बीती 27 फरवरी को बंगलुरू में ईटीवी उर्दू और ईटीवी कन्नड़ ने एक सेमिनार किया, जिसका विषय था-फ्यूचर ऑफ कॉरपोरेट्स इन इंडिया. मुख्य वक्ता कंपनी मामलों के केंद्रीय मंत्री वीरप्पा मोइली थे और मुख्य अतिथि थे कर्नाटक के मुख्यमंत्री सदानंद गौड़ा. सेमिनार में जाफर शरीफ, एम वी राजशेखर एवं जमीर पाशा भी शामिल थे, जो कर्नाटक की बड़ी हस्तियां हैं. वीरप्पा मोइली एवं मुख्यमंत्री सदानंद के भाषण सुनकर कई सारे सवाल मन में उठे. एक सवाल यह है कि क्या हिंदुस्तान के कॉरपोरेट सेक्टर को अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी का कोई एहसास है और अगर नहीं है तो क्यों? ज़िंदगी का हर क्षेत्र महत्वपूर्ण होता है, हर जगह काम करने वाले महत्वपूर्ण होते हैं, पर हिंदुस्तान का कॉरपोरेट सेक्टर ज़िंदगी की सच्चाई को कितना देखना और समझना चाहता है, यह एक सवालिया निशान है. इसलिए, क्योंकि कॉरपोरेट सेक्टर जितने भी काम करता है, सामाजिक ज़िम्मेदारी निभाने के नाम पर, वे सारे के सारे कॉस्मेटिक होते हैं यानी दिखावे के होते हैं. कोई भी कॉरपोरेट सेक्टर बुनियादी समस्याओं से जुड़े सवालों को अपना विषय नहीं बनाता. सेमिनार में जब वीरप्पा मोइली ने कहा कि 1992 के बाद हिंदुस्तान ने बहुत तरक्की की है और यहां लोगों के पास क्या-क्या नहीं है तो सुनकर लगा कि कॉरपोरेट अफेयर्स का मिनिस्टर बोल रहा है, लेकिन भारत सरकार का ज़िम्मेदार मंत्री नहीं बोल रहा है.
वीरप्पा मोइली को क्यों याद नहीं आया कि 1992 में जब मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे तो उन्होंने भाषण दिया था कि हम उदार आर्थिक नीतियां इसलिए ला रहे हैं, ताकि हिंदुस्तान में अगले 20 सालों में बिजली की कमी न रहे, सड़कें बन जाएं, लोगों को नौकरियां मिल जाएं, बेरोज़गारी ख़त्म हो. लोकसभा में दिया गया उनका वह भाषण पढ़ने लायक़ है. वीरप्पा मोइली केंद्र में लंबे समय तक मंत्री रहे, कांग्रेस के बड़े पदाधिकारी रहे, कर्नाटक के मुख्यमंत्री भी रहे. उन्हें ज़रूर इस भाषण की याद होगी. 20 साल बीत गए. जिस साल वे 20 साल पूरे हुए, वह 2010 था यानी दो साल पहले. क्या 2010 में कांग्रेस पार्टी या केंद्र सरकार ने अपने उस वादे का विश्लेषण किया कि हमने जो कहा था, उनमें क्या-क्या काम पूरे हुए और क्या-क्या नहीं. यह विश्लेषण न करना बताता है कि हिंदुस्तान का कॉरपोरेट सेक्टर ज़िम्मेदारी से भाग रहा है. जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने थे 2004 में, उस समय देश में नक्सलवाद से प्रभावित ज़िलों की संख्या 60 या 70 थी. आज जब हम इन पंक्तियों को लिख रहे हैं तो 260 से ज़्यादा ज़िले नक्सलवाद की चपेट में हैं. अगर एक लाइन का विश्लेषण करें और ईमानदारी से करें तो हम कह सकते हैं कि 1992 में शुरू हुआ उदारीकरण 25 प्रतिशत लोगों तक जाकर रुक गया. 35 से 40 प्रतिशत लोग तो उदारीकरण से सौ फीसदी वंचित रहे, उनकी ज़िंदगी में कुछ बदलाव नहीं हुआ. अब बचा बीच का तबका, 20 प्रतिशत लोग इस आशा में ऊपर देख रहे हैं कि शायद हमारे पास भी कुछ आए, पर दरअसल महज़ 25 से 30 प्रतिशत लोगों के लिए उदारीकरण का तोह़फा आया है. उस तोह़फे ने देश में असमानता को बहुत ज़्यादा आगे बढ़ाया है. शायद इसीलिए ज़िले के ज़िले नक्सलवाद के साथ खड़े होने की कोशिश कर रहे हैं.
