महाभारत शायद आज की सबसे बड़ी वास्तविकता है. इस महाभारत की तैयारी अलग-अलग स्थलों पर अलग तरह से होती है और लड़ाई भी अलग से लड़ी जाती है, लेकिन 2013 और 2014 का महाभारत कैसे लड़ा जाएगा, इसका अंदाज़ा कुछ-कुछ लगाया जा सकता है, क्योंकि सत्ता में जो बैठे हुए लोग हैं या जो सत्ता के आसपास के लोग हैं, वे धीरे-धीरे इस बात के संकेत दे रहे हैं कि वे किन हथियारों से लड़ना चाहते हैं. एक पक्ष राजनीतिक दलों का, सरकार का और दूसरा पक्ष निहत्थे एवं बेबस आम लोगों का है. हिंदुस्तान में आने वाले एक साल के भीतर महाभारत की तैयारी में जो तत्व निर्णायक रूप से काम करेंगे, उनमें पहला है एक पक्ष, जिसे हम सत्ता पक्ष कह सकते हैं और इस सत्ता पक्ष में हिंदुस्तान की संसदीय प्रणाली में हिस्सा लेने वाले तमाम दल शामिल हैं. उनका अहंकार, उनकी जनता से दूरी, जनता की समस्याओं को प्राथमिकता तो छोड़ दें, अपनी पूरी कार्यसूची में ही शामिल न करना और साथ ही साथ जनता की आवाज़ दबाने के लिए किए जा रहे दमनकारी उपायों में सारे लोगों का लगभग बराबर का हिस्सेदार होना. दूसरा पक्ष, जिसके निर्णायक तत्व होंगे भूख, बेकारी-बेरोज़गारी एवं महंगाई और साथ ही साथ नौजवानों के तमाम सपनों के ऊपर तालाबंदी. नौजवानों के सपनों के ऊपर तालाबंदी का मतलब यह है कि अब हिंदुस्तान के वे सारे नौजवान, जो कि लगभग 90 प्रतिशत हैं और पूरी आबादी का लगभग 70 प्रतिशत होते हैं, इस 70 प्रतिशत के 90 प्रतिशत लोगों के सामने अब कोई भविष्य नहीं है, विकास का कोई मॉडल नहीं है, आचरण का कोई मॉडल नहीं है और सिद्धांत का कोई मॉडल नहीं है. नतीजे के तौर पर वे अपने अंदर की तकलीफ़ का प्रकटीकरण करने के लिए एक योजनाबद्ध तरी़के से काम करने की जगह छिटपुट तरी़के से काम कर रहे हैं. पर यह तत्व हिंदुस्तान की कुल आबादी के 70 प्रतिशत नौजवानों को खड़ा करने में एक बड़ा रोल प्ले करेगा और दूसरी तरफ़ इन 70 प्रतिशत नौजवानों के मां-बाप, जो अपने बच्चों के दर्द को पहले से ज़्यादा समझ रहे हैं, उनकी बेबसी और लाचारी को पहले से ज़्यादा देख रहे हैं, उनके साथ खड़े होंगे. इसलिए आज़ाद भारत का 2013 से 2014 के बीच लड़ा जाने वाला महाभारत बहुत ज़्यादा ख़तरनाक साबित होगा.
यह ख़तरा इसलिए ज़्यादा नज़र आ रहा है, क्योंकि वे लोग जो संसदीय प्रणाली को चला रहे हैं, उनमें लोकतांत्रिक समझ है ही नहीं. उनके मन में लोकतंत्र को लेकर कोई इज़्ज़त नहीं है, उनके मन में जनता के विभिन्न वर्गों को लेकर कोई संवेदना नहीं है. इस देश के ग़रीबों, वंचितों, दलितों एवं मुसलमानों को लेकर उनके मन में दर्द नहीं है. वे उनकी हालत सुधारना नहीं चाहते. उनके काम करने का तरीक़ा कुछ इस तरह का है कि जो भी अपनी तकलीफ़ों के लिए आवाज़ उठाए, उस आवाज़ को दबा दो या उन्हें भ्रष्टाचार में इस तरी़के से शामिल कर दो कि वे भ्रष्टाचार को लेकर कुछ भी करने से परहेज़ करने लगें. लोगों को उस स्थिति में पहुंचा दो कि वे आपसे भीख मांगने लगें और जहां भीख मांगने की मानसिकता आ जाती है, वहां बदलाव की आकांक्षा क्षीण हो जाती है. इस बात को अगर कोई अच्छी तरह से समझता है तो वे आज के राजनीतिक दलों के नेता हैं. पर वे एक बात भूल जाते हैं कि एक सीमा से आगे जब दर्द बढ़ता है या कोई समस्या बढ़ती है तो उसके लिए अंग्रेजी में एक शब्द है, सेचुरेशन प्वाइंट. अब उनके दमन करने का सेचुरेशन प्वाइंट आ गया है और हिंदुस्तान के सब्र, हिंदुस्तान की जनता के सहने का भी सेचुरेशन प्वाइंट आ गया है. इस चीज को सत्तारूढ़ दल के नेता या विपक्ष के नेता क्यों नहीं समझते, यह कम से कम हमारी समझ के बाहर है. वे यह देख रहे हैं हिंदुस्तान के अधिकांश हिस्सों पर से उनका नियंत्रण कमज़ोर हो रहा है. दिन में इनकी सत्ता चलती है, रात में उनकी सत्ता चलती है, जो इस व्यवस्था से अपने को जुड़ा नहीं पाते. मज़े की बात यह है कि हमारे देश में चल रहे लोकतंत्र के चारों हिस्से कहीं न कहीं इस स्थिति से प्रभावित हैं.
