यह पूरे देश का आंदोलन है

9-360x216 (1)अन्ना हज़ारे इतिहास में सुनहरा पन्ना बनकर जुड़ गए हैं. आज़ादी के बाद कई नेताओं ने आंदोलन किए, लोग उनके साथ जुड़े, उन्होंने अपनी बातें भी मनवाईं. अनशन हुए, आमरण अनशन हुए, उनमें लोग शहीद भी हुए, लेकिन अन्ना का क़िस्सा इन सबसे अलग है. एक ऐसा आदमी, जो देश में कहीं घूमा नहीं, जिसने राज्यों में सभाएं नहीं कीं, लोगों को तैयार नहीं किया, उनके पास अपना मुद्दा नहीं पहुंचाया, कोई संगठन नहीं बनाया, उसके साथ आज़ादी के बाद का सबसे बड़ा जनसैलाब खड़ा है. कल क्या होगा, कोई नहीं जानता, लेकिन आज सारा हिंदुस्तान अन्ना हजारे के साथ खड़ा है. पिछले 15 सालों में हिंदुस्तान में जनता की नब्ज़ पहचानने वाले लोग बिछ़ुड गए, प्रकृति ने उन्हें हमसे छीन लिया, लेकिन इन 15 वर्षों में हिंदुस्तान की समस्याएं भी अप्रत्याशित रूप से बढ़ीं. नई आर्थिक नीतियां लागू हुईं, साल भर के भीतर ही उनका परिणाम आना शुरू हुआ. पहला घोटाला पांच हजार करोड़ रुपये का हुआ, जिसमें विदेशी बैंक शामिल थे. उन्होंने हिंदुस्तान का पैसा, रिजर्व बैंक के आकलन के हिसाब से पांच हज़ार करोड़ रुपया देश के बाहर भेज दिया. उसमें कोई कार्रवाई नहीं हुई और इसका परिणाम यह निकला कि 2005 से 2011 के बीच देश में घोटालों की बाढ़ आ गई.

इन आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरूप एक तऱफ जहां भ्रष्टाचार गांव-गांव पहुंच गया, पंचायतें भी उसमें शामिल हो गईं, वहीं दूसरी तऱफ एक लाख छिहत्तर हज़ार करोड़ रुपये का घोटाला सामने आया, जिसे भारत के महालेखा नियंत्रक ने पकड़ा 2-जी स्पेक्ट्रम मामले में. इसके बाद इससे बड़ा कोयला घोटाला हुआ और उससे भी बड़ा घोटाला हुआ जिसकी कोई राशि सीएजी की समझ में ही नहीं आई, केजी बेसिन घोटाला. इन सारी स्थितियों ने संकेत दिए कि देश पूरे तौर पर भ्रष्टाचार के ऐसे शिकंजे में फंस गया है, जिससे निकलना लगभग नामुमकिन है. दूसरी तऱफ देश का आम आदमी, जिसमें 60 प्रतिशत लोग सीधे-सीधे आते हैं, लेकिन हम 70 या 75 प्रतिशत मान लें, ये सारे लोग भ्रष्टाचार से पूरी तरह पीड़ित थे. भ्रष्टाचार के साथ की बीमारी जिसका नाम महंगाई है, जिसका नाम बेकारी है, जिनके परिणास्वरूप भूख से मौतें होती हैं, देश में विकास नहीं होता और पैसा नीचे तक नहीं पहुंचता, ये सारी चीजें 2011 तक लोगों की ज़िंदगी में घुस गईं. लोग मन ही मन तड़प रहे थे, मन मसोस रहे थे, पर उन्हें लग रहा था कि पूरा राजनीतिक परिदृश्य ऐसा है, जिसमें किसी दल के पास जाना अंधे के आगे रोने जैसा है, क्योंकि जनता को सारे राजनीतिक दल एक ही चरित्र के दिखाई देने लगे. ऐसा कोई भी नेता उन्हें नहीं दिखाई दिया, जो अलग हो. हर किसी के साथ कोई न कोई स्कैंडल, किसी न किसी पूंजीपति का चेहरा, कोई न कोई विदेशी ताकत. लोगों को लगा कि सारा राजनीतिक तंत्र भ्रष्ट हो चुका है.

