जनरल वी के सिंह के साथ न्याय होना चाहिए

jab-top-mukabil-ho1भारतीय थल सेनाध्यक्ष के साथ एक तऱफ सरकार मज़ाक कर रही है और दूसरी तरफ मीडिया. सरकार बार-बार एक ग़लत बात को सही साबित करने की कोशिश कर रही है. उसे चाहिए कि वह सुप्रीम कोर्ट जाए और वहां कहे कि हिंदुस्तान में किसी भी डेट ऑफ बर्थ के सवाल को हाईस्कूल के सर्टिफिकेट से हल नहीं किया जाएगा, बल्कि उस विभाग का प्रमुख जो डेट ऑफ बर्थ तय करे, उससे हल किया जाएगा. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला कई मामलों में दिया है कि जब भी जन्मतिथि पर कोई सवाल खड़ा हो, उस समय हाईस्कूल का सर्टिफिकेट ही अंतिम प्रमाण माना जाएगा, न कि हॉरोस्कोप, जन्मपत्री या किसी रिटायर्ड हेड मास्टर द्वारा दिया हुआ सर्टिफिकेट. ये शब्द सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसलों में लिखे हैं, लेकिन जनरल वी के सिंह की जन्मतिथि के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के उक्त फैसले नहीं माने जा रहे हैं.

क़ानून मंत्रालय की एक सलाह में लिखा गया है कि किसी क्लर्क ने एनडीए का फॉर्म भरते समय ग़लती से 51 की जगह 50 लिख दिया, लेकिन हाईस्कूल के सर्टिफिकेट में यह 1951 है, इसलिए इस डेट ऑफ बर्थ को 1951 ही माना जाए, लेकिन सरकार इसे नहीं मान रही है, क्योंकि सरकार चलाने वाले लोगों का इसमें वेस्टेड इंटरेस्ट है. उस वेस्टेड इंटरेस्ट की वजह से उनके सामने न सुप्रीम कोर्ट के फैसले का कोई मतलब है और न किसी अन्य संवैधानिक संस्था का. भारत के क़ानून मंत्री ने इसी तरह एक वक्तव्य दिया है कि चुनाव आयोग चूंकि स्वतंत्र है, किसी के नियंत्रण में नहीं है, इसलिए वह फैसले ऐसे करता है, जिनकी वजह से परेशानी होती है. इसका मतलब यह है कि जो स्वतंत्र और संवैधानिक संस्थाएं हैं, चाहे सुप्रीम कोर्ट हो या चुनाव आयोग, उन्हें नियंत्रण में लाना चाहिए. ये नियंत्रण में किसके आएं? ज़ाहिर है, संविधान के नियंत्रण में न आएं, ये सरकार के नियंत्रण में आएं. यह खतरनाक बात नए सिरे से हिंदुस्तान में स्थापित की जा रही है.

सेना के नियमों के अनुसार, अगर सेनाध्यक्ष कोई ज़ुबानी आदेश देता है, उसे भी न मानना सेना के अनुशासन का उल्लंघन माना जाता है और आदेश न मानने वाला व्यक्ति कोर्ट मार्शल का सामना करने के लिए विवश हो जाता है. सेना के इस मूलभूत सिद्धांत के तहत जब जनरल दीपक कपूर ने, जो उस समय सेनाध्यक्ष थे, जनरल वी के सिंह (जो उस समय लेफ्टिनेंट जनरल थे) से कहा कि आप संगठन के हित में लिखकर दीजिए कि मैं अपनी जन्मतिथि 1950 मानता हूं तो उसे सेना का आदेश मानकर जनरल वी के सिंह ने लिखा, जैसा आपने मुझे निर्देशित किया…इसका मतलब दूसरे अर्थों में उनके गले पर बंदूक रखकर उनसे ऐसा लिखवाया गया. कंडीशनल लिखा हुआ और हाईस्कूल के सर्टिफिकेट में जो तारी़ख लिखी हुई है, क्या उन दोनों के बीच में सच्चाई नहीं खोजी जा सकती है.