एक पत्रकार के नाते मेरा इतना ही कहना है कि संभलने का वक्त ख़त्म हो चुका है, लेकिन फिर भी बर्बाद होने का वक्त अभी शुरू नहीं हुआ है. इसलिए अभी भी अगर वे संभल सकते हैं, जो इस लोकतंत्र को बर्बाद करने में लगे हुए हैं, तो इतिहास उन्हें माफ़ कर देगा. वरना हिंदुस्तान की आने वाली पीढ़ी यही कहेगी कि कैसे ज़ालिम लोग थे, जिन्होंने हमारी तकलीफ़ एवं हमारे सपने को बेरहमी से रौंदा. इस स्थिति को समझने के लिए क्या सचमुच हमारे राजनेताओं में समझ का अकाल पड़ गया है? देखना है कि समझ का यह अकाल ख़त्म होता है कि नहीं.
समझना यह होगा कि अगर लोकतांत्रिक विरोध को दबाने के लिए दमनकारी उपायों का सहारा लिया जाएगा और टेलीविज़न के ऊपर झूठ बोलकर अपनी दमनकारी प्रक्रिया को सही साबित किया जाएगा तो वह ख़तरनाक इसलिए ज़्यादा बन जाता है, क्योंकि इन चीज़ों को अब लोग अपने ड्राइंगरूम में देख रहे हैं. मैंने दिल्ली में हुए प्रदर्शन को देखा. सारे देश ने टेलीविज़न पर देखा, ग़रीब ने देखा, अमीर ने देखा और उसका रत्ती-रत्ती विश्लेषण किया. लोगों ने देखा, पहले दिन शुक्रवार को कि सामने पुलिस खड़ी है राष्ट्रपति भवन के पास और दूसरी तरफ़ लड़कियां खड़ी हैं. लड़कियां कूद कर राष्ट्रपति भवन नहीं जा रही थीं, वे वहां खड़े होकर नारे लगा रही थीं, नौजवान लड़के नारे लगा रहे थे, स़िर्फ यह कह रहे थे कि हमें न्याय दो. अचानक पुलिस की तरफ़ से हिंसात्मक कार्रवाई हुई और उनके ऊपर पानी छोड़ दिया गया. इस पानी छोड़ने से लेकर इतवार की शाम को जिस तरह से पुलिस ने बर्बर लाठीचार्ज किया, उसे हिंदुस्तान के हर आदमी ने देखा और उसकी भर्त्सना की, लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था को चलाने वाले ज़िम्मेदार अंग पुलिस, नौकरशाही एवं केंद्रीय मंत्रियों ने जिस बेशर्मी के साथ अपने किए हुए ग़लत कामों को जायज़ ठहराया, उसे भी देश के लोगों ने देखा.
