बिहार में नीतीश कुमार की जीत उनकी अपनी है या बिहार की जनता की है, यह सवाल बहुतों के मन में है. इसका उत्तर बहुत साफ है, बिहार में जनता जीती है और उसने नीतीश कुमार के रूप में एक ऐसा नेता चुना है, जिस पर बहुत से सपनों को पूरा करने की ज़िम्मेदारी सौंप दी है. बिहार की जनता ने समय-समय पर बड़े ऐतिहासिक फैसले किए हैं. यह फैसला भी उनमें से एक है.
याद करें तो महात्मा बुद्ध याद आते हैं, तीर्थंकर महावीर याद आते हैं, चाणक्य याद आते हैं, वैशाली गणतंत्र याद आता है, नालंदा विश्वविद्यालय याद आता है, गांधी जी के आंदोलन की शुरुआत का केंद्र चंपारण याद आता है. भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद याद आते हैं और याद आते हैं लोकनायक जय प्रकाश नारायण, जिन्होंने देश में लोकतंत्र और बुनियादी परिवर्तन की लड़ाई शुरू की. लोकनायक जय प्रकाश के आंदोलन से निकले बहुत से लोग आज राजनीति के शीर्ष पर हैं, जिनमें बिहार के लालू यादव, राम विलास पासवान और नीतीश कुमार प्रमुख हैं. बिहार की जनता ने इस बार इन तीनों में साफ तौर पर नीतीश कुमार को अपना नेता चुना है.
साठ के दशक के अंतिम चरण में जब बिहार में बूथ कैप्चर करने की शुरुआत हुई तो उसने पंद्रह सालों में इतना विकराल रूप धारण कर लिया कि कभी लगता ही नहीं था कि अब साफ-सुथरे चुनाव देखने को मिलेंगे. सारे देश में यह तकनीक बिहार से गई, बिहार का नाम देश में काफी बदनाम हुआ. फिर आया लालू यादव का दौर. बिहार में सत्ता में वे आए, जिन्हें कभी सत्ता में हिस्सेदारी मिली ही नहीं थी. पिछड़ों, दलितों के समूहों में बहुत आशाएं पैदा हुईं, पर पंद्रह सालों में बहुत सी आशाएं टूट गईं. ऐसा लगा कि सत्ता है ही ऐसी, जिसके पास आती है, वह एक ही चरित्र का हो जाता है.
पंद्रह सालों में विकास तो हुआ ही नहीं, सत्ता में हिस्सेदारी न दबे-कुचलों को मिली और न अल्पसंख्यकों को. इसके विपरीत बिहार में अपराध बढ़ गए. रंगदारी, अपहरण के उद्योग खड़े हो गए. व्यापारी से लेकर रिक्शा वाला असुरक्षित हो गया. अपराधियों के लिए करोड़पति और पचास रुपये रखने वाला स़िर्फ शिकार बन गया. महिलाएं शाम के बाद सड़कों पर निकलती नहीं थीं, कहा जाने लगा कि शाम के बाद जितनी बड़ी गाड़ी निकलती थी, उसमें उतना ही बड़ा गुंडा नेता की पोशाक में निकलता था. विकास के नाम पर बिहार शून्य था. विकास का पहला क़दम सड़क ग़ायब हो गई थी. कहा जाने लगा था कि बिहार में सड़कों पर गड्ढे नहीं हैं, गड्ढों में सड़क है. बिहार में किसी को आशा नहीं थी कि दृश्य बदलेगा. जाति का इतना गहरा असर था कि लोग मानने लगे थे कि बिहार जाति की राष्ट्रीय राजधानी है. हर जाति या नेता अपनी जाति को अपनी जागीर मानने लगा था.
फिर आया फरवरी दो हज़ार पांच. सरकार नहीं बन पाई. आया नवंबर दो हज़ार पांच, जिसमें जनता ने साधारण बहुमत से नया प्रयोग किया, सत्ता नीतीश के हाथों में गई. और अब आया चौबीस नवंबर दो हज़ार दस, जिसमें बिहार की जनता ने ऐतिहासिक फैसला दिया, न कोई लाग, न लपेट, न कोई संदेह. इतना बहुमत नीतीश को दे दिया कि वह जो चाहें करें, उन्हें रोकने की ताक़त किसी के पास नहीं है, न लालू यादव और न राम विलास पासवान के. यह फैसला देश का सबसे बड़ा राजनैतिक फैसला है, जिसमें बिहार की जनता ने एक झटके में जाति का बंधन तोड़ दिया और धर्म आधारित राजनीति को भी बांध दिया. इसमें सभी शामिल रहे, यादव भी, मुसलमान भी और दलित भी.
