कांग्रेस महाअधिवेशन

congrwess mahadiweshanफेसबुक पर राहुल गांधी को दो हज़ार चौदह में प्रधानमंत्री बनाने के लिए प्रचार चल रहा है. यह टेक्नालॉजी का जमाना है, टेलीविज़न का जमाना है, प्रचार का जमाना है, इसलिए हो सकता है कांग्रेस सोच रही हो कि उसके लिए 2014 बहुत आसान होगा. आसान हो भी सकता है, लेकिन कांग्रेस का कार्यकर्ता चिंतित है. उसके लिए बिहार एक ऐसे अनुभव की तरह है, जिसे वह चाहकर भी नहीं भुला पा रहा. देश के हर हिस्से के कांग्रेस कार्यकर्ताओं से बात करने के बाद एक ही बात सामने आ रही है कि जिस तरह उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी का मिशन 2012 इतना धुंधला गया कि ख़ुद राहुल गांधी को अमेठी में कहना पड़ा कि कैसा मिशन 2012, मेरा ऐसा कोई मिशन नहीं है. ऐसे ही कहीं मिशन 2014 भी धुंधलके में न गुम होने लगे.

बिहार की कमान राहुल गांधी ने अपने हाथ में ली थी, लेकिन कमान हाथ में लेना एक बात है, उसकी निगरानी रखना दूसरी बात है. पूरा एक साल जगदीश टाइटलर से झगड़े में प्रदेश अध्यक्ष अनिल शर्मा का गुज़र गया, लेकिन दिल्ली से न कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कोई हस्तक्षेप किया और न महामंत्री राहुल गांधी ने. चुनाव से ठीक पहले दोनों को बदल कर मुकुल वासनिक को प्रभारी और चौधरी महबूब अली कैसर को अध्यक्ष बना दिया. पार्टी खड़ी करने के नाम पर सारी सीटें तो लड़ने का फैसला लिया गया, पर लड़ने वालों में उन सभी को बुला लिया, जिन्हें दूसरे दलों ने खारिज कर दिया था. एक आशा बनी थी कि राहुल गांधी के इस वचन का पालन होगा कि बिहार में नौजवानों को ज़्यादा से ज़्यादा टिकट दिए जाएंगे, पर जैसे ही लोगों ने देखा कि नौजवानों के नाम पर जातीय अपराधी, बाहुबली और दा़गी लोग उम्मीदवार बन रहे हैं, वैसे ही उन्होंने कांग्रेस से अपनी दूरी बना ली. कांग्रेस ने पिछले दो सालों में, विशेषकर लोकसभा के चुनाव के बाद बिहार में न वैचारिक संघर्ष किया और न पार्टी को खड़ा करने की गंभीर कोशिश की. उन्हें लगा कि सभी सीट लड़ेंगे, सोनिया गांधी और राहुल गांधी प्रचार करेंगे तो कम से कम तीस सीटें तो मिल ही जाएंगी, बिना जामन के दूध दही में नहीं बदलता, लेकिन स़िर्फ जामन हो और दूध न हो तो? पार्टी संगठन रूपी दूध बिहार में था ही नहीं, सोनिया गांधी और राहुल गांधी के रूप में जामन घूम रहा था. भीड़ आ रही थी, पर जितनी बड़ी भीड़ आ रही थी, कांग्रेस का उतना ही वोट कम हो रहा था. दो सौ करोड़ रुपये से ज़्यादा का ख़र्च और सीटें स़िर्फ चार. कार्यकर्ताओं को अफसोस है कि इतने बड़े धक्के के बाद भी पार्टी ने बिहार की हार की न तो समीक्षा की, न कारण तलाशे और न ही कोई सीख ली.

