले में ए राजा, कनीमोई सहित कई बड़े नाम तिहाड़ में हैं. अब स्वामी कह रहे हैं कि टू जी की आंच टेढ़े ढंग से दस जनपथ तक पहुंच सकती है.
ऐसे माहौल में राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की योजना मास्टर पीस योजना है. राहुल गांधी का राजनीतिक शिक्षण दिग्विजय सिंह कर रहे हैं. राहुल गांधी की परेशानी यह है कि हिंदुस्तान, हिंदुस्तान की समस्याएं, यहां के अंतर्विरोध और यहां के सामाजिक तनाव उनकी समझ में नहीं आ रहे. कभी उनका सामना ही ऐसे सवालों से नहीं हुआ. यहां के जातीय ढांचे, सामाजिक ढांचे का राजनीति पर प्रभाव तथा राजनीति पर वर्गों और जातियों के गठबंधनों के परिणामस्वरूप उसके बदलते चेहरे का सामना कभी राहुल गांधी ने किया ही नहीं है. उत्तर पूर्व की समस्याएं, कश्मीर, चीन का हमारे अर्थतंत्र पर हमला जैसे सवाल राहुल गांधी के दरवाज़े पर खड़े हैं. इतना ही नहीं, मुसलमानों की परेशानियां और हिंदुओं की भावनाओं का कैसे फंडामेंटलिस्ट इस्तेमाल करते हैं, इसे राहुल गांधी जानते ही नहीं हैं.
राहुल की एक समस्या और है, वे ज्ञान की जगह सूचनाओं द्वारा संचालित होते हैं. इसका अभी-अभी का उदाहरण है भट्टा पारसौल, जहां किसानों के बीच राहुल बैठे थे. उन्होंने दिल्ली आकर कहा कि बहुत से किसानों को उत्तर प्रदेश पुलिस ने मारकर जला दिया है. उस गांव का कोई आदमी ग़ायब नहीं है, कोई मारा नहीं गया. लेकिन जो व्यक्ति भारत के प्रधानमंत्री पद का संभावित दावेदार है, वह ऐसा बयान दे दे, तो उसे क्या कहेंगे. राहुल गांधी ने ऐसा बयान स़िर्फ छोटे कार्यकर्ताओं की अति उत्साही बचकानी सूचनाओं के आधार पर दिया. अगर उन्हें प्रधानमंत्री बनना है तो तथ्यों की जांच कर बोलने के बुनियादी सिद्धांत का पालन करना चाहिए.
सोनिया गांधी, अहमद पटेल, मोती लाल वोरा, जनार्दन द्विवेदी और दिग्विजय सिंह इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि अगर ऐसा चलता रहा तो शायद कांग्रेस दोबारा सत्ता में नहीं आ पाएगी. एक व्यक्ति और है, जिससे सोनिया गांधी राय लेती हैं, उनका नाम है पुलक चटर्जी.
राहुल गांधी के लिए आवश्यक है कि वे अपने परनाना पंडित जवाहर लाल नेहरू की कुछ किताबें अवश्य पढ़ें, जिनमें भारत एक खोज और पिता के पत्र पुत्री के नाम प्रमुख हैं. उन्हें महात्मा गांधी की हिंद स्वराज और कार्ल मॉर्क्स की कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो अवश्य पढ़नी चाहिए. हिंदुस्तान को समझने के लिए डॉ. राम मनोहर लोहिया का साहित्य पढ़ना उनके लिए आवश्यक है, जिसके बारे में जनार्दन द्विवेदी से ज़्यादा उन्हें आज और कौन बता सकता है. राहुल गांधी को ज्ञान और सूचना का फर्क़ समझना चाहिए. अगर नॉलेज ओरिएंटेड व्यक्ति नहीं होगा तो वह लॉजिक या तर्क आधारित होगा और उससे हमेशा ग़लतियां होंगी. तर्क या लॉजिक या सूचना को कसौटी पर कसने का काम नॉलेज या ज्ञान करता है. यही दिग्विजय सिंह की बड़ी कमज़ोरी और चुनौती भी है कि वे राहुल गांधी को कैसे इसके लिए तैयार करते हैं. आने वाला समय ख़तरनाक है. दिग्विजय सिंह राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने का फैसला तो कर सकते हैं, लेकिन सफल होने का रास्ता तो राहुल गांधी को ही तलाशना होगा. अगर राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनते हैं तो उन्हें इतिहास के सबसे असफल प्रधानमंत्री की उपाधि न मिल जाए, इस ख़तरे से बचने के उपाय अभी से तलाशने होंगे.
