जनता भोली होती है, बेवक़ू़फ नहीं

jab-top-mukabil-ho1उत्तर प्रदेश के चुनाव का सवाल क्या है, और उत्तर प्रदेश के चुनाव में किन सवालों के जवाब जनता देगी. इसके बारे में स़िर्फ इतना कहना चाहते हैं कि जिन सवालों पर जनता को जवाब देना चाहिए, वे सवाल जनता के सामने नहीं लाए जा रहे हैं. जिन सवालों पर जनता को खामोश रहना चाहिए, वे सवाल उनके सामने लाए जा रहे हैं. लोगों के इमोशन से भी खेलने की कोशिश हो रही है. सवाल चाहे जाति का हो, धर्म का हो, भाषा का हो, हर तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं. जनता भोली होती है, लेकिन मूर्ख नहीं होती है. वे सारे सवाल, जिनका उनकी ज़िंदगी से मतलब नहीं है, उन्हें उठाना आम आदमी को बेवक़ू़फ समझने का भ्रम पालना है. ऐसा ही एक सवाल मुस्लिम रिजर्वेशन का है. सरकार की तऱफ से घोषणा हुई कि मुसलमानों को साढ़े चार फीसदी रिजर्वेशन दिया गया है. यह रिजर्वेशन सारे देश के मुसलमानों के लिए घोषित हुआ है. व़क्त उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव का रखा गया, ताकि उस घोषणा का फायदा मुसलमानों के वोट हासिल करने के लिए उठाया जा सके. शब्द इस्तेमाल हुआ मुस्लिम रिजर्वेशन और इस शब्द का इस्तेमाल कांग्रेस ने भी किया और भारतीय जनता पार्टी ने भी, जबकि दोनों पार्टियां अच्छी तरह जानती हैं कि यह रिजर्वेशन, जो केंद्रीय सरकार ने 27 प्रतिशत के रिजर्वेशन के अंदर दिया है, स़िर्फ मुसलमानों के लिए नहीं है, बल्कि अल्पसंख्यकों के लिए है. इसमें ईसाई, सिख और जैन भी आते हैं. यह सब जानने के बावजूद मुस्लिम रिजर्वेशन शब्द इस्तेमाल हुआ. भारतीय जनता पार्टी ने इस शब्द का इस्तेमाल ग़ैर मुस्लिम वोटों को अपने पक्ष में करने के लिए किया, जबकि कांग्रेस ने मुसलमानों को अपने पक्ष में गोलबंद करने के लिए किया.

शुरू में मुस्लिम इंटेलेक्चुअल्स भी इसमें फंस गए, पर बाद में समझ में आया कि उनके साथ धोखा हुआ है. पहले उन मुसलमानों के सामने, जो मंडल कमीशन के तहत रिजर्वेशन में आ रहे थे, एक बड़ा मैदान था. अगर वे अपने लोगों को पढ़ा-लिखा लें तो वे जितना चाहें, 27 प्रतिशत में हिस्सेदारी ब़ढा सकते हैं. अगर नहीं पढ़ेंगे-लिखेंगे तो एक प्रतिशत भी उनकी हिस्सेदारी नहीं बनती. लेकिन प़ढेंगे-लिखेंगे तो उनके पास 27 फीसदी रिजर्वेशन तक पाने का रास्ता खुला था. इस रिजर्वेशन के बाद उनके लिए साढ़े चार फीसदी का ही मैदान रह गया. इस साढ़े चार फीसदी में उनके सामने प्रतिद्वंदी के रूप में खड़े हो गए ईसाई, सिख, जैन. इसमें ईसाइयों और जैनियों की सारक्षता दर लगभग 100 फीसद है, सिखों का लगभग 70 फीसद है और मुसलमानों का चार से पांच फीसद है. मुसलमानों का कुल सक्सेस रेट चार साढ़े चार फीसद है. प्रतियोगिता की सीमा रेखा में अगर हम देखें तो पाएंगे कि मुसलमानों के जिस तबक़े को रिजर्वेशन के साढ़े चार फीसदी वाले मैदान में डाला गया है, उनके पास असली हिस्सा तो आधा प्रतिशत ही आएगा. उनके यहां लोग पढ़े-लिखे हैं ही नहीं, पढ़ने-लिखने की सुविधाएं भी नहीं हैं. पढ़ने-लिखने की प्रेरणा नहीं है, नौकरी में कहां से आएंगे. अन्य अल्पसंख्यक नौकरी के इन अवसरों को छीन ले जाएंगे. मुसलमानों को यह बात समझाने की किसी ने कोशिश नहीं की.