उत्तर प्रदेश की कहानी भी कुछ-कुछ बिहार जैसी ही है. पिछले लोकसभा चुनावों में पार्टी के इक्कीस सांसद उत्तर प्रदेश से आए. कांग्रेस को लगा कि अब यहां नए सिरे से पार्टी को खड़ा किया जा सकता है. राहुल गांधी ने इसकी योजना बनाई. बाबा साहब अंबेडकर के जन्मदिन 14 अप्रैल को अंबेडकर नगर में एक बड़ी सभा हुई, जिसमें राहुल गांधी गए और उन्होंने संदेश यात्राओं की शुरुआत की. दस संदेश यात्राओं को उन्होंने झंडी दिखाई, इनके नेता थे राजेंद्र शर्मा, प्रदीप माथुर, प्रवीण एरन, अब्दुल मन्नान, पी एल पूनिया, जगदंबिका पाल, भोला पांडे, राजेश पति त्रिपाठी, शेखर बहुगुणा तथा रंजीत सिंह जू देव. इन्हें चालीस से पैंतालिस विधानसभा क्षेत्रों में जाना था तथा कांग्रेस का, या सोनिया गांधी और राहुल गांधी का संदेश देकर संगठन बनाना था. अधिकांश नेता केवल आधा लक्ष्य ही पूरा कर पाए. सबसे ज़्यादा भोला पांडे और प्रदीप माथुर ने विधानसभा क्षेत्रों में सभाएं कीं.

कांग्रेस के लोगों को लगता है कि यदि सोनिया गांधी भी जनता दरबार शुरू करें तो उन्हें भी न केवल देश की नब्ज़, बल्कि पार्टी को मज़बूत करने में आने वाली अड़चन का पता चल सकता है. वह क्यों ऐसा नहीं करतीं, यह कार्यकर्ताओं को तो छोड़ दीजिए, नेताओं तक की समझ में नहीं आता. कांग्रेस कार्यकर्ता बेताबी से उस दिन की प्रतीक्षा कर रहे हैं, जब जनता दरबार शुरू होगा, वे सीधे अपने नेता से मिल पाएंगे.

इन यात्राओं का काफी स्वागत हुआ. सालों के बाद चुनाव के अलावा कांग्रेस नेताओं की बातें जनता ने सुनीं. बड़ी संख्या में कार्यकर्ता कांग्रेस की ओर आकर्षित हुए. लगा कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस फिर से जीवित होने जा रही है. तब तक आ गए पंचायत चुनाव. डेढ़ महीने से चल रही यात्राओं को रोकना पड़ा. इन यात्राओं से उपजे उत्साह और उपजी ताक़त का आकलन राहुल गांधी ने करना उचित नहीं समझा. उन्होंने एक नया कार्यक्रम दे दिया कि सदस्य बनाए जाएं और दल में सभी स्तर पर चुने हुए लोग ही जाएं.

सारे देश में सदस्य बनाए गए. उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश को लेते हैं. ज़िलों-ज़िलों में कांग्रेस के सदस्य बनाने में लोग जुट गए. ऐसा लगा कि संगठन एक बार फिर ज़िंदा होने जा रहा है. लेकिन जब चुनावों की बारी आई तो ऐसे लोग चुने गए, जिन्होंने सदस्य बनाने में कोई खास योगदान नहीं दिया था. कहीं से कोई सूची आई और अध्यक्ष वैसे ही बने. ऐसे ही प्रदेश कांग्रेस समिति जिसे पीसीसी कहते हैं, बनी और ऐसे ही एआईसीसी बनी. कार्यकर्ता समझ ही नहीं पाया कि क्या हो गया. उसे लगा कि राहुल गांधी ने सदस्य बनाने और सही कार्यकर्ताओं को संगठन में आगे आने का सपना दिखाया था, वह सही नहीं था, क्योंकि उन्होंने ख़ुद इस प्रक्रिया पर निगरानी नहीं रखी. ज़्यादातर वे दोबारा काबिज हो गए, जिन्होंने पिछले सालों में निष्क्रियता का रिकार्ड बना लिया था. कांग्रेस के प्रति पैदा होता रुझान ठंडा हो गया. इसीलिए 19 दिसंबर से शुरू हुआ संदेश यात्राओं का दूसरा चरण काफी फीका है. इसमें न उत्साह है और न उत्साही कार्यकर्ता. अफसोस की बात है कि कांग्रेस नेतृत्व इसके पीछे की मानसिकता को अब भी समझना नहीं चाहता.

