लोकतंत्र के लिए लडा़ई खुद लड़नी चाहिए

jab-top-mukabil-ho1हम लोग या हिंदुस्तान के लोग भूल गए हैं कि पश्चिम एशिया में, लीबिया में लड़ाई चल रही है. यमन में जनता सड़कों पर है. सीरिया में लोग बशर अराफात का विरोध कर रहे हैं और साथ ही साथ जहां से यह कहानी शुरू हुई थी यानी मिस्र, वहां भी तहरीर चौक पर लोग डटे हुए हैं और उनका कहना है कि सेना को सत्ता छोड़नी चाहिए और चुनाव कराने चाहिए. पर इस सारी चीज़ में सबसे ज़्यादा नुक़सान किसका हुआ. सबसे ज़्यादा नुकसान लीबिया के लोगों का हुआ और लीबिया को लेकर ही हमें ज़्यादा संवेदनशील होने की ज़रूरत है. लीबिया के ऊपर अचानक हमला अमेरिका ने किया और उन दिनों ओबामा साहब, हिलेरी क्लिंटन और रॉबर्ट गेट्‌स, जो वहां के रक्षा मंत्री हैं, लगातार टीवी पर आकर, आंखों में गुस्सा भरके, बाहें उठाकर ग़द्दा़फी को तबाह करने की धमकियां दे रहे थे और उनका कहना था कि ग़द्दा़फी के पास कोई समर्थन नहीं है. अमेरिका को लगता था कि उसके विमान बम बरसाएंगे, हमले करेंगे और ग़द्दा़फी या तो स्वयं सत्ता छोड़ देंगे या ग़द्दा़फी के लोग इस डर से कि अमेरिका सामने आ गया है और इराक़, अ़फग़ानिस्तान को सामने रखते हुए उन पर दबाव डालेंगे कि वह सत्ता छोड़ दें, पर ऐसा हुआ नहीं. अमेरिका में अगले साल राष्ट्रपति के चुनाव हैं. ओबामा साहब दोबारा चुनाव लड़ना चाहते हैं.

ओबामा साहब को लोगों ने कहा कि आपने जो क़दम उठाया है, वह ग़लत क़दम है. दरअसल, अमेरिका में ओबामा के ऊपर दो तरह के दबाव पड़े. एक तो यह कि यह ग़लत क़दम है, दूसरा उनसे कहा गया कि आप वहां पर अपनी सेना को इस ल़डाई में इनवॉल्व कीजिए, क्योंकि जब तक ज़मीन के ऊपर ग़द्दा़फी का शासन ख़त्म नहीं होता, तब तक आसमान से बम बरसाने से कुछ नहीं होगा. अमेरिका से ज़्यादा होशियार और स्मार्ट ग़द्दा़फी नज़र आए. उन्होंने अपनी सेना जहां-जहां लोगों के पास तैनात थी, वहां से हटा दी. उनकी वायुसेना की कमर तो पहले अमेरिकी बमवर्षकों, फिर नाटो की बमबारी ने तोड़ दी, लेकिन उनकी अपनी फौज उनके प्रति व़फादार बनी रही. लीबिया में 50 हज़ार की सेना है, जिसमें दस हज़ार वे लोग हैं जो लीबिया के लिए या कहें कि ग़द्दा़फी के लिए हर क्षण अपनी जान हथेली पर लिए घूमते रहते हैं. बुश ने जो लड़ाई इराक़ में लड़ी थी, उसको लोग भूले नहीं थे. और सीनियर बुश का एक किस्सा लोगों को याद है कि जब इराक़ ने कुवैत के ऊपर हमला किया था, तब सीनियर बुश ने कुवैत को छुड़ाने के लिए अपनी सेना भेज दी. कुवैत की आज़ादी के साथ ही दक्षिणी इराक़ में लोगों का विद्रोह सद्दाम हुसैन के खिला़फ भड़क गया और लोगों को लगा कि अब अमेरिका साथ है तो हम क्यों न सद्दाम को सत्ता से बेद़खल कर दें. पर सीनियर बुश ने कुवैत को आज़ाद कराने के साथ ही साथ उन लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया. नतीजा यह हुआ कि सद्दाम हुसैन ने दक्षिणी इराक़ के लोगों का बेरहमी से दमन किया. उसी तरह इस बार ओबामा साहब ने किया. जो विद्रोह ग़द्दा़फी के खिला़फ खड़ा हुआ और जिस तरह से लोग, अनट्रेंड लोग, स़िर्फ जोश से भरे हुए लोग ग़द्दा़फी के खिला़फ खड़े हुए, दरअसल वे विभिन्न कबीलों के थे, जो क़द्दा़फ कबीलों के खिला़फ खड़े रहे हैं, वे लोग आगे आए और उन्होंने पारंपरिक वाहनों के ऊपर हथियार लगाए. ऐसे हथियार, जो उन्हें आसानी से उपलब्ध हो गए, उससे उन्होंने लड़ाई लड़ने की कोशिश की. उन लोगों को लगा कि अमेरिकी बमवर्षक ऐसे हालात पैदा कर देंगे कि वे आसानी के साथ त्रिपोली पर क़ब्ज़ा कर लेंगे. पर त्रिपोली तो दूर, वे मेश्रातो और बेनगाजी पर भी क़ब्ज़ा नहीं कर पाए. वहां थोड़े दिनों के लिए क़ब्ज़ा हुआ, लेकिन बाद में ग़द्दा़फी की फौजों ने दोनों जगहों से विद्रोहियों को पीछे खदेड़ दिया.

