दिल्ली में निर्भया नाम से मशहूर बलात्कार की शिकार लड़की अब हमारे बीच नहीं है, लेकिन उस घटना ने देशवासियों को झकझोर दिया और दिल्ली में तो उसके ख़िला़फ अभूतपूर्व आंदोलन हुआ. लगभग सारी दिल्ली उस लड़की को न्याय दिलाने के लिए सड़कों के ऊपर थी. दिन बीते, लोगों के दिमाग़ से वह लड़की भी बिसरती चली गई. स़िर्फ एक घटना बनकर रह गई, जबकि बलात्कार नामक विषय उन दिनों भी ज़िंदा था और आज भी ज़िंदा है. सरकार ने सख्त क़ानून भी बनाया, लेकिन उसका असर लोगों के दिमाग़ पर नहीं पड़ा. जिन दिनों निर्भया के समर्थन में आंदोलन हो रहा था, उन दिनों भी देश में कम से कम 11-12 ऐसे मामले प्रकाश में आए, जिनमें लगभग उसी तरह की दरिंदगी लोगों ने दिखाई थी. तीन वर्ष बीत गए, लेकिन बलात्कार के प्रति लोगों में गुस्सा नहीं पैदा हुआ.
हालत यह है कि देश में हर जगह बलात्कार हो रहे हैं और मानसिक विकृति इतनी ज़्यादा बढ़ गई है कि तीन वर्षीया बच्ची हो, पांच वर्षीया बच्ची हो या फिर 12 वर्षीया बच्ची हो, किसी को भी बख्शा नहीं जा रहा है. पड़ोस की लड़की हो या सड़क पर चलती लड़की हो, उसके साथ हैवानियत की जाती है और गैंगरेप नामक चीज लगातार हो रही है. पुलिस आरोपियों को पकड़ भी रही है, लेकिन उसकी प्राथमिकता में इस तरह के मामले नहीं हैं. प्रश्न पुलिस या क़ानून का नहीं है, बल्कि समाज की मानसिकता का है, समाज की मान्यताओं का है और समाज द्वारा लोगों में पैदा हुई विकृति का है. ऐसा क्यों होता है कि खुलेआम कोई बलात्कार का समर्थन तो नहीं करता, लेकिन बलात्कार के प्रति सार्वजनिक घृणा का प्रदर्शन भी नहीं होता. अ़खबार में ऐसी खबर पढ़कर, मुस्करा कर लोग दूसरी खबर के ऊपर चले जाते हैं.
पिछले 20 वर्षों से जबसे टेलीविजन चैनल शुरू हुए हैं, तबसे हर चैनल के ऊपर आध्यात्मिकता का ज़ोर तूफान मचा रहा है. हर चैनल पर कोई न कोई बाबा, साधु, महंत या जगतगुरु जीवन की शिक्षा देते दिखाई दे रहा है. इसके बाद स़िर्फ अध्यात्म का प्रचार करने वाले विशेष चैनलों की शुरुआत हो गई, जिनमें 24 घंटे या तो कोई साधु या तो कोई बाबा लोगों को धर्म के प्रति प्रेरित करता दिखाई देता है या सत्संग-कीर्तन होता है. जैसे-जैसे चैनल बढ़े, जैसे-जैसे साधु महाराज सत्संग करने टेलीविजन पर आने लगे, यह विडंबना है कि वैसे-वैसे समाज में अपराध का ग्राफ बढ़ा, वैसे-वैसे मानवता को लज्जित करने वाले अपराधों, जैसे बलात्कार आदि की संख्या भी बढ़ी. आ़िखर यह कौन-सी मानसिकता है? क्या हम धर्म के नाम पर ढोंग कर रहे हैं या जो लोग धर्म की शिक्षा देते हैं, उनमें आत्मबल नहीं है या फिर समाज नैतिकता या धर्म की बातें स्वीकार नहीं करना चाहता? यह सोचने का विषय है.
