अरविंद केजरीवाल फर्रु़खाबाद गए भी और दिल्ली लौट भी आए. सलमान खुर्शीद को सद्बुद्धि आ गई और उन्होंने अपनी उस धमकी को क्रियान्वित नहीं किया, जिसमें उन्होंने कहा था कि केजरीवाल फर्रु़खाबाद पहुंच तो जाएंगे, लेकिन वापस कैसे लौटेंगे. इसका मतलब या तो अरविंद केजरीवाल के ऊपर पत्थर चलते या फिर गोलियां चलतीं, दोनों ही काम नहीं हुए. इसके लिए सलमान खुर्शीद और फर्रु़खाबाद के कांग्रेसियों को धन्यवाद देना चाहिए, लेकिन फर्रु़खाबाद के लोगों का कहना कुछ और है. फर्रु़खाबाद का का़फी अर्से तक लोकसभा और सरकार में सलमान खुर्शीद के पिता ने प्रतिनिधित्व किया. इसके बाद खुद सलमान खुर्शीद ने लोकसभा में सरकार का प्रतिनिधित्व किया, लेकिन फर्रु़खाबाद वहीं का वहीं ठहरा हुआ ज़िला है, जैसा आज़ादी के बाद के दिनों में था. फर्रु़खाबाद को यह गर्व ज़रूर है कि उसने भारत को एक राष्ट्रपति डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन के रूप में दिया, लेकिन इस गर्व का भी कोई फायदा फर्रु़खाबाद के लोगों को नहीं मिला. सलमान खुर्शीद दोनों बार भारत के शक्तिशाली मंत्री बने, लेकिन उन्होंने ज़ाकिर हुसैन ट्रस्ट के अलावा कभी फर्रु़खाबाद के ऊपर विकास की नज़र नहीं डाली.
फर्रु़खाबाद से रेलवे लाइन गुज़रती है, लेकिन उसके ऊपर त़ेज सवारी गाड़ियां नहीं चलतीं. जाड़ों के तीन महीने दिल्ली से फर्रु़खाबाद जाने वाली एकमात्र ट्रेन कालिंदी एक्सप्रेस बंद कर दी जाती है, लेकिन सलमान खुर्शीद जैसा शक्तिशाली मंत्री इस ट्रेन को चलवा नहीं पाता. बहुत सारी ट्रेनें इस रास्ते से होकर कानपुर जा सकती हैं, लेकिन सलमान खुर्शीद के पास इतना वक़्त नहीं है या वह चाहते नहीं हैं कि फर्रु़खाबाद के लोग या इस क्षेत्र के लोग आराम से आएं-जाएं, इसलिए वह रेल लाइन स़िर्फ मालगाड़ियों के आने-जाने के काम आती है. न उद्योग हैं, न रोज़गार है, लेकिन मंत्री पद की ताक़त दिनोंदिन बढ़ती जा रही है. इस ताक़त का बढ़ना ग़रूर पैदा करता है, घमंड पैदा करता है और शायद इसी घमंड ने सलमान खुर्शीद के मन में यह डर पैदा कर दिया है कि फर्रु़खाबाद उनकी जागीर बन गया है. इसीलिए उन्होंने कह दिया कि अरविंद केजरीवाल फर्रु़खाबाद पहुंच तो जाएंगे, लेकिन वापस कैसे आएंगे. सलमान खुर्शीद अपनी सभ्य भाषा के लिए आम जनता में जाने जाते थे, लेकिन वह सभ्यता शायद उनका मुखौटा थी. असली सलमान खुर्शीद वही हैं, जो पिछले दिनों नज़र आए. मग़रूर, घमंडी, धमकी देने वाले और फर्रु़खाबाद के दु:ख-दर्द, तकली़फ से बेपरवाह. एक ऐसा शख्स, जो फर्रुखाबाद के हर आदमी को अपना ग़ुलाम, खरीदा जाने वाला सामान मानता है.