पर सबसे बड़ा सवाल तो दिल्ली से चल रहे कांग्रेस के केंद्रीय संगठन पर है. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी हैं. उन्हें सलाह उनके महासचिव देते हैं, उनकी कार्यकारिणी जिसे वर्किंग कमेटी कहते हैं, देती है या कोर ग्रुप देता है या फिर कोई और देता है. कांग्रेस कार्यकर्ताओं को लगता है कि फैसले ऐसे क्यों होते हैं, जो संगठन को बढ़ाते नहीं, बल्कि संगठन को छोटा करते हैं. दरअसल कांग्रेस में किसी को पता नहीं कि फैसले कौन करता है, जो कांग्रेस अध्यक्ष के नाम से सामने आते हैं.

चाहे संसद का सेंट्रल हॉल हो, जिसमें कांग्रेस के वर्तमान व भूतपूर्व सांसद मिल जाते हैं या सामान्य कार्यकर्ता, जो अनाथों की तरह कहीं भी मिल जाते हैं, एक ही बात कहते हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष को ज़मीनी हक़ीक़त का पता ही नहीं चलता. वे इंदिरा जी के समय को याद करते हैं, जब उन्हें बेहिचक अपने नेता से मिलने का समय मिल जाता था. जिन्हें समय नहीं मिल पाता था, वे जनता दरबार में मिल लेते थे. इंदिरा जी जनता दरबार को बहुत महत्व देती थीं, क्योंकि यह जनता दरबार ही था, जो उन्हें देश की नब्ज़ और पार्टी की कमज़ोरी या मज़बूती की जानकारी देता था. इंदिरा जी इसीलिए अपने साथियों के ऊपर बीस पड़ती थीं और उनके सलाहकार भी उन्हें ग़लत जानकारी नहीं दे पाते थे. कार्यकर्ताओं के पास जनता दरबार एक अचूक अवसर था, जिसमें वे अपनी तकलीफ, अपने सुझाव अपने नेता तक पहुंचा देते थे.

उनका साफ कहना है कि उसी दिन से कांग्रेस संगठन का फिर से नया जन्म होगा. यही कांग्रेस की संस्कृति है, जिसे कांग्रेस ने छोड़ दिया है.सोनिया गांधी की नकल करते हुए पार्टी के नेता भी कार्यकर्ताओं से नहीं मिलते, न उनकी राय सुनना चाहते हैं. यही वजह है कि उन्हें ज़मीनी हक़ीक़त की जानकारी नहीं मिल पाती. कांग्रेस की नई संस्कृति यही है, जिसका उदाहरण कांग्रेस के केंद्रीय मंत्री हैं, जो कार्यकर्ताओं से मिलना तो दूर, अपने सांसदों तक से नहीं मिलते.

कांग्रेस में तीन तरह की कार्यशैलियां हैं. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की कार्यशैली कांग्रेस कार्यकर्ताओं में उत्साह नहीं पैदा कर रही. महासचिव राहुल गांधी की कार्यशैली युवाओं में उत्साह जगाने वाली तो है, पर वह बिना किसी सार्थक परिणाम के शून्य बन जाती है. राहुल गांधी का अपना अलग सचिवालय है, सलाहकार हैं और घूमने की योजनाएं हैं. वह बुद्धिमान और प्रतिभावान लोगों की देश में तलाश कर रहे हैं, जिसे कांग्रेस के लोग टैलेंट हंट कहते हैं. पूरे देश में युवा कांग्रेस का उन्होंने पुनर्गठन किया, नए लोग लिए, लेकिन युवा कांग्रेस और छात्र कांग्रेस देश में पहले से भी ज़्यादा अनजान बन गई है. राहुल गांधी की दो कमज़ोरियां हैं, पहली, वह कभी अपने द्वारा शुरू किए कार्यक्रमों की निगरानी नहीं कर पाते या करना नहीं चाहते और दूसरी, उन्हें समझ में नहीं आता कि समाज का नेता वही हो सकता है, जिसके मन में समाज के लिए, ग़रीबों के लिए दर्द हो. उनकी रणनीति है कि सरकारी या विदेशी पैसे से चल रहे सामाजिक सेवा के संगठन जिन्हें प्रचलित भाषा में एनजीओ कहते हैं, कांग्रेस की ताक़त बनें. राहुल गांधी को समझना चाहिए कि कांग्रेस की ताक़त उसकी परंपरा में, इंदिरा गांधी की भाषा में और जवाहर लाल नेहरू तथा लाल बहादुर शास्त्री द्वारा देखे गए सपनों में है. इससे अलग यदि कांग्रेस जाती है तो उसमें और भारतीय जनता पार्टी में दफ्तर के पते के अलावा कोई अंतर नहीं रह जाएगा.

