महिला बिल और नीतीश

jab-top-mukabil-ho1महिला आरक्षण विधेयक ने भारतीय राजनीति में कुछ सफाई तो की है. इसमें पहली यह कि विधेयक बनाने वाला शख्स सबसे महत्वपूर्ण होता है उसे पढ़ने वाला नहीं, क्योंकि कोई उसे पढ़ता ही नहीं है. महिला सीटें आरक्षित होंगी लेकिन फ्लोटिंग होंगी. इसका मतलब किसी भी चुनाव में जीती महिला सांसद अपनी जनता के प्रति जवाबदेह होगी ही नहीं, क्योंकि उसे पता है कि उसे वहां से दोबारा लड़ना ही नहीं है. कैबिनेट ने इसे पढ़ा या नहीं, और अगर पढ़ा तो इसे कैबिनेट की समझ की बलिहारी माननी चाहिए.

लोग मानते हैं कि बिहार में भाजपा की नहीं, नीतीश कुमार की सरकार है. अगर शरद यादव या ललन सिंह के साथ रहने से उनकी पार्टी टूट जाती है, तो नीतीश को कोई घाटा नहीं होने वाला. नीतीश कुमार के साथियों का मानना है कि अगर लालू यादव व रामविलास पासवान मिलकर चुनाव लड़ते हैं और कहीं उनका कांग्रेस से समझौता हो जाता है, तो नीतीश कुमार अपने अकेले दम पर सरकार बना लेंगे

