गुजरात चुनाव सब की परीक्षा लेगा

Santosh-Sirगुजरात विधानसभा चुनाव किसके लिए फायदेमंद होगा और किसके लिए नहीं, यह तो आख़िरी तौर पर दिसंबर के आख़िरी हफ्ते में पता चलेगा, जब परिणाम आ जाएंगे. लेकिन परीक्षा किस-किस की है, इसका आकलन करना ज़रूरी है. गुजरात विधानसभा चुनाव में पहली परीक्षा श्रीमती सोनिया गांधी की है. कांग्रेस पार्टी में सोनिया गांधी के अलावा कोई ऐसा नेता नहीं है, जिसके जाने से भीड़ इकट्ठी हो सके. यहां तक कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सभा में भी सारे ख़र्चों और सारी कोशिशों के बावजूद लोगों की संख्या कुछ हज़ारों तक सीमित रहती है. सोनिया गांधी कांग्रेस को कितने वोट दिला पाएंगी, कहा नहीं जा सकता, क्योंकि पिछले पांच सालों में गुजरात में कांग्रेस पार्टी ने कोई गतिविधि की ही नहीं. कांग्रेस पार्टी गुजरात में नरेंद्र मोदी के सत्ता विरोधी वोटों के ऊपर अपनी आशा लगाए हुए है, पर वह यह नहीं समझ पा रही कि पिछले पांच साल निष्क्रिय रहने की वजह से उसने लोगों के मन में अपनी जगह बनाने का अवसर खो दिया है. नरेंद्र मोदी को पिछले चुनाव में लगभग दो तिहाई सीटें मिल गईं. अब कांग्रेस की आशा है कि कांशी राम राणा के निधन और केशुभाई पटेल के भाजपा छोड़ने का फायदा उसे हो जाएगा. कांग्रेस का यह सोचना सोनिया गांधी की साख को बढ़ाएगा या घटाएगा, यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन लगता है कि इससे सोनिया गांधी की कांग्रेस को कोई फायदा होने वाला नहीं है.

कांग्रेस के दूसरे नेता राहुल गांधी हैं. राहुल गांधी गुजरात में क्या भाषण देंगे और उनके भाषण देने का क्या परिणाम होगा, यह इसलिए शक के दायरे में है, क्योंकि वह पिछले दो विधानसभा चुनावों में जहां-जहां गए, जिनमें पहला बिहार और दूसरा उत्तर प्रदेश था, वहां-वहां कांग्रेस की सीटें बढ़ी नहीं. बहुत शोर हुआ कि राहुल गांधी युवाओं के नायक हैं और वह युवाओं को आकर्षित करेंगे, लेकिन युवा उनके झंडे से निकल कर अन्ना हजारे के झंडे के नीचे खड़े हो गए. इसलिए गुजरात विधानसभा चुनाव में इस बार राहुल गांधी की परीक्षा है. एक ख़बर यह है कि राहुल गांधी स्वयं अब चुनाव प्रचार नहीं करना चाहते और न राजनीति में रहना चाहते हैं, बल्कि अपनी मां के साथ ज़्यादा से ज़्यादा समय बिताना चाहते हैं. वह चाहते हैं कि उनकी बहन प्रियंका गांधी राजनीति में आएं और कांग्रेस का नेतृत्व करें. इसलिए राहुल गांधी के बाद तीसरी परीक्षा प्रियंका गांधी की है. क्या गुजरात में कांग्रेस की पिछले तीन चुनावों यानी पिछले 15 सालों में डूबी हुई या मझधार में हिचकोले खाती हुई नाव प्रियंका गांधी के सहारे भंवर से निकल पाएगी? कांग्रेस के जिस चौथे नेता की परीक्षा है, वह हैं अहमद पटेल. अहमद पटेल कांग्रेस अध्यक्ष के राजनीतिक सचिव हैं और यह माना जाता है कि गुजरात की सारी रणनीति अंतिम तौर पर अहमद पटेल ही तय करते हैं. गुजरात में अहमद पटेल के अलावा स़िर्फ शंकर सिंह वाघेला ऐसा नाम है, जिसे गुजरात में हर जगह जाना जाता है और देश के लोग भी जानते हैं, लेकिन शंकर सिंह वाघेला को कांग्रेस मुख्यमंत्री के रूप में पेश नहीं कर रही है.