फर्रु़खाबाद के लोगों की बहुत बड़ी ख्वाहिश नहीं है. वे स़िर्फ इतना चाहते हैं कि उन्हें कुछ स्कूल मिल जाएं, कुछ अस्पताल मिल जाएं, शहर को जोड़ने वाली 3-4 पक्की सड़कें मिल जाएं, नौकरियां भले ही न मिलें, लेकिन खुद के रोज़गार के लिए विकल्प मिल जाए, उनका ताक़तवर प्रतिनिधि उनके लिए कुछ छोटे-छोटे उद्योग लगवा दे और ज़िले के बीच से गुज़रती हुई रेलवे लाइन पर सवारी गाड़ियां गुज़रने लगें.
लेकिन, पहली नवंबर को फर्रु़खाबाद के लोगों ने बता दिया कि वे ऐसे नहीं हैं. उन्होंने अरविंद केजरीवाल की सभा में जमकर शिरकत की और यह संदेश दिया कि वे भी देश की समस्याओं से उतने ही चिंतित हैं, जितने देश के बाक़ी हिस्से के लोग. जितनी भीड़ सोनिया गांधी और राहुल गांधी की सभा में नहीं जुटी थी, उससे ज़्यादा भीड़ अरविंद केजरीवाल की सभा में जुटी थी. सोनिया गांधी और राहुल गांधी के लिए भीड़ जुटाने में सलमान खुर्शीद को पसीना आ गया था, लेकिन केजरीवाल की सभा में आई भीड़ लाई हुई भी नहीं थी, यह स्वत: आई भीड़ समस्याओं से परेशान लोगों की थी. वैसे भी फर्रु़खाबाद में कांग्रेस का मतलब सलमान खुर्शीद ही है. अगर अब सलमान खुर्शीद ने फर्रु़खाबाद पर ध्यान नहीं दिया तो उन्हें भी फर्रु़खाबाद में वही परिणाम देखना पड़ेगा, जो उनकी पत्नी लुईस खुर्शीद ने देखा यानी चौथा नंबर और ज़मानत ज़ब्त.
फर्रु़खाबाद में अरविंद केजरीवाल का कहीं कोई विरोध नहीं हुआ. पंद्रह से बीस लोग तीन जगहों पर काले झंडे लिए हुए खड़े थे और एक जगह पर उन्होंने सभा में जाने वालों से धक्कामुक्की की और सलमान खुर्शीद की कृपा के आकांक्षी टेलीविजन चैनलों ने उसे सारा दिन कितनी बार दिखाया, मानो फर्रु़खाबाद में केजरीवाल का भयंकर विरोध हो रहा हो और कांग्रेस के कार्यकर्ता वहां सड़कों पर आ गए हों. फर्रु़खाबाद के लोग टेलीविजन की क्लीपिंग को देखकर हंस रहे थे. एक ही क्लिप थी, जो बार-बार दिखाई जा रही थी. इससे कम से कम एक बात तो पता चली कि जनता की इच्छा, जनता की ताक़त एक तऱफ और लीडर की कृपा, लीडर का पैसा एक तऱफ. इस एक बात को सलमान खुर्शीद समझ लें तो बहुत अच्छा. जनता के बीच बनी धारणा ज़्यादा मज़बूत और महत्वपूर्ण है, बजाय क़ानूनी तर्कों के. अदालती मुक़दमा, अदालती तर्क अब जनता को भ्रमित नहीं करते.
