क्या छत्तीसग़ढ में लोकतंत्र नहीं है

jab-top-mukabil-ho1दिल्ली के उन नेताओं को धन्यवाद देना चाहिए, जो पत्रकारिता जगत का नेतृत्व करते हैं. इनके लिए सारा देश दिल्ली है. अगर दिल्ली में किसी अख़बार के साथ कुछ ग़लत हो तो इनके लिए बहुत बड़ा सवाल बन जाता है. अगर किसी पत्रकार के साथ कुछ हो तो और भी बड़ा सवाल बन जाता है. मीटिंग होती है, सभाएं होती हैं, जुलूस निकाले जाते हैं. लेकिन देश के दूसरे हिस्सों में अगर पत्रकारों के साथ कुछ ग़लत हो तो पत्रकारिता जगत के नेताओं पर कोई असर नहीं होता. कहावत के रूप में कहें तो इनके कानों पर जूं तक नहीं रेंगती. छत्तीसगढ़ में बहुत कुछ हो रहा है. छत्तीसगढ़ नक्सलवाद से सबसे ज़्यादा प्रभावित प्रदेश माना जा रहा है. छत्तीसगढ़ में सबसे ज़्यादा प्राकृतिक संपदा है. हमारे देश की बड़ी से बड़ी कंपनियां छत्तीसगढ़ में मौजूद हैं और वे छत्तीसगढ़ की खनिज संपदा को सारी दुनिया में लेकर जा रही हैं. उनका व्यापार कर रही हैं. बहुत सारा व्यापार वैध ढंग से होता है और कुछ व्यापार अवैध ढंग से भी होता है. अवैध ढंग से होने वाला व्यापार, कहने को छोटा है, लेकिन पैसे के मामले में बहुत बड़ा है और इसमें सबका हिस्सा होता है. छत्तीसगढ़ एक ऐसा प्रदेश है, जहां विकास की योजनाओं में सबसे ज़्यादा भ्रष्टाचार है. छत्तीसगढ़ ऐसा प्रदेश है जहां ग़रीबों, आदिवासियों और वंचितों की संख्या बहुत ज़्यादा है. छत्तीसगढ़ में जनता का समर्थन नक्सलवादियों के साथ है, ऐसा पहली नज़र में दिखाई देता है. ऐसा इसलिए है, क्योंकि सारे लोग वहां की विकास योजनाओं में भ्रष्टाचार और विकास की अनदेखी से परेशान हैं. यह परेशानी तब और बढ़ जाती है, जब सरकार या प्रशासन से शिकायत करने के बाद शिकायत तो दूर होती नहीं, इसके विपरीत शिकायतकर्ता ही शासन और प्रशासन की नज़र में आ जाता है. शिकायत करने वाले को परेशान करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी जाती. ऐसी घटनाओं की भरमार है और शायद इसलिए छत्तीसगढ़ के लोग नक्सलवादियों के बारे में कोई सूचना सरकार को नहीं देते. नक्सलवादी राजनीतिक लड़ाई लड़ रहे हैं. वे ग़रीबों से कहते हैं कि तुमने भ्रष्टाचार की शिकायत करके देख लिया, अत्याचार की शिकायत करके देख लिया. क्या हुआ? उल्टे तुम पर ही ज़ुल्म हुआ. यह ज़ुल्म किसने किया? यह ज़ुल्म उन्होंने किया, जिन्हें तुमने चुनकर भेजा, जो तुम्हारे प्रतिनिधि हैं. तुम्हारी सरकार ने ही तुम पर ज़्यादतियां कीं. इसलिए यह सरकार तुम्हारी नहीं है, ये प्रतिनिधि तुम्हारे नहीं हैं. यह सरकार और प्रतिनिधि पूंजीपतियों के हैं. उन पैसे वालों के हैं, जिनका हित तुम्हारा हित नहीं है. उनका हित तुम्हारी ग़रीबी और बेरोज़गारी में है. उनका हित तुम्हारी मौत में है. जब यह भाषा नक्सलवादी इस्तेमाल करते हैं, तो समझ और रोजमर्रा के अनुभवों से उन्हें लगता है कि नक्सलवादी सही कह रहे हैं.

