जनता को अपनी ज़िम्मेदारी समझनी चाहिए

jab-top-mukabil-ho1उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में महंगाई, बेरोज़गारी, शिक्षा एवं स्वास्थ्य व्यवस्था की बदहाली और भ्रष्टाचार आदि मुद्दे सा़फ दिखाई देते हैं, लेकिन इन्हीं के साथ एक और महत्वपूर्ण मुद्दा दिखाई देता है, वह है अपराध. अपराध प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष, लेकिन प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष अपराध से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण है राजनीति का अपराधीकरण या अपराधियों का राजनीति में बेख़ौ़फ प्रवेश. ये सारे सवाल स़िर्फ उत्तर प्रदेश के नहीं हैं, बल्कि पूरे देश के हैं. देश की जनता इन सवालों का सामना कर रही है और उसे जवाब नहीं मिल रहा है. हम इन सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश उत्तर प्रदेश में इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि वहां चुनाव हो रहे हैं और इन चुनावों में समस्याओं के विशद सर्किल को तोड़ने का तरीक़ा जनता के पास है. पर क्या जनता उस तरीक़े का इस्तेमाल करेगी, यह सबसे बड़ा सवाल है. महंगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं सड़क आदि सवालों के जवाब राजनीतिक दलों को देने हैं या उस राजनीतिक दल को, जो प्रदेश में सरकार बनाने की दौड़ में सबसे आगे रहने वाला है. वह इन सवालों के जवाब उत्तर प्रदेश में इसलिए नहीं दे सका है, क्योंकि बड़े दलों में कोई दल ऐसा नहीं है, जो वहां की सरकार में न रहा हो.

कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी लंबे समय के लिए या कम से कम पांच साल या पांच साल से ज़्यादा के लिए तो सत्ता में रही ही हैं, पर उन्होंने इन सवालों का कोई जवाब जनता को नहीं दिया है. उत्तर प्रदेश 63 सालों में देश के सबसे कम विकसित राज्यों की श्रेणी में पहुंच गया है. अब अगर इसे वहां से बाहर निकालना है तो जो सत्ता में जाने वाले हैं या जीतने वाले हैं, उन्हें ही उत्तर प्रदेश को विकसित करने का फर्ज़ पूरा करना है. पर इन सवालों से भी महत्वपूर्ण सवाल या इनके बराबर का महत्वपूर्ण सवाल राजनीति के अपराधीकरण का है. आख़िर राजनीति में आए लोग और सरकार में जाने वाले लोग अपने वादे को पूरा क्यों नहीं कर पाते हैं? विकास का पैसा आता है, लेकिन वह कहां चला जाता है? अगर हम देखें तो पाएंगे कि इसकी जड़ में है राजनीति का अपराधीकरण. वे लोग जो नए-नए ठेकेदार बने हैं, वे लोग जिनका आम लोगों के दु:ख-दर्द से कोई रिश्ता नहीं है और वे लोग जो कभी किसी राजनीतिक दल के लंबे समय तक सदस्य नहीं रहे, राजनीतिक दलों को पैसे देकर टिकट हासिल कर लेते हैं और उसके बाद साम-दाम-दंड-भेद का इस्तेमाल करके विधानसभा में पहुंच जाते हैं. सरकार बनती है और चूंकि हर दल में ऐसे तत्वों का वर्चस्व हो रहा है तो ज़ाहिर है, जो सत्तारूढ़ दल होता है, उसमें भी ऐसे तत्वों का वर्चस्व होता है. वे फिर दबाव डालकर विकास के लिए आए पैसों की बंदरबांट करते हैं. बंदरबांट करने का सीधा तरीक़ा होता है ठेके लेना. ज़्यादातर विधायकों या सांसदों के रिश्तेदार या दूर के मित्र ही ऐसे ठेकेदार होते हैं और वे खुलेआम लोगों की आंखों के सामने विकास के कामों के साथ बेरहमी से मज़ाक़ करते हैं. बेरहमी से मज़ाक़ का मतलब, उन कामों को इस तरह पूरा करते हैं कि साल बीतते-न बीतते वे ख़त्म हो जाएं और उनके लिए दोबारा टेंडर निकलें. भ्रष्टाचार का यह ऐसा ख़तरनाक सिलसिला है, जिसमें इस प्रकार के तत्व, जो कभी मंत्री भी बन जाते हैं और अधिकारियों के ऊपर दबाव डालते हैं, उनकी सीधी हिस्सेदारी दिखाई देती है.