बिहार चुनाव का फैसला चौंकाने वाला है. नीतीश कुमार के बोये चेतना के बीज ने बिहार की जनता को मंडल कमीशन की विचारधारा से आगे बढ़ा दिया है. महिलाओं, अति पिछड़ों और महादलितों ने पहली बार दबंगों की आंखों में आंखें डाल कर अपने वोट का इस्तेमाल किया. यह सब इतनी खामोशी से हुआ, जिसे लालू यादव और राम विलास पासवान भांप भी नहीं पाए. कांग्रेस की दुर्गति इसलिए हुई, क्योंकि कांग्रेस कभी अपने उद्देश्य में सा़फ रह ही नहीं पाई और लोगों ने नीतीश कुमार को इतना समर्थन दिया कि वह इतिहास के नायक बन गए.
बिहार का यह फैसला मंडल कमीशन से आगे जाता है. बिहार के लोगों ने उन लोगों को नकार दिया, जो मंडल कमीशन से निकले राजनैतिक फायदे को स़िर्फ पिछड़ों के मज़बूत वर्गों तक ही सीमित रखना चाहते थे. एक नई आशा पैदा हुई है कि अब कमज़ोर वर्गों में भी नया नेतृत्व उभर सकता है. अति पिछड़ों और महादलितों के साथ महिलाएं भी वंचित रही हैं. नीतीश कुमार ने पंचायतों में महिलाओं को पचास प्रतिशत आरक्षण दिया. अत्यंत पिछड़ी जातियों को भी आरक्षण दिया, इससे इनमें संदेश गया कि अब इन्हें भी सत्ता में हिस्सेदारी मिल सकती है. इतना ही नहीं, स्कूलों में उन्हें नौकरी मिली, स्थानीय निकायों के एकल पदों पर भी महिलाओं की नियुक्तियां हुईं. प्राइमरी शिक्षकों की लगभग दो लाख के बराबर नियुक्तियां हुईं, जिससे लोगों में आशाएं जगीं. हालांकि इसमें नालायक और स़िफारिशी अयोग्य लोग भी नियुक्त हुए, पर एक शुरुआत हुई, जिसका आम लोगों ने स्वागत किया. स्कूलों में पोशाकें बंटीं, लड़कियों को साइकिलें मिलीं. यह बिहार के लिए नई बात थी. झुंड के झुंड लड़कियों के स्कूल जाने लगे.
यह सब इतनी ख़ामोशी से हुआ कि इसका असर लालू यादव और राम विलास पासवान भांप ही नहीं पाए. ये अपने कार्यकर्ताओं की बात भी नहीं सुनना चाहते थे. हालांकि कार्यकर्ता इन्हें बताना चाहते थे कि ज़मीनी सच्चाई बदल रही है. दोनों महाबली मानते थे कि जब ये मिल जाएंगे तो बिहार में उन्हीं की सत्ता आएगी, क्योंकि दबंग यादव और मज़बूत पासवान का जवाब कमज़ोर अति पिछड़े और महादलित क्या देंगे. मुसलमानों को तो ये अपनी जेब का चिल्लर समझते थे कि वे उन्हें छोड़कर जाएंगे कहां. साल भर पहले हुए उपचुनावों ने दोनों को आश्वस्त कर दिया था. जीत के बाद लालू यादव की पार्टी ने जिस तरह जश्न मनाए, उससे बिहार के लोग आशंकित हो गए. लालू यादव और राम विलास पासवान चुनावों से छह महीने पहले बिहार में सक्रिय हुए. ये सचमुच विश्वास करते थे कि यादव, पासवान और मुसलमान का गठजोड़ उनके हाथ में सत्ता लाने वाला है.
