हिंदुस्तान में एक अजीब चीज है. महंगाई बढ़ाने में सरकार को बहुत मज़ा आता है. सरकार जानबूझ कर महंगाई बढ़ाती है या ऐसा करना सरकार की मजबूरी है, यह सरकार जाने, वे अर्थशास्त्री जानें, जो झूठे आंकड़े तैयार करते हैं, लेकिन हिंदुस्तान के लोगों की ज़िंदगी कितनी मुश्किल हो रही है, यह बात न राजनीतिक दल समझ रहे हैं और न सरकार समझ रही है. हालात बेक़ाबू होंगे, इसमें कोई दो राय नहीं है, क्योंकि सरकार के पास या अर्थशास्त्रियों के पास, खासकर उन अर्थशास्त्रियों के पास, जो सरकार से जुड़े हुए हैं या सरकारों से जुड़े हुए हैं. कोई ऐसी योजना नहीं है, जो बताए कि इस देश का ग़रीब, इस देश का वंचित, इस देश का अल्पसंख्यक, इस देश का किसान, इस देश का मेहनतकश आखिर जिए तो कैसे जिए. वैसे ही जिनकी थाली में तीन चीजें रहती थीं, अब दो चीजें रहने लगी हैं. बहुतों की थाली में तो एक समय कुछ नहीं रहता.
उड़ीसा में कालाहांडी जैसे इलाक़े में आज भी भूख से लोग मरते हैं. विडंबना तो यह है कि देश में कहां-कहां भूख से लोग परेशान हैं, कहां भूख से मौतें हो रही हैं और कहां भूख से होने वाली मौतों को बीमारी से होने वाली मौतें बताया जा रहा है, वे खबरें अब मीडिया में जगह नहीं पातीं. अगर अर्थशास्त्र रास्ता नहीं निकाल सकता तो रास्ता कौन निकालेगा, महंगाई के खिला़फ उठने वाली यह आवाज़ अगर सरकार नहीं सुनेगी तो कौन सुनेगा? राजनीतिक दल महंगाई को या मूल्य वृद्धि को अपने आंदोलन का विषय नहीं बनाते. अभी-अभी पेट्रोल की क़ीमतें बढ़ी हैं. डीजल, रसोई गैस और जीवन जीने के लिए ज़रूरी हर चीज की क़ीमतों में वृद्धि हो गई है. हमारे यहां यह झूठ चल रहा है कि जब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमत बढ़ती है, तभी देश में पेट्रोल की क़ीमत बढ़ती है. जबकि दोनों बातों का आपस में कोई रिश्ता नहीं है. जब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमत घटती है तो हमारे यहां तेल की कीमत नहीं घटती और अनुपात तो कभी भी एक सा नहीं रहता. जिस अनुपात में वहां क़ीमतें बढ़ती हैं, उसके तीन गुने या चार गुने अनुपात में हमारे यहां क़ीमतें बढ़ा दी जाती हैं और जब वहां क़ीमतें घटती हैं तो हमारे यहां क़ीमतें घटाई नहीं जातीं. अर्थशास्त्री इस भ्रम को हमेशा बनाए रखते हैं और सरकार कुछ चुने हुए ऐसे अर्थशास्त्रियों की बात मानती है, जो धीरे-धीरे सरकार को अप्रासंगिक करने में अपनी कुशलता लगा रहे हैं.
उड़ीसा में कालाहांडी जैसे इलाक़े में आज भी भूख से लोग मरते हैं. विडंबना तो यह है कि देश में कहां-कहां भूख से लोग परेशान हैं, कहां भूख से मौतें हो रही हैं और कहां भूख से होने वाली मौतों को बीमारी से होने वाली मौतें बताया जा रहा है, वे खबरें अब मीडिया में जगह नहीं पातीं. अगर अर्थशास्त्र रास्ता नहीं निकाल सकता तो रास्ता कौन निकालेगा, महंगाई के खिला़फ उठने वाली यह आवाज़ अगर सरकार नहीं सुनेगी तो कौन सुनेगा? राजनीतिक दल महंगाई को या मूल्य वृद्धि को अपने आंदोलन का विषय नहीं बनाते.
