न्यायिक व्यवस्था में सुधार ज़रूरी है

jab-top-mukabil-ho1देश का विश्वास अगर किसी एक संस्था के ऊपर अभी तक बना हुआ है, तो वह है हमारी न्यायिक व्यवस्था, जो कभी-कभी इसकी झलकियां देती हैं और यह संदेश भी कि लोगों को उसके ऊपर विश्वास बनाए रखना चाहिए. अक्सर होता यह है कि निचली अदालतें सही फैसले टालती हैं और उनके ऊपर की अदालतें भी सही फैसले टालती हैं. अंत में सुप्रीम कोर्ट जब फैसला देता है तो लोगों को लगता है कि न्यायिक व्यवस्था में आस्था रखनी ही चाहिए. सुप्रीम कोर्ट के बहुत सारे फैसले देश में दिशा निर्देश का काम करते हैं. लेकिन हिंदुस्तान में कुछ ऐसे उदाहरण भी हैं, जिनमें निचली अदालतों ने सटीक फैसले दिए. एक उदाहरण गुजरात के सरदारपुरा दंगे में शामिल 31 लोगों को आजीवन कारावास की सज़ा देना है. गुजरात में दंगा हुआ, संपत्ति नष्ट हुई, हत्याएं हुईं, यह सब सच है, पर इस सच को लोगों की नज़र में सच के रूप में लाना अदालत का काम है और गुजरात में अदालत ने यही किया.

अदालत की तारी़फ इसलिए करने की इच्छा होती है, क्योंकि जब पीछे नज़र डालते हैं, जितने दंगे हमें याद हैं, अस्सी के दशक की याद बहुत सारे साथियों को होगी, अस्सी के दशक में जितने दंगे हुए, नब्बे के दशक में जितने दंगे हुए, वे सारे दंगे कहीं न कहीं अनसुलझी कहानी की तरह पड़े हुए हैं. वहां भी यही हुआ. दंगे हुए, संपत्ति नष्ट हुई और लोग मारे गए. जो मारे गए, उन्हें किसी न किसी ने मारा ,लेकिन दोषियों को सज़ा आज तक नहीं मिल पाई. कमीशन बैठे, मजिस्ट्रेट इंक्वायरी बैठी, कहीं पर न्यायिक जांच बैठी, लेकिन किसी को सज़ा नहीं मिली. सज़ा तो दूर, बहुतों को मुआवज़ा भी नहीं मिला. मुआवज़ा राज्य सरकारें या केंद्र सरकार इसलिए देती हैं, क्योंकि वे मानती हैं कि चूक हुई. लोगों की जान-माल की रक्षा करना राज्य सरकार और केंद्र सरकार का दायित्व है. सरकारें होती ही इसलिए हैं. वे लोगों को गारंटी दे सकती हैं, उनके जीने की गारंटी. पर चूंकि दंगों में यह गारंटी समाप्त हो जाती है और लोग पुलिस के रहते हुए मारे जाते हैं, इसलिए सरकारें क्षतिपूर्ति के रूप में, अपनी ग़लती सुधारने के रूप में लोगों को मुआवज़ा देती हैं. जितने दंगे हुए, उनमें लोगों को मुआवज़ा भी नहीं मिला.

न्यायिक व्यवस्था को सर्वसुलभ बनाने की ज़रूरत है, क्योंकि लाखों मामले लंबित हैं, लोग जेलों में हैं, लोग अन्याय सह रहे हैं, बाहुबली और दबंग उनका ज़िंदगी जीना हराम कर रहे हैं, लेकिन अदालतें उनकी मदद के लिए आगे नहीं आ रही हैं. सरकार ग़रीब के साथ नहीं खड़ी है. अगर खड़ी होती तो ग़रीब को न्यायालय में जाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती. वह सरकारी अधिकारियों या मंत्रियों से अपनी शिकायत करके न्याय हासिल कर सकता था. यह न्याय की विडंबना, न्याय की विसंगति और न्याय का दोहरा चरित्र कभी-कभी कंपा देता है. नक्सलवादियों के हाथ में हथियार पहुंचने का एक बड़ा कारण जहां विकास का अभाव है, वहीं दूसरा बड़ा कारण ग़रीबों को न्याय न मिल पाना भी है.