इसलिए मुझे लगता है कि जब लोगों के मन का विश्वास मर जाता है, तब वह भाषा ज़ुबान पर आती है, जो यह कहती है कि तुम चाहे कुछ भी कहो, हमारा तुममें कोई विश्वास नहीं है. शायद इसीलिए इंडिया गेट खाली कराने के बाद भी, जंतर-मंतर खाली कराने के बाद भी, सारी बर्बरता लांघने के बाद भी देश के लगभग हर शहर में, मोहल्लों में, कहीं बड़े तो कहीं छोटे प्रदर्शन हो रहे हैं. सरकारें, सरकारें शब्द का इस्तेमाल मैं इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि हिंदुस्तान के सारे राजनीतिक दल कहीं न कहीं किसी न किसी सरकार में शामिल हैं. इन सबने एक ही रवैया अपना रखा है और वह रवैया है जनता की आवाज़ न सुनो और जनता को भ्रम में पड़ा रहने दो. इन राजनीतिक दलों का यह रवैया गुस्सा दिलाता है और गुस्सा नौजवानों को दिलाता है. इसीलिए किसी भी नौजवान से अगर आप बात करें तो पाएंगे कि उसका इस व्यवस्था की पवित्रता से विश्वास उठ गया है. नौजवान किसी भी जाति का हो, किसी भी मज़हब का हो, उसका विश्वास हिल गया है. इस हिले हुए विश्वास को क्या बहाल करने की ज़रा भी समझ कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी या दूसरी पार्टी के नेताओं में नहीं है? क्या वे यह सोचते हैं कि वे इस देश से बड़े हैं, क्या उन्हें भ्रम है कि वे 120 करोड़ लोगों की ताक़त से ज़्यादा ताक़तवर हैं? सारे राजनीतिक दलों की सारी फ़र्ज़ी या नकली सदस्यता को मिला लें तो भी वे दो या तीन करोड़ का आंकड़ा पार नहीं करते. हिंदुस्तान में 120 करोड़ लोग हैं, जिनमें लगभग 70 या 75 करोड़ लोग वोट देते हैं. उनकी ताक़त यक़ीनन हिंदुस्तान के राजनीतिक दलों के नेताओं से ज़्यादा है. इस बात को राजनेता आज नहीं समझ रहे हैं, लेकिन कल उन्हें समझना पड़ेगा. हालत यह थी कि इन राजनीतिक दलों के नेताओं की हिम्मत नहीं हुई कि वे दिल्ली में प्रदर्शन कर रहे नौजवानों के बीच जाते और अपनी कोई बात कहते, क्योंकि उन्हें मालूम था कि लोग उनकी बात पर भरोसा नहीं करेंगे और हो सकता था कि उन्हें देखकर लोगों का गुस्सा और बढ़ जाता. सोनिया गांधी भी रात के साढ़े ग्यारह-बारह बजे कुछ लोगों के एक समूह के बीच पहुंचीं, दिन में नहीं जा पाईं. राहुल गांधी के लिए इस जुलूस में नारे लगे कि राहुल गांधी चूहा है. जितने भी कांग्रेस पार्टी या भाजपा सहित दूसरे राजनीतिक दलों के युवा नेता थे, वे कहीं नज़र नहीं आए. जो नज़र में इक्के-दुक्के आए, उन्होंने भी पुलिस के डंडे खाए, जिनमें कांग्रेस की एक महिला नेता अलका लांबा भी हैं. इन सबको भी पुलिस ने बहुत पीटा. अब सोचने की ज़रूरत राजनीतिक दलों को है, क्योंकि अगर राजनीतिक दल नहीं सोचते हैं तो वे इस देश में नक्सलवाद को एक वैध तर्क देते हैं. नक्सलवादियों ने अपने-अपने यहां यह कहना शुरू कर दिया है कि आपने सब कुछ देख लिया, इतना बड़ा प्रदर्शन देख लिया. क्या कहीं कुछ हुआ? शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने का अधिकार सबको है. आप लोग कहते हैं कि शांतिपूर्ण प्रदर्शन हुआ, लेकिन शांतिपूर्ण प्रदर्शन के ऊपर पुलिस ने जिस तरी़के से बर्बर लाठीचार्ज किया, उसने अंग्रेजों के जमाने में गांधी जी के अनुयायियों द्वारा निकाले गए जुलूस के ऊपर अंगे्रज पुलिस के लाठीचार्ज की याद दिला दी. नक्सलवादियों का कहना है कि आप शांतिपूर्ण प्रदर्शन करेंगे, पुलिस आपके ऊपर लाठी चलाएगी. आप हथियार लेकर मुक़ाबला करेंगे, पुलिस भाग जाएगी, आएगी नहीं.
