सारे देश में अपने अपहरण से मशहूर हुए देश के प्रथम आईएएस अधिकारी विनील कृष्णा ने बयान दिया है कि अगर विकास का ढांचा नहीं सुधारा गया और लोगों तक विकास का नाम नहीं पहुंचा तो वह दिन दूर नहीं, जब अधिकारी या सत्ता में बैठे लोग, जनता के गुस्से का शिकार होंगे. उनका यह बयान उस वास्तविकता की ओर इशारा करता है, जिसे सत्ता में बैठे लोग नहीं समझ पा रहे हैं. जब कृष्णा छूटकर आए, उस समय उड़ीसा सरकार ने हवा फैलाई कि कृष्णा नक्सलवादियों से मिले हुए हैं और उनका अपहरण दोनों का मिला हुआ खेल था. पर इस चीज को कोई मानने के लिए तैयार नहीं होता. कृष्णा उन अधिकारियों में थे, जो मोटरसाइकिल पर गांव का दौरा करते थे, क्योंकि वहां जीप जाने के लिए सही रास्ता नहीं था और वह नक्सलवादियों का आसान निशाना बन गए. पर हमारा उद्देश्य इस घटना को और विस्तार से बताना नहीं है, बल्कि हम वह कहना चाहते हैं, जो कृष्णा ने कहा कि अगर व्यवस्था नहीं सुधरी तो इस मुल्क में सत्ताधीशों के सामने मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं. जो आज कृष्णा ने कहा, वही बंगाल के बुद्धिजीवियों ने महाश्वेता देवी के नेतृत्व में तीन साल पहले कहा था. और जब उन्होंने यह बात कही, तब बंगाल की मार्क्सवादी सरकार इन बुद्धिजीवियों के पीछे पड़ गई. इन्हें गिरफ्तारी का भय दिखाने लगी. उसका कहना था कि ये लोग इस तरह का बयान देकर नक्सलवादियों को बढ़ावा दे रहे हैं, उनका मन बढ़ाते हैं और इसका मतलब है कि परोक्ष रूप से ये नक्सलवादियों के साथ हैं. यही भाषा छत्तीसगढ़ में रमन सिंह बोल रहे हैं. उनका कहना है कि जो भी नक्सलवादियों के समर्थन में बात करेगा, वह उनसे जुड़ा हुआ माना जाएगा.
राजनेता अक्ल की बातें अक्सर करते हैं, अक्सर नहीं करते. अब इन दोनों परस्पर विरोधी विचारधाराओं वाली पार्टियों के ऩजरिए में कहां साम्यता है, कहां नहीं, यह आप तय करें. पर मुझे लगता है कि ये दोनों आम आदमियों को लेकर बिल्कुल एक जगह खड़ी हैं. पश्चिम बंगाल को ले लें. वहां चुनाव होने वाले हैं. वहां 35 साल से सरकार की रीढ़ का काम करने वाली जमात, जिसका नाम मुसलमान है, वह अब 60 से 70 प्रतिशत सीपीएम से अलग हो गई है, क्योंकि जितने वायदे मुसलमानों से किए गए थे, वे आज तक पूरे नहीं हुए. सीपीएम ने मुसलमानों को म़जदूर के रूप में नहीं देखा, सर्वहारा वर्ग के रूप में नहीं देखा और आम जनता के एक शक्तिशाली वर्ग के रूप में भी नहीं देखा. इसीलिए इतने साल आजादी के बीतने के बाद या 35 साल सीपीएम के शासन के बीतने के बाद जितने वायदे उन्होंने मुसलमानों से किए, उनमें से दस प्रतिशत भी आज तक पूरे नहीं किए. इसका गुस्सा बंगाल के मुसलमानों में है. साफ तौर पर यह गुस्सा देखा जा सकता है. इस समय बंगाल के मुसलमानों का कहना है कि सीपीएम को इस बार हारना चाहिए, क्योंकि अगर सीपीएम नहीं हारी तो वह सबक नहीं लेगी और इस बार अगर जीत गई तो बंगाल के मुसलमानों को कुछ नहीं मिलने वाला. बंगाल में मुसलमानों की संख्या 20 प्रतिशत से ज्यादा है, कुछ लोगों का कहना है कि 24 प्रतिशत है. मान लें कि उन्नीस-बीस प्रतिशत है और यह बहुत बड़ा वोट होता है. पर दुर्भाग्य यह है कि बंगाल या असम में मुसलमान एकजुट नहीं हैं. एकजुट होना ताकत की सांप्रदायिकता है, लेकिन वह चीज अल्पसंख्यकों पर लागू नहीं होती, क्योंकि वे अगर एकजुट नहीं होते तो उन्हें उनकी रोजी-रोटी, शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसी सुविधाएं इन क्षेत्रों में मिलने वाली नहीं थीं. मुसलमानों के बीच यह बड़ी विडंबना है कि वे आपस में अपने हितों को लेकर न तो दिमाग से साथ हैं, न वे एक साथ मिलकर एक्शन करना चाहते हैं, जिससे उनके वोटों से सत्ता में गिराया हुआ दल उनके लिए कुछ कर सके. होता यह है कि ऐन मौके पर मुसलमानों के वोटों का सौदा करने वाले खड़े हो जाते हैं. अभी बंगाल में खड़े हो रहे हैं और विभिन्न पार्टियों से सहायता ले रहे हैं मुसलमानों से वोट दिलवाने के नाम पर. नतीजे के तौर पर जब जीत कर वह पार्टी आती है तो वह फिर उनकी बात नहीं सुनती. कहती है कि हमने तो कीमत दे दी है आपको इसकी.
