[लखनऊ से दिल्ली आने वाली शताब्दी में एक रिटायर्ड फौजी अफसर और सहयात्रियों में देश की स्थिति पर बहस हो रही थी. फौजी अफसर की बातों में गुस्सा और व्यवस्था से ऩफरत थी. सहयात्रियों ने कहा कि अगर आप लोग सत्ता में आते हैं, तो क्या आप खाएंगे पिएंगे नहीं? उस फौजी अफसर ने तत्काल कहा कि ज़रूर खाएंगे और पिएंगे. पर हम मुर्गा खाएंगे, देश का पैसा और नौजवानों का भविष्य नहीं खाएंगे, हम व्हिस्की पिएंगे लेकिन आम जनता का खून नहीं पिएंगे. लोग सन्न थे और धीरे-धीरे सभी उस अफसर की भाषा बोलने लगे.]
लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी देश के लोगों का संसदीय व्यवस्था से भरोसा उठता जा रहा है. हमें ऐसे लोग अब बड़ी संख्या में मिल रहे हैं, जो कहते हैं कि इस आज़ादी से तो ग़ुलामी अच्छी थी. भारतीय लोकतंत्र के भीतर ऐसी निराशा की भावना का पैदा होना उनके भीतर डर पैदा कर रहा है, जिन्हें लोकतांत्रिक व्यवस्था सबसे अच्छी लगती है. राजनैतिक दलों के लिए यह शर्म की बात है कि उनके कारनामों के नतीजे लोगों में लोकतंत्र के प्रति अनास्था पैदा करें. विभिन्न वर्ग अगर अपनी समस्याओं का हल लोकतांत्रिक व्यवस्था में न देखें, तो इसके जिम्मेदार वे हैं, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था चलाते हैं. विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का मिला-जुला नाम लोकतंत्र है और आज तीनों पर से देश की जनता का विश्वास उठता जा रहा है. ये तीनों अंग देश में समस्या सुलझाने की जगह उसे बढ़ा रहे हैं. ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है, जो यह मानते हैं कि उनकी समस्याएं लोकतांत्रिक ढांचे में रह कर सुलझ ही नहीं सकती. लोगों की समस्याएं कार, अट्टालिकाएं या नए ब्रांड के सामानों का उपलब्ध न होना नहीं है, बल्कि समस्याएं बेरोज़गारी, बीमारी, शिक्षा, रोटी और मौत है. आज हमारा लोकतंत्र इन्हीं पर सबसे कम ध्यान दे रहा है. लोकसभा या राज्यसभा में स्वास्थ्य, शिक्षा, बेरोज़गारी और मंहगाई जैसे सवालों पर बहस ही नहीं होती. जब इन पर पैसे खर्च करने के लिए बजट पेश होता है, तो संसद खाली पड़ी रहती है. कई बार तो कोरम लायक सांसद भी नहीं होते. चूंकि लोकसभा या राज्यसभा का डर नहीं है, तो सरकार के लिए भी यह विषय प्राथमिकता में नहीं है. और यही स्थिति लोगों में लोकतंत्र के प्रति आस्था बढ़ा रही है. अब दलों की विचारधारा का अंतर भी हमें नहीं दिखाई देता. नब्बे के बाद का राजनैतिक नक्शा इसीलिए निराशा का कारण बन रहा है, क्योंकि केवल नाम बदलिए, नारे वही मिलेंगे. राजनैतिक दलों के सामने दिल्ली की सत्ता पर कब्जा करना तो लक्ष्य है, पर देश कैसे बचा रहेगा, यह प्राथमिकता नहीं है. देश बचने का मतलब होता है, देश में रहने वाले हर वर्ग में इस बात का अहसास होना कि उसकी देश को चलाने में हिस्सेदारी है, उसकी समस्याओं और तकलीफों की ईमानदार सुनवाई है और उन्हें हल करने की गंभीर कोशिश है. जब यह अहसास ख़त्म होता है, तभी हाथों में हथियार आते हैं. अगर अपने-आप हथियार न आएं, तो कोई उन्हें पकड़ा देता है. ऐसी ताक़तें हैं, जो देश के विकास की जगह हिंदू-मुसलमानों के भीतर द्वंद्व बढ़ाना चाहती हैं और देश को ऐसी जगह लाकर खड़ा कर देना चाहती हैं, जहां ये दोनों वर्ग केवल ऩफरत करें. पर यह खुशी की बात है कि न तो हिंदू और न ही मुसलमान अब तक इस जाल में फंसे हैं. अ़फसोस तो तब होता है, जब इन ताक़तों का साथ सरकार देती दिखाई देती है. लगता तो ऐसा है कि सरकार नाम की चीज़ समाप्त हो गई है और सत्ता में वे बैठे हैं, जिनके सामने न देश का पूरा नक्शा है और न