मीडिया को उन तर्कों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए, जिन तर्कों का इस्तेमाल अपराधी करते हैं. अगर तुमने बुरा किया तो मैं भी बुरा करूंगा. मैंने बुरा इसलिए किया, क्योंकि मैं इसकी तह में जाना चाहता था. यह पत्रकारिता नहीं है और अफसोस की बात यह है कि जितना ओछापन भारत की राजनीति में आ गया है, उतना ही ओछापन पत्रकारिता में आ गया है, लेकिन कुछ पेशे ऐसे हैं, जिनका ओछापन पूरे समाज को भुगतना पड़ता है. अगर न्यायाधीश ओछापन करें तो उससे देश की बुनियाद हिलती है. उसी तरह अगर डॉक्टर ओछापन करें तो देश की नींव खोखली होती है, लोगों की जान जाती है. अगर मीडिया में यह सब शुरू हो जाए, जिसे हम ओछापन कहते हैं, तो फिर यह मानना चाहिए कि समाज के सारे अंग स्वतंत्र हो जाएंगे और इतने बेलगाम हो जाएंगे कि वे इस मुल्क में हर एक को ख़रीदने का सपना पाल लेंगे.
ज़ी न्यूज के मसले में मेरा सा़फ मानना है कि अगर ज़ी न्यूज़ के मालिकों को यह बात पता थी, तो उन्होंने यह बहुत ग़लत काम किया है. ज़ी न्यूज़ के संपादक सुधीर चौधरी स्टिंग ऑपरेशन के नाम पर नवीन जिंदल के पास गए. उनके साथ उनकी मार्केटिंग टीम का एक आदमी भी था. सवाल यह है कि क्या संपादक ख़ुद स्टिंग ऑपरेशन करने जाता है? अगर संपादक स्टिंग ऑपरेशन करने जाता है तो वह पहले भी कुछ न कुछ ऐसी रिपोर्ट कर चुका होगा, जिसने लोगों का ध्यान खींचा हो. मुझे याद नहीं आता कि सुधीर चौधरी ने पहले कोई ऐसी रिपोर्ट की हो, जो हम में से किसी को याद हो. मार्केटिंग टीम का सदस्य कैसे पत्रकार बन गया? अगर सुधीर चौधरी ने स्टिंग ऑपरेशन किया तो स्टिंग ऑपरेशन का एक बुनियादी सूत्र है कि जब आप घुसते हैं तो तबसे आपका कैमरा ऑन हो जाता है या टेप रिकॉर्डर ऑन हो जाता है. इसलिए जितनी चीजें वहां घट रही हों, वे सब रिकॉर्ड होती हैं और उनमें से बिना छेड़छाड़ किए उस पूरे फुटेज को दिखाते हैं, तभी माना जाता है कि स्टिंग ऑपरेशन कंप्लीट है, नहीं तो एडिटिंग वर्जन या चुने हुए दृश्य दिखाना कभी भी पत्रकारिता के सिद्धांत के लिहाज़ से सही नहीं है. पर यहां तो कोई फुटेज सामने आया ही नहीं. ज़ी न्यूज़ ने पिछले कई दिनों से एक अभियान चला रखा है और जिसमें नवीन जिंदल को लेकर कई कहानियां सामने आईं, जिनसे लगा कि ज़ी न्यूज़ ने कोई बड़ा ख़ुलासा किया है. लेकिन नवीन जिंदल ने प्रेस कॉफ्रेंस करके यह बता दिया और यह बात सबको पता चल गई. उन्होंने वीडियो दिखा दिया कि ज़ी न्यूज़ के संपादक और उनकी मार्केटिंग टीम उनसे क्या बात कर रहे थे. शायद इसलिए संपादकों की संस्था एनबीए ने जांच की और सुधीर चौधरी को दी गईं ज़िम्मेदारियां वापस ले लीं.