राहुल गांधी के ऊपर पार्टी के भीतर भी वार हो रहे हैं, लेकिन वे सीधे नहीं हैं. उनका निशाना केयर ऑफ दिग्विजय सिंह हैं. दिग्विजय सिंह पर भाजपा से ज़्यादा वार कांग्रेस के लोग कर रहे हैं. अभी हाल ही में दो घटनाएं हुईं. दिग्विजय सिंह के आज़मगढ़ आधारित अभियान को बर्बाद करने की कोशिश हुई. वहीं रामदेव के ख़िला़फ दिग्विजय सिंह की रणनीति का मखौल सबसे पहले कांग्रेस के एक शक्तिशाली गुट ने उड़ाया. उन्होंने सोनिया गांधी तक से कहा कि रामदेव के ख़िला़फ बोलने से दिग्विजय सिंह को रोकना चाहिए, लेकिन दिग्विजय सिंह ने राहुल गांधी और फिर सोनिया गांधी को समझा लिया कि रामदेव से राजनीतिक लड़ाई लड़नी चाहिए. आज कांग्रेस अधकचरी ही सही, पर एक राजनीतिक लड़ाई लड़ रही है.
राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की हालत सुधारना चाहते हैं और इसके लिए उन्होंने उम्मीदवार आधारित संगठन बनाने का फैसला लिया है. ज़िले के सारे विधानसभा उम्मीदवार बूथ स्तर तक की कमेटी बनाएंगे और इन्हीं पर आधारित ज़िला कमेटियां तथा बाद में प्रदेश कमेटी बनेगी. यह रणनीति दिग्विजय सिंह की है, जिसे राहुल गांधी के नाम से पार्टी में भेजा गया है. लेकिन दिग्विजय सिंह भूल जाते हैं कि जाति आधारित कोई संगठन कभी मज़बूत नहीं होता. सबसे बड़ा सवाल विचारधारा का है. कांग्रेस की विचारधारा है क्या, इसे कांग्रेस ही नहीं जानती. कांग्रेस के पास अब विचारधारात्मक किताबें नहीं हैं. विभिन्न सवालों पर राय बताने वाला साहित्य नहीं है. इसके लिए किसी के पास व़क्त ही नहीं है. दिग्विजय सिंह द्वारा उत्प्रेरित कांगे्रेस की राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की रणनीति में छोटी-मोटी कमियां हैं, जिन्हें कांग्रेस ठीक कर सकती है. वह राहुल गांधी को सामने रख विपक्षियों को उलझा सकती है, लेकिन ख़ुद कांग्रेस के भीतर पेंच है. काल्पनिक सवाल है कि क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस योजना का साथ देंगे. सोनिया गांधी का कोर ग्रुप उन्हें राष्ट्रपति बनाने के बारे में विचार कर रहा है.