पर उधर नीतीश कुमार का ख़ामोशी से बोया चेतना का बीज प्रभावी ढंग से अपना नाम कर रहा था, जिसका असर ये दोनों महसूस ही नहीं कर पाए. इनके कार्यकर्ता और नेता ज़मीनी हक़ीक़त जानते थे, इसलिए इनसे टूटकर नीतीश की पार्टी में शामिल होने लगे. इन्हें कोई चिंता नहीं हुई. पासवान की तो पूरी अल्पसंख्यक इकाई ही नीतीश के साथ चली गई. ये दोनों महाबली पंद्रह साल पुरानी रणनीति पर चल रहे थे. इस बार लालू यादव को लगा कि वह अपने बेटे को चुनावों में जनता के सामने लाकर अपना उत्तराधिकारी घोषित कर देंगे. उनका बेटा तेजस्वी आम सभाओं में भाषण देने लगा. राजनीति में अपने पापा को अपना कोच बताने लगा. उधर राम विलास पासवान ने अपने परिवार के छह लोगों को विधानसभा चुनाव में खड़ा कर दिया, जिनमें उनके दोनों भाई भी शामिल थे. लालू यादव और राम विलास पासवान के पास चुनाव जीतने की कोई योजना थी ही नहीं. लालू यादव की योजना बनाने वाले उनके शिवानंद तिवारी जैसे साथी उन्हें छोड़ गए और जो साथ थे जाबिर हुसैन जैसे, वे ख़ामोश बैठ गए. इन्होंने न केवल अपनी पार्टी को, बल्कि जनता को भी टेकेन फार ग्रांटेड लिया. स्वयं को मुख्यमंत्री घोषित करना लालू यादव के लिए ज़हर हो गया और पशुपति पारस को उप मुख्यमंत्री घोषित करना पासवान के लिए हार का कारण बन गया.
इस फैसले ने बताया कि लालू यादव स़िर्फ यादवों के हाथ में ताक़त देना चाहते हैं, जैसा उन्होंने अपने पूरे कैंपेन में खुलेआम कहा. इससे बिहार के लोगों को लगा कि लालू यादव कहीं भी अपराधियों पर लगाम लगाने की बात नहीं कह रहे हैं, बल्कि सत्ता उनके हाथ में देने की बात कर रहे हैं, जिनके हाथ में इन दिनों नहीं है. लोग कांप गए. तेजस्वी यादव के सभाओं में जाने से लग गया कि अगला मुख्यमंत्री या पार्टी का नेता अब उनका बेटा होगा. लालू यादव की बेटियां और दामाद भी राजनीति में आ सकते हैं, इसने पार्टी में असंतोष बढ़ाया. यादव समाज को लगा कि अब तक रंजन यादव जो कहते रहे हैं, वह सच है कि लालू यादव सारे यादव समाज का इस्तेमाल अपने और अपने परिवार के लिए कर रहे हैं. रंजन यादव ने पागलपन की हद तक जाकर यादव समाज को बताया कि उनका हित नीतीश के साथ है, लालू यादव के साथ नहीं. लालू यादव के साथ दबंग यादव रह गए, बहुमत नीतीश के साथ चला गया. राबड़ी देवी दोनों जगहों से हार गईं. झाझा में नब्बे हज़ार यादव हैं, वहां लालू यादव का यादव उम्मीदवार हार गया, नीतीश जी का जीत गया. राधोपुर में एक लाख यादव हैं, वहां नीतीश कुमार का यादव उम्मीदवार जीता. यादव समाज ने लालू यादव को छोड़ दिया.
नीतीश कुमार ने पंचायतों में महिलाओं को पचास प्रतिशत आरक्षण दिया. अत्यंत पिछड़ी जातियों को भी आरक्षण दिया, इससे इनमें संदेश गया कि अब इन्हें भी सत्ता में हिस्सेदारी मिल सकती है.