लोगों के मन में यह शंका पैदा हो रही है कि कांग्रेस इसीलिए किसी को मुख्यमंत्री के रूप में पेश नहीं कर रही है, क्योंकि उसे भरोसा ही नहीं है कि उसके पास कोई ऐसा नेता है, जो चुनाव में उसकी वैतरणी पार करा सकता है. अहमद पटेल के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने गुजरात में कांग्रेस को ठीक से कभी संगठित ही नहीं होने दिया, बल्कि लोग मानते हैं कि यह भी अहमद पटेल की रणनीति है कि गुजरात में नरेंद्र मोदी को ज़िंदा रखो, उनका उग्र हिंदूवादी स्वरूप देश की जनता के सामने डरावने रूप में रखो, गुजरात में कांग्रेस को हार जाने दो और नरेंद्र मोदी की जीत को देश के लिए ख़तरा बताकर पूरे देश में भाजपा को हरा दो. अगर कांग्रेस अभी भी इस रणनीति पर चलती है तो वह एक ख़तरनाक खेल खेलेगी. नरेंद्र मोदी अगर गुजरात में दोबारा उतने ही बहुमत से जीत गए, जितने से पिछली बार जीते थे तो उन्हें दिल्ली की गद्दी की तऱफ बढ़ने से फिर कोई रोक नहीं सकता और कांग्रेस की यह रणनीति फेल हो जाएगी कि वह नरेंद्र मोदी का चेहरा दिखाकर देश में वोट बटोर सकती है.

भारतीय जनता पार्टी में सबसे पहली परीक्षा ख़ुद नरेंद्र मोदी की है. नरेंद्र मोदी ने भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस के लगभग हर उस नेता को नाराज़ कर दिया है, जिसकी जनता में थोड़ी भी पैठ है. नरेंद्र मोदी आरएसएस और परंपरागत भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं की जगह अपने व्यक्तिगत विश्वासपात्र नेताओं की एक नई जमात तैयार कर चुके हैं. इस बार के चुनाव में नरेंद्र मोदी ज़्यादातर उन लोगों को टिकट देंगे, जिनका रिश्ता भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस से कम, बल्कि उनसे जिनका रिश्ता ज़्यादा बना है. नरेंद्र मोदी विकास के नाम पर वोट मांगेंगे, गोधरा के बड़े दंगे के बाद कोई भी दंगा न होने देने का सवाल खड़ा करेंगे और यह कहेंगे कि मेरी वजह से गुजरात में शांति रही है, दंगा नहीं हुआ. हालांकि लोगों का यह कहना है कि नरेंद्र मोदी इसकी वजह हैं, लेकिन लोकतांत्रिक वजह नहीं हैं, बल्कि तानाशाही वजह हैं. मुसलमानों को लगता है कि अगर उन्होंने अगर नरेंद्र मोदी के ख़िला़फ कुछ किया तो दोबारा उनके ऊपर आ़फत आ सकती है, पर इस सारी स्थिति में मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग नरेंद्र मोदी की तऱफ आकर्षित हो गया है और उसे लगता है कि सांप्रदायिकता के नाम पर नरेंद्र मोदी को वोट न देना उनकी भूल है. उन्हें नरेंद्र मोदी को वोट देना चाहिए, ताकि वह उनके विकास के लिए योजना बना सकें.

गुजरात में अरविंद केजरीवाल और अन्ना हजारे के साथ रामदेव की भी परीक्षा है कि क्या ये तीनों गुजरात विधानसभा चुनाव में प्रत्यक्ष या परोक्ष उम्मीदवार खड़ा करेंगे या उम्मीदवारों को समर्थन देंगे. रामदेव किस तरह के उम्मीदवारों के हक़ में बोलेंगे और अन्ना हजारे किस तरह के उम्मीदवारों के हक़ में बोलेंगे, यह बात देखने लायक़ होगी. अरविंद केजरीवाल दिल्ली के चुनाव की तैयारी कर रहें हैं, लेकिन गुजरात के चुनावों में उनका रु़ख क्या होगा, यह देखने लायक़ होगा, क्योंकि ये सारे रुख़ लोगों को यह बताएंगे कि ये तीनों लोग देश के प्रति कितने ज़िम्मेदार और ईमानदार हैं. इसलिए गुजरात विधानसभा चुनाव जहां इन सारे लोगों के लिए महत्वपूर्ण है, वहीं देश के लिए भी महत्वपूर्ण है.