अगर हम अर्थशास्त्रियों की बात करें, जब देश आज़ाद हुआ तो उन अर्थशास्त्रियों ने, जो अंग्रेजों के समय के अर्थशास्त्री थे, उस समय हिंदुस्तान की विकास दर ढाई प्रतिशत बताई थी और अब विकास दर कभी 8 प्रतिशत होती है तो कभी 6 प्रतिशत. ये आंकड़े बताते हैं कि लोगों के पास इस तथाकथित विकास का फायदा नहीं पहुंचा. इसीलिए अगर राजनीतिज्ञ अपना रोल भूल जाएं तो कॉरपोरेट सेक्टर को अपना रोल याद करना चाहिए. जो वे लोगों से कमाते हैं हिंदुस्तान में, उनकी वह आय दिन दूनी-रात चौगुनी बढ़ रही है. उन्हें अपनी उस आय का एक हिस्सा हिंदुस्तान के लोगों की शिक्षा एवं स्वास्थ्य के ऊपर ज़रूर ख़र्च करना चाहिए. ये दो क्षेत्र ऐसे हैं, जहां की पूरी ज़िम्मेदारी कॉरपोरेट सेक्टर ले सकता है. समस्या इस बात की है कि जहां-जहां कॉरपोरेट सेक्टर शिक्षा एवं स्वास्थ्य में घुसा, वहां-वहां उसने स्कूलों और अस्पतालों का व्यवसायीकरण कर दिया. वहां स्कूल इतने महंगे हो गए हैं कि आम आदमी तो छोड़िए, अपर मिडिल क्लास को वहां बच्चों को पढ़ाने में दिक्कत महसूस हो रही है. अस्पताल खुलते हैं और खुलते ही वे 20 गुने महंगे होते हैं.
अगर मैं कॉरपोरेट सेक्टर की ज़िम्मेदारी की बात कहता हूं तो उसका सीधा मतलब है कि वे हिंदुस्तान के ग़रीब आदमी को शिक्षा दें और उसके स्वास्थ्य का ध्यान रखें. उसकी बीमारी का इलाज हो और वह इलाज कुनैन की गोली से न हो, सेरिडॉन से न हो, वह इलाज सचमुच ऐसा होना चाहिए, जैसा बड़े अस्पताल में होता है. मेडिकली एक्सीलेंस देहात में कैसे पहुंचे, इसके बारे में अगर कॉरपोरेट सेक्टर संवेदनशील नहीं होता है तो थोड़े दिनों के बाद बहुत सारे बड़े घरानों को हिंदुस्तान में अपने मूवमेंट के बारे में सावधान रहना पड़ेगा. नई पीढ़ी के लड़के, जो अपनी मां का पसीना देख रहे हैं, उसका परिश्रम देख रहे हैं, अपने घर में होती मौतों को देख रहे हैं, अपनी जवान बहन को इसलिए घर बैठा देख रहे हैं क्योंकि दहेज का पैसा नहीं है, वे लड़के अगर अपने छोटे भाइयों या अपने से बड़े लोगों का इलाज भी होते हुए नहीं देखेंगे और दूसरी तऱफ आलीशान स्कूल एवं अस्पताल देखेंगे, तो मुझे डर इस बात का है कि कहीं उनके मन में विद्रोह की आग न पैदा हो जाए. हिंदुस्तान का कॉरपोरेट सेक्टर कम दूरी की बात सोचता है. उसे लगता है कि इस तरह के जो लीडर पैदा हों या जो इस तरह की आवाज़ उठाएं, उन्हीं को ख़रीद लो तो आवाज़ बंद हो जाएगी. ऐसा नहीं होता. अब हिंदुस्तान में स्वाभाविक नेता या स्वाभाविक नेतृत्व वहीं विकसित होगा, जहां पर परेशानी है और परेशानी लगभग पूरे हिंदुस्तान में है. सरकार अपनी ज़िम्मेदारी आंशिक रूप से निर्वाह कर रही है. जो बचा हुआ हिस्सा है, उसमें कॉरपोरेट सेक्टर को अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी तत्काल समझनी चाहिए.