छत्तीसगढ़ सरकार राजनीतिक लड़ाई नहीं लड़ पा रही है. वह वहां के लोगों को विश्वास नहीं दिला पा रही है कि हम तुम्हारे और तुम हमारे हो, बल्कि वह नक्सवादियों की कही हुई बातों को पुख्ता करते हुए लोगों के खिला़फ खड़ी नज़र आती है. परिणामस्वरूप लोगों का लोकतांत्रिक व्यवस्था से मोहभंग हो रहा है, जो बहुत ख़तरनाक है. करेला और ऊपर से नीम चढ़ा, यह कहावत छत्तीसगढ़ सरकार पर सटीक बैठती है, क्योंकि सरकार से जुड़े लोग वहां के वरिष्ठ अधिकारी और स्वयं मुख्यमंत्री प्रशासन को सुचारू रूप से चलाने में अपनी कुशलता नहीं दिखाते. भ्रष्टाचार होते हैं. कभी-कभी भ्रष्टाचार सीमा पार कर जाता है. भाई-भतीजावाद होता है. भाई-भतीजावाद भी सीमा पार कर जाता है. और जब इन्हें कुरेदने की कोशिश मीडिया करता है, तो छत्तीसगढ़ सरकार की आंख चढ़ जाती है. पिछले दो-तीन सालों से छत्तीसगढ़ में ऐसा ही हो रहा है. मध्य प्रदेश विधानसभा में छत्तीसगढ़ में भूमि और खानों के पट्टों को लेकर आरोप लगे. अगर उन्हें छत्तीसगढ़ में टेलीविज़न चैनल दिखा दें या अख़बार छाप दें तो वहां की सरकार छत्तीसग़ढ के टेलीविज़न चैनलों और अख़बारों को अपना दुश्मन मान लेती है. अगर सत्ता के असरदार लोगों के क्रियाकलापों से उपजे भ्रष्टाचार को राजस्थान पत्रिका उजागर करे तो उसके विज्ञापन बंद हो जाते हैं. ऐसा लगता है, जैसे छत्तीसगढ़ सरकार का पैसा मुख्यमंत्री और कुछ अधिकारियों का निजी पैसा है. अगर टीवी चैनल सरकार से कहें कि आप हमारे साथ न्याय कीजिए तो उनका यह कहना छत्तीसगढ़ सरकार को नहीं सुहाता. अगर टीवी चैनल यह कहें कि आप जितना पैसा विज्ञापन के तौर पर अख़बारों को देते हैं, उतना ही पैसा विज्ञापन के तौर पर आप टीवी चैनलों को भी दें, तो यह भी मुख्यमंत्री को नहीं सुहाता. मुख्यमंत्री यह तो चाहते हैं कि टीवी चैनल उन्हें रोज दिखाएं, उनकी प्रशंसा करें, अख़बारों में उनके क़सीदे प़ढें जाएं, लेकिन इन अख़बारों और टीवी चैनलों को उनका हक़ न मिले, क्योंकि उन्होंने चरणवंदना में थोड़ी कोताही कर दी. यह बड़े दुख की बात है.

सरकार या प्रशासन से शिकायत करने के बाद शिकायत तो दूर होती नहीं, इसके विपरीत शिकायतकर्ता ही शासन और प्रशासन की नज़र में आ जाता है. शिकायत करने वाले को परेशान करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी जाती. ऐसी घटनाओं की भरमार है और शायद इसलिए छत्तीसगढ़ के लोग नक्सलवादियों के बारे में कोई सूचना सरकार को नहीं देते. नक्सलवादी राजनीतिक लड़ाई लड़ रहे हैं. वे ग़रीबों से कहते हैं कि तुमने भ्रष्टाचार की शिकायत करके देख लिया, अत्याचार की शिकायत करके देख लिया. क्या हुआ? उल्टे तुम पर ही ज़ुल्म हुआ. यह ज़ुल्म किसने किया? यह ज़ुल्म उन्होंने किया, जिन्हें तुमने चुनकर भेजा, जो तुम्हारे प्रतिनिधि हैं.

रमन सिंह का यह दूसरा कार्यकाल है. पहले कार्यकाल में रमन सिंह का़फी लोकप्रिय साबित हुए, लेकिन दूसरे कार्यकाल में उनके प्रति मीडिया और जनता में भी ग़ुस्सा है. रमन सिंह का चेहरा एक शांतिप्रिय और भले व्यक्ति का चेहरा है. लेकिन उस चेहरे के पीछे जो लोग खड़े हैं, वे ईमानदार नहीं हैं. शायद इसी का नतीजा है कि रमन सिंह भी वही भाषा बोलने लगे हैं, जो भाषा उनके अधिकारी बोलते हैं. जिस अधिकारी या मुख्यमंत्री की हिम्मत यह हो जाए कि वह सार्वजनिक रूप से कहे कि हम मीडिया को देख लेंगे. और इसके बाद अख़बारों के विज्ञापन बंद हो जाएं और टीवी चैनलों का दिखाया जाना बंद हो जाए, तो इससे यही पता चलता है कि ऐसे संवेदनहीन लोग जनता से कैसा व्यवहार करते होंगे. जनता की शिकायतें कैसे सुनते होंगे. जनता का सम्मान कैसे करते होंगे. क्या इनके मन में जनता के प्रति कुछ करने की भावना बाक़ी बची है? मुझे लगता है, नहीं. इसलिए छत्तीसगढ़ में जीडीपी का खेल चल रहा है. छत्तीसगढ़ में विकास को आंक़डेबाज़ी के सहारे दिखाने की कोशिश हो रही है. यह सारा खेल कहीं अपनी अंदरूनी कहानी ख़ुद न कह दे, इसलिए छत्तीसगढ़ में मीडिया पर हंटर भी चल रहा है. अभी रमन सिंह ने मीडिया के एक हिस्से के ख़िला़फ मुक़दमा किया और यह कहा कि इन लोगों ने जो चीज़ें दिखाई हैं या लिखी हैं, इससे उनकी इज्ज़त पर आंच आई है. इसका स्वागत करना चाहिए, क्योंकि यह लोकतांत्रिक तरीक़ा है. आप प्रेस काउंसिल में जाएं, अदालत में जाएं. आप अपनी शिकायत अ़खबार वालों के खिला़फ करें, यह लोकतांत्रिक तरीक़ा है. लेकिन आप एक्साइज़ वालों को बुलाकर और यह आदेश दे दें कि केबल ऑपरेटर्स चैनलों को न दिखाएं, यह अलोकतांत्रिक और तानाशाही तरीक़ा है.