एक आदर्श उदाहरण मलियाना का है. मेरठ के मलियाना-हाशिमपुरा में दंगा हुआ. लोगों ने अपनी जानें गंवाईं. जिन्होंने मारा, उनमें दंगाइयों के अलावा पीएसी के लोग भी शामिल थे. एक भी आदमी गिरफ्तार नहीं हुआ. यहां तक कि तीन दशकों तक मुक़दमा चला. आख़िर में यह पता चला कि उस दंगे की एफआईआर की कॉपी भी उपलब्ध नहीं है. हमारी समझदार और जनता की रक्षक पुलिस इतने बड़े दंगे की एफआईआर भी सुरक्षित नहीं रख पाई. वह सुरक्षित रखती भी कैसे, क्योंकि पुलिस का ही एक तबका उसमें शामिल था. मज़े की बात तो उस अदालत ने कही, जिसमें यह मुक़दमा चल रहा है. उसने कहा, जो उस दंगे के शिकार हैं, जो बेचारे हर पेशी पर चंदा इकट्ठा करके आते हैं सुनवाई में, ताकि उनके परिवार के जो लोग मारे गए हैं, उनकी आत्मा को शांति मिले और जिन्होंने उन्हें मारा है, उनको सज़ा मिले. अब उनसे कहा गया है कि आप ख़ुद एफआईआर की कॉपी तलाश करके लाओ. लेकिन अदालत ने पुलिस को नहीं फटकारा कि उसने एफआईआर क्यों ग़ायब कर दी. यह अदालत के चरित्र का विरोधाभास है. गुजरात की अदालत का फैसला आया और उसने दंगे में शामिल 31 लोगों को आजीवन कारावास की सज़ा दी. इससे लोगों का विश्वास एक बार फिर निचली अदालतों के ऊपर बढ़ेगा, ऐसा मानना चाहिए.

हमारे देश की न्यायिक व्यवस्था बहुत अजीब है. सबसे छोटी अदालत, फिर उससे बड़ी यानी सेशन कोर्ट तक यही हाल है. देश के जिन लोगों का अदालत से सामना होता है, वे सब भुक्तभोगी हैं कि किसे पैसा देकर कैसे तारीख़ ली जाती है, किसे पैसा देकर सेटिंग की जाती है. एक शब्द चलता है सेटिंग. लोग उसी वकील को लेते हैं, जो सेटिंग कर सकता है. इसी वजह से अदालतों के कुछ ऐसे फैसले होते हैं, जिनमें निर्दोष सालों साल जेल में सड़ जाता है. अदालतों को यह भी ध्यान देने की फुर्सत नहीं है कि जिनके ख़िला़फ चार्जशीट नहीं दाख़िल हो रही है, वे उन्हें 90 दिनों के भीतर जमानत दे दें. निचली अदालतों के पास इस बात का व़क्त नहीं है कि वे सोचें कि जिनकी सज़ा ख़त्म हो गई है, वे जेल में क्यों बंद हैं. हमारे देश में यही हो रहा है. ऐसे में जब कोई निचली अदालत फैसला देती है, दंगे के दोषी लोगों को आजीवन कारावास की सज़ा देती है, तो ज़रूर इसे न्यायिक व्यवस्था के शुभ चिन्ह के रूप में देखा जाना चाहिए.

दूसरा उदाहरण टू जी स्पेक्ट्रम घोटाले का है. सरकार की चलती तो वह इस केस को भटका देती, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस केस को जिंदा रखा. निस्संदेह सुप्रीम कोर्ट को भी प्रेरित करने वाले कुछ लोग थे, जिनमें एक सुब्रह्मण्यम स्वामी हैं, जिनकी वजह से इस केस के ऊपर अदालत की निरंतर निगाह बनी रही. निचली अदालत यानी पटियाला हाउस की अदालत ने जब टू जी स्पेक्ट्रम घोटाले में बड़ी-बड़ी कंपनियों के मालिकों, केंद्रीय मंत्रियों एवं सांसदों को जेल भेजा, तो न्यायिक व्यवस्था में लोगों का विश्वास एक बार फिर पुख्ता हुआ. लेकिन इस तरह का न्याय पाने के लिए कितनी लंबी जद्दोज़हद की ज़रूरत पड़ती है, यह सवाल हमें अपने आप से पूछना चाहिए, इस देश की न्यायिक व्यवस्था से पूछना चाहिए. अगर मान लीजिए, लोग कमज़ोर हों, वे अदालत में न जा पाएं और उनके पास वकीलों को देने के लिए पैसा न हो तो क्या उन्हें न्याय मिल पाएगा? इस बहाने इन दोनों फैसलों के परिपेक्ष्य में एक सवाल मन में खड़ा होता है, कैसी है हमारी न्यायिक व्यवस्था? हम निचली अदालत में जाते हैं, अगर वहां न्याय नहीं मिला तो हम सेशन कोर्ट में जाते हैं, वहां नहीं मिला तो फिर हम हाईकोर्ट जाते हैं और वहां भी नहीं मिला तो फिर सुप्रीम कोर्ट. नीचे की तीनों अदालतें ग़लत फैसले कर सकती हैं. सुप्रीम कोर्ट का फैसला अंतिम और सर्वोच्च माना जाता है. अगर षड्‌यंत्र के चक्रव्यूह में फंसकर निर्दोष आदमी निचली अदालत में सज़ा पा जाए, किसी तरह वह पैसे इकट्ठे कर सेशन कोर्ट में चला जाए तो उसके पास सिवाय अपना खेत बेचने के कोई चारा नहीं रहता. अगर उसे वहां भी न्याय नहीं मिलता तो फिर हाईकोर्ट जाना पड़ेगा. उसकी आर्थिक स्थिति तबाह हो जाती है.