सेमिनार में मुख्यमंत्री सदानंद गौड़ा ने उनके राज्य में क्या-क्या हो रहा है, उसका एक लंबा बखान किया. उसके ऊपर ध्यान न दें तो भी चल जाएगा. लेकिन, वीरप्पा मोइली ने अपने भाषण में कुछ बिंदुओं की ओर इशारा किया. एक, उन्होंने कहा कि जब हमने उदारीकरण किया, तब हमें कुछ और क़ानून बनाने चाहिए थे, ताकि उदारीकरण को लोग हाईजैक न कर लें. दूसरा, उन्होंने कहा कि हालांकि हमारा भविष्य सुरक्षित है और कॉरपोरेट का भी. इसके बावजूद ग्रामीण क्षेत्रों में कॉरपोरेट सेक्टर कोई ध्यान नहीं दे रहा है. जिस चीज को वीरप्पा मोइली ने होशियारी से कहा, वह होशियारी से कहने वाली चीज नहीं है, उसे सफाई से कहने की ज़रूरत है, क्योंकि हिंदुस्तान में कोई भी नीति ऐसी नहीं बन रही है, जो ग़रीबों को सीधे फायदा पहुंचाए. वे नीतियां बन रही हैं, जो हिंदुस्तान के अपर मिडिल क्लास, ख़ासकर कॉरपोरेट सेक्टर को फायदा पहुंचाएं. यही पूरी कॉरपोरेट नीति का उद्देश्य है. वीरप्पा मोइली बहुत ही संवेदनशील इंसान हैं, लेखक हैं, लेकिन अगर वह लेखक हैं, संवेदनशील हैं तो एक पार्टी के दायरे में भी बंधे हुए हैं. यह सवाल स़िर्फ कांग्रेस पार्टी का नहीं है, बल्कि पूरे राजनीतिक परिदृश्य का है.
हम इस देश के रहने वाले हैं, हम यह नहीं चाहते कि इस देश में विध्वंस हो. इसलिए हम बार-बार यह अनुरोध करते हैं उन सबसे, जो इस राजनीतिक व्यवस्था को चलाने में भागीदार हैं या ज़िम्मेदार हैं, कृपा करके देश के आम आदमी की तकलीफों को जानिए और समझिए. बहुत ज़्यादा व़क्त नहीं है कि मैं नहीं, मेरा बेटा समझेगा. हो सकता है, आपके बेटों को वे स्थितियां न मिलें, जो आपको मिली हैं. उन्हें वह जय-जयकार न मिले, जो आपको मिली है. उन्हें वे फूल न मिलें, जो आपको मिले हैं. अगर आप चाहते हैं कि हिंदुस्तान में शांति रहे और आपका परिवार भी ख़ुशहाल रहे तो आज आपको अपनी ज़िम्मेदारी समझनी होगी. कॉरपोरेट सेक्टर के लोगों के सामने स्थिति इससे भी ज़्यादा भयावह होने वाली है.
