यह महीना हलचल का महीना रहा है. मुझसे बहुत सारे लोगों ने सवाल पूछे, बहुत सारे लोगों ने जानकारियां लीं. लेकिन जिस जानकारी भरे सवाल ने मुझे थो़डा परेशान किया, वह सवाल पत्रकारिता के एक विद्यार्थी ने किया. उसने मुझसे पूछा कि क्या अंग्रेजी और हिंदी पत्रकारिता अलग-अलग हैं. मैंने पहले उससे प्रश्न किया कि आप यह सवाल क्यों पूछ रहे हैं. उसने मुझसे कहा कि यह सवाल मैं इसलिए पूछ रहा हूं कि अकसर मैं देखता हूं कि अंग्रेजी पत्रकारिता में लोग लगभग एक ही ट्यून पर काम करते हैं. बहुत कम लोग हैं, जो शुरू किए हुए ढर्रे के खिला़फ स्टोरी करते हैं, जबकि हिंदी में इस तरह की एकता नहीं दिखाई देती. अंग्रेजी पत्रकारिता में स्टोरी को डेवलप करने में रूचि नज़र आती है, लेकिन हिंदी पत्रकारिता में रिपोर्ट को मारने की मारामारी दिखाई देती है. पत्रकारिता के क्षेत्र में आने का सपना पाले हुए इस नौजवान ने मुझे यह सोचने पर विवश कर दिया. विवश इसलिए कर दिया, क्योंकि पत्रकारिता का भविष्य ऐसे ही लोग संभालने वाले हैं. इस विद्यार्थी का उत्साह मुझे इसलिए चिंतित कर गया, क्योंकि इसका सपना हिंदी पत्रकारिता में आने का है. हिंदी पत्रकार क्यों एक-दूसरे के खिला़फ खड़े हो जाते हैं, यह सवाल तो है. हिंदी पत्रकार क्यों एक-दूसरे की रिपोर्ट को डेवलप नहीं करते हैं, यह सवाल तो है. और सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्यों हिंदी पत्रकार बढ़-चढ़कर ज़बरदस्ती के तर्कों को गढ़कर अपने साथी पत्रकार की रिपोर्ट को किल करने में अपनी सारी ताक़त लगा देते हैं. इन सवालों का जवाब तो हिंदी के पत्रकारों को ही तलाशना है. लेकिन मैंने इसकी तलाश में कुछ लोगों से बातचीत की. आउट लुक के संपादक नीलाभ मिश्र, वरिष्ठ पत्रकार सुरेश वाफना जैसे बहुत सारे लोगों से मेरी बातचीत हुई. इन सभी ने सहमति व्यक्त की कि हिंदी पत्रकारिता कुछ ज़्यादा ही लड़खड़ा रही है. उन्होंने छात्र की इस बात पर भी सहमति व्यक्त की कि हिंदी पत्रकारिता में एक-दूसरे को बिलो द बेल्ट हिट करने की प्रवृति कुछ ज़्यादा बढ़ गई है, जबकि सच्चाई का एक पहलू यह भी है कि हिंदी पत्रकारिता ही इस देश की ज़मीनी पत्रकारिता को परिभाषा देती है.
