हमारे प्रधानमंत्री और गृहमंत्री बहुत बहादुर और दूरदर्शी हैं. उन्हें माओवादियों से लड़ने और उनकी बात किसी के पास न पहुंचे, इसका एक नायाब तरीक़ा मिल गया है. इन्होंने एक आदेश जारी कर कहा है कि देश का कोई भी सोचने-समझने वाला माओवादियों द्वारा उठाए गए सवालों पर बातचीत नहीं करेगा. सभ्य समाज में सोचने-समझने वाले लोगों को बुद्धिजीवी कहा जाता है. गृह मंत्रालय ने एक आदेश में कहा है कि सरकार के संज्ञान में यह बात आई है कि कुछ माओवादी नेता कुछ ग़ैर सरकारी संगठनों और बुद्धिजीवियों से सीधे संपर्क कर रहे हैं, ताकि अपनी विचारधारा का प्रचार कर सकें. जो भी व्यक्ति इस तरह के आतंकवादी संगठन का समर्थन करने का अपराध करेगा और इस तरह के समूहों की गतिविधियों को विस्तार देने का इरादा रखेगा, उसे ग़ैर क़ानूनी गतिविधि (रोकथाम) क़ानून 1967 की धारा 39 के तहत अधिकतम 10 साल की सज़ा या जुर्माना या दोनों सज़ाएं दी जा सकती हैं. इस लंबे बयान में आगे कहा गया है कि आम जनता को यह सूचित किया जाता है कि वह माकपा (माओवादी) के दुष्प्रचार के प्रति सतर्क रहे और इसका अनजाने में शिकार न बने. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) और उसके सभी घटक तथा मुखौटा संगठन आतंकवादी संगठन हैं, जिनका एक ही मक़सद है-भारत सरकार को हथियार के बल पर उखा़ड फेंकना. उनके लिए भारत के संसदीय लोकतंत्र में कोई जगह नहीं है. आम जनता को ज्ञात होना चाहिए कि अवैध गतिविधियां अधिनियम 1967 के खंड 39 के अधीन कोई भी व्यक्ति, जो इस प्रकार के आतंकवादी संगठन को समर्थन देने का अपराध करता है, उसे दस साल की जेल या जुर्माना या दोनों सज़ाएं हो सकती हैं. बयान में कहा गया है कि भाकपा (माओवादी) लगातार आदिवासियों सहित बेकसूर नागरिकों की हत्या कर रही है और सड़कों, पुलों, स्कूली इमारतों एवं ग्राम पंचायत भवनों जैसी अहम संरचना को नुक़सान पहुंचा रही है, ताकि अल्प विकसित क्षेत्रों में विकास होने से रोका जा सके.
हमारी जनप्रिय सरकार कितनी चिंतित है कि आदिवासी क्षेत्रों में तेज़ी से विकास हो, पर माओवादी उसे रोक रहे हैं. महाश्वेता देवी जैसी वरिष्ठ साहित्यकार इन क्षेत्रों में विकास क्यों नहीं देख पातीं. पत्रकार जाते हैं तो क्यों उन्हें भूखे-नंगे लोग, बिना साधनों के जानवरों सी ज़िंदगी जीते लोग दिखाई देते हैं. बुद्धिजीवियों की आंखें ख़राब हो गई हैं, इसीलिए उन्हें दंतेवाड़ा, लालगढ़, उड़ीसा, आंध्र में विकास की बहती गंगा नहीं दिखाई पड़ती. इनके इलाज की सचमुच ज़रूरत है.
हमारी जनप्रिय सरकार कितनी चिंतित है कि आदिवासी क्षेत्रों में तेज़ी से विकास हो, पर माओवादी उसे रोक रहे हैं. महाश्वेता देवी जैसी वरिष्ठ साहित्यकार इन क्षेत्रों में विकास क्यों नहीं देख पातीं. पत्रकार जाते हैं तो क्यों उन्हें भूखे-नंगे लोग, बिना साधनों के जानवरों सी ज़िंदगी जीते लोग दिखाई देते हैं. बुद्धिजीवियों की आंखें ख़राब हो गई हैं, इसीलिए उन्हें दंतेवाड़ा, लालगढ़, उड़ीसा, आंध्र में विकास की बहती गंगा नहीं दिखाई पड़ती. इनके इलाज की सचमुच ज़रूरत है.
प्रधानमंत्री और उनका गृह मंत्रालय आईपीएल के वाटरगेट को दबाने में शरद पवार और ललित मोदी के साथ कामयाब हो गया. लाखों करोड़ रुपया आईपीएल के घोटाले में विदेशों में चला गया. इस देश के आम आदमी को जमकर बेवकूफ बनाया गया. वह समझ रहा था कि वह सचमुच क्रिकेट देख रहा है, लेकिन वह तो बंदर का तमाशा था. इस बंदर के तमाशे में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी तक को शामिल कर लिया गया. दोनों को पता ही नहीं चला कि वे कब आईपीएल के अपराधियों के साथ खड़े हो गए. पैसा मॉरीशस के ज़रिए किसका आया, कभी पता नहीं चलेगा. क्या दाऊद इब्राहिम का पैसा है? प्रणव मुखर्जी ने पूरी जांच की बात कह दी, लेकिन एक तिहाई भी जांच नहीं हो पाएगी. नरेगा या मनरेगा का सारा पैसा प्रभुत्व वाले लोगों और अधिकारियों के बीच बंट रहा है. जहां भी सोशल ऑडिट हो रही है, कहीं कुछ नहीं मिलता. ग़रीब वहीं का वहीं है, उसकी रोटी भी पैसे वालों के पास जा रही है.
