ऐसा लगता है कि देश एक बार फिर दो साल पहले के घटनाक्रम का साक्षी बनने वाला है. अगस्त, 2011 में जनलोकपाल के लिए जब रामलीला मैदान में अन्ना हजारे ने अनिश्चितकालीन अनशन शुरू किया था, तब उनके समर्थन में सारा देश खड़ा हो गया था. सरकार ने अनशन के लिए जगह देने से मना कर दिया था और अन्ना हजारे को जेल में डाल दिया था. देशभर में गुस्से की लहर दौड़ गई. लोगों ने दिल्ली में तिहाड़ जेल को घेर लिया. उसके बाद सरकार को अन्ना हजारे को बिना शर्त जेल से रिहा करना पड़ा. अन्ना के जेल से छूटने की भी एक कहानी है. मजिस्ट्रेट ने अन्ना हजारे से कहा कि आप जमानत दे दें, तो मैं आपको रिहा कर दूंगा. अन्ना हजारे ने कहा कि मैं किस बात की जमानत दूं. मुझे शांति भंग करने के आरोप में आपने गिरफ्तार किया है, तो आप मुझे सज़ा दें. मैं जेल जाऊंगा. मजिस्ट्रेट ने सज़ा दे दी और अन्ना जेल चले गए. अन्ना थके थे, जेल में चादर बिछाकर लेट गए. कुछ देर बाद जेल के अधिकारी आए और उन्होंने कहा कि आपको सरकार ने बिना शर्त रिहा कर दिया है. अन्ना ने कहा कि मुझे सज़ा हुई है, अभी तो मैं जेल आया ही हूं और तुरंत कैसे रिहाई का आदेश आ गया? यह सरकार है या बनिया की दुकान? अन्ना ने जेल से निकलने से मना कर दिया. अधिकारी चले गए. थोड़ी देर के बाद जेल के अधिकारी फिर से लौटकर आए और कहा कि आप से हमारे आईजी मिलना चाहते हैं. अन्ना आईजी से मिलने गए, तो आईजी ने कहा कि अब आप आज़ाद हैं. अन्ना ने कहा मैं ़कैदी हूं, तो मैं आज़ाद कैसे हूं. आईजी ने कहा कि हमने आपको छोड़ दिया है, आप जाएं. अन्ना ने कहा कि लेकिन मैं तो नहीं जाऊंगा. इस पर आईजी ने कहा कि अब आप जेल से बाहर आ गए हैं, इसलिए जेल नहीं जा सकते. जवाब में अन्ना ने कहा कि अगर मैं जेल के अंदर नहीं जा सकता, तो मैं यहीं आपके दफ्तर में ही धरना दूंगा. अन्ना वहीं आईजी के दफ्तर में तीन दिन धरने पर बैठे रहे. आईजी के दफ्तर में नहाने तक का कोई इंतज़ाम नहीं था. तीन दिन के बाद जब अन्ना बाहर निकले, तो बाहर इतना बड़ा जनसैलाब इकट्ठा था, मानों पूरी दिल्ली सड़क पर उतर आई है. रामलीला मैदान से लेकर तिहा़ड जेल तक लोग ही लोग थे. रामलीला मैदान में 13 दिन तक अन्ना का अनशन चला, लोकसभा बैठी और रात के बारह बजे के बाद संसद ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पास किया, जिसमें सरकार ने जनलोकपाल बिल पास करने के लिए हामी भरी. इसे अंग्रेजी में सेंस ऑफ हाऊस कहा गया. अन्ना के पास स्वर्गीय विलासराव देशमुख प्रधानमंत्री का पत्र लेकर गए. पत्र में प्रधानमंत्री ने कहा कि मुझे आपके स्वास्थ्य की चिंता है और आपको देश में बहुत काम करना है. अब संसद ने प्रस्ताव पास कर दिया है, तो आप अनशन त्याग दें. अन्ना ने संसद के सर्वसम्मत प्रस्ताव का सम्मान करते हुए अपना अनशन छो़ड दिया. अनशन छो़डने के बाद अन्ना तत्काल पूरे देश में घूमना चाहते थे. उन्होंने