ओबामा साहब को लोगों ने कहा कि आपने जो क़दम उठाया है, वह गलत कदम है. दरअसल, अमेरिका में ओबामा के ऊपर दो तरह के दबाव पड़े. एक तो यह कि यह ग़लत क़दम है, दूसरा उनसे कहा गया कि आप वहां पर अपनी सेना को इस ल़डाई में इनवॉल्व कीजिए, क्योंकि जब तक ज़मीन के ऊपर ग़द्दा़फी का शासन ख़त्म नहीं होता, तब तक आसमान से बम बरसाने से कुछ नहीं होगा. अमेरिका से ज़्यादा होशियार और स्मार्ट ग़द्दा़फी नज़र आए. उन्होंने अपनी सेना जहां-जहां लोगों के पास तैनात थी, वहां से हटा दी.

इस बीच अमेरिका ने तय किया कि वह लीबिया से अपने हाथ खींच लेगा और उसने इस सारी लड़ाई को नाटो के ऊपर छोड़ दिया. दरअसल, नाटो का मतलब इस लड़ाई में सबसे ज़्यादा फ्रांस का था. फ्रांस चाहता था कि वह दुनिया के भीतर अपनी ऐसी साख बनाए, जो साख आज तक उसकी थी नहीं. ब्रिटेन ने उसका साथ दिया. दोनों के दबाव में अमेरिका ने वहां बमबारी शुरू की, लेकिन जब अमेरिका ने देखा कि दोनों उसका साथ पूरी तौर पर नहीं दे रहे हैं और इस लड़ाई की वजह से ओबामा को अगले साल होने वाले चुनाव में फायदे की जगह नुक़सान होगा तो वह पीछे हट गया. मैं यहां यह भी बता दूं कि अमेरिकियों के ऊपर 40 मिलियन डॉलर हर महीने का एक्सट्रा टैक्स लीबिया की लड़ाई की वजह से लगने की संभावना पैदा हो गई थी और इसका अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के ऊपर बहुत बुरा असर होता. हिलेरी क्लिंटन गईं और उन्होंने इस लड़ाई को नाटो को लड़ने के लिए दे दिया. ब्रिटेन और फ्रांस के लिए यह सुनहरा मौक़ा था कि वे वहां जाएं, गद्दाफी को हटाएं और वहां तेल की संपत्ति पर अपना क़ब्ज़ा कर लें. अमेरिका ने अपना हित बता दिया कि उसको लीबिया के तेल में कोई दिलचस्पी नहीं है. फ्रांस और ब्रिटेन को थी. मज़े की बात यह है कि एक तरफ बात चल रही थी और उसी समय लीबिया के विदेश मंत्री ग्रीस के ज़रिए धीरे से ब्रिटेन पहुंच गए. ब्रिटेन पहुंचते ही ऐसा लगा कि एक बड़ा क्रैक हुआ, लेकिन ग़द्दा़फी के खिला़फ वह क्रैक हुआ नहीं, बस मिसफायर होकर रह गया. नाटो की सेना ने हमले धीमे कर दिए और यह बहाना लिया कि वहां मौसम इतना खराब है कि हम हमले नहीं कर सकते.

दरअसल, लीबिया में नाटो और अमेरिकन सेनाओं को पता चल गया कि सच्चाई उसके कहीं विपरीत है, जैसी उनके पास जानकारी थी. अगर कहें तो कह सकते हैं कि कोई ग्राउंड इन्फॉरमेशन इन फोर्सेज के पास थी ही नहीं. अब यहां पर सीआईए घुसा. सीआईए ने कमान संभाली इन्फॉरमेशन की, ट्रेनिंग देने की, खासकर विद्रोहियों को, क्योंकि वे बिल्कुल अनट्रेंड थे. उनको हथियार चलाने ही नहीं आते थे. पांच बड़े जहाज भरकर अमेरिका से हथियार भेजे गए, लेकिन वे विद्रोहियों के किसी काम ही नहीं आए. उनको हथियारों की ट्रेनिंग देना सीआईए ने शुरू किया. और सीआईए ने सोचा कि वह इनमें कुछ ऐसे लोग तलाश लेगा, ग़द्दा़फी के आसपास के रिश्तेदारों में, जो उनकी हत्या कर सकें. इस सारी चीज में एक चीज कहीं ग़ायब हो गई और वह थी आज़ादी की बात. ब्रिटेन और फ्रांस ने ग़द्दा़फी के साथ सुलह की कोशिशें तेज़ कर दीं. अमेरिका ने एक रोड मैप बनाया किवह लीबिया को डिवाइड कर दे, बेनगाजी को राजधानी बनाकर विद्रोहियों के हाथ में सौंप दे. उधर सीरिया में, चूंकि वहां के राष्ट्रपति बशर अल असद शिया हैं, वहां सुन्नियों ने उनके खिला़फ हंगामा शुरू किया. कांट्राडिक्शन यह है कि बशर अल असद और उनके रिश्तेदार, उनके बेटे, उनके भतीजे काउंटर टेररिज्म की लड़ाई में अमेरिका का साथ दे रहे हैं. यमन, जॉर्डन इन सब में लोग तो विरोध में हैं. यहां के शासक उनका सामना भी कर रहे हैं. और सबसे बुरी बात जो इस सारे दौर में हुई कि सऊदी अरब ने अपनी सेना बहरीन में भेज दी. सेना को बहरीन में भेज करके उसने वहां क़रीब 300 लोगों का कत्लेआम कर दिया, जो विरोध कर रहे थे. इस मसले को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ में, अमेरिका के कई शहरों में प्रदर्शन हुए, लेकिन उन प्रदर्शनों को न टेलीविज़न पर दिखाया गया और न अ़खबारों में ख़बरें आईं.

