कश्मीर हमारे लिए कभी प्राथमिकता नहीं रहा. कश्मीर की क्या तकली़फ है, वह तकली़फ क्यों है, उस तकली़फ के पीछे की सच्चाई क्या है, हमने कभी जानने की कोशिश नहीं की. हमने हमेशा कश्मीर को सरकारी चश्मे से देखा है, चाहे वह चश्मा किसी भी सरकार का रहा हो. हम में से बहुत कम लोग श्रीनगर गए हैं. श्रीनगर में पर्यटक के नाते जाना एक बात है और कश्मीर को समझने के लिए जाना दूसरी बात है. कश्मीर की तस्वीर हमारे दिमाग़ में कुछ ऐसी बसी है कि कश्मीर की हर सड़क और हर गली में आतंकवादी रहते हैं और वे कभी भी गोलियों की बौछार कर सकते हैं, लेकिन कश्मीर ऐसा नहीं है. कश्मीर बहुत खूबसूरत है, प्राकृतिक तौर पर भी और इंसानी तौर पर भी.
मैं लगभग पच्चीस सालों के बाद कश्मीर गया और मैंने कोशिश की कि कश्मीर में उन सच्चाइयों को तलाशूं, जिन्हें तलाशना एक पत्रकार का धर्म है. कश्मीर में लोग बहुत मोहब्बत से मिले, बिना तल़्खी दिखाए हुए उन्होंने अपनी तकली़फें बताईं और बिना तंज़ किए हुए अपनी यह ख्वाहिश रखी कि हिंदुस्तान के लोग उनसे बाते करें, उनके मन को समझें. उन्हें इस बात का मलाल है कि उनकी और हिंदुस्तान के लोगों की आपस में बातचीत नहीं हो पाती और इसीलिए शायद हिंदुस्तान के लोग कश्मीर के लोगों के दर्द और तकली़फ को नहीं समझ पा रहे. हिंदुस्तान के मीडिया से भी कश्मीर के लोगों को बहुत शिकायत है. उनका कहना है कि हिंदुस्तान के अ़खबारों में कश्मीर को लेकर तभी खबरें छपती हैं, जब कश्मीर में कोई मुठभेड़ हो, पत्थरबाज़ी हो या कोई बहुत बड़ी हड़ताल हो. कश्मीर जब शांत रहता है, तब हिंदुस्तानी मीडिया कश्मीर में अपनी रुचि नहीं दिखाता.
इन दिनों कश्मीर शांत है. 2008-09 और 2010 जैसा असंतोष सड़कों पर नहीं दिखाई पड़ता. सीआरपीएफ के डायरेक्टर जनरल ने कश्मीर के हालात पर एक किताब लिखी है और उसमें कहा है कि कश्मीर में पर्यटक आ रहे हैं, कश्मीर में बाज़ार खुले हैं, स्कूल खुले हैं, इसका मतलब यह नहीं कि कश्मीर में सब कुछ ठीकठाक है. डायरेक्टर जनरल साहब के इस कथन की हिंदुस्तान में बड़ी आलोचना हुई और कुछ नेताओं ने तो यहां तक मांग कर डाली कि सरकारी अधिकारियों को किताब लिखने के अधिकार से वंचित कर दिया जाए. कश्मीर के लोगों का कहना है कि यह कैसा लोकतंत्र है, जो सोच के ऊपर भी पहरे बैठाने की बात करता है. उन्होंने यह सा़फ कहा कि लोकतंत्र की खूबसूरती ही इसलिए है कि यहां रहने वाले हर व्यक्ति को बिना डर के अपनी बात कहने का मौक़ा मिलता है.
श्रीनगर में सैयद अली शाह गिलानी ने बंद का आह्वान किया, मैंने अपना वापस आना एक दिन आगे बढ़ा दिया, क्योंकि मैं तथाकथित अलगाववादियों के बंद की हक़ीक़त देखना चाह रहा था. बंद के दिन मैं पूरे श्रीनगर में घूमा और मैंने पाया कि नब्बे प्रतिशत दुकानें बंद हैं, सड़कों पर बसें नहीं चल रही हैं और न सड़कों पर भीड़भाड़ है. इसके बावजूद जो सड़कों पर चलना चाह रहा था, उसे कोई रोक नहीं रहा था. प्राइवेट गाड़ियां चल रही थीं, प्राइवेट टैक्सियां चल रही थीं, कुछ होटल वालों ने अपने होटल भी खोल रखे थे, पर उन्हें कोई डंडे के ज़ोर से या नारों के शोर से बंद नहीं करा रहा था.