अपने साथियों से कहा भी था कि मैं सारे देश में लोगों के पास जाना चाहता हूं, पर उस समय के उनके साथियों ने देश में घूमने की अन्ना की इच्छा का सम्मान नहीं किया और अन्ना चुपचाप रालेगण चले गए. इसके बाद की कहानी एक सपने के टूटने की कहानी है. अन्ना के साथियों ने राजनीतिक दल बनाया. अन्ना साल भर तक रालेगण में चिंतन-मनन करते रहे और 2013 की 30 जनवरी को उन्होंने पटना के गांधी मैदान में हुंकार भरी. उस सभा में लगभग पौने दो लाख लोग थे और वहां अन्ना ने एक नये संगठन का ऐलान किया, जिसका नाम रखा जनतंत्र मोर्चा. अन्ना ने 31 मार्च से सारे देश में घूमना शुरू किया. शुरुआत उन्होंने जलियांवाला बाग से की. वहां पर उन्होंने शहीद भूमि की मिट्टी अपने माथे से लगाई और फिर 28 हज़ार किलोमीटर की यात्रा की, जिसमें उन्होंने हर जगह जनता से व्यवस्था परिवर्तन, लोकसभा में अच्छे उम्मीदवार, गांवों को संपूर्ण अधिकार, मौजूदा अर्थनीति की जगह कृषि आधारित-गांव आधारित अर्थनीति लागू करने की बात की, ताकि बेरा़ेजगारी का संपूर्ण उन्मूलन हो सके, सबको शिक्षा मिल सके, सबको स्वास्थ्य सेवाएं मिल सकें. हर जगह अन्ना ने यही सवाल उठाए. अन्ना ने यह भी कहा कि जनलोकपाल के रूप जनता को भ्रष्टाचार से ल़डने वाला हथियार मिल सकता था, लेकिन संसद ने जनलोकपाल क़ानून बनाने का वायदा करके भी इसे पूरा नहीं किया. संसद से अन्ना का तात्पर्य कांग्रेस से भी होता था, भारतीय जनता पार्टी से भी होता था, साथ ही संसद में बैठे हर राजनीतिक दल से होता था. इसके बाद अन्ना की तबियत ख़राब हुई और डॉक्टरों ने उन्हें घूमने से मना किया. उनका एक ब़डा ऑपरेशन हुआ. अन्ना के दिमाग़ में इस दौरान लगातार मंथन चलता रहा और इस मंथन की शुरुआत ऑपरेशन के तत्काल बाद हुई, जब वो आइसीयू से निकलकर बाहर आए. अन्ना ये सोच रहे थे कि सरकार जनलोकपाल नहीं ला रही है, विपक्ष इसे लाने के लिए दबाव नहीं डाल रहा है, जनता असहाय है क्योंकि जनता को जगाने का काम कोई कर नहीं रहा है. हर आदमी सत्ता में जाने का रास्ता तलाश रहा है और शायद अन्ना अपने पुराने साथियों से, जिन्होंने उन्हें छो़डकर राजनीतिक दल बना लिया था, बहुत ही ज्यादा दुखी थे. और अचानक एक रात अन्ना ने फैसला किया कि मुझे शीतकालीन सत्र शुरू होने के पांच दिन के बाद दोबारा अनिश्चितकालीन अनशन पर बैठना होगा. इसके पीछे एक ही कारण था कि 28 हज़ार किलोमीटर की यात्रा में हर जगह अन्ना ने ये कहा था कि जनलोकपाल लाए बिना मैं मरूंगा नहीं और जनलोकपाल के लिए जनता को ल़डने के लिए प्रेरित भी करता रहूंगा. उस ल़डाई का पहला सिपाही भी मैं ही बनूंगा. अगर शहीद भी होना है, तो पहला शहीद मैं होऊंगा. बनारस में जब अन्ना की यात्रा पहुंची, तो वहां के प्रेस क्लब के निमंत्रण पर अन्ना ने पहली घोषणा की कि शीतकालीन सत्र के पहले दिन मैं रामलीला मैदान में अनशन के लिए बैठ जाऊंगा. शीतकालीन सत्र