अगर मनमोहन सिंह न माने, क्योंकि वे प्रधानमंत्री बन चुके हैं और यह भारत का सबसे ताक़तवर पद है. अगर उन्हें लगे कि जनता को साथ लेकर कुछ नया किया जा सकता है तो क्या होगा. ऐसी ख़बरें सरकारी अधिकारी बता रहे हैं कि मनमोहन सिंह ने अब सोनिया गांधी की, उनके कोर ग्रुप की बातें सुनना कम कर दिया है. इतना ही नहीं, जिन अधिकारियों के रिटायरमेंट में साल या दो साल रह गए हैं, उन्होंने तो काम करना ही बंद कर दिया है. एक तऱफ सोनिया गांधी का नाम लेकर काम करने का दबाव तो दूसरी तऱफ किसी अधिकारी का बचाव मनमोहन सिंह सरकार नहीं कर रही है. टेलीकॉम स्कैंडल में कई बड़े अधिकारी जेल में हैं, जबकि उनका दोष इतना ही है कि उन्होंने बड़े राजनीतिक लोगों की बात मान फाइलें क्लीयर कर दी थीं.
सोनिया गांधी का कोर ग्रुप इस नतीजे पर पहुंचा है कि उनकी सरकार कोलैप्स की तऱफ बढ़ रही है. उनकी चिंता है कि जब विपक्ष कमज़ोर है, जनता में उसकी साख नहीं है, तब भी सरकार के काम करने के तरीक़े की वजह से पार्टी साख खोती जा रही है. ऐसे में उड्डयन मंत्री रहते प्रफुल्ल पटेल का कोई बड़ा घोटाला सामने आ जाए या फिर तेल मंत्री मुरली देवड़ा का कोई कारनामा सामने आ जाए तो क्या होगा. संसद के आगामी सत्र के दौरान सीएजी की रिपोर्ट इन दोनों के ख़िला़फ आने वाली है. अन्ना हजारे का संभावित अनशन, उसके पहले उनका कई राज्यों का दौरा और अब सरकार के कई मंत्रियों का कच्चा चिट्ठा सामने आने का डर. इससे बचने का एक ही तरीक़ा है कि इंदिरा गांधी की तरह एक नया सपना देश को दिखाया जाए.
नया प्रधानमंत्री, नया चेहरा, नए वायदे और युवाओं को सत्ता में आने का आमंत्रण, इसके इर्द गिर्द रणनीति बनाई जा रही है. आशा की जा रही है कि इससे न केवल उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी प्रासंगिक हो जाएगी, बल्कि गुजरात में भी नई आशा कांग्रेस को लेकर पैदा होगी. पर इसके लिए राहुल गांधी को कालिदास की इमेज से बाहर निकलना होगा. अभी तो माना जा रहा है कि वे दिग्विजय सिंह की भाषा बोल रहे हैं. आपको कालिदास की कहानी याद होगी कि वे जिस डाल पर बैठे थे, उसी को काट रहे थे. विद्योत्तमा को हराने के लिए पंडितों ने उन्हीं को चुना. कांग्रेस का कोर ग्रुप विपक्ष को धराशायी करने के लिए जो रणनीति बना रहा है, वह सफल नहीं होगी, क्योंकि अब सैकड़ों साल बाद का ज़माना है.
अब जिसे प्रधानमंत्री बनना है, उसे योग्यता के आधार पर अपना दावा ठोंकना होगा. राहुल गांधी को देश के सवालों के जवाब खुलकर अख़बार वालों के माध्यम से देने होंगे. सवालों के जवाब और उन्हें देखने का तरीक़ा ही देश के लोगों के मन में उनके लिए समर्थन का निर्माण करेगा. चेहरा राहुल गांधी का और भाषा दिग्विजय सिंह की, यह अब ज़्यादा दिन नहीं चलने वाला है. आख़िर में फिर मनमोहन सिंह की बात बताना चाहता हूं. कॉमनवेल्थ गेम्स की जांच करने वाली शुंगलू कमेटी ने सुरेश कलमाडी के साथ दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पर फिर उंगली उठाई है. शुंगलू समिति की रिपोर्ट के अगले हिस्सों में कुछ ऐसे भी नाम हैं, जो सोनिया गांधी के लिए परेशानी पैदा कर सकते हैं. एक