सरकार की कार्यशैली इन दोनों से अलग है. सोनिया गांधी की भाषा देश में ग़रीबी के प्रति चिंता दिखाती है. राहुल गांधी की भाषा विकास के उस रास्ते की ओर नज़र डालती है, जिसमें ग़रीब और आदिवासी भी खड़े दिखाई देते हैं. पर सरकार के क़दम इससे बिल्कुल अलग चलते हैं. कैसे मानें कि सरकार सोनिया गांधी और राहुल गांधी की राय के बिना चल रही है. या फिर सरकार ऐसे चल रही है, जिस पर मनमोहन सिंह का प्रधानमंत्री होते हुए भी कोई नियंत्रण नहीं है. कम से कम 2-जी स्पेक्ट्रम प्रकरण और दयानिधि मारन तथा ए राजा का व्यवहार तो यही बताता है.

प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी के बीच सब कुछ ठीक नहीं है. प्रधानमंत्री ने सोनिया गांधी द्वारा दिए कई सुझाव नहीं माने हैं. सोनिया गांधी को भी अब अपने सुझाव लिखकर देने पड़ रहे हैं. जिस तरह ए राजा के सवाल को पीएमओ ने हैंडल किया, वह सोनिया गांधी को बहुत समझ में नहीं आया. पर पी जे थॉमस को सीवीसी बनाने का सुझाव दस जनपथ का था, जिनके ऊपर सर्वोच्च न्यायालय टिप्पणियां किए जा रहा है. सरकार की कार्यशैली की वजह से देश में जो समस्याएं पैदा हो रही हैं, वे लक्षण हैं, लेकिन सोनिया गांधी को समझना चाहिए कि देश के 260 ज़िले इस समय भूख, बेकारी और ग़रीबी से कराह रहे हैं तथा सरकार के ख़िलाफ नक्सलवादियों का साथ दे रहे हैं. जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने थे तो यह संख्या 80 ज़िलों तक सीमित थी. न केवल इस स्थिति को और बिगड़ने नहीं देना है, बल्कि बिगड़ी स्थिति को सुधारने के लिए आर्थिक और राजनैतिक पहल भी करनी आवश्यक है. सरकार की कार्यशैली ने भ्रष्टाचार को एक बार फिर केंद्रीय मुद्दा बना दिया है. सरकार की कार्यशैली की वजह से कांग्रेस कार्यकर्ता का उत्साह इन दिनों ठंडा पड़ा है. इसलिए ज़रूरी है कि नीतियों को सुधारा जाए और जनाभिमुख बनाया जाए. कांग्रेस की सरकार ने सूचना का अधिकार और सौ दिन के रोज़गार की गारंटी जैसे अद्भुत काम किए, लेकिन इन कामों का कोई राजनैतिक फायदा उसे नहीं मिल पा रहा है. क्यों, इसका कारण सोनिया गांधी को तलाशना चाहिए. बिहार में चार विधायकों का जीतना इसका जीता जागता उदाहरण है.

राहुल गांधी के मुख्य सलाहकारों में कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह हैं, जिनकी रणनीति को क्रियान्वित करने का ज़िम्मा परवेज़ हाशमी पर है. दोनों की जोड़ी ने पहले बिहार में काम किया, बाद में इन्हें आसाम दिया गया, फिर आंध्र. इसके बाद इन्हें उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी के मिशन 2012 को सफल बनाने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई. पर अब अचानक इन्हें आसाम भी सौंप दिया गया, जहां अगले वर्ष के शुरू में चुनाव होने वाले हैं. राहुल गांधी के बयानों में राजनैतिक तेवर दिग्विजय सिंह की सलाह पर तीखा या हल्का दिखाई देता है. परवेज़ हाशमी राहुल गांधी को मुस्लिम सवालों पर भी राय देते हैं. इसके अलावा राहुल गांधी का मुख्य काम कनिष्क सिंह संभालते हैं. कांग्रेस के अधिकतर नेता जिन्हें राहुल गांधी से मिलने का वक्त नहीं मिलता, वे कनिष्क सिंह से ही मिलकर गदगद हो जाते हैं.