सीपीएम ने मुसलमानों को म़जदूर के रूप में नहीं देखा, सर्वहारा वर्ग के रूप में नहीं देखा और आम जनता के एक शक्तिशाली वर्ग के रूप में भी नहीं देखा. इसीलिए इतने साल आजादी के बीतने के बाद या 35 साल सीपीएम के शासन के बीतने के बाद जितने वायदे उन्होंने मुसलमानों से किए, उनमें से दस प्रतिशत भी आज तक पूरे नहीं किए. इसका गुस्सा बंगाल के मुसलमानों में है. साफ तौर पर यह गुस्सा देखा जा सकता है. इस समय बंगाल के मुसलमानों का कहना है कि सीपीएम को इस बार हारना चाहिए, क्योंकि अगर सीपीएम नहीं हारी तो वह सबक नहीं लेगी और इस बार अगर जीत गई तो बंगाल के मुसलमानों को कुछ नहीं मिलने वाला.
बंगाल की एक और चीज, एक नया तत्व, जमाते इस्लामी बंगाल में चुनाव लड़ने जा रही है. मैं कुछ दिनों पहले कोलकाता में था तो मैंने कोशिश की कि वहां के मुसलमानों से जानूं कि जमाते इस्लामी को कितने वोट मिलेंगे, उसका भविष्य क्या होगा चुनाव में. अभी हम और आप आपस में बात कर रहे हैं. बंगाल में जमाते इस्लामी को वोट देने का उत्साह मुसलमानों में नहीं दिखाई दे रहा है. हो सकता है कि जमाते इस्लामी को वोट मिल जाएं, हो सकता है न भी मिलें. अगर आज की स्थिति को देखें तो हमें जमाते इस्लामी को वोट मिलते नहीं दिखते. बल्कि उसकी वजह से कांग्रेस और ममता बनर्जी का स्कोप कहीं न कहीं थोड़ा सा कम होगा. बंगाल में दूसरी स्थिति भारतीय जनता पार्टी की है. वह बंगाल में हर सीट पर चुनाव लड़ रही है, जबकि उसके पास इतना भी जनाधार नहीं है कि वह हर सीट पर अपना उम्मीदवार खड़ा कर सके. पर वह चुनाव लड़ रही है तो उम्मीदवार कहां से आएंगे उसके पास? जैसा कि मुस्लिम नेताओं ने कहा है कि भाजपा के पास उम्मीदवार मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से आएंगे. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का यह इंटरेस्ट है कि भाजपा जितनी मजबूती के साथ चुनाव लड़ेगी, ममता बनर्जी और कांग्रेस गठबंधन के जीतने के अवसर उतने ही कमजोर होंगे. अगर हम मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की बात पर भरोसा न करें तो भी भाजपा हर सीट पर अपने उम्मीदवार खड़े करेगी. ऐसा करके वह अपनी पार्टी बनाने की बात भले ही करे, लेकिन उसकी पार्टी कितनी बनेगी, यह पता नहीं, पर वह कांग्रेस और ममता बनर्जी के भविष्य पर थोड़ी सी धुंध जरूर खड़ी कर देगी.
अब ये जो चुनाव हो रहे हैं, खासकर बिहार के बाद, ये बहुत साफ बताते हैं कि अगर हमने आम लोगों के हितों की चिंता नहीं की और उनके दु:ख-दर्द को नहीं समझा, अगर अमेरिकी मॉडल पर चलते रहे, अब मैं मार्क्सवादी भाषा में उसे साम्राज्यवादी मॉडल कहूं या न कहूं, कोई फर्क नहीं पड़ता. अगर हम उस मॉडल पर चलते रहे, जिसमें वे शोषक हैं, हम शोषित हैं. वे कमाने वाले, हमको दया करके खिलाने वाले हैं, तो अब निश्चित मान लें कि इस मुल्क में ऐसा बवंडर खड़ा होगा, जो इसकी पूरी राजनीति को निगल जाएगा. यह बवंडर न खड़ा हो और चुनाव में लोग सही ढंग से फैसला करें, इसके लिए ज़रूरी है कि सारे दल बंगाल के मुसलमानों, दरिद्रों और पिछड़ों के बारे में अपनी राय स्पष्ट करें.
