देश के लिए कब सोचेंगे राजनीतिक दल

Santosh-Sirकांग्रेस की चुनावी तैयारियां शुरू हो चुकी हैं. कांग्रेस पूरे भरोसे के साथ यह मानकर बैठी है कि वह तीन सौ से ज़्यादा सीटें जीत रही है. जब कहते हैं कि कांग्रेस जीत रही है और कांग्रेस मान बैठी है, तो इसका मतलब है कि नेतृत्व यानी कांग्रेस अध्यक्ष, कार्यवाहक अध्यक्ष, महामंत्री या 24 अकबर रोड का पूरा अमला इस विचार पर विश्‍वास किए बैठा है. दूसरी तरफ़ कांग्रेस का कार्यकर्ता थोड़ी परेशानी में है. उसका मानना है कि शायद कांग्रेस सत्ता की संख्या के नज़दीक भी न पहुंच पाए! दरअसल, इसके पीछे उसके कार्यकर्ताओं के अपने कारण हैं. प्रमुख कारण है कांग्रेस के संगठन का लुंज-पुंज हो जाना. किसी भी राज्य में कांग्रेस का संगठन काम नहीं कर रहा है. कांग्रेस सांसदों को कोई भी ज़िम्मेदारी नहीं दी गई. यहां तक कि कांग्रेस में सामाजिक वर्गों से रिश्ता रखने वाले सांसदों एवं विधायकों को भी कोई ज़िम्मेदारी नहीं दी गई. नतीजे के तौर पर वे सभी वर्ग कांग्रेस से दूर खड़े हैं, जो भारतीय जनता पार्टी को पसंद नहीं करते. सामान्य जन भी आज कांग्रेस से दूर खड़े हैं. कांग्रेस कार्यकर्ताओं का मानना है कि संगठन की निष्क्रियता का प्रभाव लोकसभा चुनाव पर बहुत ज़्यादा पड़ने वाला है, लेकिन विडंबना तो यह है कि कांग्रेस नेतृत्व और 24 अकबर रोड में बैठने वाले कांग्रेस के पदाधिकारी इसके ठीक विपरीत सोचते हैं. और इसीलिए वे मानते हैं कि सारे देश में मुसलमानों के पास कांग्रेस को वोट देने के अलावा, और कोई चारा नहीं है. उनका यह भी मानना है कि मुसलमान चाहे कितना भी उबलें और कितने भी गुस्से से आवाज़ उठाएं, लेकिन वे भारतीय जनता पार्टी या कांग्रेस के अलावा किसी भी पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर वोट नहीं देंगे, क्योंकि उनके पास उन्हें वोट देने का कोई पुख्ता आधार या कारण नहीं है.

हालांकि 24 अकबर रोड में बैठने वाले कांग्रेस के पदाधिकारियों का मानना है कि मुस्लिम वर्ग कांग्रेस को छोड़कर किसी अन्य पार्टी को वोट दे ही नहीं सकता और दरअसल, इसीलिए वे मुसलमानों के गुस्से को बेतुका गुस्सा मानते हैं. उनका कहना है कि मुसलमानों को पता है कि अगर वे वोट नहीं देंगे, तो उनका वोट कहीं गिनती में आएगा ही नहीं! उनका यह भी मानना है कि मुसलमान कितना भी शोर करें कि उन्हें यह नहीं मिला, वह नहीं मिला या कांग्रेस ने इस वादे को नहीं निभाया, उस वादे को नहीं निभाया, बावजूद इसके वे कांग्रेस के अलावा, कहीं भी जाने वाले नहीं हैं, क्योंकि वे कहीं भी जा ही नहीं सकते! वे इसके समर्थन में कई कारण गिनाते हैं. उनके पास मुस्लिम नेताओं की लंबी फेहरिस्त है और उनका मानना है कि कुल 2 करोड़ रुपये खर्च करके इन सारे मुस्लिम नेताओं की आवाज़ बंद की जा सकती है और सामान्य मुस्लिम नेताओं की तो कोई आवाज़ होती ही नहीं है. 24 अकबर रोड में बैठे कांग्रेस नेताओं का मानना है कि भारतीय जनता पार्टी के सहयोगियों में नरेंद्र मोदी को लेकर जिस तरह की शंकाएं पैदा हुई हैं, उन्हें अगर थोड़ी-सी भी हवा दे दी जाए, तो भारतीय जनता पार्टी के सहयोगी उससे दूर भाग सकते हैं, जिनमें पहला नाम वे जनता दल यूनाइटेड का लेते हैं. उन्होंने इसके समर्थन में सरकार द्वारा चली गई पहली चाल पर भरोसा जताया है. इन नेताओं का मानना है कि जब हमने बिहार को विशेष दर्जा देने के लिए नियमों में बदलाव की बात कही, तब इसकी बहुत सकारात्मक प्रतिक्रिया नीतीश कैंप में देखने को मिली और इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय जनता पार्टी घबरा गई. इन लोगों का यह भी मानना है कि अंतत: ममता बनर्जी पुन: उनके पास आएंगी. पूरे देश की संपूर्ण तस्वीर को सामने रखते हुए उनका आकलन बहुत स्पष्ट है कि कांग्रेस के मुकाबले कोई एक शक्ति है ही नहीं और इसीलिए विरोध के सारे वोट बंट जाएंगे और वे 32 या 33 प्रतिशत वोट लेकर सरकार बना लेंगे, बल्कि उससे भी कम वोट लेकर वे सरकार बना सकते हैं.