अगर फर्रु़खाबाद के लोगों के मन में यह बैठ गया कि आपकी रुचि फर्रु़खाबाद के विकास के बारे में सोचने में नहीं है, बल्कि फर्रु़खाबाद के विकलांगों के लिए आने वाली छोटी सी रक़म भी अगर उनके पास ढंग से नहीं पहुंचती तो उसके लिए ज़िम्मेदार और कोई नहीं, स्वयं सलमान खुर्शीद माने जाएंगे. ये सारी बातें सलमान खुर्शीद को उनके मित्रों द्वारा समझाई जानी चाहिए, क्योंकि मेरा अभी भी मानना है कि सलमान खुर्शीद बुनियादी तौर पर शायद बुरे व्यक्ति नहीं हैं, लेकिन समाज के प्रति ज़िम्मेदारी, लोगों की तकली़फों एवं उनके दु:ख-दर्द के साथ खड़ा होना एक जनप्रतिनिधि के लिए अत्यावश्यक है. और इस अनिवार्य शब्द को अगर सलमान खुर्शीद बोलते हैं तो फिर उसे अ़फसोसनाक ही कहा जाएगा. सलमान खुर्शीद यह कब समझेंगे कि फर्रु़खाबाद सुप्रीम कोर्ट नहीं है, जहां तर्कों से आप अपने विपक्षी वकील को धराशायी कर रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट का वकील अपनी फीस लेता है और वह अपने मुवक्किल का मुक़दमा जीत जाए तो बहुत अच्छी बात और अगर हार जाए तो भी कोई फर्क़ नहीं पड़ता, लेकिन अगर जनप्रतिनिधि यही रवैया अख्तियार कर ले तो उसके चुनाव क्षेत्र में लोगों का विश्वास टूट जाता है.
अरविंद केजरीवाल ने फर्रु़खाबाद में जान फूंक दी है. फर्रु़खाबाद भारत के नक़्शे में एक अंजान सा चुनाव क्षेत्र था, जिसके प्रतिनिधि सलमान खुर्शीद द्वारा चलाए गए जाकिर हुसैन ट्रस्ट के बारे में आजतक ने कुछ खुलासे किए. उन खुलासों को अरविंद केजरीवाल ने अपना मुद्दा बनाया और आज फर्रु़खाबाद सारे देश के लोगों की ज़ुबान पर चढ़ा हुआ चर्चित नाम है. फर्रु़खाबाद के लोगों की बहुत बड़ी ख्वाहिश नहीं है. वे स़िर्फ इतना चाहते हैं कि उन्हें कुछ स्कूल मिल जाएं, कुछ अस्पताल मिल जाएं, शहर को जोड़ने वाली 3-4 पक्की सड़कें मिल जाएं, नौकरियां भले ही न मिलें, लेकिन खुद के रोज़गार के लिए विकल्प मिल जाए, उनका ताक़तवर प्रतिनिधि उनके लिए कुछ छोटे-छोटे उद्योग लगवा दे और ज़िले के बीच से गुज़रती हुई रेलवे लाइन पर सवारी गाड़ियां गुज़रने लगें.
अगर सलमान खुर्शीद में यह सब कराने की ताक़त नहीं है तो कम से कम वह इन चंद मांगों के समर्थन में लोगों के लिए लड़ते हुए दिखाई दें, लेकिन एक शर्त है कि वह लड़ना कैबिनेट का ताक़तवर सदस्य रहते हुए नहीं माना जाएगा. उसके लिए कांग्रेस का सदस्य रहते हुए एक साधारण सांसद की तरह प्रधानमंत्री से भी लड़ना होगा और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से भी. पिछले 65 सालों में ज़्यादातर समय फर्रु़खाबाद के लोगों ने धोखे ही खाए हैं. उन्होंने जाति के नाम पर, धर्म के नाम पर अपने वोट देकर सांसद बनाए, बदले में ज़्यादातर सांसदों ने फर्रु़खाबाद की आशाएं तोड़ीं. फर्रु़खाबाद के लोग भी इतने निराश हो गए हैं कि वे अपनी आशाओं के बारे में कुछ कहने या आवाज़ उठाने के बारे में सोचते भी नहीं. यह कहानी स़िर्फ फर्रु़खाबाद की नहीं है, देश के ज़्यादातर चुनाव क्षेत्र इसी स्थिति के शिकार हैं और उन्हें अपने प्रतिनिधियों से ऐसी ही निराशा मिलती है. अब देश के लोगों पर है कि वे ऐसी स्थिति का विरोध करते हैं या फिर से एक और धोखा खाने का इंतज़ार करते हैं.