यह परेशान करने वाली स्थिति है. नवीन जिंदल से यह आशा नहीं करनी चाहिए कि वह किसी भी बात को अपने हित में नहीं मोड़ेंगे, लेकिन नवीन जिंदल ने यह एक अच्छा काम किया. अच्छा काम उन्होंने यह किया कि अगर उनसे कोई पत्रकार या संपादक बात करने गया तो उन्होंने उसकी सारी बात रिकॉर्ड कर ली. हो सकता है कि उनके पास कुछ और पत्रकारों की बात रिकॉर्ड में हो, क्योंकि यह रकम जो सुधीर चौधरी ने मांगी, थोड़ी हैसियत से ज़्यादा थी. चाहे वह विज्ञापन के रूप में मांगी गई हो या किसी और तरीक़े से. अब सवाल स़िर्फ यही उठता है कि जी न्यूज़ के मालिकों को इस घटना की जानकारी थी या नहीं थी.
यह परेशान करने वाली स्थिति है. नवीन जिंदल से यह आशा नहीं करनी चाहिए कि वह किसी भी बात को अपने हित में नहीं मोड़ेंगे, लेकिन नवीन जिंदल ने यह एक अच्छा काम किया. अच्छा काम उन्होंने यह किया कि अगर उनसे कोई पत्रकार या संपादक बात करने गया तो उन्होंने उसकी सारी बात रिकॉर्ड कर ली. हो सकता है कि उनके पास कुछ और पत्रकारों की बात रिकॉर्ड में हो, क्योंकि यह रकम जो सुधीर चौधरी ने मांगी, थोड़ी हैसियत से ज़्यादा थी. चाहे वह विज्ञापन के रूप में मांगी गई हो या किसी और तरीक़े से. अब सवाल स़िर्फ यही उठता है कि जी न्यूज़ के मालिकों को इस घटना की जानकारी थी या नहीं थी. ऐसा लगता है कि शायद उसके मालिकों को इस पूरे कांड के बारे में अच्छी तरह पता है और अब तक सुधीर चौधरी का ज़ी न्यूज़ में बने रहना यह दर्शाता है कि इस सारी चीज़ में ज़ी के सारे मालिक और संपादक शामिल थे. मैं ऐसी पत्रकारिता को ग़लत पत्रकारिता मानता हूं. हम पत्रकारों में ऐसी पत्रकारिता के ख़िला़फ हाथ खड़े करने की हिम्मत होनी चाहिए, लेकिन हमारे बहुत सारे साथी इसलिए हाथ खड़ा करने की हिम्मत नहीं करेंगे, क्योंकि उन्हें लगता है कि अगर उन्होंने कुछ किया तो ज़ी न्यूज़ उनसे नाराज़ हो जाएगा और बाद में ज़रूरत पड़ी तो उन्हें वहां नौकरी नहीं मिलेगी. लेकिन, नौकरी के लिए अगर आप अपने ज़मीर को ताख पर रखते हैं, तो मैं इससे सहमत नहीं हूं.
नवीन ज़िंदल उद्योगपति हैं. नवीन जिंदल को कोल ब्लॉक्स मिले, सांसद रहते हुए उन्होंने अपनी पार्टी को प्रभावित करके पैसा कमाया, सबसे पहले उसकी जांच होनी चाहिए, लेकिन वह जांच इसलिए नहीं होगी, क्योंकि नवीन जिंदल की तरह और बहुत सारे लोग जो कांग्रेस से जुड़े हैं या कांग्रेस के सांसद हैं, वे सब कोयला घोटाले में शामिल हैं. उनकी जांच नहीं होगी. सवाल यह है कि पत्रकार का रोल समाज में मुंसिफ और न्यायाधीश जैसा माना जाता है. उसके लिखे शब्दों पर लोग भरोसा करते हैं. आम आदमी उसके लिखे हुए शब्दों और टेलीविज़न में देखे गए दृश्यों को बिल्कुल वास्तविकता मान लेता है. जिस तरह वह गीता में लिखे हुए श्लोकों को वास्तविकता मान लेता है, आदर्श मानता है, उसी तरह हमारे प्रिंट मीडिया या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया या टेलीविज़न न्यूज में दिखाई गई चीज़ों के ऊपर भरोसा कर लेता है. अब अगर हमारे बीच में से ऐसे लोग निकल आएं, जो प्रायोजित पत्रकारिता करें या घूसखोरी की पत्रकारिता करें या ऐसी पत्रकारिता करें, जिससे समाज की नींव हिल जाए और उस पवित्रता को, जिसे अलिखित रूप में लोकतंत्र का चौथा खंभा माना जाता है, जिसके ऊपर यह ज़िम्मेदारी है कि वह तीन खंभों के ऊपर निगरानी रखे, तो फिर ऐसे लोग अगर हमारे बीच में से पैदा होंगे या ट्रेंड बढ़ेगा तो हम उस चीज़ से चूक जाएंगे.