शायद यह हमारे लोकतंत्र के विचार का सर्वोच्च मखौल है. जो लोकतंत्र जनता की भलाई के लिए आदर्श व्यवस्था माना जाता है, वही लोकतंत्र आज जनता के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार बढ़ाने, महंगाई बढ़ाने, बेरोज़गारी बढ़ाने और अपराध बढ़ाने के काम आ रहा है. क्या हमारे राजनीतिक दल इन सारे सवालों पर सोचने का वक्त निकाल पाएंगे? लगता तो नहीं है, पर आशा करनी चाहिए कि शायद कभी कोई इन्हीं के बीच में से खड़ा हो और इन सवालों के ऊपर सोचना शुरू करे.

कांग्रेस की इस सोच में कहीं भी उसके द्वारा किए हुए कामों के ऊपर वोट लेने की रणनीति नहीं है, कांग्रेस का मानना है कि चाहे जितने भी घोटाले हुए हों, उनका असर जनता के ऊपर नहीं होने वाला, क्योंकि जनता अब घोटालों की ख़बरों की अभ्यस्त हो गई है. कांग्रेस का यह भी मानना है कि महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोज़गारी जैसे सवाल अब ज़िंदगी से जुड़ी खांसी-बुखार की समस्याओं जैसे हो गए हैं. दरअसल, जनता अब इनके ऊपर वोट नहीं करती, इसीलिए अब कांग्रेस ने दो रणनीतियां बनाई हैं. अब कांग्रेस राहुल गांधी के मुंह से यह निकलवाएगी कि वह जाति में नहीं, विकास में विश्‍वास करती है, लेकिन दरअसल वह उम्मीदवार के चुनाव में जातीय खेल ज़रूर खेलेगी. कांग्रेस का कार्यकर्ता जब इन तर्कों को लोगों के गुस्से से तौलता है, तो ऐसे में उसे लोगों का गुस्सा ज़्यादा भारी लगता है और ऐसे में कांग्रेस की सोच हल्की लगती है. हमने कांग्रेस के ऐसे कार्यकर्ताओं से बातचीत की, जिनके पास बलेरो नहीं है, जो ठेकेदार नहीं हैं, लेकिन जो सचमुच कांग्रेस के परंपरागत वोटर हैं, पीढ़ियों से समर्थक हैं. उनका कहना है कि कांग्रेस कार्यकर्ता का हौसला, उसका उत्साह लगभग समाप्त-सा हो गया है. इसीलिए वह थोड़ा डरा और सहमा हुआ है. कांग्रेस कार्यकर्ताओं के डरे-सहमे होने को 24 अकबर रोड कोई महत्व नहीं देता है. हालांकि, 24 अकबर रोड में बैठे कांग्रेस के नेता यह भूल गए कि उत्तर प्रदेश में उन्होंने बिना संगठन के चुनाव लड़ने का जोखिम उठाया था, जो उन्हें भारी पड़ गया था, लेकिन लोकसभा चुनाव में भी वे उसी प्रयोग को दोहराना चाहते हैं. उनका मानना है कि लोकसभा में लोग स्थानीय आधार पर नहीं, बल्कि देश को सामने रखकर वोट देंगे और इस मामले में उन्हें अपने मुकाबले पूरे देश में कोई भी एक पार्टी नज़र नहीं आती. वे इस बात को भी खारिज करते हैं कि उत्तर प्रदेश में मायावती एवं मुलायम सिंह, बिहार में नीतीश एवं लालू या बंगाल में ममता बनर्जी उनकी लोकसभा चुनाव में जीत की संभावनाओं पर कोई असर डाल पाएंगे.

