कांग्रेस जानबूझ कर हारना चाहती है

कांग्रेस के अपने मंत्री भी स्वतंत्र प्रधानमंत्री की तरह व्यवहार करते थे. उस समय के गृह मंत्री शिवराज पाटिल, कांग्रेस के गृह मंत्री कम भाजपा के गृह मंत्री ज्यादा नज़र आते थे. उनके समय में पूरा पुलिस ढांचा, खुफिया ढांचा चरमरा गया था. कोई भी बड़ी घटना हो, वह राजनीतिक संत की तरह बयान देते थे. मानो वे भारतीय समाज की सुरक्षा की पीड़ा से ऊपर ब्रह्मांड में विचरण करते हों.

congress-janbujh-kar-harna-कांग्रेस क्या जानबूझ कर चुनाव हारना चाहती है? यह सवाल भारतीय राजनीति की परीक्षा का अनिवार्य प्रश्न है, जिसका उत्तर देना ही होगा. और इसी के सही उत्तर पर पंद्रहवीं लोकसभा और नई बनने वाली सरकार का बीजगणित हल हो सकता है. आइए, इसे हल करने की कोशिश करते हैं.

पांच साल पहले कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार बनी थी. एक ऐसा गठबंधन बना, जिसमें कांग्रेस का सिर्फ बहुमत था. संसद सदस्यों के बीच नहीं, सिर्फ गठबंधन वाले दलों के बीच यह बहुमत था. यह सरकार कुछ इस अंदाज़ में बनी कि इसमें सारे मंत्री प्रधानमंत्री की तरह व्यवहार करते थे और मनमोहन सिंह उनमें समन्वय करते थे. कह सकते हैं कि वह समन्वय प्रधानमंत्री थे. कांग्रेस के अपने मंत्री भी स्वतंत्र प्रधानमंत्री की तरह व्यवहार करते थे. उस समय के गृह मंत्री शिवराज पाटिल, कांग्रेस के गृह मंत्री कम भाजपा के गृह मंत्री ज्यादा नज़र आते थे. उनके समय में पूरा पुलिस ढांचा, खुफिया ढांचा चरमरा गया था. कोई भी बड़ी घटना हो, वह राजनीतिक संत की तरह बयान देते थे. मानो वे भारतीय समाज की सुरक्षा की पीड़ा से ऊपर ब्रह्मांड में विचरण करते हों.

ऐसे ही उस समय के वित्त मंत्री पी चिदंबरम थे, जो कभी आम जनता की महंगाई की तकलीफ को महसूस ही नहीं कर पाए. इनके समय में भारत के पैसे वाले खुश और आम आदमी दुखी से दुखी होता गया. महंगाई बढ़ती रही, लेकिन वित्त मंत्रालय शेयर के आंकड़ों पर खुश होता रहा. वित्त मंत्रालय को शेयर बाज़ार के दलाल खिलाड़ी घुमाते और बेवकूफ बनाते रहे, पर वित्त मंत्रालय को समझ नहीं आया कि देश के किसानों, नौजवानों और गांव के आर्थिक विकास के लिए भी कोई योजना बनानी है. टैक्स लगाने के नए-नए तरीके निकाले जाने लगे. ऐसे-ऐसे टैक्स, जिनसे आम लोग परेशान हो जाएं पर सरकार के खज़ाने में पैसा न जा पाए. जब चिदंबरम को गृह मंत्री बनाया गया तो वह इसे पचा ही नहीं पाए. अक्सर वह बैंकों की शाखाओं का उद्‌घाटन गृह मंत्री के नाते करते नज़र आए. दूसरी ओर सौ करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले इस देश के पास कोई वित्त मंत्री नहीं है.

इस स्थिति को न मनमोहन सिंह ने संभाला और न ही सोनिया गांधी ने. कमलनाथ जैसे मंत्रियों के बारे में कुछ न कहना ही बेहतर है. मंत्री जी प्रधानमंत्री में तब्दील हो चुके थे, कांग्रेस कार्यकर्ताओं से मिलते ही नहीं थे. कार्यकर्ताओं को छोड़ दीजिए, ये कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं से भी नहीं मिलते थे. जब कांग्रेस पदाधिकारी सोनिया गांधी से शिकायत करते थे  तो उनका जवाब होता था-बात करूंगी, पर स्थितियां बदलीं बिलकुल नहीं. पांच सालों से संगठन की प्रधान खुद सोनिया गांधी हैं. संगठन कहीं नहीं बढ़ा. लोग उन्हें ग़लत जानकारी देते रहे, बहकाते रहे, वह विश्वास करती रहीं. सरकार और संगठन एक ही तरह से काम करते रहे. सरकार ने जो अच्छे काम किए, उनका प्रचार न सरकार ने किया और न संगठन ने. सरकार न दूरदर्शन का इस्तेमाल कर पाई, न सूचना प्रसारण मंत्रालय का और न संगठन का. जब लोगों को जानकारी ही नहीं तो उन्हें फायदा कितना और कैसे पहुंचा, यह सब आकलन का विषय है. उल्टे सरकारी माध्यमों ने सरकार को विलेन जैसा बना दिया.