नक्सलवादी अपने इलाक़ों में इसका उदाहरण देते हैं कि देखिए, यहां पुलिस नहीं आ पाती है. यहां पुलिस आती है सौ, दो सौ, तीन सौ के जत्थे में आती है. नक्सलवादियों को वैध तर्क देने के पीछे क्या कोई साज़िश है? शायद हां, क्योंकि आज राजनीति में प्रमुख माने जाने वाले नेता नहीं चाहते कि इस मुल्क में लोकतंत्र रहे. लोकतंत्र के ऊपर से लोगों का विश्वास जल्दी से जल्दी कैसे उठे, इसके लिए सारे लोग प्रयास कर रहे हैं. किसी भी पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है. कहीं पर भी कार्यकर्ताओं की बात नहीं सुनी जाती है. कार्यकर्ताओं को टिकट देने में प्राथमिकता तो छोड़ दीजिए, विचार की जो सूची होती है, उसमें भी उनका नाम नहीं होता. अब राजनीति के ऊपर वे लोग हावी हो गए हैं, जो जनता से दूर हैं, जिन्होंने जनता के लिए कुछ काम नहीं किया. यह सब कौन लोग कर रहे हैं? यह सब वे लोग कर रहे हैं, जो गांधी के अनुयायी माने जाते हैं, जो दीनदयाल उपाध्याय के अनुयायी माने जाते हैं, जो लोहिया एवं जयप्रकाश नारायण के अनुयायी माने जाते हैं. ये सारे नेता अपनी-अपनी पार्टियों में एक स्वर से, एक राय से आंतरिक लोकतंत्र की ऐसी की तैसी कर चुके हैं और जो बचा-खुचा है, उसे करने पर लगे हैं. जनता कितना सहेगी? अगर मैं इन लोगों से स़िर्फ एक बात कहूं कि सबसे ज़्यादा जनता परेशान हुई है लोकतंत्र को लेकर तो वह खाड़ी देशों में हुई है. जब वहां पर फौजी तानाशाही या राजशाही के ख़िलाफ़ लोग खड़े हो सकते हैं और लगातार लड़ सकते हैं, तो हमारे देश में भी ऐसा हो सकता है. हालांकि सक्षम नेतृत्व न होने की वजह से वहां उस लड़ाई का अंत किसी बहुत अच्छे नतीजे में नहीं हुआ है, पर इसके बावजूद उनकी लड़ाई सफल रही है, वहां सत्ता हिली है. एक गया है तो दूसरे लोग आए हैं और जो लोग ठीक से काम नहीं कर रहे हैं, उनके ख़िलाफ़ भी लोगों का गुस्सा फूट रहा है. पिछले दो वर्षों से दुनिया में जो संकेत दिखाई दे रहे हैं, जो लड़ाई चल रही है, उसे देखकर भी क्यों हमारे देश के लोग नहीं सीखते. आम जनता तो चेत रही है, आम जनता तो अपनी लड़ाई लड़ने की तैयारी कर रही है, पर जो सत्ता में बैठे लोग हैं, वे इन संकेतों या इस होने वाले महाभारत को क्यों नहीं समझ रहे हैं? मैं महाभारत इसलिए कहता हूं कि हर महाभारत का परिणाम बहुत दु:खद हुआ है. दोनों तरफ़ से बहुत नुक़सान हुआ है. इसमें जो पीड़ित पक्ष है यानी जनता का पक्ष, उसे सुधरने की ज़रूरत नहीं है, उसे तो और गुस्से में आकर आक्रोशित होना चाहिए. लेकिन जो इस सबके ज़िम्मेदार हैं, उन्हें चाहिए कि वे आम जनता को, उसके मन की भावना, उसकी पीड़ा, उसके दर्द और उसके सपने को समझें. अगर नहीं समझते हैं तो इस देश में लड़ाई अब स़िर्फ एक तरह से नहीं होगी. जगह-जगह मोर्चे खुलेंगे, जगह-जगह युद्ध लड़े जाएंगे और जगह-जगह सत्ताधारियों को हराने के लिए लोग अपनी जान की बाज़ी लगा देंगे. दमन कितना भी हो, उसकी भी एक सीमा होती है और वह सीमा शायद सत्ताधारी लोग पार करने के बिंदु पर पहुंच चुके हैं. एक पत्रकार के नाते मेरा इतना ही कहना है कि संभलने का वक्त ख़त्म हो चुका है, लेकिन फिर भी बर्बाद होने का वक्त अभी शुरू नहीं हुआ है. इसलिए अभी भी अगर वे संभल सकते हैं, जो इस लोकतंत्र को बर्बाद करने में लगे हुए हैं, तो इतिहास उन्हें माफ़ कर देगा. वरना हिंदुस्तान की आने वाली पीढ़ी यही कहेगी कि कैसे ज़ालिम लोग थे, जिन्होंने हमारी तकलीफ़ एवं हमारे सपने को बेरहमी से रौंदा. इस स्थिति को समझने के लिए क्या सचमुच हमारे राजनेताओं में समझ का अकाल पड़ गया है? देखना है कि समझ का यह अकाल ख़त्म होता है कि नहीं.