भारत की लोकसभा लोकतंत्र का चेहरा है, लेकिन लोकतंत्र का यह चेहरा भी लोगों को डराने लगा. उन्हें लगने लगा कि उनकी किसी भी समस्या का समाधान लोकसभा नहीं दे पाएगी और इसलिए अब उन्होंने अपनी समस्याओं के लिए लोकसभा के दरवाज़े पर आकर उसे खटखटाना बंद कर दिया है. लोग आते थे, यह सौ करोड़ से ज़्यादा लोगों का मुल्क है. संगठन लोगों को लेकर आते थे, वे रस्मी विरोध जंतर-मंतर पर दर्ज करके चले जाते थे. जनता नहीं आती थी, वह किसी राजनीतिक दल के पास नहीं जाती थी, पर उसके अंदर पनप रही घोर निराशा ने गुस्से का स्वरूप लेना शुरू किया. अन्ना जब दिल्ली आए और उन्होंने उपवास किया तो लोगों को लगा कि हां, एक शख्स है, जिसका कोई स्वार्थ इस अनशन में नहीं है, वह हिंदुस्तान में व्याप्त चारों-पांचों महामारियों के ख़िला़फ संघर्ष करना चाहता है और अगर संघर्ष न कर पाया तो अपनी जान दे देना चाहता है. उसके साथ लोगों का मन मिल गया, लोग जुड़ने लगे. एक तऱफ लोग उनसे जुड़ रहे थे और दूसरी तऱफ राजनीतिक पार्टियां और सत्तापक्ष यानी कांग्रेस पार्टी इस आदमी के प्रति लोगों में भ्रम फैलाने में अपनी ताकत लगाने लगीं. जब राजनीतिक पार्टियों ने, जिनमें सत्ता पक्ष सबसे आगे था, अपनी सारी ताकत लगा ली और देखा कि कुछ नहीं बिगड़ रहा है तो उन्होंने मीडिया का सहारा लिया. मीडिया ने भी अन्ना के खिला़फ कई तरह के भ्रम फैलाए, पर लोगों को लगा कि यह सब निहित स्वार्थवश और अन्ना के ख़िला़फ एक सोची-समझी साज़िश है. इसलिए जब अन्ना ने जन लोकपाल की बात की और कहा कि इससे भ्रष्टाचार मिटेगा तो देश की भोली-भाली जनता ने सोचा कि ऐसा हो सकता है और एक नि:स्वार्थ व्यक्ति यह बात कह रहा है, इसलिए उसका साथ देना चाहिए. नतीजे के तौर पर सारा देश अन्ना के साथ खड़ा हो गया.

यह बहस का विषय है कि जन लोकपाल भ्रष्टाचार पर कितना अंकुश लगाएगा, लेकिन यह भ्रष्टाचार से लड़ने की दिशा में एक क़दम साबित हो सकता है, इसमें कोई दो राय नहीं. जनता ने भी यही सोचकर अन्ना का साथ दिया. लेकिन सरकार, जिसके पास इतनी बड़ी मशीनरी है, कर्मचारी हैं, इंटेलिजेंस एजेंसी है, हर विभाग की अपनी ख़ुफिया इकाई है, किसी ने यह खबर सरकार को नहीं दी कि अन्ना के पक्ष में देश का मानस कितना तैयार हो रहा है. परिणाम जो निकलना था, वही निकला. सरकार मुग़ालते में रही और लोग अन्ना के साथ खड़े हो गए. इस सरकार की महान बुद्धिमानी, जिसे दूसरे शब्दों में महान मूर्खता कह सकते हैं, का उदाहरण अगर लेना हो तो 12 अगस्त से लेकर 16 अगस्त तक का समय सबसे उपयुक्त है. 12,13,14 और 15 अगस्त को सरकार के जो तेवर थे, मंत्रियों के जो तेवर थे, सरकार के इशारे पर दिल्ली पुलिस और एमसीडी के जो तेवर थे, वे ऐसे थे, जैसे तानाशाह के तेवर हों. कोई भी मंत्री लोकतांत्रिक भाषा का इस्तेमाल नहीं कर रहा था, इसलिए 17 अगस्त की सुबह तक सरकार को लगा कि अगर उसने तत्काल अपना फैसला नहीं बदला तो हो सकता है कि देश में ऐसे हालात हो जाएं, जो उसके क़ाबू में न रहें और सरकार ने यू-टर्न ले लिया.