दूसरी सबसे बड़ी परीक्षा श्री केशुभाई पटेल की है. केशुभाई पटेल सारी ज़िंदगी संघ और भारतीय जनता पार्टी के आदमी रहे, मुख्यमंत्री रहे और अब उन्होंने भारतीय जनता पार्टी छोड़कर गुजरात में अपनी पार्टी गुजरात परिवर्तन पार्टी बनाई. उनका मानना है कि गुजरात की सबसे सशक्त बिरादरी पटेल उनका साथ देंगे. इसमें कोई दो राय नहीं है कि गुजरात में पटेल बिरादरी एक सशक्त ताक़त है और अगर पटेल मोदी का साथ छोड़ देते हैं तो भाजपा को नुक़सान होगा. पर दूसरा सवाल यह है कि क्या सारे पटेल केशुभाई के साथ हैं? पटेलों में नेतृत्व जगह-जगह पैदा हो रहा है. केशुभाई पटेल एक इमोशनल सवाल खड़ा कर रहे हैं कि यह मेरी ज़िंदगी का आख़िरी चुनाव है और मुझे इसमें आपका साथ चाहिए. केशुभाई पटेल के साथ पटेलों के अलावा कोई नहीं है, पटेलों की 30 से 35 विधानसभा सीटों पर जिताने या हराने की क्षमता है, पर 30 से 35 सीटों के आगे क्या होगा, यह न पटेल जानते हैं और न केशुभाई. इसका एक मतलब यह निकाला जा सकता है कि अगर केशुभाई पटेल गुजरात में 25 सीटों के ऊपर भी असर डालते हैं तो भी नरेंद्र मोदी सत्ता से बाहर नहीं हो पाएंगे. उनकी जीत कम हो जाएगी, लेकिन वह सत्ता में बने रहेंगे.

दुर्भाग्य से कांशीराम राणा की मृत्यु हो चुकी है, अगर कांशीराम राणा होते तो इस स्थिति में बहुत फर्क़ पड़ता, यह नहीं कहा जा सकता. भारतीय जनता पार्टी में लालकृष्ण आडवाणी की भी परीक्षा है. लालकृष्ण आडवाणी गांधी नगर से सांसद हैं और गुजरात में नरेंद्र मोदी ने उन्हें एहसास दिलाया है कि अब उनका क़द उतना बड़ा नहीं रहा, जितना बड़ा आज से पांच साल पहले हुआ करता था. नरेंद्र मोदी स्वयं प्रधानमंत्री पद के दावेदार हो गए हैं. मज़े की बात यह है कि मोहन भागवत ने भी इस बार कहा कि भारतीय जनता पार्टी में कौन प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार होगा, इससे संघ का कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन वह नरेंद्र मोदी भी हो सकते हैं और लालकृष्ण आडवाणी भी. बहुत दिनों के बाद लालकृष्ण आडवाणी का नाम संघ प्रमुख की तऱफ से सामने आया है और इसका यह मतलब निकाला जाना चाहिए कि लालकृष्ण आडवाणी की महत्ता को संघ ने स्वीकार किया. लालकृष्ण आडवाणी जहां-जहां चुनाव प्रचार करने जाएंगे, वहां की सीटें अगर भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों के हक़ में आएंगी तो लालकृष्ण आडवाणी का क़द बहुत ऊंचा हो जाएगा.

गुजरात में अरविंद केजरीवाल और अन्ना हजारे के साथ रामदेव की भी परीक्षा है कि क्या ये तीनों गुजरात विधानसभा चुनाव में प्रत्यक्ष या परोक्ष उम्मीदवार खड़ा करेंगे या उम्मीदवारों को समर्थन देंगे. रामदेव किस तरह के उम्मीदवारों के हक़ में बोलेंगे और अन्ना हजारे किस तरह के उम्मीदवारों के हक़ में बोलेंगे, यह बात देखने लायक़ होगी. अरविंद केजरीवाल दिल्ली के चुनाव की तैयारी कर रहे हैं, लेकिन गुजरात के चुनावों में उनका रु़ख क्या होगा, यह देखने लायक़ होगा, क्योंकि ये सारे रु़ख लोगों को यह बताएंगे कि ये तीनों लोग देश के प्रति कितने ज़िम्मेदार और ईमानदार हैं. इसलिए गुजरात विधानसभा चुनाव जहां इन सारे लोगों के लिए महत्वपूर्ण है, वहीं देश के लिए भी महत्वपूर्ण है. गुजरात विधानसभा चुनाव जहां सांप्रदायिकता के सवाल पर एक फैसला देगा, वहीं विकास के ऊपर भी फैसला देगा कि जनता सांप्रदायिकता को महत्वपूर्ण समझती है या विकास को? गुजरात में विकास हुआ है, लेकिन लोगों का कहना है कि विकास बहुत सारी जगहों पर नहीं भी हुआ है. इसका सही फैसला तो गुजरात के लोग करेंगे, लेकिन देश में गुजरात का चुनाव आने वाले विधानसभा चुनावों के परिप्रेक्ष्य में न केवल महत्वपूर्ण है, बल्कि वह यह मानक तय करेगा कि भारतीय जनता पार्टी एवं संघ आने वाले दूसरे विधानसभा चुनाव और देश के होने वाले लोकसभा चुनाव में किस तरह का रास्ता अपनाते हैं. सबसे बड़ी परीक्षा तो कांग्रेस की है, क्योंकि उसी को तय करना है कि भविष्य में वह किस तरह के नारे और किस तरह की रणनीति बनाए. गुजरात विधानसभा चुनाव इसका एक उदाहरण बन जाएगा.


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