मंत्रिमंडल में हुए व्यापक फेरबदल से जनता को कोई फायदा नहीं हुआ. उल्टा यह संदेश गया है कि सरकार या कांग्रेस पार्टी कंफ्यूजन में है. उसके सामने कोई रोडमैप नहीं है. देश को चलाने के लिए किस तरह के लोग ज़रूरी हैं और पार्टी को चुनाव में जिताने के लिए किस तरह के लोग चाहिए, यह भी कांग्रेस के सामने कुछ साफ़ नहीं है. इस फेरबदल से यही संदेश गया है कि पूरी कांग्रेस पार्टी कंफ्यूज्ड लोगों की पार्टी है, वह कोई फैसला नहीं कर सकती. कांग्रेस में जेनरेशन वार चल रही है कि नए लोग सत्ता संभालें और पुराने लोग सत्ता छोड़ें. पुराने लोगों ने सत्ता छोड़ने से इंकार कर दिया है. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में 50 से 60 साल के ऊपर के लोग लगभग एक राय होकर एक तरह से काम कर रहे हैं. नीचे के लोगों के बीच कोई एक राय नहीं है. वे सब राहुल गांधी या सोनिया गांधी के ऊपर निर्भर हैं. सोनिया गांधी अपने पुत्र को प्रधानमंत्री बनाना चाहती हैं. यह उन्होंने कहा नहीं है, लेकिन जब नौजवानों की बात होती है तो जिस तरह देश का पहला नागरिक राष्ट्रपति है, उसी तरह कांग्रेस का पहला नौजवान राहुल गांधी है. जब नौजवानों को सत्ता देने की बात होती है तो इसका मतलब सीधा-सीधा यही निकलता है कि पार्टी का पहला नौजवान प्रधानमंत्री बने.
प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी, जो कांग्रेस की सर्वशक्तिमान नेता हैं. अफ़सोस इस बात का है कि देश की बुनियादी समस्याओं या बुनियादी सवालों को लेकर इनके बीच गंभीरता से कोई बात शायद नहीं हुई. अगर हुई होती तो समस्या यहां तक नहीं पहुंचती. या तो सोनिया गांधी समस्याओं को समझती नहीं हैं, समझती हैं तो मनमोहन सिंह से बात नहीं करती हैं और अगर वह बात करती हैं तो मनमोहन सिंह उनकी बात मानते नहीं हैं. ये तीन स्थितियां हैं. तीनों स्थितियों का अगर आप विश्लेषण करें तो निष्कर्ष यही निकलता है कि इस देश का दर्द, इस देश की तक़लीफ लगातार बढ़ रही है और उस तक़लीफ को दूर करने का कोई नक्शा, न तो देश के प्रधानमंत्री के पास है और न कांग्रेस या सोनिया गांधी के पास.
इस फेरबदल में जयराम रमेश को पर्यावरण मंत्रालय से निकालने के पीछे प्रधानमंत्री का हाथ रहा. प्रधानमंत्री उन सारे लोगों को निकालना चाहते थे, जो सोनिया गांधी या राहुल गांधी के क़रीबी हैं, लेकिन सोनिया गांधी इसे नहीं मान रही थीं. जयराम रमेश कुछ बयान सही देते थे और कई अति उत्साह में दे देते थे. वह स़िर्फ बयान देते थे, पर एक्शन कुछ नहीं होता था. जयराम रमेश सोनिया गांधी के सलाहकार थे. वह सोनिया गांधी से भी ज़्यादा राहुल गांधी के सलाहकार हो गए थे. यह मनमोहन सिंह के लिए तक़लीफदेह था कि एक व्यक्ति बयान देकर मुश्किलें तो बढ़ा रहा है, पर हल नहीं निकाल रहा है. अगर कहें तो श्री जयराम रमेश भी एक सुपर कंफ्यूज्ड व्यक्ति हैं, जिन्होंने अपनी वाहवाही के लिए टेलीविजन चैनलों के साथ डील की, उन्हें पैसे दिलवाए और उनके रिपोर्टरों को साथ लेकर समुद्र की सैर कराई. इस सारी यात्रा का नतीजा क्या निकला? अगर उस तरीक़े से, जैसे अमिताभ बच्चन गुजरात के ब्रांड अंबेसडर बनकर अवेयरनेस क्रिएट करते हैं, उस तरह की अवेयरनेस क्रिएट करना चाहते हैं, तब तो सही है. लेकिन एक मंत्री मॉडल बनकर जागरूकता अभियान में शामिल हो जाए, एक टेलीविजन चैनल के कैमरे को 24 घंटे साथ लेकर चले, तो यह बहुत ग़लत है और सरकार के मंत्री को यह सब शोभा नहीं देता.