चुनाव में अच्छे उम्मीदवार को वोट देना भी वैसा ही पवित्र कर्तव्य है, जैसा तीर्थों पर जाना और अपने द्वारा किए गए अपराधों की मा़फी मांगने के लिए मंदिर के दरवाज़े पर सिर झुकाना. अगर आप अच्छे आदमी को वोट देकर भेजेंगे तो निश्चित रूप से आप अपने बच्चों के भविष्य को सुरक्षित रखने में कुछ मदद कर पाएंगे.

अ़फसोस की बात यह है कि चुनावों में, चाहे वह उत्तर प्रदेश के चुनाव हों या उत्तराखंड के या पंजाब के या गोवा के या फिर इसके पहले हुए चुनाव, किसी पार्टी ने दाग़ियों को, अपराधियों को टिकट देने में कोताही नहीं बरती. जो आया, उसे टिकट दिया गया. हर पार्टी में कम से कम 30 प्रतिशत टिकट बिके हैं. ये टिकट उन लोगों ने ख़रीदे हैं, जिनके पास पैसा है और जिनकी पृष्ठभूमि अपराध की है. उन्होंने पार्टी के किसी न किसी वरिष्ठ नेता को बड़ी रक़म पहुंचा कर टिकट हासिल की है. एक पार्टी ने तो अपनी टिकट डेढ़-डेढ़ करोड़ रुपये में बेची है. सारा पैसा पार्टी के मुखिया के पास गया. पांच साल तक राजनीतिक दल अपराधीकरण के खिला़फ बातें करते हैं, लेकिन पांचवां साल आते ही जब चुनाव का व़क्त आता है तो वे उन्हीं अपराधियों को टिकट देते हैं, जिनके ख़िला़फ उन्होंने चार-साढ़े चार साल भाषण दिए हैं. इस दलीय व्यवस्था से अलग ज़रा जनता के मनोविज्ञान को समझें. वह जनता जो वोट देकर ऐसे लोगों को जिताती है, उसे लगता है कि जिसके साथ बीस-पच्चीस गाड़ियां नहीं चल रही हैं, जिसके साथ बंदूक़ें नहीं चल रही हैं, जो शराब नहीं पिला रहा है और जो पैसा नहीं बांट रहा है, वह उम्मीदवार बेकार है. भले ही वह उम्मीदवार कितना भी ईमानदार हो, लेकिन जनता या बहुसंख्यक जनता की नज़रों में उसकी कोई क़ीमत नहीं है. इसलिए जातियों के नाम पर अपराध करने वाले, जातियों के नाम पर ठेकेदारी करने वाले लोग चुनाव में आते हैं तो जनता अपने हितों के ख़िला़फ आपस में बंट जाती है और अपनी जाति के सिरमौर अपराधी को वोट देने में अपनी शान समझती है. पर ऐसे समय में आम लोग यह भूल जाते हैं कि उनकी उस एक दिन की ग़लती का खामियाज़ा उन्हें अगले पांच सालों तक भुगतना पड़ेगा.

मैं जब इस विशद सर्किल को देखता हूं, विकास न होने के विशद सर्किल को, तो मुझे लगता है कि इसे तोड़ने का केवल एक ही बिंदु है कि उन उम्मीदवारों को वोट न देना, जो अपराधी हैं, दाग़ी हैं. जिन्होंने जनता की सेवा में एक भी दिन नहीं लगाया, जिन्होंने अपराध और भ्रष्टाचार के ज़रिए पैसा कमाया और वे पार्टी के मुखियाओं को पैसा देकर टिकट लेने में कामयाब हो गए. ऐसे लोगों को वोट न देना इस विशद सर्किल को तोड़ने का एकमात्र रास्ता है और यहां पर राजनीतिक दलों से ज़्यादा ज़िम्मेदारी आम जनता की है. आम जनता कभी राजनीतिक दलों के सिद्धांतों को देखकर वोट देती थी, लेकिन पिछले 15 सालों से राजनीतिक दलों के सिद्धांतों को देखकर लोग वोट नहीं देते, बल्कि जाति, धर्म और संप्रदाय देखकर वोट देते हैं. आम लोगों को यह अच्छी तरह समझना चाहिए कि अगर वे जाति, धर्म और संप्रदाय के आधार पर वोट देंगे, उम्मीदवार की ईमानदारी, काम करने के तरीक़े और उसका जनता के प्रति लगाव वोट देने का आधार नहीं बनेगा तो उन्हें वही सब भुगतना पड़ेगा, जो वे 63 सालों से भुगतते चले आ रहे हैं. गांव में सड़कें नहीं होंगी, बिजली नहीं आएगी, स्वास्थ्य व्यवस्था नहीं सुधरेगी, शिक्षा व्यवस्था नहीं सुधरेगी और महंगाई, भ्रष्टाचार एवं बेरोज़गारी में वृद्धि होगी. इस बात को हिंदुस्तान का मतदाता आखिर कब समझेगा? उत्तर प्रदेश में जहां चुनाव हो गए और जहां चुनाव होने वाले हैं, वहां अपराधी उम्मीदवारों की भरमार है, लेकिन जनता ने यह नहीं सोचा कि एक बार उसे भी वोट दें, जो दाग़ी नहीं है, जिसके पास बीसियों गाड़ियां नहीं हैं, बंदूकें-राइफलें नहीं हैं, शराब पिलाने के लिए पैसा नहीं है और जो पैसा नहीं बांट सकता.