सोनिया गांधी इन दिनों अहमद पटेल, प्रणव मुखर्जी और ए के एंटनी की सलाह पर फैसले लेती हैं. जनार्दन द्विवेदी के ऊपर मुख्यतया जनता में बोली जाने वाली भाषा के शब्द तैयार करने का काम है. मोतीलाल वोरा जी कोषाध्यक्ष हैं, पर उनकी राय को सोनिया गांधी महत्व देती हैं. इसमें कोई दो राय नहीं कि अहमद पटेल से वह फैसला लेने से पहले मशविरा अवश्य करती हैं. अहमद पटेल इस लिहाज़ से देश के सबसे ताकतवर व्यक्ति हैं, लेकिन इन दिनों उनके ऊपर कुछ आरोप भी लगे हैं और कुछ नाराज़गी भी है. आरोप मुस्लिम समाज लगा रहा है कि अहमद पटेल उसके सवालों को सोनिया गांधी के सामने मज़बूती से नहीं उठाते. नाराज़ उनसे प्रधानमंत्री हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि सोनिया गांधी की अलग भाषा के लिए अहमद पटेल ज़िम्मेदार हैं. यह नाराज़गी ओबामा के सम्मान में दिए गए भोज में झलकी, जब सभी को उन्होंने बुलाया, लेकिन अहमद पटेल को नहीं बुलाया. बिहार की हार का ठीकरा या ग़लत रणनीति बनाने का इल्ज़ाम भी अहमद पटेल पर डाला जा रहा है. सबूत के रूप में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद पर महबूब अली कैसर की नियुक्ति और केंद्रीय पर्यवेक्षक के तौर पर मुकुल वासनिक का नाम लिया जा रहा है.

अहमद पटेल का स्वभाव विनम्र है तथा वह रात दो बजे तक जागकर काम करते हैं. वह स़िर्फ और स़िर्फ सोनिया गांधी को सामने रखकर सोचते हैं. यह उनकी ताकत भी है और उनसे बहुत से लोगों की नाराज़गी की वजह भी. दूसरी ओर दिग्विजय सिंह हैं, जो राहुल गांधी के यहां अकेले राजनैतिक सोच वाले व्यक्ति हैं. राहुल गांधी के किसी भी बयान के पक्ष में सबसे पहले वही खड़े होते हैं.

आज कांग्रेस के पास कोई मुस्लिम चेहरा नहीं है. सलमान खुर्शीद और ग़ुलाम नबी आज़ाद हैं, पर इन्हें स्वीकृति नहीं है. परवेज़ हाशमी को कांग्रेस आगे नहीं बढ़ा रही. बिहार में एक कांग्रेस अध्यक्ष बनाया, पर वह बेदम और उच्चवर्गीय मानसिकता वाला निकला. उसने तो चुनाव के फैसले आने से पहले ही हार की सफाई देनी शुरू कर दी. कांग्रेस को सबसे पहले मुस्लिम चेहरा लाना होगा.

कांग्रेस के पास उत्तर में केवल दो राज्य हैं. पहला हरियाणा और दूसरा राजस्थान, जहां भूपेंद्र सिंह हुड्डा और अशोक गहलोत मुख्यमंत्री हैं. अगर ये दोनों असाधारण काम करें तो इसका फायदा कांग्रेस को दूसरे राज्यों में मिल सकता है. पर अभी तक कोई असाधारण काम नज़र नहीं आया है. अशोक गहलोत की परेशानी है कि उन्हें ज़्यादातर नए लोगों के साथ काम करना पड़ रहा है. साथ ही वहां हर तीसरे महीने अफवाह फैलती है कि डॉ. सी पी जोशी को राहुल गांधी मुख्यमंत्री बनाकर भेज सकते हैं. अशोक गहलोत और भूपेंद्र सिंह हुड्डा के ऊपर सोनिया गांधी को नज़र भी रखनी चाहिए और उन्हें सलाह देनी चाहिए कि वे कौन से काम करें, जिससे कांग्रेस को गुजरात, आसाम, तमिलनाडु तथा उत्तर प्रदेश में फायदा मिले.