की तारीख़ घोषित हो गई, लेकिन डॉक्टरों ने अन्ना को दिल्ली जाने की इजाज़त नहीं दी. तब अन्ना ने एक ऐसा फैसला लिया, जिस फैसले की उम्मीद न राजनीतिक दलों को थी, न देश की जनता को थी और न ही अन्ना के साथ रहने वाले लोगों को थी. अन्ना ने प्रधानमंत्री को एक ख़त लिखा (प्रधानमंत्री को लिखा अन्ना का पत्र पेज नं. तीन पर) और उस ख़त में ये कहा कि मैं दस दिसंबर से रालेगण सिद्धी यानी अपने गांव में पूज्य यादव बाबा के मंदिर पर अनिश्चितकालीन अनशन शुरू करूंगा और अनशन आत्मक्लेश के लिए करूंगा. आत्मक्लेश से अन्ना का तात्पर्य उस झूठ का प्रायश्चित करना है, जो झूठ संसद ने इस देश के लोगों से बोला है. आत्मक्लेश से अन्ना का तात्पर्य उस वादाख़िलाफ़ी से है, जिसे सरकार नाम की संस्था ने इस देश से किया है. अन्ना के अनिश्चितकालीन अनशन की घोषणा के साथ ही देश में हलचल शुरू हो गई. ये हलचल इस देश के राजनीतिक दलों के अलावा आम जनता में भी शुरू हुई. छात्र, नौजवान स़िर्फ अन्ना की ओर देख रहे हैं. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक छात्र सम्मेलन बीस नवंबर को होने वाला था. अपनी पूरी कोशिश के बाद भी अन्ना इसमें नहीं जा पाए, क्योंकि अन्ना की तबियत देखकर डॉक्टरों ने स़ख्ती के साथ उन्हें जाने से मना कर दिया. क्या ये देश रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ्य के साथ जल, जंगल, ज़मीन, ग्रामसभा को अधिकार इन सारे सवालों पर एक बार फिर ख़डा होगा? इस सवाल को लेकर राजनीतिक दलों में बेचैनी इसलिए है, क्योंकि आज के नब्बे प्रतिशत राजनीतिक दल मौजूदा आर्थिक नीतियों के समर्थक हैं. और दो ब़डे दल, कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी और दो ब़डे नेता, नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी इन्हीं आर्थिक नीतियों के पोषक हैं. नरेंद्र मोदी का कहना है कि कांग्रेस ने आर्थिक सुधार या बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था को ठीक से लागू नहीं किया, वो इसे ठीक से लागू करेंगे. अन्ना के पुराने साथी जो अन्ना का नाम लेकर दिल्ली का चुनाव ल़ड रहे हैं और जो अन्ना से भी झूठ बोल रहे हैं, जनता से भी झूठ बोल रहे हैं, वो भी इन्हीं आर्थिक नीतियों के समर्थक हैं. विदेशी निवेश, किसानों की ज़मीन, गांवों को ताक़त न देना, समाज के ग़रीब व वंचित तबकों को जीवनसंघर्ष की ल़डाई में अवसर उपलब्ध कराना उनकी प्राथमिकता नहीं है. यहीं अन्ना अपनी सारी बातचीत में एक नया तत्व जो़ड रहे हैं. अन्ना का कहना है कि सांप्रदायिकता और भ्रष्टाचार में सांप्रदायिकता ज्यादा ख़तरनाक है, क्योंकि अगर देश ही नहीं रहेगा, तो भ्रष्टाचार से ल़डेंगे कैसे? सांप्रदायिकता इस देश को तो़ड सकती है, ये अन्ना का विश्लेषण है. दूसरी बात, जिस बात पर अन्ना ज़ोर देते हैं वो यह है कि वो गांव को मुख्य इकाई मानना चाहते हैं, न्याय व्यवस्था