अगर उनको यह काम करना भी था तो सारे टीवी चैनलों को बुलाते और कहते कि मैं यह करने जा रहा हूं, आप सब लोग आएं. देश के करोड़ों लोग टीवी देखते हैं, लेकिन उन्होंने एक चैनल को प्राथमिकता दी. ज़ाहिर है, पैसा भी दिया होगा या कहीं से पैसे कमाने का रास्ता खोल दिया होगा. अब जयराम रमेश ज़िंदगी में कभी गांव नहीं गए. जयराम रमेश का गांव से कोई रिश्ता नहीं है. जयराम रमेश ग्रामीण विकास मंत्री बना दिए गए. अब जब उन्होंने कोई नतीजा पर्यावरण मंत्री रहते हुए नहीं दिखाया तो ग्रामीण विकास मंत्री रहते हुए वह क्या रास्ता दिखाएंगे या गांव का क्या विकास करेंगे? सिवाय इसके कि वह यह बयान दें कि हम जो पैसा देते हैं, राज्य सरकारें उन पैसों का ग़लत इस्तेमाल करती हैं. हम मनरेगा जैसी योजनाएं चलाते हैं, राज्य सरकारें यह करती हैं. कुल मिलाकार वह शायद यहां भी कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता की तरह उन राज्य सरकारों, जहां कांग्रेस सत्ता में नहीं है, उनके खिला़फ बयानबाजी करेंगे. दु:ख की बात है कि न स़िर्फ ग्रामीण विकास मंत्रालय, जहां दो सालों में दो मंत्रियों को बदला गया, अब जयराम तीसरे मंत्री हैं. सरकार इस देश के साथ बेवक़ूफी भरे प्रयोग कर रही है. आप उस शख्स से गणेश की मूर्ति बनाने के लिए कह रहे हैं, जिसे मूर्ति बनाना नहीं आता, वह उसे गणेश बनाते-बनाते बंदर बनाए दे रहा है. यह इस सरकार की हालत है.
अब अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय को ही देखें. सलमान खुर्शीद को क़ानून मंत्री बनाकर अल्पसंख्यक मंत्रालय की अतिरिक्त ज़िम्मेदारी दे दी गई. इसके क्या मायने हैं? सवाल यहां स़िर्फ मुसलमानों का या उनकी भलाई का नहीं है, सवाल काम करने के तरीक़े का है. देश में एक सिस्टम है. एक प्रधानमंत्री होता है, एक कैबिनेट मिनिस्टर होता है और फिर एक राज्य मंत्री होता है. लेकिन क्या सरकार के पास इतने लोग नहीं हैं कि वह इस देश के एक अरब लोगों की भलाई के लिए कम से कम एक विभाग में एक मंत्री दे सके. क्या पार्लियामेंट में ऐसे लोग नहीं हैं? होना तो यह चाहिए था कि काम का विभाजन कर लोगों को ज़्यादा ज़िम्मेदारी दी जाए और उनके बीच सामंजस्य स्थापित हो.
