देश पार्टी लाइन से ज्यादा महत्वपूर्ण है

jab-top-mukabil-ho1देश में लोकतंत्र रहेगा या नहीं रहेगा, इसके बारे में थोडी सी चिंता ज़्यादा बढ़ गई है. लोकतंत्र को चलाने की ज़िम्मेदारी अगर सीधे तौर पर देखें तो हमारे सांसदों की होती है. वे लोगों के वोट से चुन कर जाते हैं और उनकी ज़िम्मेदारी होती है कि वे देश से जुड़े हुए मसलों पर आपस में विवाद न करें. बहस करें और बहस करके जो देश के हित में हो, वह फैसला करें. लोकतंत्र भी बचे और बेरोज़गारी, महंगाई एवं ग़रीबी से देश लड़ता भी दिखाई दे. पर सांसद की समितियों में इधर जो होने लगा है, वह परेशानी के संकेत देता है. पब्लिक अकाउंट्‌स कमेटी या लोक लेखा समिति एक ऐसी समिति है, जो सरकार द्वारा सारे देश में किए गए कामकाजों, खास तौर से जिनका रिश्ता आर्थिक ख़र्चों से होता है, पर नज़र रखती है. जो रिपोट्‌र्स आती हैं, चाहे वह सीएजी की रिपोर्ट हो या कोई और रिपोर्ट, उन सबका वह विश्लेषण करती है और देश को बताती है कि इसमें यह सच्चाई है. लोक लेखा समिति की रिपोर्ट अगर संसद स्वीकार कर लेती है तो फिर उस पर संसद की मुहर लग जाती है. संसद की सबसे महत्वपूर्ण समिति लोक लेखा समिति मानी जाती है, पर पिछले दिनों जो हुआ, उसने इस तरह के संकेत दिए कि अब लोक लेखा समिति महत्वपूर्ण समिति नहीं रही. उसके सदस्य महत्वपूर्ण नहीं रहे. सदस्यों ने खुद अपनी और समिति की गरिमा समाप्त करने की कोशिश की. जब किसी समिति में सदस्य होते हैं तो वे पार्टी के सदस्य नहीं रह जाते. चाहे समिति का अध्यक्ष हो या विभिन्न दलों के सदस्य, जब वे लोक लेखा समिति में पहुंचते हैं, तब उन पर ज़िम्मेदारी होती है कि वे आने वाले विषय के गुण-दोष पर विचार करें. पर यहां क्या हुआ? यहां हुआ यह कि लोक लेखा समिति की रिपोर्ट जब बनी, उसके मुख्य अंश समाचारपत्रों में लीक हो गए. अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी पर आरोप लगा कि उन्होंने पार्टी लाइन पर इसे बनाया और बाकी सदस्यों से बात नहीं की. कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी एवं समाजवादी पार्टी के सदस्य एक हो गए और उन्होंने कहा कि इस रिपोर्ट को हमें पास ही नहीं होने देना है.

पर इस मुल्क के सामने कोई सच्चाई आए, उसके बारे में ये सोचते ही नहीं हैं, बल्कि सोचना चाहते ही नहीं. संसद में लोकसभा की बैठक होती है, राज्यसभा की बैठक होती है, आप जो चाहें करें. भाजपा कांग्रेस को गाली दे, कांग्रेस भाजपा को गाली दे. पर इतनी समझ इन सांसदों में नहीं पैदा होती कि जब वे किसी समिति में बैठते हैं, तब वे अपनी पार्टी लाइन से ऊपर उठकर देश हित के बारे में सोचें. लोकतंत्र की यह ख़ूबी अब हमारे बीच से धीरे-धीरे ख़त्म हो रही है.

लोकसभा का एक उदाहरण है, लोक लेखा समिति के अध्यक्ष आर आर मोरारका थे. आर आर मोरारका ने अपनी रिपोर्ट में कुछ कमेंट किया और तत्कालीन गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा ने लॉबी में (सदन के अंदर नहीं) और दोनों कांग्रेस पार्टी के ही सदस्य थे, मोरारका जी से कहा कि आप ऐसी रिपोर्ट क्यों लिख रहे हैं? मोरारका जी ने कहा कि मेरा इसमें कोई दोष ही नहीं है, समिति के सदस्य हैं, जिन्होंने यह रिपोर्ट बनाई है. उस समय भी लोक लेखा समिति की संरचना ऐसी ही होती थी, जैसी अभी है. तब तक किसी सदस्य ने, शायद आचार्य कृपलानी ने इसे सुन लिया और उन्होंने सदन में खड़े होकर कहा कि श्री गुलजारी लाल नंदा लोक लेखा समिति के अध्यक्ष आर आर मोरारका को धमका रहे थे. सदन में हंगामा हो गया. सारे नेताओं ने इस घटना की निंदा की.  गुलजारी लाल नंदा ने सदन से मा़फी मांगी. हालांकि उन्होंने कहा कि मेरा मतलब यह नहीं था, जो आचार्य जी निकाल रहे हैं. पर उन्हें लोकसभा में खेद प्रकट करना पड़ा. लोक लेखा समिति की लाइन पार्टी नहीं थी, देश की लाइन थी. आज क्या हो गया है? क्या तीस सालों में हमारा संसदीय लोकतंत्र टूट के कगार पर पहुंच गया है? हम इतने ज़्यादा पार्टी लाइन से जुड़ गए हैं कि देश के बारे में कुछ सोच ही नहीं सकते?