अगर लोगों ने यह सोच लिया हो कि ऐसे उम्मीदवारों को वोट नहीं देना है और वोट उन्हें देना है, जिनके पास यह सब अवगुण नहीं हैं तो राजनीति को सुधारने का कोई रास्ता शायद मिल सके. अब तो एक नई चीज़ भी हो गई है कि राजनीतिक दलों के पास कार्यकर्ता नहीं बचे हैं. अब कार्यकर्ता के रूप में दैनिक वेतन-भत्ता पाने वाला एक शख्स आ गया है, जो हज़ार-पांच सौ रुपये रोज़ लेता है, खाने का पैसा लेता है, शराब का पैसा लेता है, पान-तंबाक़ू-सिगरेट का पैसा लेता है और उसके बाद गाड़ी में बैठकर सुबह 9 बजे से शाम 8 बजे तक घूमता है. उसे कुछ नहीं पता कि जिसके लिए वह घूम रहा है, उसके सिद्धांत क्या हैं, लेकिन वह जाति, धर्म और संप्रदाय के आधार पर वोट ज़रूर मांगता है. यही हमारी चुनाव प्रणाली का, हमारे लोकतंत्र का सबसे कमज़ोर पहलू है, लेकिन इसे ठीक करने का ज़िम्मा राजनीतिक दलों के ऊपर नहीं है. इसे ठीक करने का ज़िम्मा आम आदमी के ऊपर है, आम मतदाता के ऊपर है. जब तक आम मतदाता इस बात को नहीं समझेगा, तब तक यह विशद सर्किल नहीं टूटेगा, क्योंकि महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, विकास, शिक्षा व्यवस्था एवं स्वास्थ्य व्यवस्था की जर्जर हालत के विशद सर्किल को तोड़ने का स़िर्फ एक रास्ता है कि राजनीति में दाग़ी और अपराधी न जाएं. राजनीति में वे जाएं, विधानसभा में वे जाएं, जो लोगों के बीच काम करते रहे हों, जो लोगों के दु:ख-दर्द और तकली़फ को समझते हों, जिनके पास पैसे की भरमार न हो. पर शायद ऐसा लगता है कि आजकल यह सब सोचना भी लोगों के लिए एक अजूबा सा है. पर फिर भी अच्छे की आशा हमेशा रखनी चाहिए. हो सकता है, आम मतदाता के मन में यह सवाल चल रहा हो और वह ऐसा ही करे, जैसा हम लिख रहे हैं. अगर ऐसा होता है तो हिंदुस्तान में लोकतंत्र बचेगा और हिंदुस्तान में अच्छे दिन भी देखने को मिलेंगे. चुनाव में अच्छे उम्मीदवार को वोट देना भी वैसा ही पवित्र कर्तव्य है, जैसा तीर्थों पर जाना और अपने द्वारा किए गए अपराधों की मा़फी मांगने के लिए मंदिर के दरवाज़े पर सिर झुकाना. अगर आप अच्छे आदमी को वोट देकर भेजेंगे तो निश्चित रूप से आप अपने बच्चों के भविष्य को सुरक्षित रखने में कुछ मदद कर पाएंगे.


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