मीडिया का वह हिस्सा, जो डिफेंस मिनिस्ट्री कवर करता है, मैं उसके बारे में एक बात सा़फ कर दूं. नब्बे प्रतिशत से ज़्यादा डिफेंस जर्नलिस्ट ऐसे हैं, जिनका रिश्ता किसी न किसी हथियार लॉबी से है. अ़खबार में उनका लेख पढ़कर ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इसके पीछे कौन सी हथियार लॉबी काम कर रही है. इसलिए ऐसे सारे जर्नलिस्ट, जो हथियार लॉबी से जुड़े हुए हैं, उन्होंने इस सवाल पर सरकार की तरफ से जनरल वी के सिंह पर हमला बोल दिया. इन पत्रकारों ने कहा कि चूंकि उन्होंने संगठन के हित में एक बार स्वीकार किया है कि मेरी जन्मतिथि 1950 है और इसी वाक्य को मानते हुए इन पत्रकारों ने कह दिया कि उनकी डेट ऑफ बर्थ 1950 ही है. ऐसे सारे मीडिया के दोस्तों ने मीडिया का अपमान किया है, मीडिया के सिद्धांतों का अपमान किया है. हर एक को पता है और अगर नहीं पता है तो वह महामूर्ख पत्रकार है. सेना के नियमों के अनुसार, अगर सेनाध्यक्ष कोई जुबानी आदेश देता है, उसे भी न मानना सेना के अनुशासन का उल्लंघन माना जाता है और आदेश न मानने वाला व्यक्ति कोर्ट मार्शल का सामना करने के लिए विवश हो जाता है. सेना के इस मूलभूत सिद्धांत के तहत जब जनरल दीपक कपूर ने, जो उस समय सेनाध्यक्ष थे, जनरल वी के सिंह (जो उस समय लेफ्टिनेंट जनरल थे) से कहा कि आप संगठन के हित में लिखकर दीजिए कि मैं अपनी जन्मतिथि 1950 मानता हूं तो उसे सेना का आदेश मानकर जनरल वी के सिंह ने लिखा, जैसा आपने मुझे निर्देशित किया…इसका मतलब दूसरे अर्थों में उनके गले पर बंदूक रखकर उनसे ऐसा लिखवाया गया. कंडीशनल लिखा हुआ और हाईस्कूल के सर्टिफिकेट में जो तारी़ख लिखी हुई है, क्या उन दोनों के बीच में सच्चाई नहीं खोजी जा सकती है. सच्चाई बिल्कुल सा़फ है और वह यह है कि जनरल वी के सिंह की जन्मतिथि 1951 है.

इसीलिए जब जनरल वी के सिंह ने अपने इस सवाल को उठाया और कहा कि यह मेरे आत्मसम्मान का मसला है तो हिंदुस्तान के हर न्यायप्रिय नागरिक ने उनकी भावना के साथ अपने को जोड़ा. इसके बावजूद अभी कुछ पत्रिकाएं, अ़खबार और सरकार में हथियार माफियाओं या ज़मीन माफियाओं से सहानुभूति रखने वाले लोगों ने जनरल वी के सिंह पर हमला करना नहीं छोड़ा है. उनकी पुरज़ोर ख्वाहिश है कि जनरल वी के सिंह की जन्मतिथि 1950 ही मानी जाए और वह इस साल मई में रिटायर हो जाएं. लेकिन इसमें सुप्रीम कोर्ट क्यों हस्तक्षेप नहीं कर रहा है, यह हमारे लिए एक चिंता की बात है. सुप्रीम कोर्ट छोटी-छोटी चीजों में अपने आप संज्ञान ले लेता है, उन पर सुनवाई करता है और फैसले देता है. कोई एक खत लिख दे, उस खत को भी पीआईएल मानकर सुनवाई शुरू हो जाती है, लेकिन एक ऐसे मसले में सुप्रीम कोर्ट हस्तक्षेप नहीं कर रहा है, जिसमें देश के सबसे बड़े संगठन, ऐसा संगठन नहीं जो समाज सेवा का काम करता है, बल्कि जो देश की रक्षा करता है यानी भारतीय थलसेना के अध्यक्ष का मसला. जिस मसले को लेकर अ़खबारों में लेख लिखवाए जा रहे हैं, उन पर हमले हो रहे हैं और जनरल वी के सिंह खुद पर लगाए गए आरोपों का एक भी जवाब नहीं दे पा रहे हैं, क्योंकि अगर वह जवाब देंगे तो माना जाएगा कि वह पत्रकारों के बीच अपने मामले को ले जा रहे हैं. उनकी मजबूरी है कि वह अपने पक्ष में स़िर्फ और स़िर्फ गोपनीय खत सरकार को लिखें. सरकार उन खतों को नहीं, बल्कि उन खतों को लेकर सामने आती है, जो उसके पक्ष में हैं. सच्चाई दोनों के बीच में कहीं है. उस सच्चाई को सरकार सामने नहीं लाती और जनरल वी के सिंह की इस विवशता का कि वह जनता के बीच अपनी बात नहीं ले जा सकते, फायदा उठा रही है. ज़रूरत इस बात की है कि सर्वोच्च न्यायालय इसका संज्ञान ले और अपनी तऱफ से सुनवाई शुरू करे. यह हमारा सर्वोच्च न्यायालय से विनम्र अनुरोध है कि आप देश में पहली बार पैदा किए गए एक नकली विवाद पर राय दें और हमारा आग्रह अगर आप मानें तो आपको यह करना चाहिए. अगर आप यह नहीं करेंगे तो आप भी कहींन कहीं सरकार के साथ इस पूरी साज़िश का हिस्सा मान लिए जाएंगे. लोगों के जेहन में आपकी तस्वीर भी सरकार से मिलजुल कर काम करने वाले सुप्रीम कोर्ट की हो जाएगी. ऐसा खतरा हमें लगता है.