में बदलाव चाहते हैं, शिक्षा व्यवस्था में बदलाव चाहते हैं, स्कूल-कॉलेजों को वो बेरोज़गारों की फैक्ट्री नहीं बनाना चाहते. अन्ना गांव आधारित, रोज़गार आधारित अर्थव्यवस्था की नींव रखना चाहते हैं और इसके लिए उन्होंने इस देश के सारे राजनीतिक दलों के अध्यक्षों को पत्र भी लिखा है. अन्ना ने अपने पत्र में यह कहा है कि जो हुआ सो हुआ, अब तो हमें कम से कम इस देश के लोगों को ध्यान में रखकर आर्थिक नीतियां बनानी चाहिए. ये सारे सवाल रामलीला मैदान में नहीं थे. रामलीला मैदान में जनलोकपाल था, जिस जनलोकपाल को लेकर अन्ना को भी धोखा मिला और देश को भी. इसके बाद अन्ना ने राजनीतिक दलों के अस्तित्व पर एक सवाल ख़डा किया और ये कहा कि इस देश के सारे राजनीतिक दल असंवैधानिक हैं. संविधान में कहीं पर राजनीतिक दलों का उल्लेख नहीं है. लोकसभा में दलों के प्रतिनिधि असंवैधानिक तरी़के से जा रहे हैं. अन्ना को इस बात पर आश्चर्य है कि इतने साल बीत गए, न सुप्रीम कोर्ट ने इस पर ध्यान दिया और न किसी नेता ने इस पर सवाल उठाया. ये देश अंग्रेज़ों की ग़ुलामी से छूटा और बिना कोई प्रयत्न किए हुए पार्टियों ने इस देश को अपना ग़ुलाम बना लिया. इस देश के लोग पांच साल में एक बार वोट देते हैं और उसके बाद पांच साल राजनीतिक दलों का, सरकार का या विपक्ष का चेहरा देखते रह जाते हैं. अन्ना ने राजनीतिक दलों को लिखे पत्र में एक और ख़ास बात कही. उन्होंने कहा कि मैं मानता हूं कि संसद में दलों के प्रतिनिधि नहीं जाने चाहिए, लेकिन चूंकि, 65 साल से यह पद्धति चलती चली आई है, यानी सन 1952 से जबसे पहले आम चुनाव हुए हैं, संसद में दलों के प्रतिनिधि ही जा रहे हैं, इसलिए हम इसके आदी हो गए हैं. अब हम ये भरोसा ही नहीं कर सकते कि जनता के प्रतिनिधि ही संविधान के अनुसार संसद में जाकर कुछ कर पाएंगे. संसद में अटपटे सवाल कि कैसे प्रधानमंत्री चुना जाएगा, कैसे सरकार बनेगी, वो लोग उठाते हैं जो अपने देश में प्रचीन काल में व्याप्त गणतंत्र की कार्यप्रणाली से परिचित नहीं हैं. अन्ना ने अपने ख़त में लिखा कि मैं राजनीतिक दलों से ये अपील करता हूं कि वो कम से कम ये वायदा तो करें कि वो गांवों को अधिकार देंगे, वो रोज़गार सृजित करने के लिए नई अर्थव्यवस्था का वायदा करेंगे. मौजूदा अर्थव्यवस्था जिसने बेकारी, ग़रीबी ब़ढाई, जिसने लोगों के हाथ से विकास छीन लिया और जिस अर्थव्यवस्था ने विकास को ग़रीबों की पहुंच से बाहर कर दिया, उस अर्थव्यवस्था के ख़िलाफ़ एक नई अर्थव्यवस्था का वायदा राजनीतिक दल करें. लोग अन्ना से पूछ रहे हैं कि वो लोकसभा चुनाव में किसे वोट दें. अन्ना ने उस ख़त में सभी दलों से कहा है कि आप अगर अपनी नीतियां मुझे साफ़ करेंगे तो मैं जनता को ये बताऊंगा कि उन्हें इस चुनाव में किसे वोट देना चहिए.