जब मैं हिंदी पत्रकारिता की बात कहता हूं तो उसमें सारी भाषाई पत्रकारिता शामिल हो जाती है. जिस तरह की रिपोर्ट, जिस तरह के विषय हिंदी सहित दूसरी भाषाओं के लोग छापते हैं, वैसे विषय अंग्रेजी पत्रकारिता में नज़र नहीं आते. इसके बावजूद हिंदी पत्रकार और भाषाई पत्रकार एक गंभीर हीनभावना से ग्रसित रहते हैं. अंग्रेजी ने बड़े-बड़े पत्रकार दिए हैं. जब हम बड़े पत्रकारों की सूची बनाते हैं तो उसमें अंग्रेजी से जुड़े पत्रकारों की संख्या बहुत ज़्यादा होती है. जब पत्रकारिता का विद्यार्थी जाने माने और बड़े पत्रकारों के बारे में बोलता है, तो उसमें वह नब्बे प्रतिशत नाम अंग्रेजी पत्रकारों के लेता है. वह शायद इसलिए इनका नाम लेता है, क्योंकि हम अपने काम, अपने काम का महत्व और अपने काम का असर न तो खुद देखते हैं और न ही दूसरे को दिखाना चाहते हैं. हिंदी के वे पत्रकार जो न किसी से प्रभावित होते हैं, न किसी के दबाव में आते हैं और जिनका दिमाग़ बिलकुल सा़फ है, उनके साथ सबसे बड़ी परेशानी यह है कि वे अपने जैसे दूसरे पत्रकारों से बात करना अपनी हेठी मानते हैं. ये शायद कहीं व्यक्तित्व में शामिल ईगो या अहंकार का तत्व है, जो पूरे व्यक्तित्व को प्रभावित कर जाता है. हिंदी के पत्रकार और खासकर वैसे पत्रकार जिनका मैंने ज़िक्र किया, सभा-समारोहों में तो मिल लेते हैं, लेकिन आपस में बैठकर व़क्त नहीं बिताते, ताकि उनके तनाव कम हो सकें या उनके पत्रकारिता के तनाव में दूसरे लोग शामिल होकर उनके उस तनाव को कम करने में मददगार साबित हो सकें. शायद एक संस्कृति का भी फर्क़ है. दिमाग़ी तौर पर हम अंग्रेजी पत्रकारिता को या अंग्रेजी पत्रकारों को ज़्यादा चुस्त-दुरुस्त और असरकारक मानते हैं. शायद हैं भी, क्योंकि देश का शासन, देश का प्रशासन, देश के नेता चाहे वह सोनिया गांधी हों या आडवाणी हों, उन्हें अंग्रेजी अ़खबार प़ढकर विषय की विश्वसनीयता ज़्यादा समझ आती है, जबकि हिंदी अ़खबारों में छपी हुई जानदार और तथ्यपरक, प्रासंगिक रिपोर्ट समझ नहीं आती. पर क्या इससे भाषाई पत्रकारिता खासकर हिंदी पत्रकारिता दोयम दर्जे की हो जाती है या हम उन विषयों को चुनना बंद कर दें, जिनकी वजह से हमारा महत्व अकसर स्थापित होता है.
मैं एक उदाहरण दे सकता हूं, बीती 23, 24 और 25 मार्च को मैंने जनरल वीके सिंह का हिंदी में इंटरव्यू लिया और वह इंटरव्यू ईटीवी पर चला. उस इंटरव्यू का नोटिस देश में किसी ने नहीं लिया. लेकिन जब 26 तारीख़ की सुबह द हिंदू ने उन्हीं विषयों पर जनरल वीके सिंह की रिपोर्ट छापी, तो देश में तू़फान आ गया और तब अचानक कुछ लोगों को याद आया कि ये सारी बातें जनरल वीके सिंह तीन दिन पहले कह चुके हैं, मेरे ही इंटरव्यू में. और टाइम्स नाऊ ने जैसे ही उस इंटरव्यू को चलाना शुरू किया, अचानक सारे अंग्रेज़ी और हिंदी चैनल मेरे उस इंटरव्यू को अपने-अपने यहां दिखाने लगे या कौन पूरा पहले दिखाता है, उसकी होड़ में लग गए. हमने हिंदी में सबसे पहले इंटरव्यू किया, लेकिन उस इंटरव्यू का कोई नोटिस किसी हिंदी अख़बार ने नहीं लिया, जबकि अंग्रेज़ी चैनल टाइम्स नाऊ ने उसका नोटिस लिया तो सारे हिंदी चैनल और अख़बार उस इंटरव्यू का नोटिस लेने लगे.