ए राजा जेल में हैं. 2-जी स्पेक्ट्रम का मसला था. पहले बहस हुई कि इसके लिए क्या हो? पूरा एक सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया और तब ज्वाइंट पार्लियामेंट्री कमेटी बनी. उसने 2-जी स्पेक्ट्रम की पैरेलल जांच की. हम यह समझ नहीं पाते हैं कि देश के सांसद क्या कभी अपनी पार्टी लाइन से ऊपर उठकर देश के बारे में सोचेंगे? भाजपा के सदस्य हों, कांग्रेस के हों या दूसरी पार्टियों के, ये सारे के सारे पार्टी लाइन में बंटे हुए हैं. ये अपनी पार्टी का हित सोचते हैं. पार्टी को स्कोर कैसे मिले, पार्टी का हित कैसे सधे, इस पर उनका दिमाग़ बहुत चलता है.

ये सवाल हम इसलिए उठा रहे हैं, क्योंकि देश के सामने सचमुच विश्वास का संकट खड़ा हो गया है. इन सांसदों को नहीं पता है कि सांसद चाहे किसी भी पार्टी का हो, कांग्रेस काहो, भाजपा का हो या किसी और पार्टी का, लोगों की नज़र में आज सांसदों की कोई इज़्ज़त नहीं है. वे हर सांसद को बिका हुआ मानते हैं, वे हर सांसद को दलाल मान रहे हैं. ईमानदार लोग हैं, पर उनकी सुनता कौन है? ईमानदार सांसदों को तो संसद में बोलने का मौक़ा ही नहीं मिलता. ऐसे-ऐसे उदाहरण हैं कि सांसदों का पूरा का पूरा कार्यकाल बीत जाता है, लेकिन उनकी पार्टी के नेता उन्हें संसद में बोलने की इजाज़त ही नहीं देते. ईमानदार सांसदों को संसद के एक कोने में अछूत की तरह, अस्पृश्य की तरह बैठा दिया जाता है. बोलता कौन है! जो दाग़ी होता है. बोलता कौन है! जो अपराधी होता है. शोर कौन करता है! जिसके पास कोई ज्ञान नहीं होता, देश की समस्याओं की जानकारी नहीं होती. यही मुल्क की चिंता का विषय है.

दूसरा मुद्दा जनता से जुड़ा हुआ है. जब हम बात करते हैं संसद के सदस्यों से कि आपके यहां ऐसे-ऐसे लोग आते हैं, आप लोग इस तरीक़े की हरकत करते हैं और देश बुरा मानता है. वे कहते हैं कि देश को बुरा मानने की क्या ज़रूरत है? यही लोग तो चुनते हैं ऐसे लोगों को! जिन सांसदों से हमारे लोग या हम बात करते हैं, उनसे एक ही बात सामने आती है कि देश के लोगों को क्यों परेशानी है? आप चुनते हैं ऐसे ही लोगों को! हम यहां आकर जो करते हैं, उससे आपको कोई परेशानी या शर्म नहीं होनी चाहिए. एक सांसद ने बहुत सा़फ कहा कि हम अपने चुनाव पर 10 से 15 करोड़ रुपये खर्च करते हैं. 10 से 15 करोड़ रुपये का मतलब! दरअसल, अब कोशिश की जाती है कि पूरे लोकसभा क्षेत्र के हर घर को नकद पैसा जाए. पार्टियां अपने-अपने समर्थकों की लिस्ट बनाती हैं और उनके यहां वोटरों के हिसाब से पैसा दिया जाता है. चुनाव आयोग सख्त हो गया है. अब गाड़ियों का काफिला नहीं निकलता, अब दीवार पर लिख नहीं सकते, पोस्टर एक सीमा से ज़्यादा नहीं निकाल सकते, होर्डिंग नहीं लगा सकते, लोगों को बेवकूफ बनाने के और साधन नहीं जुटा सकते. उम्मीदवारों ने सीधा रास्ता निकाल लिया कि वोटर के पास सीधे पैसे भेजो. जब उस सांसद ने यह कहा तो दिमाग हिल गया. उसने कहा कि हर घर में हम पैसा भेजते हैं, लिफाफे भेजते हैं और जब इतना खर्च करके यहां आते हैं दिल्ली में तथा हमें अगला चुनाव भी लड़ना होता है. तो आप क्या समझते हैं कि हम स़िर्फ संसद की तनख्वाह पर अपनी ज़िंदगी ग़ुजार सकते हैं? जो खर्च किया है, उसकी वसूली कहां से होगी, भरपाई कहां से होगी? अगला चुनाव हम किस तरह लड़ेंगे? उसकी भी तैयारी हमें करनी पड़ती है. इसलिए जो भी संसद में हो रहा है, जैसा भी हो रहा है, जिसके भी हक़ में हो रहा है या जिसके भी खिला़फ हो रहा है, उससे जनता को क्या मतलब?

हमें भी यह लगता है कि अगर इस देश की जनता नहीं चेती तो हमारी संसद, इस महान भारत देश की संसद लोकतंत्र के अवसान का गीत गाएगी, लोकतंत्र के अवसान का शिलालेख लिखेगी. इस संसद को अगर जगाना है, इस संसद पर कंट्रोल करना है और इस संसद को दिशा देनी है तो जनता का हस्तक्षेप अनिवार्य है. देश की जनता यानी देश के मतदाता अगर नहीं चेते तो संसद में आज जो हो रहा है, जिसका सबसे अद्यतन उदाहरण लोक लेखा समिति है, वैसा आप मानकर चलें कि भारत की संसद में अब अक्सर होगा, क्योंकि इन सांसदों के लिए देश नहीं, उनकी पार्टी प्रमुख है. पार्टी में भी पार्टी हित नहीं, जिस नेता ने उन्हें टिकट दिलाया है, उसका हित प्रमुख है. इस अंतर्विरोध को अगर देश की जनता समझ ले, तभी कुछ हो सकता है और अगर वह नहीं समझेगी तो हमें भी अपने देश से लोकतंत्र को विदा होते देखने के लिए तैयार रहना चाहिए.


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