राम विलास पासवान हमेशा मुसलमानों के हितों की बात करते आए, पर फैसले का व़क्त आया तो उन्होंने अपने भाई को उप मुख्यमंत्री घोषित किया, किसी मुसलमान को नहीं. काश वह किसी मुसलमान को पहले घोषित कराते तथा अपने भाई को दूसरा उप मुख्यमंत्री घोषित कराते. परिवार के छह लोगों को खड़ा करना भी कार्यकर्ताओं को उनका लालू यादव के रास्ते पर जाना लगा. पंद्रह सालों तक लालू यादव का साथ देने वाले मुसलमानों को लगा कि लालू स़िर्फ वायदे करते हैं और पासवान ज़ुबानी जमा ख़र्च करते हैं. मुसलमानों ने इनका साथ छोड़ दिया तथा नीतीश के साथ भाजपा का साथ दे दिया. राम विलास पासवान का चुनावों में अपने बेटे को घुमाना भी वैसा ही माहौल बना गया, जैसा तेजस्वी के लिए बना था. लोग देखने आते थे, पर दोनों के पिताओं की आलोचना करते जाते थे. मुसलमानों का कहना है कि उन्होंने नीतीश और भाजपा का साथ बहुत सोच-समझ कर दिया है. पंद्रह सालों तक उन्हें कुछ नहीं मिला. इस बार जिस तरह नीतीश ने अति पिछड़ों, महादलितों और महिलाओं के लिए रिज़र्वेशन किया तथा नौकरियों के दरवाज़े खोले, अब उनके लिए भी खुलेंगे. इसीलिए उन्होंने नीतीश के साथ भाजपा को भी जमकर वोट दिया है. यह आशा कितनी पूरी होगी, पता नहीं, पर अगर नीतीश ने मुसलमानों के लिए भी वैसा ही रास्ता निकाला, जैसा दूसरे वंचित वर्गों के लिए निकाला है तो देश के मुसलमान नीतीश कुमार में अपना एक नया नेता देखना शुरू कर देंगे.
कांग्रेस की दुर्गति इसलिए हुई, क्योंकि कांग्रेस कभी अपने उद्देश्य में साफ रह ही नहीं पाई. एक साल से ज़्यादा समय तक रहे अनिल शर्मा ने बिहार कांग्रेस में जान फूंक दी थी. पर बाद में किसके कहने से सारे दलों के खारिज माल को कांग्रेस में शामिल करने का अभियान सा चला. बाद में जगदीश टाइटलर को बिहार का प्रभारी बनाया. उनका अनिल शर्मा से झगड़ा निम्नतम स्तर पर चला गया. कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व ख़ामोश रहा. अचानक चार महीने पहले प्रदेश अध्यक्ष पद पर एक मुसलमान बैठा दिया तथा मुकुल वासनिक को इंचार्ज बना दिया, जिन्हें उत्तर भारत की राजनीति का अ ब स नहीं पता. राहुल गांधी अपने उत्साह में नौजवानों से वायदा करते रहे, पर टिकट उन्हें नहीं मिला. कांग्रेस ने सभी सीटें लड़ीं और सभी हारीं. स़िर्फ चार लोग अपने बूते जीते. अब कांग्रेस के लोग कह रहे हैं कि उन्होंने लालू यादव और राम विलास पासवान को बिहार की राजनीति से साफ करने के लिए यह रणनीति बनाई थी. पर लोगों ने तो नीतीश के एजेंडे का समर्थन किया है. कांग्रेस ने पड़ोसी का अपशकुन करने के लिए अपनी आंख फोड़ ली, इस कहावत को चरितार्थ कर दिया है. कांग्रेस ने बिहार में जानबूझ कर राहुल गांधी को फेल किया या वह स्वयं फेल हो गए, यह कांग्रेस को सोचना है. कांग्रेस को समझना चाहिए कि किसी धर्म या जाति के व्यक्ति को अध्यक्ष बना देने से उस जाति या धर्म का समर्थन नहीं मिल जाता. योग्यता भी होनी चाहिए. भारतीय जनता पार्टी ने बिहार में एक बुद्धिमानी का काम किया कि उसने चुनावों में नरेंद्र मोदी और वरुण गांधी को नहीं बुलाया. इससे मुसलमानों को लगा कि नीतीश कुमार में ताक़त है. साथ ही सुशील मोदी का चेहरा भी और उनकी भाषा भी डरावनी नहीं है. दरअसल सुशील मोदी को बिहार में मुसलमानों सहित दूसरे वर्गों ने विकास का चेहरा माना है. भाजपा में निकट भविष्य में बहस हो सकती है कि भाजपा नरेंद्र मोदी के रास्ते पर चले या सुशील मोदी के. इन चुनावों ने सुशील मोदी के रूप में भाजपा को एक सभ्य, सुशील और मोहक राष्ट्रीय नेता दे दिया है.