हो सकता है कि एक या दो फीसदी लोग शौक से हथियार पकड़ते हों, लेकिन नब्बे प्रतिशत लोग शौक के लिए हाथ में हथियार नहीं पकड़ते. वे लोग हथियार पकड़ते हैं, क्योंकि उन्हें रोटी नहीं मिलती. वे हथियार पकड़ते हैं, क्योंकि वे महंगाई और भ्रष्टाचार से परेशान हैं. वे हथियार पकड़ते हैं, क्योंकि उनके यहां विकास नहीं होता. इस स्थिति को सरकार क्यों बढ़ाना चाहती है, यह मैं समझ नहीं पाता. हमारी सरकार क्यों नक्सलवादियों को एक तर्क दे रही है, जिसके सहारे वे लोगों से कह सकते हैं कि देखो यह तुम्हारी सरकार है, जो तुम्हारे बारे में कुछ नहीं सोचती. शायद इसीलिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जब पहली बार सत्ता में आए थे तो देश के साठ ज़िले ऐसे थे, जहां नक्सलवाद का प्रभाव था और आज दो सौ सत्तर जिलों में नक्सलवाद का प्रभाव है. 2004 से लेकर आज तक ऐसी स्थिति खड़ी हो गई कि देश के गृहमंत्री को गाहे-बगाहे नक्सलवाद के खिला़फ बयान देते हुए सुना जाता है. ऐसा बयान, जो नक्सलवाद को खत्म करने में कोई रोल नहीं निभाता, बल्कि वह नक्सलवादियों के महत्व को दर्शाने लगता है. इस फर्क़ को गृहमंत्री क्यों नहीं समझते? आप नक्सलवादियों को महिमा मंडित कर रहे हैं या उनसे मुक़ाबला करने के तरीक़े तलाश रहे हैं?
सरकार अगर नहीं चेतती है तो इस देश में अगले कुछ सालों में अनाज के लिए दंगे शुरू हो जाएंगे. अगर सरकार अपनी नीतियां नहीं बदलती है और राजनीतिक दल नहीं चेतते हैं तो मुझे डर है कि कोई भी व्यक्ति, जो लंबी गाड़ियों में चलता है या बड़े मकानों में रहता है, वह जब घर से निकलेगा या उसका बच्चा स्कूल जाएगा और वह सुरक्षित भी रहेगा, इसमें शक है. लोग यह मानकर चलेंगे कि अगर आप दस किलो चीनी खरीदते हैं तो आप विलासितापूर्ण जीवन जी रहे हैं. देश के बहुत सारे हिस्सों में यह स्थिति आ गई है. हमारे मीडिया में इसे जगह इसलिए नहीं मिलती कि यह अभी बड़े शहरों में नहीं आई है. दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, बंगलुरू आदि शहर अभी इस आग से अछूते हैं, पर इन शहरों के आसपास यह आग पहुंच रही है. सरकार को अपना कल्याणकारी रोल निभाना चाहिए और ग़रीब को कैसे राहत मिले, इसकी योजना हर हालत में बनानी चाहिए. हमारे देश में ग़रीब बहुत ज़्यादा हैं, वंचित बहुत ज़्यादा हैं. उनकी क्रय शक्ति समाप्त हो रही है. सारे बाज़ार देश की दस प्रतिशत जनता के लिए भरे पड़े हैं. ये बाज़ार लुटने से बचें, इन बाज़ारों में रोशनी जलती रहे, इसके लिए ज़रूरी है कि ग़रीब के घर में भी मिट्टी के तेल का दिया जलता रहे. मिट्टी के तेल का दिया ग़रीब के घर में बुझेगा तो बड़े-बड़े शहरों के बड़े-बड़े बाज़ारों के बड़ी-बड़ी नियोन लाइट्स के ऊपर पत्थर चलेंगे. इस बात को सरकार, सरकार को चलाने वाले पूंजीपति और राजनीतिक दल जितनी जल्दी समझ लें, उतना ही अच्छा है. अन्यथा अगले पांच सालों में क्या होगा, पता नहीं? पर एक चीज तो दिखाई देती है कि पेट्रोल की क़ीमतें जिस रफ्तार से मौजूदा सरकार बढ़ा रही है, जब यह सरकार जाएगी तो उस समय पेट्रोल की क़ीमत सौ रुपये लीटर ज़रूर होगी. अगर ऐसा होता है तो बहुत बुरा होगा. हम सरकार को विनम्र चेतावनी दे सकते हैं और वह चेतावनी दे रहे हैं कि कृपया लोकतंत्र का अर्थ लोगों के मन में बनाए रखिए. इतना आर्थिक अत्याचार मत कीजिए कि लोगों को लोकतंत्र के नाम से ऩफरत होने लगे. राजनीतिक दल और सरकारें, जो लोगों द्वारा चुनी हुई हैं, उनका फर्ज़ है कि वे ऐसे रास्ते निकालें, जिनसे महंगाई घटे, जीवन जीने के ज़रूरी साधन लोगों को आसानी से मुहैय्या हों और भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी के ऊपर अंकुश लगे. अगर यह नहीं होगा तो बहुत कुछ ऐसा होगा, जो सभ्य समाज में नहीं होना चाहिए.