पहले बलात्कार का मतलब लड़कियों से बलात्कार होता था, लेकिन अब बलात्कार के मायने बदल गए हैं. कई ऐसी रिसर्च सामने आई हैं, जिनके अनुसार, लड़कियों से बलात्कार के मामलों की संख्या के म़ुकाबले लड़कों से बलात्कार के मामलों की संख्या ज़्यादा होती है. खासकर, शो बिजनेस में जो लोग हैं, उनके साथ तो बलात्कार होता ही है. अभी एक प्रसिद्ध अभिनेता ने खुलासा किया कि वह भी कास्टिंग काउच का शिकार रहा है. इसका मतलब उसके साथ जबरदस्ती की गई और उसने काम पाने के लिए समझौता किया. देश में समलैंगिक लोगों के आंदोलन चल रहे हैं, जिन्हें समाज मान्यता दे रहा है. दूसरी तऱफ इंटरनेट के ऊपर पोर्न साइट्स की बाढ़ आई हुई है. पहले तो बहुत सारे टीवी चैनल रात 11 और एक बजे के बाद सॉफ्ट पोर्नोग्राफी वाली कहानियां दिखाते थे और फिल्में भी दिखाते थे. अभी चर्चित चैनल ऐसा नहीं कर रहे हैं. लेकिन, इंटरनेट के ऊपर पोर्न की धूम है और 10-12 वर्ष के बच्चे उस धूम के अगुवा बने हुए हैं. इंटरनेट, यू ट्यूब और फेसबुक वैसे वीडियो क्लिप्स खुलेआम दिखा रहे हैं, जिन्हें देखना पहले वर्जित माना जाता था. वे फिल्में हिट हो रही हैं, जिनमें सॉफ्ट पोर्नोग्राफी का इशारा है या द्वइर्थी संवाद हैं. क्या हमारा समाज इनके ़खतरे नहीं पहचानता? 10-12 वर्षीय बच्चे स्त्री-पुरुष के रिश्तों की हर बारीकी से परिचित हैं. अब उन्हें किसी टेलीविजन सीरियल या फिल्म से सीख की ज़रूरत नहीं है. इंटरनेट एक ऐसा माध्यम है, जो उन्हें इन सारी चीजों की सजीव दुनिया में ले जाता है और वहां से उनके मन में देह के प्रति वह आकर्षण दिखता है, जिसके लिए बलात्कार शब्द बाद में प्रयोग में लाया जाता है. सहमति से बहुत सारे रिश्ते बनते हैं. अब तो 10-11 वर्ष की आयु में रिश्ते बनने लगे हैं. लेकिन, जहां पर रिश्ते नहीं बन पाते, वहां जबरदस्ती होती है और वह जबरदस्ती हैवानियत में बदल जाती है.
मैं यह बात इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि हमारा समाज जब इतनी चीजें ग़लत नहीं मानता, तो फिर वह बलात्कार को भी ग़लत नहीं मानता होगा. शायद इसीलिए एक आंदोलन होने के बाद बलात्कार को लेकर कोई दूसरा आंदोलन नहीं हुआ, कोई जागृति नहीं हुई. अब तो टीवी सीरियलों में खुलेआम लड़कियां आपस में बात करती नज़र आती हैं कि विदाउट ब्वॉयज नो पार्टी. अगर हम देखें, तो दूसरी तऱफ यह एक स्वस्थ परंपरा भी है. जितना ज़्यादा घुले-मिलेंगे, उतना ही स्त्री-पुरुषों के बीच आकर्षण को विराम लगेगा. लेकिन हम अपने बच्चों को यह क्यों नहीं समझा पाते कि सहमति और जबरदस्ती, दोनों शब्दों का अर्थ क्या है? आध्यात्मिक दुनिया से जुड़े लोग या
साधु-संत कोई असर नहीं डाल पा रहे हैं. और, जब मैं यह संपादकीय लिख रहा हूं, मेरे सामने खबर आ रही है कि तीन वर्षीय बच्ची के साथ बलात्कार हुआ, अपराधी लापता हैं. तो हम क्या मानें कि इसके लिए सरकार ज़िम्मेदार है? मेरा मानना है कि इसके लिए सरकार ज़िम्मेदार नहीं है, बल्कि समाज ज़िम्मेदार है. हम में से हर एक को अपनी बेटी, अपनी बहन के साथ हो सकने वाले किसी भी संभावित अपराध के लिए खुद को तैयार कर लेना चाहिए, क्योंकि जब हम उस अपराध के ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठा रहे हैं, तो विश्वास मानिए, कोई दूसरा भी उसके ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठाएगा. इसलिए बलात्कार जैसे अमानवीय कृत्य तब तक समाज में कम नहीं होंगे, जब तक समाज स्वयं इनके ख़िलाफ़ खड़ा नहीं होगा, जन-जागरण पैदा नहीं करेगा और इतना सख्त नहीं होगा कि वह उनका पारिवारिक बहिष्कार करने का माहौल बनाए, जो ऐसे अपराधों में लिप्त हैं. इसलिए यह समाज का विषय है और समाज को चाहिए कि वह एक सभ्य सोसायटी की जगह बारबेरियन सोसायटी या जंगली समाज की तऱफ क़दम बढ़ाने से हिचके, अन्यथा खून के आंसू कल उन्हें भी बहानेे पड़ेंगे, जो आज आवाज़ नहीं उठा रहे हैं.