कांग्रेस को थोड़ी सावधानी बरतनी चाहिए. बजट सत्र के इस द्वितीय चरण में उसके सामने ख़तरा पैदा हो सकता है. महिला आरक्षण बिल राज्यसभा के बाद लोकसभा में पास होना है. श्रीमती सोनिया गांधी का स्पष्ट निर्देश है कि इसे हर हालत में पास कराना है. उन्हें वृंदा करात, सुषमा स्वराज जैसी शुभचिंतकों ने समझा दिया है कि वह इतिहास में अमर हो जाएंगी. अगर यह बिल उन्होंने पास करा दिया तो उनका नाम लेनिन और माओ की तरह याद किया जाएगा. लेकिन यही महिला नेत्रियां महिलाओं को पुरुषों के बराबर रोज़गार के अवसर मिलें और उन्हें आर्थिक आज़ादी मिले, इस बारे में कोई क़दम नहीं उठाना चाहतीं. क्यों नहीं कांग्रेस भाजपा और सीपीएम के साथ मिलकर देश की सभी, चाहे वे सरकारी हों या प्राइवेट, नौकरियों में महिलाओं को तैंतीस प्रतिशत आरक्षण का क़ानून बनाती?
उत्तर प्रदेश में केवल दो नाम नज़र आते हैं संजय सिंह और राजबब्बर. संजय सिंह को दस जनपथ यह ज़िम्मेदारी देना नहीं चाहता, क्योंकि कहीं वह अपना स्वतंत्र अस्तित्व न बना लें. दूसरी ओर राजबब्बर यह ज़िम्मेदारी लेना नहीं चाहते. राजबब्बर की फिरोज़ाबाद सीट से जीत के बाद उनका कद उत्तर प्रदेश में बढ़ गया है. वह डरते हैं कि यदि उन्होंने ज़िम्मेदारी ले ली तो सब उनके सिर आ जाएगा.
दरअसल दोनों महिलाओं ने कांग्रेस को अपने जाल में उलझा लिया है. महिला आरक्षण बिल जब पास होगा, तब पास होगा, पर उससे पहले कांग्रेस ने अपने कुछ साथियों को ख़ुद से दूर कर दिया है. मुलायम सिंह, लालू यादव और मायावती इस बिल पर कांग्रेस के साथ नहीं हैं. भाजपा चाहती है कि यह दूरी इतनी बढ़ जाए तथा मनमुटाव इतना हो जाए कि ये फाइनेंस बिल पर कटौती प्रस्ताव लाएं और उस समय भाजपा तथा सीपीएम इनके साथ मिलकर वोट कर दें. उस स्थिति में सरकार गिरेगी और मध्यावधि चुनाव होंगे. मध्यावधि चुनाव की बात केवल अटकलबाज़ी नहीं है. इस ख़तरे को कांग्रेस में सबसे ज़्यादा अगर कोई समझता है तो वह हैं मनमोहन सिंह, जो चाहते हैं कि सरकार चले. वह शायद इस पक्ष में भी हैं कि अगर टालना हो तो टाल दिया जाए. जब लोग तैयार हो जाएं या कोई सहमत हल निकल आए, तभी इसे चर्चा के लिए रखा जाए और वोटिंग हो. लेकिन क्या करेंगे उन रिपोर्टों का, जो कांग्रेस अध्यक्ष के पास भेजी जा रही हैं. एक रिपोर्ट कहती है कि देश की सारी महिलाएं कांग्रेस को वोट करेंगी और पार्टी चार सौ से ज़्यादा सीटें जीतेगी. दूसरी रिपोर्ट कहती है कि देश का सारा युवा वर्ग राहुल गांधी के नाम पर कांग्रेस को वोट देगा तथा जो भी कसर होगी, उसे नौजवान पूरा करेगा. हो सकता है, ये रिपोर्ट सही हों. लेकिन ऐसी रिपोर्ट पर जब चुनाव हुए, तब नतीजा बहुत अच्छा नहीं निकला. राजीव गांधी ने चंद्रशेखर की सरकार गिराकर इस आशा में चुनाव कराया था कि उन्हें बहुमत मिलेगा, पर दुर्भाग्यवश वह उनके जीवन का अंतिम चुनाव साबित हुआ. उनके निधन के कारण दो चरणों में चुनाव हुए. जब नतीजे आए तो पता चला कि उनके निधन से पहले के मतदान में उनकी पार्टी बुरी तरह हारी थी, लेकिन निधन के बाद वाले मतदान क्षेत्रों में वह बड़ी संख्या में जीते. इसका मतलब कि अगर उनका निधन नहीं हुआ होता तो कांग्रेस वह चुनाव हार जाती. इसके बाद भी नरसिंहाराव को पूर्ण बहुमत वाली सरकार के प्रधानमंत्री पद का सुख नहीं मिला, उन्हें अल्पमत की सरकार ही चलानी पड़ी. अटल बिहारी वाजपेयी ने भी शाइनिंग इंडिया के मोह में पहले चुनाव कराया और भाजपा बुरी तरह चुनाव हार गई. भावी