देश को बनाने का नज़रिया मनरेगा के रूप में सामने आया कि हम ग्रामीण लोगों को रोज़गार देंगे, लेकिन इसके साथ ही पूरी की पूरी पंचायत तक आपने भ्रष्टाचार पहुंचा दिया. आपके पास कोई ऐसा तरीक़ा नहीं है कि पंचायत में होने वाला भ्रष्टाचार, जो मनरेगा के तहत हो रहा है, को आप रोक सकें. क्योंकि आप सोचते हैं कि जब आप यहां एक लाख छिहत्तर हज़ार करोड़ का घपला कर रहे हैं तो इससे क्या फर्क़ पड़ता है कि वहां कोई एक लाख का घपला कर रहा है. पर भ्रष्टाचार की कड़ी जुड़ जाती है. अ़फसोस की बात है कि जो होना चाहिए था, वह नहीं हो रहा. होना यह चाहिए था कि आप लघु या कुटीर उद्योगों में काम आने वाली वस्तुओं, ऐसी क़रीब नौ सौ के आसपास वस्तुएं हैं, जिनमें सुई, धागा, साबुन, जूता और बटन आदि हैं, उन पर सरकार बैन लगा दे कि ये चीजें स़िर्फ स्मॉल स्केल सेक्टर में बनेंगी, इसमें वह बड़े उद्योगपतियों और कंपनियों को न आने दे. बड़ी कंपनियां बनाएं, पर इंटरनेशनल मार्केट के लिए, देश के मार्केट के लिए नहीं. आप स्कूल-कॉलेज के साथ इस तरह की चीजें बनाने के लिए ट्रेनिंग सेंटर्स खोलें. वहां से जो लड़के-लड़कियां निकलेंगे, वे बेरोज़गार नहीं होंगे. पर सरकार में जब कल्पनाशक्ति न हो, इच्छाशक्ति न हो और जब इस देश को पहले रूस और अब अमेरिका के हाथों गिरवी रखने की कसम खा रखी हो, तो फिर कोई क्या कर सकता है?
अब अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय को ही देखें. सलमान खुर्शीद को क़ानून मंत्री बनाकर अल्पसंख्यक मंत्रालय की अतिरिक्त ज़िम्मेदारी दे दी गई. इसके क्या मायने हैं? सवाल यहां स़िर्फ मुसलमानों का या उनकी भलाई का नहीं है, सवाल काम करने के तरीक़े का है. देश में एक सिस्टम है. एक प्रधानमंत्री होता है, एक कैबिनेट मिनिस्टर होता है और फिर एक राज्य मंत्री होता है. लेकिन क्या सरकार के पास इतने लोग नहीं हैं कि वह इस देश के एक अरब लोगों की भलाई के लिए कम से कम एक विभाग में एक मंत्री दे सके. क्या पार्लियामेंट में ऐसे लोग नहीं हैं? होना तो यह चाहिए था कि काम का विभाजन कर लोगों को ज़्यादा ज़िम्मेदारी दी जाए और उनके बीच सामंजस्य स्थापित हो. कांग्रेस अल्पसंख्यकों में से किसी को आगे बढ़ाना नहीं चाहती, क्योंकि कोई नेतृत्व खड़ा करना नहीं चाहता. कांग्रेस के पास कोई दलित नेता नहीं है, न कोई ऐसा मंत्री है. एक मुकुल वासनिक हैं, जो दलितों के लिए कम, समाज के लिए कम और धनवानों के लिए ज्यादा काम करते हैं. इनके पास न कोई पिछड़ा है. वंचितों, दलितों, आर्थिक रूप से कमज़ोर, पिछड़ों को नेतृत्व देने की कोई योजना यूपीए के पास नहीं है. मैं एनडीए की बात नहीं कर रहा हूं, क्योंकि वह तो इससे भी घटिया टीम है. इस देश की जनता एक तऱफ छूट गई है.
उसके लिए सोचने वाले खत्म हो गए हैं या जो सोच सकते हैं, वे सामने नहीं आ पा रहे हैं या उन्हें मौक़ा नहीं मिल रहा है. आज भारत सरकार में जितने मंत्री हैं या जितने मंत्री अटल जी के समय में थे, उनके पास इस मुल्क को अच्छा बनाने का कोई सपना न तब था और न अब है. इनके सामने कोई नक्शा नहीं है, जिससे लोग निराशा से बचें, कोई सपना देखें और सोचें कि आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों हमारी ज़िंदगी में खुशहाली आएगी. न प्रधानमंत्री, न सोनिया गांधी, न उधर आडवाणी, न सुषमा स्वराज. ऐसा लग रहा है कि कंफ्यूजन का वायरस सबके बीच फैल गया है, जो देश के बारे में नहीं, स़िर्फ अपने बारे में सोच रहा है.