पत्रकारिता में एक चीज़ समझनी चाहिए कि कहीं यह नहीं लिखा है कि पत्रकार को कुछ कहने से कोई रोके. जो पत्रकार नहीं है या जो कोई स्वयं को पत्रकार नहीं कह सकता, अगर वह किसी को भी रोकता है तो लोग उसे गाली देकर आगे बढ़ जाते हैं, लेकिन जब कोई उसे रोकता है और कहता है कि मैं पत्रकार हूं तो प्रधानमंत्री से लेकर एक साधारण अफसर तक रुक जाता है और उसकी बात सुनता है. यह हक़ लिखित रूप में कहीं नहीं है, लेकिन समाज ने अलिखित हक़ स़िर्फ पत्रकारों को दिया है. इसका मतलब पत्रकारों को जो इज़्ज़त मिली है, जो सम्मान मिला है, हमारे सिस्टम में, हमारे समाज में उस सम्मान का मज़ाक उड़ाने का हक़ किसी के पास नहीं है. पत्रकारों के पास भी नहीं है, क्योंकि एक आदमी इस पूरी बिरादरी की इज़्ज़त दांव पर अगर लगाने की बात करता है तो उससे घटिया कोई आदमी है ही नहीं. मैं पूरी ज़िम्मेदारी और पूरे गौरव के साथ ऐसी पत्रकारिता का विरोध करता हूं. मुझे कतई भरोसा नहीं है कि सुधीर चौधरी या ज़ी गु्रप के मालिक मा़फी मांगेंगे, लेकिन उन्हें देश से मा़फी मांगनी चाहिए. मा़फी इसलिए मांगनी चाहिए, क्योंकि उन्होंने पत्रकारिता का अपमान किया है, जिसके ऊपर देश के लोग गीता और बाइबिल की तरह भरोसा करते हैं. और शायद आगे से लोग पत्रकारों को ऐसी नज़र से देखेंगे, जैसे दलालों को देखते हैं. मुझे याद है, मेरे मित्र विनोद दुआ ने दो पत्रकारों का उदाहरण देते हुए कहा था कि पहले जब हम किसी से बात करते थे, तो लोग कहते थे कि आप सही कह रहे हैं विनोद जी, हम अपने अंदर झांकेंगे, लेकिन टू जी स्पेक्ट्रम में दो बड़े पत्रकारों के नाम आने के बाद विनोद दुआ ने मुझे बताया कि जब उन्होंने कई नेताओं से बात की तो उन्होंने कहा कि विनोद जी, अपने गिरेबान में भी झांककर देख लीजिए, अपनी बिरादरी में देख लीजिए कि किस तरह के लोग हैं, कितने बड़े दलाल हैं. आप हम पर क्यों उंगली उठाते हैं. इसका दर्द स़िर्फ विनोद दुआ को नहीं है, हम सब लोगों को हैं, जो ईमानदारी से पत्रकारिता करते हैं. लेकिन इस ज़ी न्यूज़ की घटना ने हमें दलाल से बढ़ाकर एक्सटॉर्शन मनी देने वाला बना दिया है. पैसा वसूलने वाला, धमकी देकर पैसा वसूलने वाला बना दिया है. मैं शायद कड़े शब्द इस्तेमाल कर रहा हूं, लेकिन इस आशा से कर रहा हूं कि सुधीर चौधरी इसका बुरा न मानें, ज़ी न्यूज़ के लोग इसका बुरा न मानें और अगर वे बुरा मानते हैं तो मानें, क्योंकि उन्होंने पत्रकारिता के पेशे का अपमान किया है और उन्हें इस अपमान का हक़ कम से कम पत्रकारिता तो नहीं देती.