उत्तर प्रदेश में दिलचस्प स्थिति पैदा हो गई है, जहां नीतीश कुमार और शरद यादव भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों के खिला़फ चुनाव प्रचार करेंगे. अब इसे अंतर्विरोध न कहें तो क्या कहें. जो एनडीए मुसलमानों के खिला़फ मानी जाती है, वह तो मुसलमानों या सेक्युलरिज्म के हित में काम कर जाती है, जबकि यूपीए जो मुसलमानों की समर्थक और सेकुलर मानी जाती है, वह मुसलमानों के खिला़फ काम कर देती है. अब जब यह मांग उठी है कि अगर मुसलमानों को 9 फीसद आरक्षण की घोषणा में दम है या ईमानदारी है तो क्यों नहीं कांग्रेस की सरकार, कांग्रेस पार्टी अध्यादेश निकाल कर, एक्जिक्युटिव ऑर्डर जारी कर आंध्र प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली और हरियाणा में तत्काल प्रभाव से मुसलमानों को 9 फीसदी आरक्षण दे देती है.

लेकिन एक अ़फसोस की बात है. केंद्र की यूपीए सरकार में शामिल अधिकांश दल इस देश की दूसरी बड़ी मेजॉरिटी यानी मुसलमानों के पक्ष के माने जाते हैं. ऐसा माना जाता है कि ये सेकुलर हैं और मुसलमानों को उनका हक़ देने में ये बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं. लेकिन हक़ीक़त में देखें तो ये लोग मुसलमानों के लिए वैसे ही खतरनाक साबित हो रहे हैं, जैसे एनडीए के लोग. अगर हम एनडीए का विश्लेषण करें तो हम कह सकते हैं कि एनडीए में जब जॉर्ज फर्नांडिस शामिल हुए थे और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी थी, तब स़िर्फ और स़िर्फ जॉर्ज फर्नांडिस एवं उनके साथियों की वजह से एनडीए की मुख्य पार्टी, भारतीय जनता पार्टी को अपने मुख्य मुद्दे छोड़ने पड़े थे. इनमें पहला था बाबरी मस्जिद की जगह राममंदिर बनाना, कश्मीर में धारा 370 को हटाना और कॉमन सिविल कोड को लागू करना. अगर जॉर्ज नहीं होते और भारतीय जनता पार्टी के पास अकेले सरकार बनाने लायक़ सांसद होते याजयललिता जैसे सहयोगियों के पास इतने सांसद होते तो शायद उस समय देश में एक बुनियादी बदलाव आ जाता. पर जॉर्ज फर्नांडिस और आज की तारी़ख में उनके साथी शरद यादव और नीतीश कुमार मिलकर एनडीए और भारतीय जनता पार्टी को उन सवालों से दूर रखने में कामयाब हुए हैं, जिनकी वजह से भारतीय जनता पार्टी को उसका कट्टर समर्थक जी भरकर कोस रहा है. शायद यही वजह है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने जनता दल यूनाइटेड को आ़खिरी समय तक भ्रम में रखा कि वह उसके साथ समझौता कर रही है और मिलकर चुनाव लड़ेंगे. जनता दल यूनाइटेड ने कोई खास चुनावी तैयारी नहीं की. आ़िखरी व़क्त में आकर भाजपा ने कहा कि वह जदयू के साथ कोई समझौता नहीं करेगी.