केबल मालिकों को धमकाना इसलिए आसान है, क्योंकि एक बड़े केबल नेटवर्क के मालिकों में एक शराब का ठेकेदार भी शामिल है. उसे धमकाने के लिए एक्साइज़ से बढ़िया और क्या विभाग हो सकता है. जब पत्रकार पूछने के लिए जाएं तो एक्साइज़ डिपार्टमेंट का चीफ कहे कि आप यह बात मुख्यमंत्री जी से पूछें, उनके कार्यालय से पूछें. मैंने तो उनके कार्यालय के आदेश पर ऐसा किया है. अगर वे केबल मालिकों से पूछें तो वे कहते हैं कि ऐसा मुख्यमंत्री के आदेश से हुआ है, आप वहां संपर्क करें. यह शर्मनाक भी है और अ़फसोसनाक भी कि मुख्यमंत्री का कार्यालय इन चीज़ों में प्रत्यक्ष रूप से हिस्सा ले रहा है. मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव, जो सूचना सचिव भी हैं, सक्षम हैं, लेकिन ग़ुस्से वाले हैं. उनको लगता है कि डंडे की भाषा ही एक ऐसी भाषा है, जिससे पत्रकारों को ठीक किया जा सकता है. उनके और भी दो सक्षम अधिकारी हैं. चूंकि वे नीचे हैं और पहले वाले प्रिसिंपल सेक्रेट्री हैं, इसलिए इनकी कुछ चलती नहीं है. रमन सिंह को यह समझ में नहीं आता कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री से तो किसी को कोई शिकायत नहीं है. कांग्रेस वाले परेशान हैं, यह अलग बात है. जनता उनसे परेशान नहीं है. मीडिया उनसे परेशान नहीं है. इसका कारण शायद रमन सिंह कभी न खोज पाएं, क्योंकि वह मध्य प्रदेश की तऱफ देखेंगे ही नहीं. रमन सिंह आत्मनिरीक्षण भी नहीं करेंगे. इसलिए रमन सिंह के हित में अरुण जेटली, सुषमा स्वराज और लालकृष्ण आडवाणी से मैं यह अपील करता हूं कि इन तीनों में से कोई दो रायपुर चले जाएं और छत्तीसगढ़ की मीडिया और जनता को बुलाकर जनसुनवाई करें. मैं इस जन सुनवाई को टेलीविज़न चैनलों से लाइव दिखाने की अपील करूंगा. मैं अगर उनसे यह अनुरोध करूंगा तो शायद वे इस अनुरोध को मान लें और इस जनसुनवाई को लाइव करें. अगर उस सार्वजनिक सुनवाई में इन दोनों नेताओं को लगे कि हम जो लिख रहे हैं, उनमें सत्यता है तो उन्हें रमन सिंह जी से बात कर कुछ अलग सोचना और करना चाहिए. लेकिन अगर उन्हें लगे कि कुछ नहीं करना है तो हम उसका भी स्वागत करेंगे. क्योंकि तब हमें समझ में आ जाएगा कि ख़ुदा गंजे को ना़खून इसलिए देता है कि वह अपने को लहुलूहान कर ले. ख़ुदा गंजे को ना़खून नहीं देता, इस कहावत को उसके सही अर्थ में ही समझ लीजिए. होता अक्सर यही है कि राजनीति में आने वाले ज़्यादातर लोग गंजे हो जाते हैं. वह कहीं इसे अपने ऊपर कटाक्ष न समझ लें, मैं उनसे क्षमा चाहता हूं. मैंने स़िर्फ कहावत का कहावत की तरह ही इस्तेमाल किया है.


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