इस बिल ने पार्टियों की तानाशाही भी जग ज़ाहिर कर दी. कम से कम भाजपा और कांग्रेस के सांसदों की दो तिहाई से ज़्यादा संख्या इस बिल के ख़िला़फ है. लेकिन दोनों दलों का नेतृत्व उनकी बात ही नहीं सुन रहा. सांसदों का विरोध महिलाओं की हिस्सेदारी को लेकर नहीं है बल्कि उनका कहना है कि गणेश की मूर्ति बनाते बनाते वे बंदर की मूर्ति बना रहे हैं. इंपावरमेंट या सशक्तीकरण के लिए संसद में भेजना अपरिपक्वता है, पहले उन्हें रोज़गार सहित हर स्तर पर तैंतीस प्रतिशत की हिस्सेदारी देने का क़ानून बनाना चाहिए. किसी और दल में फूट इतनी ज़्यादा सतह पर नहीं आई, जितनी जनता दल (यू) में आ गई है. नीतीश कुमार बिल का समर्थन कर रहे हैं जब कि शरद यादव जी जान से विरोध. नीतीश के सामने बिहार का चुनाव है और बिहार में उन्होंने यह संदेश पहुंचा दिया है कि वे ऊंची जातियों के हित का ध्यान भी रख सकते हैं. अभी तक नीतीश के ख़िला़फ ऊंची जातियों का विरोध ही सामने आया है. भूमिहार और राजपूतों के नेता नीतीश कुमार से अलग हटने के रास्ते तलाशते दिखाई दे रहे हैं. लालू यादव के ख़िला़फ लड़ाई पी.के.शाही ने लड़ी तथा नाम उन्होंने राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह का रखा. दोनों ही भूमिहार हैं, और पी.के.शाही अभी एडवोकेट जनरल हैं. शुरू में नीतीश कुमार ने भूमिहारों को बहुत बढ़ावा दिया. अभयानंद एडीजी एडमिनिस्ट्रेशन थे. उन्होंने कुछ अपराधी कर्मियों को पकड़ा. इस पर अभयानंद को एडीजी, बिहार मिलिट्री पुलिस बना दिया. बिहार में इस पोस्ट को शंटिंग पोस्ट कहते हैं. अभयानंद को बिहार में सा़फ सुथरा चुनाव कराने का श्रेय जाता है, तथा लोग चाहते थे कि इन्हें डी.जी. बनाया जाए. अभयानंद की तस्वीर सा़फ सुथरी तो है ही, इनका नाम सुपर 30 चलाने वाली संस्था के जनक के रूप में भी जाना जाता है, जिसका आईआईटी में परिणाम सौ प्रतिशत रहा है. सुप्रीम कोर्ट में बिहार के स्टैंडिंग काउंसिल गोपाल सिंह हैं, इनके पिता कांग्रेस से सांसद थे. ये भी भूमिहार हैं. भूमिहारों को तरजीह देते देख नीतीश से कुर्मी नाराज़ होने लगे. कुछ परिस्थितियां और कुछ नीतीश कुमार के काम करने का ढंग, ललन सिंह और उनमें दूरियां बढ़ीं. भूमिहारों को लगा कि पहले अभियान में ललन सिंह को नीतीश कुमार ने किनारे डाला, जब कि उस समय ललन सिंह बिहार जदयू के अध्यक्ष थे. भूमिहार नेताओं का कहना है कि ललन सिंह बिहार में झारखंड नेता के रुप में उभर रहे थे तथा मुंगेर में उनकी ज़बरदस्त जीत इसी वजह से हुई. प्रभुनाथ सिंह राजपूत हैं और उनकी भी दूरी नीतीश से बढ़ गई है. भूमिहार नेताओं का कहना है कि ललन सिंह का झारखंड नेता के रुप में उभरना नीतीश को ख़तरनाक लगा, क्योंकि वे नहीं चाहते कि कोई और भी दिखाई देने लगे. यह अलग बात है कि बिहार में डीजीपी भूमिहार हैं पर उनकी अहमियत नहीं है. अकेले त्रिपुरारी शरण हैं, जो प्रिंसिपल सेक्रेट्री फूड हैं और नीतीश कुमार के काफी नज़दीक हैं. त्रिपुरारी शरण दमदार अफसर माने जाते हैं. एक और भूमिहार है राजेश रंजन, जो आई जी हेडक्वार्टर हैं. इन्होंने ही हरियाणा के एपीएस राठौर को सीबीआई की मदद दिलवाई थी. बिहार में कांग्रेस भूमिहारों को अपनी ड्राइविंग फोर्स के रूप में देख रही है. अनिल शर्मा कांग्रेस अध्यक्ष हैं, और भूमिहार समाज से आते हैं. कांग्रेस भूमिहारों को साथ लेना चाहती है. उधर ललन सिंह दस सांसदों के साथ हैं. उनके दोस्तों का कहना है कि अगर ममता से कांग्रेस का नाता टूटता है तो वे चौदह सांसदों के साथ कांग्रेस का समर्थन करेंगे, बशर्ते उन्हें रेल मंत्रालय मिले. ललन सिंह संसद के सेंट्रल हाल में खुले आम कांग्रेस महासिचव दिग्विजय सिंह से मिलते हैं और बिहार में क्या करना है इस पर बात करते दिखाई देते हैं. कांग्रेस की बिहार में परेशानी यह है कि उसके पास कोई कद्दावर नेता नहीं है. कांग्रेस को मिलने वाला संपादित समर्थन यहीं रुक जाता है. जगदीश टाइटलर कांग्रेस को कोई शक्ल देने में कामयाब नहीं हो पाए हैं. यहीं इस महिला बिल ने नीतीश कुमार के सामने संभावनाओं के दरवाज़े खोल दिए हैं. लोग मानते हैं कि बिहार में भाजपा की नहीं, नीतीश कुमार की सरकार है. अगर शरद यादव या ललन सिंह के साथ रहने से उनकी पार्टी टूट जाती है, तो नीतीश को कोई घाटा नहीं होने वाला. नीतीश कुमार के साथियों का मानना है कि अगर लालू यादव व रामविलास पासवान मिलकर चुनाव लड़ते हैं और कहीं उनका कांग्रेस से समझौता हो जाता है, तो नीतीश कुमार अपने अकेले दम पर सरकार बना लेंगे. एक बड़ी वजह वे गिनाते हैं कि लालू यादव को सत्ता में आने की संभावना ही बिहार के अगड़ों को डरा देती है. इसलिए वे चाहें या न चाहें, उनका वोट नीतीश कुमार के पक्ष में ही जाएगा. नीतीश कुमार ने बिहार में महिलाओं के लिए पचास प्रतिशत आरक्षण पंचायतों में किया है तथा ऐसी तस्वीर बनाई है कि वे ही विकास की गति बनाए रख सकते हैं. अगर उनसे कुछ सांसद टूटते भी हैं तो नीतीश को इसका फायदा एक बड़े वोट के चंक के रुप में मिलेगा. अगर यह संभावना सच हो जाती है कि बिहार में कुछ महीनों पहले चुनाव हो सकता है तो फिलहाल लड़ाई मुस्लिम वोटों को लेकर होगी. लालू यादव पुराना मुस्लिम यादव समीकरण खड़ा करना चाहेंगे जिसमें पासवान दलितों को जोड़ेंगे और नीतीश कुमार मुसलमान वोटों में सेंध लगाना चाहेंगे. महिला आरक्षण विधेयक सभी दलों में सांसदों के मतभेद को तो ज़ाहिर कर ही गया, पर जदयू की दूर की सा़फ सा़फ झलक भी दिखा गया है. पर यह टूट नीतीश के लिए संभावनाओं के नए कितने द्वार खोलती है, यह देखना दिलचस्प होगा.


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