हमारे नेताओं ने अब तक यह क्यों नहीं सोचा कि लोगों को उनके मुक़दमे का फैसला उनकी ज़िंदगी में मिल जाए और ख़र्चा कम हो. अगर ऐसा हो तो देश के 70-80 प्रतिशत लोग न्यायिक व्यवस्था से अपने लिए सही न्याय शायद पा सकें. पर पीढ़ियां गुजर जाती हैं और परपोते के समय जाकर फैसला होता है, तब तक तीन पीढ़ियां समाप्त हो चुकी होती हैं. इस न्यायिक व्यवस्था को सुधारने की पहल कोई पार्टी क्यों नहीं करती, आवाज़ क्यों नहीं उठाती? सुप्रीम कोर्ट ने भी इस बिंदु पर नहीं सोचा कि देश की न्यायिक व्यवस्था को सर्वसुलभ कैसे बनाया जाए. न्यायिक व्यवस्था को सर्वसुलभ बनाने की ज़रूरत है, क्योंकि लाखों मामले लंबित हैं, लोग जेलों में हैं, लोग अन्याय सह रहे हैं, बाहुबली और दबंग उनका ज़िंदगी जीना हराम कर रहे हैं, लेकिन अदालतें उनकी मदद के लिए आगे नहीं आ रही हैं. सरकार ग़रीब के साथ नहीं खड़ी है. अगर खड़ी होती तो ग़रीब को न्यायालय में जाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती. वह सरकारी अधिकारियों या मंत्रियों से अपनी शिकायत करके न्याय हासिल कर सकता था. यह न्याय की विडंबना, न्याय की विसंगति और न्याय का दोहरा चरित्र कभी-कभी कंपा देता है. नक्सलवादियों के हाथ में हथियार पहुंचने का एक बड़ा कारण जहां विकास का अभाव है, वहीं दूसरा बड़ा कारण ग़रीबों को न्याय न मिल पाना भी है. नक्सलवादियों के साथ लोग इसीलिए खड़े होते हैं, क्योंकि उन्हें हमारी अदालतों से न्याय नहीं मिल पाता. यह बात राजनीतिक तंत्र को सोचनी चाहिए. अगर वह नहीं सोचता तो यह सारी स्थिति मिलकर देश को एक आंतरिक अव्यवस्था की ओर ले जा सकती है.

आंतरिक अव्यवस्था से बचने का एक बड़ा ज़रिया हमारी न्यायिक व्यवस्था शायद हो सकती है और यह शायद सुखद आशा में तब बदलने के लिए बेचैन हो जाता है, जब उसे टू जी स्पेक्ट्रम और गुजरात में हुए दंगों के फैसले निचली अदालतों से देखने को मिलते हैं. हम सुप्रीम कोर्ट से यह निवेदन ज़रूर करना चाहते हैं कि वह अदालतों को इतना सक्षम बनाए कि अदालतें निर्भीक होकर वह फैसला दें, जिसकी अपील करने की ख्वाहिश, अपील करने के बारे में, ज़बरदस्ती अपील करने के बारे में लोग न सोचें. यह तभी हो सकता है, जब निचली अदालतें संवेदनशील हों और सत्य को ध्यान में रखकर फैसले लें. हमारे देश का पूरा न्याय चक्र, पूरी न्यायिक व्यवस्था, पूरा ज्यूडिशियल सिस्टम इसलिए बदलने की ज़रूरत है, ताकि लोग अव्यवस्था, अपराध और विद्रोह की जगह विकास और नवनिर्माण की तऱफ अपना दिमाग़ लगा सकें.


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