कांग्रेस ने किसी वर्ग को पिछले पांच सालों में अपने साथ लेने की कोशिश ही नहीं की. दलित, पिछ़ड़े और अल्पसंख्यक, यही उसकी रीढ़ हुआ करते थे कभी. जब से इन वर्गों ने कांग्रेस से नाता तोड़ा, तब से कांग्रेस ने इन्हें वापस लाने की कोई रणनीति ही नहीं बनाई. नरसिंह राव के शासन के पांच साल कांग्रेस ने खोए. उसके सालों बाद केंद्र में सरकार बनी, पर ये पांच साल भी कांग्रेस ने गंवा दिए. उसने न दलित नेता बनाए, न पिछड़ों के और न ही मुसलमानों के. उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण भाजपा से कांग्रेस की नाक के नीचे से बसपा के पास चला गया, कांग्रेस कुछ नहीं कर पाई. कांग्रेस के पास शीला दीक्षित जैसी मुख्यमंत्री हैं जिसे ब्राह्मण अपना नेता मानते हैं, पर उनका इस्तेमाल न हो पाया. दिल्ली में मुसलमान मुख्यमंत्री होता और उत्तर प्रदेश में शीला दीक्षित कांग्रेस अध्यक्ष होतीं तो इन लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को ब्राह्मणों और मुसलमानों का जबर्दस्त समर्थन मिल जाता.

दरअसल कांग्रेस में यह समझदारी ही नहीं पनप पाई कि उसे भारतीय राजनीति के नए अंतर्विरोधों का कैसे सामना करना है. वह यह भी नहीं समझ पाई कि अब विभिन्न वर्गों के लोग अपने वर्ग के नेता से बात करने में ज़्यादा सहजता महसूस करते हैं. ठीक है कि सोनिया गांधी हैं, पर कितने लोग सोनिया गांधी से मिल पाते हैं? कितने लोग राहुल गांधी से मिल पाते हैं? इसीलिए इन वर्गों की समस्याएं भी कांग्रेस नहीं जानती और इनसे संवाद कैसे किया जाए, यह भी कांग्रेस नहीं जानती. इसीलिए चुनाव जब आते हैं तो कांग्रेस के साथ  कमजोर वर्ग कम इनके दलाल ज़्यादा नज़र आने लगते हैं.

उत्तर भारत के राज्यों की ज़मीनी हक़ीकत कांग्रेस अभी तक समझी ही नहीं. पिछले पांच सालों में लगा कि उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश, बंगाल और उड़ीसा तो उसके एजेंडे से ही बाहर हैं. कांग्रेस बिहार, उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश विधानसभा हारी. इनकी हार के बाद ही यहां लोकसभा चुनावों की तैयारी शुरू हो जानी चाहिए थी, पर लगा कि सभी बेहोश हैं, या इस खुशफहमी में हैं कि जनता की गरज है कि वह उन्हें चुने. इन प्रदेशों के संगठन बद से बदतर होते गए, लेकिन राजनैतिक झगड़े बंद नहीं हुए, दूसरी तरफ केंद्रीय संगठन कान में तेल डाले सोता रहा.

अमेरिकी मंदी के असर से पहले ही भारत के शेयर बाज़ार में गरीबों के पैसे की खुलेआम लूट शुरू हो चुकी थी. यही नहीं, खाद का स्टॉक सरकार के पास ख़त्म हो रहा था और सरकार के सामने संकट था कि किसानों को खाद कैसे पहुंचाए. कीमतें बढ़ रही थीं, चुनाव सर पर था और मनमोहन सिंह सरकार के मंत्री प्रार्थना कर रहे थे कि मध्यावधि चुनाव हो जाए, नहीं तो बढ़ती कीमतें उन्हें बर्बाद कर देंगी. सरकार को खाद जैसी आवश्यक वस्तु के दामों पर छूट देना भारी पड़ रहा था. दूसरी ओर समझदार मंत्री शेयर बाज़ार के बुलबुले के कभी भी फूट जाने का खतरा महसूस कर रहे थे, लेकिन अर्थशास्त्र के जानकार प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री मुस्कुराकर आंखें बंद किए इसे और फूलने दे रहे थे. हज़ारों करोड़ का घोटाला हो गया, सत्यम जैसी कंपनी ने सारी दुनिया में भारत की साख को बट्टा पहुंचाया, पर सर्वशक्तिमान वित्त मंत्रालय न इसे भांप पाया और न घोटाला रोक पाया. जिस पार्टी की सरकार अगली बार फिर सत्ता में आना चाहे और ऐसे सरकार चलाए, तो वही दोबारा आने का सपना पाल सकती है जिसके पास दिन में सपना देखने की ताक़त है. भारतीय जनता पार्टी को न मुसलमान वोट देंगे और न धर्मनिरपेक्ष हिंदू, इसी भ्रम ने कांग्रेस को निष्क्रिय रखा होगा. लेकिन कांग्रेस भूल गई कि भाजपा के अलावा भी लोगों के पास क्षेत्रीय पार्टियों के विकल्प मौजूद हैं. इसीलिए उसने विधानसभा चुनावों में हार के बाद न उन राज्यों में कुछ किया औैर न उन राज्यों में जहां चुनाव नहीं हुए. सबसे आश्चर्य की बात यह है कि कांग्रेस पिछले पांच सालों में तय ही नहीं कर पाई कि जिनके साथ वह सरकार चला रही है, उनके साथ लोकसभा चुनाव लड़ेगी या नहीं. हर जगह भ्रम की स्थिति बना दी गई.


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