प्रधानमंत्री आडवाणी के नाम पर भी भाजपा हारी. और, अब यह जुआ कांग्रेस खेलना चाहती है. न खेले तो अच्छा. कांग्रेस के पास कुछ ऐसी ख़ामियां हैं, जिन्हें वह दूर करना ही नहीं चाहती. बिहार और उत्तर प्रदेश इसके उदाहरण हैं. बिहार में कांग्रेस को वोट मिल सकते हैं, वहां की दलीय स्थिति में लोग दिग्भ्रमित हैं, लेकिन कांग्रेस के पास कोई चेहरा ही नहीं है. जब अध्यक्ष पद के लिए कोई चेहरा नहीं है तो मुख्यमंत्री कौन बनेगा, इस पर वहां अंधेरा ही अंधेरा है. चौथे नंबर पर आने वाली पार्टी इस तरह लड़ रही है, मानों उसे ही विधानसभा चुनाव में कमान संभालनी है. उत्तर प्रदेश की भी यही कहानी है. मौजूदा अध्यक्ष सब कर रही हैं, जी-जान लगा रही हैं, लेकिन असर नहीं छोड़ पा रही हैं. अब राहुल गांधी की रथ यात्रा प्रारंभ होने जा रही है. न पार्टी में नेता हैं और न रणनीति बनाने वाले. इस रथ यात्रा के बाद पैदा हुई पूंजी को सहेजेगा कौन? उत्तर प्रदेश में केवल दो नाम नज़र आते हैं संजय सिंह और राज बब्बर. संजय सिंह को दस जनपथ यह ज़िम्मेदारी देना नहीं चाहता, क्योंकि कहीं वह अपना स्वतंत्र अस्तित्व न बना लें. दूसरी ओर राजबब्बर यह ज़िम्मेदारी लेना नहीं चाहते. राजबब्बर की फिरोज़ाबाद सीट से जीत के बाद उनका कद उत्तर प्रदेश में बढ़ गया है. वह डरते हैं कि यदि उन्होंने ज़िम्मेदारी ले ली तो सब उनके सिर आ जाएगा. जो भी इन प्रदेशों में कांग्रेस के पुर्नजागरण के बारे सोचता हो, उसे गंभीरता से सोचना चाहिए. लेकिन शायद जबसे राहुल गांधी ने कमान संभाली है, तबसे कोई सोचने के ख़तरे में पड़ना ही नहीं चाहता. जो राहुल गांधी करें, करें. इसका मतलब इन प्रदेशों में एक दल के नाते सारी पहल अब राहुल गांधी के हाथ में है. कुछ महीने हुए, झारखंड के चुनाव हुए. इन्हीं कारणों से कांग्रेस अंदाज़ा लगा रही थी कि उसकी सरकार बनेगी, पर नहीं बन पाई. अब बिहार और उत्तर प्रदेश में चुनाव होने वाले हैं. कांग्रेस से पिछड़े दूर हैं, कांग्रेस से दलित दूर हैं और कांग्रेस के पास मुसलमान वापस आने से हिचक रहे हैं. इन वर्गों से संवाद करने वाला कांग्रेस में कोई है ही नहीं. शायद राहुल गांधी इस तरीक़े को ही ग़लत मानते हैं. वह समझते हैं कि युवा एक वर्ग के नाते संगठित होकर उन्हें समर्थन देगा. हो सकता है, यह सही हो, पर अभी तो इस सोच में ज़्यादा दम नहीं दिखाई देता. राहुल गांधी से आशा करनी चाहिए कि वह समाज के विभिन्न वर्गों की समस्याओं की गहराई को, उसके सही स्वरूप में समझेंगे. इसके बाद ही विभिन्न वर्गों का कांग्रेस से संवाद प्रारंभ हो पाएगा. कांग्रेस बने या बिगड़े, उससे हमें कोई सरोकार नहीं है, लेकिन कांग्रेस देश में सरकार का नेतृत्व कर रही है और उसके साथ कई पुराने मूल्य जुड़े हैं, जिनमें देश के बहुत से लोगों को विश्वास है. देश में लोकतंत्र क़ायम रहे, इसके लिए ज़रूरी है कि सत्ता का हिस्सा बने दल लोगों की समस्याओं को उनके समाज के आधार पर समझें. अगर ऐसा नहीं होता तो दंतेवाड़ा में नक्सली हमला बार-बार दोहराया जाता रहेगा. हथियारों से युद्ध में दुश्मन को मारा जाता है, अपने ही देश में रहने वालों के साथ चल रहे संघर्ष को अगर हम युद्ध कहने लगें तो हम एक ओर लोकतंत्र के ख़िला़फ काम कर रहे हैं और दूसरी ओर देश को बांटने में योगदान कर रहे हैं. कांग्रेस को अपने संपूर्ण नज़रिए पर सोचना चाहिए और देश में रहने वालों को न केवल राजनैतिक, बल्कि सामाजिक समाधान देने में अपनी ताक़त लगानी चाहिए.