मैं श्रीनगर के लगभग हर हिस्से में घूमा और मुझे इस बात के संकेत मिले कि यही मौक़ा है, जब कश्मीर की समस्या पर गंभीरता के साथ प्राथमिकता देनी चाहिए. मैं कश्मीर में हुर्रियत नेताओं सैयद अली शाह गिलानी, मीर वाइज़ उमर फारू़ख, जेकेएलएफ नेता यासीन मलिक, जम्मू-कश्मीर डेमोक्रेटिक फ्रीडम पार्टी के शब्बीर शाह से मिला. उनके साथ मेरी का़फी लंबी बातचीत हुई. जिस एक बात को उन सबने कहा, वह यह कि भारत सरकार को शांतिपूर्ण आवाज़ों को सुनना चाहिए. अगर भारत सरकार शांतिपूर्वक किए जाने वाली मांगों को नहीं सुनेगी तो वह यह संदेश देगी कि उसे अशांति और हथियारों की भाषा या तोड़फोड़ की भाषा समझ में आती है.
मेरी मुलाक़ात भूतपूर्व मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद और महबूबा मुफ्ती से भी हुई. मुफ्ती साहब जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बनने से पहले देश के गृहमंत्री रहे हैं. उनका सा़फ मानना है कि यही वक़्त है, जब भारत सरकार को कश्मीर में विश्वास बहाली की पहल करनी चाहिए. महबूबा मुफ्ती ने मुझे एक फोटो दिखाई, जिसमें एक 11 साल के बच्चे को पुलिस पकड़ कर ले जा रही है.
आरोप यह है कि वह बच्चा देश के खिला़फ काम कर रहा है. पुलिस वाले का हाथ और अपने भाई का हाथ पकड़े उसकी 7 साल की बहन ज़ार-ज़ार आंसू बहा रही है. महबूबा मुफ्ती ने मुझसे सवाल किया कि अगर 11 साल का बच्चा आप समझते हैं भारत के साथ नहीं है तो फिर कश्मीर में भारत के साथ है कौन? यह सवाल स़िर्फ महबूबा मुफ्ती का नहीं है, बल्कि कश्मीर में रहने वाले लगभग हर आदमी का है.
इसमें कोई शक नहीं कि कश्मीर पाकिस्तान से जुड़ा हुआ इलाक़ा है, इसलिए वहां सेना रहेगी ही. लेकिन सेना कितनी रहे और सेना का काम क्या हो, इस पर बहस ज़रूरी है. कश्मीर के लोग सेना से आतंकित हैं, वे सेना के आतंक की बहुत सी कहानियां बताते हैं. जब भारतीय सेना का एक सिपाही ग़लती करता है तो उसका आरोप पूरी सेना के ऊपर लग जाता है. यह सोचने का वक़्त है कि कश्मीर के लोग हमारे भाई हैं, इंसान हैं या आंशिक ग़ुलाम हैं.
मैंने कश्मीर के ऊपर जिन नेताओं के नाम लिखे हैं, वे सब चाहते हैं कि हिंदुस्तान के राजनीतिक दल कश्मीरियों के नज़रिए को समझें, पर उन्हें अ़फसोस है कि भारत के राजनीतिक दल भी भारत सरकार की तरह कश्मीर को प्राथमिकता नहीं देते. उनके मन में प्रकाश करात, ए बी वर्द्धन, अरुण जेटली, मुलायम सिंह यादव, शरद यादव, रामविलास पासवान एवं मणि शंकर अय्यर जैसे नेताओं के लिए सम्मान है, पर ये नेता भी भारत सरकार की तरह कश्मीर को अपनी प्राथमिकता नहीं मानते. इनमें से अगर कोई कश्मीर जाता है तो चुपचाप आराम करने जाता है. कश्मीर के लोग इन नेताओं से संवाद जोड़ना चाहते हैं.