नीतीश कुमार के सामने चुनौतियां ही चुनौतियां हैं. अगर देखें तो पिछले पांच साल में नीतीश कुमार ने सामान्य मुख्यमंत्री का अच्छा काम किया, पर यह बुद्धिवादी तर्क है. बिहार की जनता ने नीतीश के काम को असामान्य माना. उसे लगा कि बिहार में प्रशासनिक अंधेरा था, विकास का अंधेरा था, क़ानून व्यवस्था का अंधेरा था, उसमें नीतीश ने एक मोमबत्ती जलाई, अंधेरे में आशा की एक किरण. अब उसे लगा कि मोमबत्ती जलाने वाला अंधेरे को मिटाने वाला उजाला भी ला सकता है. यह बात न राम विलास समझे, न लालू यादव और न ही पत्रकार. नीतीश ने जीवनशैली से भी बिहार के लोगों को प्रभावित किया. उनके रिश्तेदार कभी सामने नहीं आए, दिल्ली में वह कभी चकाचौंध में नहीं रहे. कभी उद्योगपतियों और दलालों के साथ नहीं दिखे. ऐसे विधायकों को घास नहीं डाली, जो ट्रांसफर- पोस्टिंग का उद्योग चलाते थे. इसे जनता ने काफी पसंद किया. इतना ही नहीं, नीतीश का मानवीय स्वभाव भी लोगों ने पसंद किया. जार्ज फर्नांडिस ने नीतीश का विरोध किया, संसद का चुनाव लड़ा, नीतीश की पार्टी के सामने दूसरों का समर्थन किया, पर उनकी तबियत ख़राब थी. नीतीश ने उन्हें बुलाकर राज्यसभा में भेजा. दूसरा उदाहरण दिग्विजय सिंह की पत्नी का है. दिग्विजय सिंह और नीतीश में दूरियां विरोध के स्तर तक बढ़ गई थीं. दिग्विजय सिंह का लंदन में देहांत हो गया. उनकी पत्नी पुतुल सिंह का समर्थन नीतीश कुमार ने लोकसभा उपचुनाव में बिना शर्त किया. वह भारी मतों से जीत गईं. आजकल ऐसी सदाशयता राजनीति में देखने में नहीं आती.
लेकिन चुनौतियां हैं. विकास का पहला इम्तहान बड़ी संख्या में सड़कों का बनना है.
घर-घर बिजली पहुंचाने का वादा पूरा करना है. पचास लाख एकड़ ज़मीन बीस लाख परिवारों में बांटना है. भूमि सुधारों को लागू करना है. बड़े शिक्षण संस्थान बनवाना है. रोज़गार के अवसर कैसे बढ़ें, इसके लिए इंफ्रास्ट्रक्चर मुहैय्या कराना है, ताकि राज्य में विनिवेश हो सके. क़ानून व्यवस्था और बेहतर करनी है. मुसलमानों के लिए वैसी ही योजना बनानी है, जैसी अति पिछड़ों के लिए बनी है. विपक्ष तो नहीं है, इसलिए शिक़ायतों पर ज़्यादा ध्यान देना है. बाहुबलियों को नियंत्रण में रखना है. नीतीश कुमार को पता नहीं होगा कि कोसी की बाढ़ में जान बचाने के लिए सारे बिहार से नावें आई थीं. मल्लाहों ने जान पर खेलकर लोगों को बचाया. आधी से ज़्यादा नावें वापस नहीं लौटीं. मल्लाहों को न मज़दूरी मिली और न खोई नावों का मुआवज़ा. ये ग़रीब नीतीश की तऱफ आज भी देख रहे हैं.
इन चुनावों में नीतीश को महिलाओं, अति पिछड़ों और महादलितों ने संगठित होकर वोट दिया. इन्हें पहली बार अपनी ताक़त का एहसास हुआ और इन्होंने पहली बार ही दबंग यादवों और मज़बूत पासवान समाज की आंखों में आंख डाल, जान पर खेल अपने वोट का इस्तेमाल किया. यह समर्थन इतना ताक़तवर होगा और नीतीश कुमार को इतिहास का नायक बना देगा, यह स्वयं नीतीश कुमार को भी पता नहीं होगा.