पाकिस्तान में सरकार, सेना और न्यायपालिका लगभग तीनों ही गड्डमड्ड हैं. हमारे मुल्क में ऐसा नहीं है. हमारे देश में पाकिस्तान जैसी हालत नहीं है. हमारे पास स्वतंत्र न्यायपालिका और स्वतंत्र चुनाव आयोग है. यह स्वतंत्रता हमारे संविधान की सबसे खूबसूरत महक है. देश में जब सभी जगह से लोग हार जाते हैं तो सुप्रीम कोर्ट में जाते हैं. हम भी सुप्रीम कोर्ट से यही कहना चाहते हैं कि देश में पैदा हुए इस विवाद पर वह क्यों फैसला नहीं ले रहा, क्यों इसकी सुनवाई नहींकर रहा और लोगों के दिमाग में क्यों यह संदेह पनपने दे रहा है कि वह लोगों की बात नहीं सुनता. जनरल वी के सिंह का यह कहना कि यह जन्मतिथि का विवाद पूरी तरह उनके मान-सम्मान से जुड़ा है, हम इससे पूरी तरह से सहमत हैं. जनरल वी के सिंह एक व्यक्ति नहीं हैं, बल्कि भारतीय सेना का नेतृत्व करने वाले सर्वोच्च सिपाही हैं. जनरल वी के सिंह के खिला़फ अगर उनके पूरे करियर में एक भी दाग़ होता तो अब तक सरकार या वे ताक़तें, जो जनरल वी के सिंह को हटाना चाहती हैं, हर हालत में उन दागों को लेकर अब तक देश में शोर मचा चुकी होतीं, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया, क्योंकि वी के सिंह की ज़िंदगी में और उनकी वर्दी पर एक भी दाग नहीं है. इसीलिए हम जनरल वी के सिंह के सम्मान की लड़ाई में उनके साथ खड़े हैं. हम इसलिए भी खड़े हैं, क्योंकि यह भारतीय सेना के सम्मान का मसला है. बहत सारे वरिष्ठ पत्रकारों ने सेना के अ़फसरों से बातचीत की. सारे अफसरों का यह कहना है कि जनरल वी के सिंह एक बेदाग़ और एक बेहतरीन नेतृत्व क्षमता वाले इंसान हैं. इसलिए पूरी सेना उनके साथ चट्टान की तरह खड़ी है.

अ़फसोस इस बात का है कि सेना को सवालिया घेरे में लाने का काम सरकार में वे लोग कर रहे हैं, जिनकी लोकतंत्र के प्रति वचनबद्धता अब संदेह के घेरे में आ गई है और विपक्ष के लोग इस सवाल पर खामोश हैं. विपक्ष वैसे भी सरकार द्वारा उठाए गए किसी सवाल पर तब तक नहीं बोलता, जब तक उसे राजनीतिक फायदा न मिलता हो. सेना पर विपक्ष खामोश है. सरकार मनमाना फैसला करना चाहती है. ऐसा लगता है कि देश में न्यायप्रियता या न्याय में आस्था रखने वालों की आशाओं के खत्म होने का व़क्त आने वाला है. मुझसे एक सेनाधिकारी की पत्नी ने कहा कि अगर मेरी अपने पति से शादी न हुई होती तो मैं उनसे कहती कि तुम्हें अगर मुझसे शादी करनी है तो तुम सेना में मत जाना. उन्होंने मुझसे कहा कि यह दुर्भाग्य की बात है कि मेरे पति भी बहुत ईमानदार हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि सेना में अब ईमानदार अधिकारियों की क़द्र नहीं होने वाली है. सेना में काम करने वाले अ़फसर की इस पत्नी का दर्द शायद सेना में काम करने वाले लाखों लोगों की पत्नी का दर्द होगा, मुझे नहीं मालूम, पर उस महिला की इन मार्मिक बातों ने इतना तो सोचने पर विवश कर ही दिया है कि क्या हम ईमानदार लोगों के साथ, बेदाग़ लोगों के साथ खड़े होने की हिम्मत कभी नहीं जुटा पाएंगे. यह सवाल देश के सामने भी है, राजनीति के सामने भी और सुप्रीम कोर्ट के सामने भी है.


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