कांग्रेस का यह सोचना कितना सही है, यह पाठक तय करेगा, क्योंकि कांग्रेस में कार्यकर्ता और नेता दोनों अलग-अलग ढंग से सोच रहे हैं. ठीक इसी तरह भारतीय जनता पार्टी भी नरेंद्र मोदी के सहारे चुनाव जीतने का विचार बना रही है. उसका मानना है कि अगर नरेंद्र मोदी लखनऊ से लोकसभा के लिए उम्मीदवार होते हैं, तो उसे उत्तर प्रदेश में कम से कम 40 सीटों पर विजय प्राप्त होगी. भारतीय जनता पार्टी के नेताओं से यह पूछने पर कि बिना संगठन के वे कैसे सक्रिय होंगे और 40 सीटें कैसे मिलेंगी, तो उनका मानना है कि नरेंद्र मोदी के लखनऊ से चुनाव का पर्चा भरते ही सारे उत्तर प्रदेश में जिस उत्साह का निर्माण होगा, वह भारतीय जनता पार्टी के संगठन की निष्क्रियता को शून्य कर देगा. नरेंद्र मोदी का नामांकन दाखिल करना इतना उत्साह भर देगा कि उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के अलावा जितनी आबादी है, वह सभी भारतीय जनता पार्टी के साथ खड़ी हो जाएगी और ऐसे में भारतीय जनता पार्टी से बची हुई सीटें ही मायावती या मुलायम सिंह को मिलेंगी. भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेता इसे स़िर्फ कह नहीं रहे हैं, बल्कि इस पर विश्‍वास भी कर रहे हैं. इसीलिए उन्होंने अभी तक उत्तर प्रदेश में संगठन नहीं बनाया और बिहार में ऐसा संगठन बनाया है कि आपस में लात-घूंसे चल रहे हैं. हिमाचल में भी वे चुनाव हार चुके हैं और राजस्थान में मजबूरी में उन्हें वसुंधरा राजे को दोबारा कमान सौंपनी पड़ी. इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी का राजस्थान में अपर हैंड हो गया है. वसुंधरा राजे अगर अपने अहंकार और अपने बर्ताव पर थोड़ा अंकुश लगा लें, तो उन्हें राजस्थान में थोड़ा फ़ायदा हो सकता है, लेकिन राजस्थान में अशोक गहलोत ने पिछले एक वर्ष में जिस तरह से स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम किया है, उसका उन्हें अब हल्का-सा फ़ायदा मिलता दिखाई दे रहा है.

लेकिन सवाल हिंदुस्तान के लोगों का है. क्या हिंदुस्तान के लोग भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस की इस मिली-जुली कुश्ती में मुख्य सवालों को भूल सकते हैं? लग रहा है कि वे भूल जाएंगे या फिर जातीय एवं धार्मिक आधार पर वोट देंगे. फिर संपूर्ण द्वंद्व में मुलायम सिंह, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान एवं लालू यादव जैसे लोग भी खड़े हैं. मज़े की बात यह है कि इन चारों के सिद्धांत एक हैं. कम से कम कहने को तो चारों के सिद्धांत एक हैं, लेकिन चारों के व्यवहार

अलग-अलग हैं. कोई एक-दूसरे से बात नहीं करता, कोई जनता के भले के लिए हाथ नहीं मिलाता. इतना ही नहीं, कहने को तो सभी तीसरे मोर्चे की बात करते हैं, लेकिन तीसरा मोर्चा कोई बनाता नहीं दिखता. शायद यह हमारे लोकतंत्र के विचार का सर्वोच्च मखौल है. जो लोकतंत्र जनता की भलाई के लिए आदर्श व्यवस्था माना जाता है, वही लोकतंत्र आज जनता के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार बढ़ाने, महंगाई बढ़ाने, बेरोज़गारी बढ़ाने और अपराध बढ़ाने के काम आ रहा है. क्या हमारे राजनीतिक दल इन सारे सवालों पर सोचने का वक्त निकाल पाएंगे? लगता तो नहीं है, पर आशा करनी चाहिए कि शायद कभी कोई इन्हीं के बीच में से खड़ा हो और इन सवालों के ऊपर सोचना शुरू करे.


    Leave a Reply