बंगाली मानसिकता एग्रेसिव मानसिकता है. वे किसी भी चीज़ में गहरे घुसकर विरोध करते हैं,प्रतिरोध करते हैं. यह विरोध और प्रतिरोध वैचारिक भी होता है, एक्शन में भी होता है. वे अगर राजनीतिक सिस्टम के खिला़फ विद्रोह करते ऩजर आएं और अगर ऐसे लोग जीत भी जाएं तो मानना चाहिए कि जनता का यह फैसला गलत नहीं है, बल्कि उसके गुस्से का फैसला है, जो वह राजनीतिक दलों को दिखाना चाहती है. आज ममता बनर्जी लोगों की नजरों में मुख्यमंत्री हैं, लेकिन उनसे मुसलमानों या लोगों का रिश्ता कैसे बनेगा, यह सवाल बंगाल में तैर रहा है. इस सवाल का जवाब खुद ममता को तलाशना पड़ेगा कि वह जनता से कितना मिलती हैं, क्योंकि लोग कहते हैं कि जब वह अपने एमएलए या एमपी से नहीं मिलतीं तो हम लोगों से कैसे मिलेंगी? इसका जवाब किसी को नहीं, बल्कि ममता को खुद देना है. दूसरे, अपनी पार्टी में ममता बनर्जी अकेली नेता हैं, दूसरा कोई नेता है नहीं. न कोई मुस्लिम फेस है, न कोई दलितों का फेस और न कोई पिछड़ों का फेस. वहां पर दलित हैं तो ममता, मुसलमान हैं तो ममता, पिछड़े हैं तो ममता. इस स्थिति से स्थानीय नेतृत्व नहीं हो पाता. स्थानीय नेतृत्व बनाएं और उन सवालों के जवाब तलाशें, जो उड़ीसा के जिलाधीश रहे और अब जिन्हें देश का प्रथम अगुवा आईएएस कहा जा सकता है, ने उठाए हैं. उन सवालों के जवाब अगर तलाशने की कोशिश नहीं होगी तो देश के सामने मुश्किल खड़ी हो सकती है. ये सवाल हमें महात्मा गांधी की एक सूक्ति याद दिलाते हैं, जिसे सरकार भूल गई है, बाहर की कंपनियां तो बिल्कुल भूल गई हैं, जिन्हें मल्टीनेशनल कहते हैं. गांधी जी ने कहा था कि जब भी आप कोई चीज़ तय करें तो सबसे पहले यह देखें कि जो आपकी नज़र में सबसे कमज़ोर आदमी है, उसे इस चीज़ से फायदा होने वाला है या नहीं, ख़ासकर आर्थिक नीति से. अगर उसे फायदा नहीं होने वाला है तो यह बेकार है. अगर उससे फायदा होने वाला है तो उसका प्रयोग ज़रूर करना चाहिए. गांधी जी की यह सूक्ति किसी भी उभरते हुए देश के लिए गीता, बाइबिल या पुराण का वाक्य बन जानी चाहिए, ताकि हम जो भी फैसला करें, ख़ासकर सत्ता में बैठे हुए लोग, यह देखें कि उस फैसले का प्रभाव या फायदा सबसे कमज़ोर आदमी को कितना मिलता है, जिसे वह जानता है. अगर इसे हमने अपना लिया तो इस देश में विकास का पूरा मॉडल ही बदल जाएगा, लेकिन कोई इसे बदलना ही नहीं चाहता. अगर हम विकास के इस मॉडल को नहीं बदलेंगे तो फिर गांधी नहीं, नक्सलवादी आएंगे और हमें यह सोचने पर विवश करेंगे कि हम कहीं ग़लत तो नहीं हैं. गांधी की यही ताक़त है और कमज़ोरी भी. गांधी की ताक़त को लोग कमज़ोरी समझ लेते हैं. इस मुल्क में यह कमज़ोरी कब दूर होगी, जनता के पास इसका जवाब है. जिस दिन यह कमज़ोरी दूर हो गई, उस दिन इस देश का राजनीतिक ढांचा लड़खड़ा जाएगा. उस ढांचे को बनाए रखने की ज़िम्मेदारी आज के राजनीतिक दलों की है, जो अपने रास्ते से भटक गए हैं, अपने विचारों से भटक गए हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि वे आम आदमी के प्रति अपनी प्रतिबद्धता से दूर हो गए हैं. यही खतरा सारे देश के सामने मंडरा रहा है कि हमारी सारी राजनीतिक व्यवस्था अप्रासंगिक होती जा रही है, क्योंकि हम उन सवालों को छूना ही नहीं चाहते, जो इस मुल्क के सवाल हैं.