कांग्रेस कार्यकर्ताओं की चिंता की सीमा नहीं दिखाई देती. उन्हें बंगाल, आसाम, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश तथा गुजरात में पार्टी के चुनावों में संभावित प्रदर्शन को लेकर चिंता है. क्या कांग्रेस यहां गठबंधन बनाएगी या अकेले चुनाव लड़ेगी? बंगाल में राहुल गांधी बयान दे चुके हैं कि उन्हें सम्मानजनक सीटें मिलेंगी, तभी वह ममता बनर्जी का साथ देंगे. उत्तर प्रदेश में क्या कांग्रेस मुलायम सिंह के साथ जाएगी या अकेले या फिर मायावती के साथ समझौता करेगी कि वह राज्य संभालें, केंद्र में कांग्रेस के सांसद जाएं. कार्यकर्ता अंधेरे में हैं, उन्हें यह भी समझ में नहीं आ रहा कि प्रदेश अध्यक्षों की घोषणा हुई, लेकिन घोषणा से पहले माहौल बन गया कि अध्यक्ष बदले जाएंगे. पर ज़्यादातर अध्यक्ष बदले नहीं गए. जिन अध्यक्षों के रहते कांग्रेस की यह हालत है, अब उन्हें ही पुन: बना दिया गया है. कोई योजना संगठन को खड़ा करने की किसी भी प्रदेश अध्यक्ष के पास नहीं है. इन राज्यों के अलावा आंध्र का संकट संकेत दे रहा है कि कांग्रेस वहां कमज़ोर हो रही है. मध्य प्रदेश के बारे में क्या कहें, संगठन लुंज-पुंज हो गया है. अगर कांग्रेस को अकेले चुनाव लड़ना है तो क्यों सांसदों का इस्तेमाल संगठन बनाने में नहीं हो रहा, क्यों उन कार्यकर्ताओं को महत्व नहीं दिया जा रहा है, जो सदस्य बनाने में जी जान लगा चुके हैं. बिहार में ऐसा हो चुका है और उत्तर प्रदेश में यह हो रहा है. कार्यकर्ताओं का मानना है कि 19 सांसदों को सारे विधानसभा क्षेत्र बांट देने चाहिए तथा उन्हें संसद के सत्र के अलावा क्षेत्र में ही रहने का निर्देश देना चाहिए. लेकिन मज़े की बात है कि बिहार में कांग्रेस ने 243 में 20 से 22 सीटें जीतने का लक्ष्य बनाया था और अब वह उत्तर प्रदेश की चार सौ तीन सीटों में से पैंतालिस सीटें जीतने का लक्ष्य बना रही है.

कांग्रेस के सामने संकट है. सरकार की बुद्धिमानी की वजह से भ्रष्टाचार देश के सामने मुद्दा बनके उभर गया है और दूसरी ओर कांग्रेस कार्यकर्ता उत्साहित नहीं हैं. राहुल गांधी का युवा संवाद अर्थ खो रहा है, क्योंकि वह बिहार में युवाओं को चुनाव नहीं लड़ा पाए. इन सबमें अभी भी एक पत्ता कांग्रेस के पास है. वह है प्रियंका गांधी. कांग्रेस कार्यकर्ता अभी भी इस आशा भरे भ्रम में हैं कि यदि प्रियंका गांधी ज़िम्मेदारी लेकर कैंपेन करती हैं तो बंगाल, आसाम, गुजरात, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की किस्मत बदल सकती है. प्रियंका गांधी से कांग्रेस कार्यकर्ता पता नहीं क्यों ज़्यादा सहज संबंध बना लेता है. शायद इसलिए कि वह महिला हैं, या इसलिए कि उनमें समझ ज़्यादा है, पता नहीं, पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं का यह भी मानना है कि सोनिया गांधी परंपरागत माओं की तरह पुत्र राहुल पर ही दांव खेल रही हैं, बेटी पर नहीं. हमारा कांग्रेस कार्यकर्ताओं से कहना है कि प्रियंका गांधी भी शायद कुछ न कर पाएं, क्योंकि पूरे कुएं में भांग पड़ी है. और यही चुनौती सोनिया गांधी के सामने है कि कैसे कांग्रेस संगठन को, कांग्रेस कार्यकर्ताओं को इस भांग के कुएं से दूर ले जाएं.


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