कैबिनेट की बैठक में जब अन्ना हज़ारे के खिलाफ क्या कार्रवाई की जाए, इस बारे में बात हो रही थी तो देश के गृहमंत्री ने कहा कि अन्ना के बुलाने पर ढाई हज़ार लोग भी नहीं आएंगे. आप यह कैसे कह सकते हैं, कैबिनेट के एक मंत्री ने पूछा तो उन्होंने कहा कि मेरे पास इंटेलिजेंस है, मुझे पता है. तब दूसरे मंत्री ने कहा कि आपने यही बात बाबा रामदेव के अनशन के समय कही थी कि उनके यहां 500 से 1000 लोग आएंगे, लेकिन आ गए 25,000 लोग. दरअसल दो वकीलों ने इस सरकार को डुबोने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. कपिल सिब्बल और पी चिदंबरम सुप्रीम कोर्ट के वकील हैं. इनके दफ्तर अभी भी काम करते हैं, इनके परिवार के लोग अभी भी वकालत में हैं. ये ऐसे वकील थे, जो सरकार बनने से पहले जब अदालत में जाते थे तो एक पेशी के पांच लाख रुपये लेते थे अपने क्लाइंट से. अदालत भले ही तारी़ख दे दे, लेकिन इन्हें पांच लाख रुपये चाहिए, वरना ये हिलकर सुप्रीम कोर्ट में जज के चेंबर की तऱफ जाते भी नहीं थे. इनका रिश्ता हिंदुस्तान के आम आदमी से कभी रहा ही नहीं. इनका रिश्ता उन लोगों से रहा, जो एक घंटे की सुनवाई के लिए 5 लाख रुपये दे सकते हैं. वे कौन लोग हैं? वे देश के 50 बड़े घराने हैं, जिनके मुक़दमे सुप्रीम कोर्ट में चल रहे हैं. 50 बड़े अपराधी हैं, जिनके मुक़दमे सुप्रीम कोर्ट में चल रहे हैं, वही 5 लाख रुपये एक पेशी का दे सकते हैं. इन मंत्रियों के पास कार्यकर्ताओं से मिलने का व़क्तनहीं है. कार्यकर्ताओं की बिसात क्या, इनके पास सांसदों से मिलने का व़क्त नहीं है. मैं गवाह हूं, संसद के सेंट्रल हॉल में मुझसे कांग्रेस के बीसियों सांसदों ने कहा कि ये दोनों मिलकर पार्टी को डुबो देंगे. मनमोहन सिंह को इस्ती़फा देने के लिए मजबूर होना पड़ेगा. जब कांग्रेस के सांसद ऐसी बात कहें तो मान लेना चाहिए कि यह सरकार कैसी चल रही है और मुझे पूरा भरोसा है कि यह सरकार कुछ न कुछ कमाल अभी और करेगी, जिससे देश के लोगों को लगेगा कि यह किसी भी तरह से उनकी सरकार नहीं है और विपक्षी दल कुछ न कुछ ऐसा नाटक ज़रूर करेंगे, जिससे पता चलेगा कि ये जितने लोग राजनीति में नेता बनने का दावा करते हैं, उस दावे के लायक़ हैं नहीं, क्योंकि जनता की आकांक्षा कुछ है और ये कुछ और करना चाहते हैं.

अन्ना जब दिल्ली आए और उन्होंने उपवास किया तो लोगों को लगा कि हां, एक शख्स है, जिसका कोई स्वार्थ इस अनशन में नहीं है, वह हिंदुस्तान में व्याप्त चारों-पांचों महामारियों के ख़िला़फ संघर्ष करना चाहता है और अगर संघर्ष न कर पाया तो अपनी जान दे देना चाहता है. उसके साथ लोगों का मन मिल गया, लोग जुड़ने लगे. एक तऱफ लोग उनसे जुड़ रहे थे और दूसरी तऱफ राजनीतिक पार्टियां और सत्तापक्ष यानी कांग्रेस पार्टी इस आदमी के प्रति लोगों में भ्रम फैलाने में अपनी ताक़त लगाने लगीं. जब राजनीतिक पार्टियों ने, जिनमें सत्ता पक्ष सबसे आगे था, अपनी सारी ताक़त लगा ली और देखा कि कुछ नहीं बिगड़ रहा है तो उन्होंने मीडिया का सहारा लिया. मीडिया ने भी अन्ना के खिला़फ कई तरह के भ्रम फैलाए, पर लोगों को लगा कि यह सब निहित स्वार्थवश और अन्ना के ख़िला़फ एक सोची-समझी साज़िश है. इसलिए जब अन्ना ने जन लोकपाल की बात की और कहा कि इससे भ्रष्टाचार मिटेगा तो देश की भोली-भाली जनता ने सोचा कि ऐसा हो सकता है और एक नि:स्वार्थ व्यक्ति यह बात कह रहा है, इसलिए उसका साथ देना चाहिए.