कश्मीर में भारत सरकार की तऱफ से नियुक्त वार्ताकारों को लेकर संदेह का वातावरण है. उनकी रिपोर्ट को कश्मीरी नेतृत्व सही नहीं मानता. उनकी रिपोर्ट के ज़्यादातर हिस्सों को कश्मीर के लोग असलियत से दूर और पूर्वाग्रह भरा मानते हैं. कश्मीर के लोगों के मन में अटल बिहारी वाजपेयी को लेकर बहुत बड़ा सम्मान है. उन्हें लगता है कि अगर अटल बिहारी वाजपेयी भारत के प्रधानमंत्री कुछ दिन और रहते तो वह कश्मीर समस्या के हल के लिए शायद का़फी कुछ करते. कश्मीरियों के मन में पी चिदंबरम द्वारा गृहमंत्री रहते हुए लोकसभा में दिए गए भाषण ने भी बड़ी आशा जगाई थी. उसमें चिदंबरम ने कहा था कि कश्मीर एक यूनिक समस्या है और उसका समाधान भी यूनिक होगा, लेकिन चिदंबरम का बयान भी स़िर्फ बयान रहा.
श्रीनगर में सैयद अली शाह गिलानी ने बंद का आह्वान किया, मैंने अपना वापस आना एक दिन आगे बढ़ा दिया, क्योंकि मैं तथाकथित अलगाववादियों के बंद की हक़ीक़त देखना चाह रहा था. बंद के दिन मैं पूरे श्रीनगर में घूमा और मैंने पाया कि नब्बे प्रतिशत दुकानें बंद हैं, सड़कों पर बसें नहीं चल रही हैं और न सड़कों पर भीड़भाड़ है. इसके बावजूद जो सड़कों पर चलना चाह रहा था, उसे कोई रोक नहीं रहा था. प्राइवेट गाड़ियां चल रही थीं, प्राइवेट टैक्सियां चल रही थीं, कुछ होटल वालों ने अपने होटल भी खोल रखे थे, पर उन्हें कोई डंडे के ज़ोर से या नारों के शोर से बंद नहीं करा रहा था. जब दिल्ली में या देश के दूसरे हिस्से में राजनीतिक दल बंद का आह्वान करते हैं, तो पार्टी के कार्यकर्ता ज़बरदस्ती दुकानें बंद कराते हैं, ऑटो एवं टैक्सियों को नुक़सान पहुंचाते हैं और सरकारी संपत्ति में आग लगाते हैं. श्रीनगर के इस बंद को देखकर मुझे लगा कि यह बंद स्वैच्छिक है और इस बंद के पीछे छिपी ताक़त को समझना चाहिए. श्रीनगर को लेकर हमारे मन में बहुत सी भ्रांतियां हैं. पहली भ्रांति है कि वहां के हर घर में पाकिस्तानी झंडा फहराया जाता है, कश्मीर के लोग पाकिस्तान में मिलना चाहते हैं. यह भी सही नहीं है, क्योंकि उन्हें मालूम है कि पाकिस्तान जब अपने ही लोगों को न खाना दे पा रहा है, न विकास दे पा रहा है, न रोज़गार दे पा रहा है तो वह उन्हें क्या देगा. पाक अधिकृत कश्मीर की बदहाली की जानकारी भी श्रीनगर के लोगों को है. वे चाहते हैं कि उनके साथ हुए वायदे निभाए जाएं, उन्हें इज्ज़त की नज़र से देखा जाए, उनका मज़ाक़ न उड़ाया जाए और उनके साथ सोने के पिंजड़े में बंद चिड़िया जैसा व्यवहार न किया जाए.
कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला हैं, उनसे कश्मीर के लोगों को बड़ी आशाएं थीं और वे आशाएं खत्म नहीं हुई हैं. लोगों का मानना है कि उमर अब्दुल्ला को बहुत कुछ दिल्ली के इशारे पर करना पड़ता है, लेकिन वह कश्मीरी हैं, नौजवान हैं, इसलिए संभव है कि वह कश्मीर की समस्या के लिए शायद कुछ कर सकें. मेरे यह पूछने पर कि क्या उमर अब्दुल्ला को 2014 में फिर से कश्मीर की जनता मौक़ा देगी, लोगों ने कहा, शायद देगी. जो दूसरा नाम अभी से चुनावों की तैयारी कर रहा है, महबूबा मुफ्ती का है. हिंदुस्तान के राजनेताओं, पत्रकारों एवं आम लोगों को कश्मीर जाना चाहिए और कश्मीर के लोगों के साथ इंसानियत का और दिल का रिश्ता जोड़ना चाहिए. अभी भी वक़्त है और वक़्त इसलिए है, क्योंकि अभी भी कश्मीर में शांति है. इस अवसर का लाभ सरकार उठाए या न उठाए, देश के राजनीतिज्ञों को उठाना चाहिए और कश्मीरियों की तकली़फ में खुद को शरीक करना चाहिए. कल शायद बहुत देर हो चुकी होगी.