काल्पनिक सवाल है कि मनमोहन सिंह अगर प्रधानमंत्री पद छोड़कर भ्रष्टाचार का नाम लेकर देश में निकल पड़ते हैं तो देश का इतिहास बदल जाएगा. वे महापुरुष बन जाएंगे. उनका नाम नेहरू के समकक्ष लिया जाएगा. पर मनमोहन सिंह ऐसा करेंगे नहीं, क्योंकि वे ही हैं, जिन्होंने देश में अमेरिकन हितों को भरपूर बढ़ावा भी दिया और देश को अघोषित ग़ुलामी की हालत में पहुंचा दिया है. पर राजनीति एक ऐसी चीज़ है, जिसमें तार्किक परिणति के लिए बहुत कम जगह होती है. राहुल गांधी का प्रधानमंत्री बनना और मनमोहन सिंह के लिए भ्रष्टाचार के विरोध में आंदोलन करना ऐसे ही सवाल हैं. यह अलग बात है कि मनमोहन सिंह देश के ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं, जो हमेशा लोकसभा का चुनाव हारे और राज्यसभा में रहते हुए उन्होंने अपना मंत्री पद का पूरा कार्यकाल काट दिया. उन्होंने इच्छा भी व्यक्त नहीं की कि वे लोकसभा का चुनाव लड़ें. जबकि इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी थीं तो वे राज्यसभा में आई थीं, लेकिन उन्होंने बहुत जल्दी राज्यसभा से इस्ती़फा देकर लोकसभा का चुनाव लड़ा. और आदर्श स्थिति यह है कि देश का प्रधानमंत्री लोगों के द्वारा चुने जाने योग्य या उनका भरोसा पाने योग्य कोई व्यक्ति होना चाहिए.
एक नया संकट देश के सामने खड़ा होने वाला है. भारत के थल सेनाध्यक्ष जनरल वी के सिंह के जन्मदिन का विवाद सरकार हल नहीं करना चाहती. भारत के सुप्रीम कोर्ट के तीन भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश चीफ जस्टिस खन्ना, चीफ जस्टिस लहोटी और चीफ जस्टिस जे एस वर्मा ने अपनी लिखित राय जनरल वी के सिंह के पक्ष में दी है. नीरा राडिया के संपर्क में रहे भारत के एटार्नी जनरल वाहनवती ने जनरल वी के सिंह के ख़िला़फ राय दी है. जनरल वी के सिंह की उम्र क्या है, यह विवाद तब उठा है, जब वे रिटायरमेंट के नज़दीक हैं. इस विवाद को बढ़ाने में सेना के दूसरे नंबर के जनरल और ख़ुद प्रधानमंत्री निवास में रहने वाली एक महिला हैं. जनरल वी के सिंह के पक्ष में यदि निर्णय नहीं होता है तो उन्हें मजबूरन अपने को सच साबित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट जाना पड़ेगा. माना जा रहा है कि यह देश का पहला ऐसा मामला होगा और सुप्रीम कोर्ट के ़फैसले के बाद सरकार को शर्मिंदगी झेलनी पड़ सकती है. तकनीकी तौर पर भारत की राष्ट्रपति सर्वोच्च सेनाध्यक्ष हैं और फैसला उन्हें ही लेना है. भारत की सरकार कैसे समस्याएं पैदा करती है और उन्हें बढ़ाती है, सेनाध्यक्ष की उम्र का सवाल इसका जीवित उदाहरण है.
पर ऐसे सवालों से राहुल गांधी को दो-चार तो होना ही पड़ेगा, अगर कांग्रेस उन्हें प्रधानमंत्री बनाने के लिए संसदीय दल का नेता चुन लेती है तो. कांग्रेस संसदीय दल में अगस्त से शुरू होने वाले सत्र में एक बड़ा हस्ताक्षर अभियान भी चलाया जाने वाला है, जिसमें राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने वाले सांसदों के दस्तख़त होंगे. अगर दो सौ दस्तख़त हो जाते हैं तो मनमोहन सिंह के सामने क्या रास्ता रह जाएगा, यह सवाल आज भी खड़ा है, कल भी खड़ा रहेगा.