हो सकता है, देश के सारे लोग अन्ना हजारे के समर्थन में दिल्ली की तरफ कूच कर दें. कितना रोकेंगी राज्य सरकारें, क्योंकि उन्हें भी समझ में आ गया है कि जो जन उभार दिल्ली में दिखाई दिया, वही उनकी राजधानी में भी दिखाई दे सकता है. इसलिए कोई भी हाथ सेंकते हुए अपने हाथ जलाना नहीं चाहेगा. अगर सारे देश के लोग दिल्ली की तऱफ कूच कर जाएं, भ्रष्टाचार के खिला़फ अन्ना की मुहिम में साथ देने की शपथ खाने लगें तो क्या स्थिति होगी? अगर यही बात देश के क़स्बों-गांवों तक पहुंच जाए. बहुत सारे क़स्बों और गांवों में अन्ना को लेकर खासी उत्सुकता है. शायद वहां भी यह मुद्दा पहुंच चुका है. लेकिन अभी भी वे लोग, जो जनता के उभार के खिला़फ हैं और वे टेलीविज़न चैनल, जो जनता की आकांक्षा को नहीं समझ पा रहे हैं, एक नई बहस शुरू करना चाहते हैं. उनके अनुसार, इस आंदोलन में दलित नहीं हैं, अल्पसंख्यक नहीं हैं. यहां सवाल यह है कि उन्हें कैसे पता चला कि इसमें दलित नहीं हैं, अल्पसंख्यक नहीं हैं. क्या वे यह चाहते हैं कि दलित उसी रूप में सामने आएं, फटे कपड़े-फटे जूते पहन कर और भूखा पेट लेकर, तभी वे मानेंगे कि आंदोलन में दलित शामिल हुआ. या फिर अल्पसंख्यक, जिनमें मुसलमान सबसे प्रमुख है, वह इस रूप में सामने आए कि लंबी दाढ़ी, ऊंचा पायजामा, लंबा कुर्ता, तभी वे मानेंगे कि मुसलमान इसमें शामिल है. यह देश को भटकाने की उनकी साजिश का एक हिस्सा है. इस आंदोलन में नौजवान शामिल है. नौजवान ने पहली बार देश में खड़े होकर यह बताया कि वह क्या चाहता है. वह भ्रष्टाचार से मुक्ति और नया हिंदुस्तान चाहता है. इन नौजवानों में दलित भी हैं, अल्पसंख्यक भी हैं, पिछड़े भी हैं और अगड़े भी हैं यानी कुल मिलाकर पूरा देश शामिल है.

यह मध्य वर्ग का आंदोलन नहीं है. हम अपने साथियों को चुनौती देते हैं कि वे हमें सबूत दें कि यह मध्य वर्ग का आंदोलन है. हम उन्हें सबूत देते हैं, पूरी ज़िम्मेदारी के साथ सबूत देते हैं कि यह मध्य वर्ग का आंदोलन नहीं है, देश का आंदोलन है. सेना जब लड़ाई लड़ती है तो कुछ टुकड़ियां आगे होती हैं और कुछ पीछे. महान बुद्धिमानों को, जो इतिहास में नकटे के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराना चाहते हैं, उनसे हम यह कहना चाहेंगे कि लड़ाई में हरेक का रोल होता है. सीमा पर जो बंदूक़ चलाता है, वह बंद़ूक नहीं चला सकता, अगर उसे गोलियों की सप्लाई न हो. गोलियों की सप्लाई करने वाली अलग यूनिट होती है. वह गोली नहीं चला सकता, अगर उसके पास खाना बनकर न आए और उसके पेट में खाना न जाए. वह गोली नहीं चला सकता, अगर उसके कपड़े साफ न हों, क्योंकि एक तऱफ वह निशाना लगाता है दुश्मनों पर, अगर उसके कपड़े गंदे हों, उनमें कीड़े हो गए हों तो उसका निशाना चूक सकता है. हरेक का रोल है. धोबी, मोची, डाकिया जो संदेश लाता है ले जाता है और वायरलेस ऑपरेटर, इन सबका लड़ाई में रोल होता है. उसी तरीके से इस नई लड़ाई में, जिसे अन्ना आज़ादी की दूसरी लड़ाई कहते हैं, सबका रोल है और सब अपना-अपना रोल निभा रहे हैं. इस जन उभार को समझना चाहिए, इसका साथ देना चाहिए और देश बदलने की आशा लिए लोगों द्वारा देखे जाने वाले सपने को हम सबको सलाम करना चाहिए.


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