उस नक्शे को समझने की अ़क्ल. पिछले बीस सालों में मुल्क में लगभग हर राजनैतिक दल ने सीधे या परोक्ष रूप से सत्ता में हिस्सेदारी की है और सबने इसी धारणा को मज़बूत किया है कि उनके सामने देश का न कोई नक्शा है और न देश के सभी वर्गों की समस्याओं की समझ. राजनैतिक दलों की कारगुज़ारियों और व्यवस्था के नाकारेपन से लोग कहने लगे हैं कि इस आज़ादी से तो अंग्रेज़ अच्छे थे. अंग्रेज़ों को याद करने का मतलब भविष्य की आशा की मौत है, और सारे तंत्र से जनता का मानसिक अलगाव है. अब निराशा सिर्फ इतनी नहीं है कि इस आज़ादी से तो अंग्रेज़ अच्छे थे, बल्कि बात आगे बढ़ गई है. सुन सकें तो राजनैतिक दल सुनें, कि अब लोग फौज को याद करने लगे हैं. फौज के लोगों की शाम की पार्टी में इस बात पर हर जगह बात होती है कि इन राजनीतिज्ञों से तो फौजी अच्छे हैं. हम देश को बचाने में जान देते हैं और इन राजनीतिज्ञों को इस बात पर शर्म नहीं कि ये देश को बर्बाद करने की होड़ लगाए हुए हैं. फौज के रिटायर्ड अफसर तो हर जगह गुस्से में नज़र आते हैं. जिन पर हत्या, लूट और बलात्कार के मुक़दमे चल रहे हैं, ऐसे मंत्रियों की सुरक्षा पर होने वाले खर्च इनकी आलोचना का बड़ा मुद्दा है. ये साफ कहते हैं कि जनता के प्रतिनिधियों को जब जनता से ही डर लगने लगे, तो वे जनता का प्रतिनिधित्व करने का हक़ खो देते हैं. आप ज़रा किसी फौजी अफसर को छेड़ दीजिए, फिर देखिए कि वह राजनेताओं और नौकरशाहों को गाली देने के कैसे-कैसे तर्क निकाल कर लोकतांत्रिक व्यवस्था को ही सवाल बना देते हैं. क्या इस स्थिति को संसद में जाने की और सत्ता संभालने की इच्छा रखने वाले राजनैतिक दल शुभ संकेत मानते हैं? मानें भी क्यों न, क्योंकि खुद उनका लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भरोसा जो नहीं है. किसी भी राजनैतिक दल में आंतरिक लोकतंत्र तो है ही नहीं, लोकतांत्रिक सवाल उठाने की भी अब कोई हिम्मत नहीं करता. अगर कोई करता है, तो उसे दल से ही हटा दिया जाता है. ऐसे लोग बड़ी संख्या में हैं, जो सोचने-समझने वाले हैं, जनता की समस्याओं के हल के लिए प्रतिबद्ध हैं, लेकिन राजनैतिक रूप से अप्रासंगिक हो चुके हैं. यह स्थिति लोकतंत्र के लिए ख़तरा साबित हो सकती है, क्योंकि इसकी तार्किक परिणति लोकतंत्र के ख़ात्मे में होती है. जो दल स्वयं लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्ध नहीं हैं, वे देश में भी लोकतंत्र नहीं चला सकते और न लोकतंत्र बचा सकते हैं. अभी की एक घटना जाननी चाहिए. लखनऊ से दिल्ली आने वाली शताब्दी में एक रिटायर्ड फौजी अफसर और सहयात्रियों में देश की स्थिति पर बहस हो रही थी. फौजी अफसर की बातों में गुस्सा और व्यवस्था से ऩफरत थी. सहयात्रियों ने कहा कि अगर आप लोग सत्ता में आते हैं, तो क्या आप खाएंगे पिएंगे नहीं? उस फौजी अफसर ने तत्काल कहा कि ज़रूर खाएंगे और पिएंगे. पर हम मुर्गा खाएंगे, देश का पैसा और नौजवानों का भविष्य नहीं खाएंगे, हम व्हिस्की पिएंगे लेकिन आम जनता का खून नहीं पिएंगे. लोग सन्न थे और धीरे-धीरे सभी उस अफसर की भाषा बोलने लगे. इस संकेत को गंभीर समझना चाहिए. राजनेताओं को, चाहे वे किसी भी दल में हों, अपने को सुधारना चाहिए और देश के ग़रीब, वंचित, दलित, अल्पसंख्यक, पिछड़े तबकों पर ध्यान देना चाहिए तथा बेरोज़गारी, शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास की उन योजनाओं पर ध्यान देना चाहिए, जिनसे आम आदमी को फायदा मिले. अन्यथा लोग लोकतंत्र के सबसे ख़राब विकल्प के बारे में आदर से सोचने लगेंगे और तब राजनेता जनता के भयानक गुस्से का शिकार हो जाएंगे.