अमेरिका में अभी भी प्रदर्शन हो रहे हैं. बाकी जगहों की ख़बरें आ रही हैं, लेकिन बहरीन को लेकर कोई खबर नहीं आ रही है. यह सारी स्थिति बताती है कि अगर आप अपनी आज़ादी के लिए अमेरिका के ऊपर भरोसा करना चाहते हैं तो वह भरोसा पूरी तरह नहीं करना चाहिए. यद्यपि इसमें कोई दो राय नहीं है कि लोकतंत्र को अमेरिका अपना आविष्कार मानता है और दूसरे शब्दों में वह कहता है कि लोकतंत्र हमारा बच्चा है और वह चाहता है कि सारी दुनिया में लोकतंत्र रहे. लेकिन लोकतंत्र उसी तरह से रहे, जिसका ़फायदा अमेरिका को हो. जिसका फायदा अमेरिका को न हो, वहां लोकतंत्र रहे या न रहे, उससे अमेरिका को कोई फर्क़ नहीं पड़ता. सूडान में तीन लाख से ज़्यादा लोग मारे गए, अमेरिका के माथे पर शिकन नहीं आई. सोमालिया में क़त्लेआम हो रहे हैं, अमेरिका के माथे पर कोई शिकन नहीं है. आएवरी कोस्ट में भी तीन लाख से ज़्यादा लोग मारे गए. संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के ख़िला़फ वहां पर राष्ट्रपति सत्ता में बने रहे पिछले कुछ महीने से, लेकिन अमेरिका के माथे पर कोई शिकन नहीं आई, क्योंकि अमेरिका का वहां कोई इंटरेस्ट नहीं था. वहां लोकतंत्र मरता रहा, लेकिन अमेरिका को चिंता नहीं हुई. लीबिया में, यमन में, सीरिया में, मिस्र में जनता का उभार आया. उस जनता के उभार को जितना समर्थन देना चाहिए था, उतना समर्थन अमेरिका ने नहीं दिया. लेकिन इन देशों के लोगों को लगा कि उन्हें अमेरिका से समर्थन मिलेगा और वे सड़क पर खड़े हो गए. बाक़ी जगहों पर लोग अभी पशोपेश में हैं कि वे क्या करें. लेकिन लीबिया में तो एक बड़े हिस्से के सामने अपनी जान गंवाने का और जान गंवाने के लिए तैयार रहने की धमकियों का सिलसिला शुरू हो गया है. ग़द्दा़फी ने कहा है कि बेनगाजी के लोगों को क़त्लेआम का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि उन्होंने बग़ावत की है. बेनगाजी के लिए लड़ने वाले लोग, जिनका बहाना सबसे पहले अमेरिका ने हमला करने के लिए लिया, उन्हें अमेरिका ने खुला छोड़ दिया. यह अ़फसोस की बात है कि हिंदुस्तान, ब्राजील, चीन और सबसे बड़ा अफ्रीकी महासंघ, इन सब लोगों ने इस लड़ाई का विरोध किया और वह लड़ाई अभी भी वहां चल रही है. उससे भी बड़ा अ़फसोस कि हिंदुस्तान के अख़बारों में अब लीबिया या पश्चिमी एशिया की खबरें न के बराबर आ रही हैं. सारी दुनिया में लोकतंत्र के लिए आवाज़ उठाने वालों को अपनी जान देनी पड़ती है, इसका सबूत बहरीन, लीबिया, यमन, सीरिया हैं. इससे बड़ा सबूत क्या होगा? इसलिए अगर लोकतंत्र के लिए आवाज़ उठानी है तो अपने दम पर उठानी चाहिए, किसी बाहर की शक्ति के भरोसे अगर कोई आवाज़ उठाए तो उसे निराशा का सामना करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए.


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