मुझे याद है, 70 के दशक में या 80 के दशक के पहले हिस्से में आनंद बाज़ार पत्रिका ने संडे और रविवार नाम की दो पत्रिकाएं निकाली थीं. हम लोग रविवार के संवाददाता थे. सुरेंद्र प्रताप सिंह संपादक थे और अकसर संडे और रविवार में खबरों को लेकर प्रतिस्पर्धा होती रहती थी. मैं यह नहीं कहता कि हमेशा, लेकिन अकसर रविवार की रिपोर्ट संडे से पहले आ जाती थी और शायद दोनों पत्रिकाओं ने मिलकर उस समय की राजनीति पर और सरकार पर बहुत असर डाला था. एमजे अकबर संडे के संपादक थे और उन्होंने इसका एक तोड़ निकाल लिया. वह अगले हफ्ते रविवार में छपी रिपोर्ट को उसी रिपोर्टर के नाम से अंग्रेजी में छाप देते थे. और जो आज मानसिकता है, उस समय भी यही मानसिकता होती थी कि अंग्रेजी में छपी हुई बहुत सारी रिपोर्ट जो एक हफ्ते पहले हिंदी में छप चुकी होती थीं, देश में धूम मचा देती थीं. आज भी हालात कुछ उससे अलग नहीं हैं. मैं एक उदाहरण दे सकता हूं, बीती 23, 24 और 25 मार्च को मैंने जनरल वीके सिंह का हिंदी में इंटरव्यू लिया और वह इंटरव्यू ईटीवी पर चला. उस इंटरव्यू का नोटिस देश में किसी ने नहीं लिया. लेकिन जब 26 तारीख़ की सुबह द हिंदू ने उन्हीं विषयों पर जनरल वीके सिंह की रिपोर्ट छापी, तो देश में तू़फान आ गया और तब अचानक कुछ लोगों को याद आया कि ये सारी बातें जनरल वीके सिंह तीन दिन पहले कह चुके हैं, मेरे ही इंटरव्यू में. और टाइम्स नाऊ ने जैसे ही उस इंटरव्यू को चलाना शुरू किया, अचानक सारे अंग्रेज़ी और हिंदी चैनल मेरे उस इंटरव्यू को अपने-अपने यहां दिखाने लगे या कौन पूरा पहले दिखाता है, उसकी होड़ में लग गए. हमने हिंदी में सबसे पहले इंटरव्यू किया, लेकिन उस इंटरव्यू का कोई नोटिस किसी हिंदी अख़बार ने नहीं लिया, जबकि अंग्रेज़ी चैनल टाइम्स नाऊ ने उसका नोटिस लिया तो सारे हिंदी चैनल और अख़बार उस इंटरव्यू का नोटिस लेने लगे. इस स्थिति को जब हम देखते हैं, तब उस छात्र का दर्द जिसने मुझसे यह सवाल पूछा ज़्यादा समझ में आता है.
मैं अपने साथी पत्रकारों और संपादकों से अनुरोध करना चाहता हूं कि आप पर बहुत ज़िम्मेदारियां हैं. अगर आपस में संवाद शुरू हो सके और जिस स्टोरी में किसी एक संवाददाता को संभावना नज़र आए, वह इस स्टोरी का फॉलोअप करे तो शायद पत्रकारिता के उस सुनहरे दौर की वापसी संभव हो सकती है, जिस दौर को हम पत्रकारिता का सुनहरा काल कहते हैं. उन दिनों भी जलन थी, उन दिनों भी प्रतिस्पर्धा थी, लेकिन नकारात्मक प्रतिस्पर्धा कम थी और सकारात्मक प्रतिस्पर्धा ज़्यादा थी. इसलिए मेरा यह अनुरोध, अगर मेरे साथियों की समझ में आ जाए, तो वे मुझ पर कम लेकिन हिंदी पत्रकारिता पर ज़्यादा उपकार करेंगे. हिंदी में शशि शेखर, अजय उपाध्याय, नीलाभ मिश्र जैसे संपादक हैं. इनमें कई और नाम जोड़े जा सकते हैं, चाहे वह श्रवण गर्ग हों, चाहे गुलाब कोठारी हों या फिर चाहे आलोक मेहता हों. अगर ये लोग सकारात्मक पहल नहीं करेंगे तो आने वाले पत्रकारों के विश्वास को अर्जन करना इनके लिए मुश्किल होगा. आख़िर में स़िर्फ इतना अनुरोध, ज़रूरी नहीं कि इसलिए मिलें कि फॉलोअप स्टोरी करनी है, या इसलिए मिलें कि मिलजुल कर कोई स्टोरी करनी है. लेकिन इसलिए मिलना चाहिए कि एक-दूसरे से विचार-विमर्श हो तो उस विचार-विमर्श में इस देश में किस तरह के ट्रेंड्स शुरू हो रहे हैं, किस तरह के ट्रेंड्स का साथ देना है और किस तरह के ट्रेंड्स का साथ नहीं देना है, कम से कम यह तो सा़फ हो सके. आशा करनी चाहिए कि हिंदी पत्रकारिता, जो इस देश को समझने वाली पत्रकारिता है, अपनी ज़िम्मेदारी समझेगी और हिंदी पत्रकारिता के नेता भी अपनी ज़िम्मेदारी को समझेंगे.