उत्तर प्रदेश में दिलचस्प स्थिति पैदा हो गई है, जहां नीतीश कुमार और शरद यादव भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों के खिला़फ चुनाव प्रचार करेंगे. अब इसे अंतर्विरोध न कहें, तो क्या कहें. जो एनडीए मुसलमानों के खिला़फ मानी जाती है, वह तो मुसलमानों या सेक्युलरिज्म के हित में काम कर जाती है, जबकि यूपीए जो मुसलमानों की समर्थक और सेकुलर मानी जाती है, वह मुसलमानों के खिला़फ काम कर देती है. अब जब यह मांग उठी है कि अगर मुसलमानों को 9 फीसद आरक्षण की घोषणा में दम है या ईमानदारी है, तो क्यों नहीं कांग्रेस की सरकार, कांग्रेस पार्टी अध्यादेश निकाल कर, एक्जिक्युटिव ऑर्डर जारी कर आंध्र प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली और हरियाणा में तत्काल प्रभाव से मुसलमानों को 9 फीसदी आरक्षण दे देती है. अगर 9 फीसदी आरक्षण यहां मिल जाए तो उत्तर प्रदेश ही नहीं, पूरे देश का मुसलमान यह मान लेगा कि कांग्रेस में ईमानदारी है और कांग्रेस पार्टी मुसलमानों को 9 फीसदी आरक्षण देकर उन्हें वैसे ही मुख्यधारा में लाना चाहती है, जैसे जवाहर लाल नेहरू के समय कांग्रेस ने दलितों को आरक्षण देने का समर्थन करके उन्हें मुख्यधारा में लाने की कोशिश की थी.

आज दलित हर जगह कंधे से कंधा मिलाकर मुक़ाबला करने के लिए खड़े हैं. उनमें पढ़ने की ललक जागी है. वे समाज में अपना हिस्सा मांगने के लिए हिम्मत के साथ हर जगह खड़े दिखाई देते हैं और इसका उदाहरण मायावती, रामविलास पासवान और रामदास अठावले जैसे नेताओं के रूप में देखा जा सकता है. कांग्रेस अगर ऐसा फैसला करे तो इस देश के सारे सेकुलर लोग कांग्रेस का समर्थन करेंगे और मुसलमान तो अगले पचास सालों तक कांग्रेस को वोट देते रहेंगे. लेकिन लगता यही है कि ऐसा होगा नहीं. अगर ऐसा नहीं होता है, तो इस मुल्क का मुसलमान यह समझेगा कि कांग्रेस हमेशा चुनाव के व़क्त कुछ नए शगू़फे छोड़ती है, कुछ नए वादे करती है और उसके बाद आराम से उन वादों को भूल जाती है. राजस्थान में ऐसा ही हुआ, हरियाणा में ऐसा ही हुआ और दिल्ली प्रदेश में भी ऐसा ही हुआ. जो वादे मुसलमानों से किए गए, वे पूरे नहीं हुए. मैं जब मुसलमान कहता हूं, तो मैं किसी धर्म विशेष से जुड़े लोगों की बात नहीं करता. मैं जब मुसलमान कहता हूं, तो मेरे सामने वंचित लोगों का वह तबक़ा आ जाता है, जिसमें दलित भी हैं, आदिवासी भी हैं और मुसलमान भी हैं. क्योंकि जब भारत सरकार की बनाई सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र कमीशन हालात का जायज़ा लेने बैठते हैं, तो कहते हैं कि इस देश का मुसलमान दलितों से भी ज़्यादा कमज़ोर है, तो यह लगता है कि इस मुल्क को चलाने वाले लोगों की न्याय प्रियता में कहीं कुछ कमी है. यह तो हम सबको मानना ही चाहिए कि अगर इस देश के 18 फीसदी लोग दबे-कुचले और वंचित श्रेणी में रहते हैं और उन्हें उनका हक़ नहीं मिलता है, तो इस देश में शांति क़ायम रहना मुश्किल है. इसलिए जो सत्ता में होते हैं, उनकी ज़िम्मेदारी ज़्यादा होती है. उत्तर प्रदेश चुनाव में जब सत्ता से जुड़े लोग कोई घोषणा करें तो उस पर अमल हो, यही नैतिकता का तक़ाज़ा है. पर नैतिकता आ़खिर आज बची कहां है. यही सवाल उत्तर प्रदेश चुनाव का बड़ा सवाल है. और देखना यह है कि वहां के लोग, जिसमें हिंदू और मुसलमान सभी शामिल हैं, किस तरह के सवालों को समर्थन देने या वोट देने का पैमाना बनाते हैं.


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