इस तंत्र ने गांव स्तर पर भ्रष्टाचार फैला दिया है. भ्रष्टाचार की पराकाष्ठा यह है कि कुछ जगहों पर तो अफसर गिड़गिड़ाते हैं कि कुछ काम तो कर लो, कम से कम फ्लैश लैट्रिन ही बना लो. राहुल गांधी के पिता ने कहा था कि ग़रीब के पास केवल पंद्रह पैसे ही पहुंच पाते हैं और राहुल गांधी का मानना है कि अब यह स्तर आठ पैसे पर पहुंच गया है. वर्गों की बात करें तो दलित, मुसलमान, आदिवासी और गांवों की बात करें तो लगभग सारा हिंदुस्तान इस आठ पैसे के विकास के इर्द-गिर्द घूम रहा है.
पर यह इतना बड़ा मसला कहां है, जो सरकार ध्यान देगी. टेलीकॉम स्कैंडल सामने आता है, ए राजा को हटाना तो दूर, पूछताछ करने की हिम्मत प्रधानमंत्री नहीं जुटा पाते, क्योंकि करुणानिधि धमका कर जा चुके हैं. सरकार का कहीं ज़ोर नहीं चलता, चलता है तो निरीह बुद्धिजीवियों पर, जो स़िर्फ आपस में ग़रीबी, बेकारी, भुखमरी, ग़ैर बराबरी, महंगाई और मौत पर बात कर सकते हैं. न इनमें कुछ करने की ताक़त है और न हिम्मत. पर सरकार को बात करने का अधिकार भी गंवारा नहीं. वह अपनी नामर्द बहादुरी बुद्धिजीवियों और ग़रीबों पर दिखाना चाहती है.
इसका परिणाम होगा कि एनजीओ के रूप में काम करने वाले लोग, दलितों-अल्पसंख्यकों के लिए आवाज़ उठाने वाले लोग तथा अख़बारों में कॉलम लिखने वाले बहुत से लोग किसी दारोगा के कभी भी शिकार बन जाएंगे, क्योंकि उसे गृह मंत्रालय ने यह अधिकार दे दिया है. यह आदेश कहता है कि आदिवासी क्षेत्रों, पिछड़े क्षेत्रों में चलने वाला माओवादी आंदोलन सरकार के ख़िला़फ हथियारबंद युद्ध है. इससे बड़ा दिमाग़ी दिवालियापन क्या होगा कि भारत सरकार राज्यों की ज़िम्मेदारी अपने सिर ओढ़ रही है. जिन आठ राज्यों में नक्सलवादी समस्या प्रमुखता से है, उनमें केवल एक में कांग्रेस का मुख्यमंत्री है, बाक़ी में ग़ैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री हैं. चिदंबरम साहब ने सारी राज्य सरकारों की ज़िम्मेदारी अपने सिर ले ली है.
विडंबना इस देश की है कि इस देश में ऐसे लोग फैसले कर रहे हैं, जिन्हें देश में रहने वालों की तकलीफ नहीं दिखाई देती, उसके कारण नज़र नहीं आते. वे ऐसे बददिमाग़ पागल डॉक्टर की तरह हैं, जो एपेंडिक्स के दर्द से चिल्लाते मरीज़ को डांटता है, क्योंकि उसके चिल्लाने से उसकी नींद में खलल पड़ रही है. विपक्ष को भी क्या कहें, जिसे वही नज़र आता है जो सरकार उसे दिखाती है. अख़बार न हों तो उसके पास लोकसभा व विधानसभा में उठाने वाले विषय ही न हों. और पत्रकारों का क्या कहें. बड़े पत्रकारों के रिश्ते आईपीएल से जगज़ाहिर हैं. वीर संघवी और बरखा दत्त जैसों के नाम बड़े दलालों की तरह लिए जा रहे हैं. लोगों की समस्याओं पर नज़र डालना तो दूर, जो नज़र जा रही है उसे दबाने का काम पत्रकारों का एक तबका जोर-शोर से कर रहा है.
केंद्र सरकार को इसलिए चेतना चाहिए, क्योंकि इतिहास भी एक वास्तविकता है. हम जब भी हिटलर, मुसोलिनी का नाम लेते हैं घृणा से लेते हैं. मनमोहन सिंह और गृहमंत्री चिदंबरम को आने वाले व़़क्त में इतिहास लोकतंत्र समर्थक के रूप में याद करे, लोकतंत्र बरबाद करने वालों में नहीं. इतनी अपेक्षा और आशा तो हम कर ही सकते हैं. उसी तरह विपक्षी दलों और पत्रकारों से कहना चाहते हैं कि अपने को बेबस, बेसहारा, ग़ैर जानकार या ख़रीदे हुए लोगों की तरह मत इतिहास में दर्ज होने दीजिए.