अन्ना हजारे दस दिसंबर से अपने गांव रालेगण सिद्धी में अनिश्चितकालीन अनशन करने जा रहे हैं. सारे देश से अन्ना के पास फोन, ई-मेल की लाइन लगी है. हर व्यक्ति अन्ना का साथ देना चाहता है. चुनौती उनके लिए है जो अन्ना को दूर से देखते थे और पिछले आंदोलन में अन्ना का साथ नहीं दे पाए थे. इस बार अन्ना भावनात्मक आंदोलन नहीं कर रहे हैं, भावनात्मक उपवास नहीं कर रहे हैं. इस बार अन्ना बदलाव के लिए, व्यवस्था परिवर्तन के लिए उपवास कर रहे हैं, जिसका पहला बिंदु जनलोकपाल है.
ये वो मुद्दा है, जो मुद्दा देश में एक ऐसे लोकसभा के चुनाव की ओर संकेत कर रहा है जहां पर तीसरा विकल्प धुंधला ही सही, लेकिन नज़र आने लगा है. अन्ना जी एक ऐसे श़ख्स के रूप में उभरे हैं, जिन पर देश का, हर तबके का आदमी भरोसा कर रहा है. अन्ना जब निकलते हैं तो लोग उन्हें देखना चाहते हैं और जहां से वो जाते हैं उनके पैरों की धूल वैसे ही छूते हैं, जैसे एक ज़माने में लोग गांधी जी की छूते थे. अन्ना में बहुत सारे लोग गांधी की छवि देखते हैं. अन्ना के सवाल भी गांधी के सवाल हैं. गांधी ने अंग्रेज़ों से सवाल किए थे. गांधी ने आज़ाद भारत की सरकार से सवाल किए थे. अन्ना भी वही सवाल आज के राजनीतिक दलों से कर रहे हैं और जनता से कर रहे हैं. इन सवालों के जवाब तलाशने के लिए अन्ना हजारे दस दिसंबर से अपने गांव रालेगण सिद्धी में अनिश्चितकालीन अनशन करने जा रहे हैं. सारे देश से अन्ना के पास फोन, ई-मेल की लाइन लगी है. हर व्यक्ति अन्ना का साथ देना चाहता है. चुनौती उनके लिए है जो अन्ना को दूर से देखते थे और पिछले आंदोलन में अन्ना का साथ नहीं दे पाए थे. इस बार अन्ना भावनात्मक आंदोलन नहीं कर रहे हैं, भावनात्मक उपवास नहीं कर रहे हैं. इस बार अन्ना बदलाव के लिए, व्यवस्था परिवर्तन के लिए उपवास कर रहे हैं, जिसका पहला बिंदु जनलोकपाल है. जनलोकपाल क़ानून बनने से देश के भ्रष्टाचार में पचास से साठ प्रतिशत की कमी आएगी, ऐसा अन्ना का विश्वास है. अन्ना इस सारे परिवर्तन की कमान छात्रों और नौजवानों को देना चाहते हैं, महिलाओं को देना चाहते हैं. अन्ना देश में एक नया, संकल्पयुक्त, विश्वास से भरा हुआ अभियान चलाना चाहते हैं और दस दिसंबर से होने वाला अन्ना का अनशन किन राजनीतिक दलों के लिए चुनौती साबित होता है, किन राजनीतिक दलों को सीख देता है और अन्ना के अनशन के समुद्रमंथन से कैसा विष निकलता है और कैसा अमृत निकलता है, ये भविष्य के गर्भ में हैं. लेकिन सच्चाई यह है कि भविष्य का गर्भ, भविष्य जैसा लंबा नहीं है. ये अमृतमंथन दिसंबर, जनवरी और फरवरी में इस देश को एक नये भविष्य के दरवाज़े पर लाकर ख़डा कर देगा. ये देश सौभाग्यशाली है कि इस देश में अन्ना हजारे हैं, इस देश में छात्र नौजवान हैं, इस देश में महिलाएं हैं, किसान हैं, इस देश में ग़रीब हैं और ये सब किसी राजनीतिक दल के बंधुआ मज़दूर नहीं हैं. ये सब जब ख़डे होंगे तो यह देश बदलेगा. दस दिसंबर एक नई शुरुआत का अनोखा दिन बनने जा रहा है.