क्या भारतीय जनता पार्टी इस ज़िम्मेदारी को समझती है, क्या समाजवादी पार्टी इस ज़िम्मेदारी को समझती है? वामपंथी समझते भी हैं तो वे कुछ करने की स्थिति में नहीं होते. वे जिस राज्य में थे, वहां उन्होंने कॉरपोरेट्स को इतना ज़्यादा बढ़ावा दिया कि जनता उनसे दूर भाग गई. इसलिए अगर हम पोज़िटिव थिंकिंग करें तो हमें वीरप्पा मोइली से यह कहना चाहिए कि आपको इसमें आगे बढ़कर पहल करनी होगी. अगर आप यह समझते हैं कि हिंदुस्तान का कॉरपोरेट सेक्टर ग्रामीण अंचलों की तऱफ नहीं जा रहा है तो उसमें थोड़ी सी समझ और जोड़ने की ज़रूरत है. वह यह कि कॉरपोरेट सेक्टर ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं जा रहा है, उल्टे शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में बड़ा पैसा डाल रहा है और जहां ज़मीन है, वहां शिक्षा और स्वास्थ्य के नाम पर ज़मीन घेरने का काम कर रहा है. इस चीज से कॉरपोरेट सेक्टर को बचना चाहिए और इसमें वीरप्पा मोइली का बहुत बड़ा रोल है. वह अगर कॉरपोरेट सेक्टर के सामने साफ-साफ दिशा रखें कि सामाजिक ज़िम्मेदारी का मतलब क्या होता है. अगर वह इस चीज को डिफाइन करेंगे तो शायद दबाव और शर्म में कुछ अच्छे काम हो जाएं. चूंकि यह सेमिनार टेलीविज़न पर आते हैं, इसलिए आम आदमी भी इन्हें देखकर कि कौन कितना सही बोल रहा है और कौन कितना नाटक कर रहा है, उसे पहचान लेते हैं. यह पहचान फिर आम आदमी की आशा को निराशा में बदलती है. निराशा ख़तरनाक स्थिति होती है, क्योंकि फ्रस्टेशन और होपलेसनेस आदमी को विध्वंस की तऱफ मोड़ती है.
हम इस देश के रहने वाले हैं, हम यह नहीं चाहते कि इस देश में विध्वंस हो. इसलिए हम बार-बार यह अनुरोध करते हैं उन सबसे, जो इस राजनीतिक व्यवस्था को चलाने में भागीदार हैं या ज़िम्मेदार हैं, कृपा करके देश के आम आदमी की तकलीफों को जानिए और समझिए. बहुत ज़्यादा व़क्त नहीं है कि मैं नहीं, मेरा बेटा समझेगा. हो सकता है, आपके बेटों को वे स्थितियां न मिलें, जो आपको मिली हैं. उन्हें वह जय-जयकार न मिले, जो आपको मिली है. उन्हें वे फूल न मिलें, जो आपको मिले हैं. अगर आप चाहते हैं कि हिंदुस्तान में शांति रहे और आपका परिवार भी ख़ुशहाल रहे तो आज आपको अपनी ज़िम्मेदारी समझनी होगी. कॉरपोरेट सेक्टर के लोगों के सामने स्थिति इससे भी ज़्यादा भयावह होने वाली है. अगर वे अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी नहीं समझते हैं तो फिर अपनी अच्छी गाड़ी पर लिपस्टिक, पाउडर और परफ्यूम के साथ घूमना उनके लिए ख़तरा बन जाएगा, क्योंकि उस परफ्यूम की महक को सूंघते हुए पसीने से सराबोर ग़रीब आदमी जब उनकी तऱफ लपकेगा तो उनके पास भागने के लिए कोई रास्ता नहीं होगा. इसलिए अभी व़क्त है, ख़ासकर सियासत में बैठे हुए लोग, कॉरपोरेट सेक्टर को चलाने वाले लोग और कॉरपोरेट सेक्टर से जुड़ा मीडिया इस ज़िम्मेदारी को समझें और एक-दूसरे को सलाह दें कि हम सब आम लोगों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को महसूस करें, उनकी समस्याओं को जानें और अपने मन के दरवाज़े खोलें.