दिग्विजय सिंह और परवेज़ हाशमी को फांसी की सज़ा सुनाने की तैयारी हो चुकी है. कांग्रेस हाईकमान ने इन दोनों की राजनीतिक ज़िंदगी पर एक लंबा पूर्ण विराम लगाने का फैसला ले लिया है. बस इसका औपचारिक ऐलान बाक़ी है. उत्तर प्रदेश के अधिकांश कांग्रेस कार्यकर्ता कह रहे हैं कि दिग्विजय सिंह ने पहले कांग्रेस का संगठन चौपट किया, ग़लत पीसीसी मेंबर बनाए. ज़िला एवं ब्लॉक का कांग्रेस अध्यक्ष उन्हें बनाया गया, जो संगठन चलाने की हैसियत नहीं रखते. बाद में विधानसभा चुनाव के लिए टिकट वितरण में दूसरी पार्टियों से आए लोगों को कांग्रेस का प्रत्याशी बना दिया. राहुल गांधी का कैंपेन इसलिए बिल्कुल काम नहीं आया. पिछले विधानसभा के 22 विधायकों में से स़िर्फ आठ विधायक ही जीत कर आ सके. जो 20 नए लोग जीते वे कैसे जीते, इसे बाद में बताएंगे, लेकिन रायबरेली, अमेठी और सुलतानपुर में कांग्रेस पूरी तरह से हार गई. कांग्रेस के भीतर जो कहा जा रहा है कि इन सारी स्थितियों की ज़िम्मेदारी दिग्विजय सिंह और परवेज़ हाशमी की है. और शायद एक छोटी कमेटी बनाई जाए और इन दोनों के ख़िला़फ फैसला ले लिया जाए. कांग्रेस के साथ भारतीय जनता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी की कमियों को जानना चाहिए, लेकिन कांग्रेस अकेली ऐसी पार्टी है जिसके ऩुकसान की भरपाई होना मुश्किल दिखाई दे रहा है, क्योंकि वहां अभी भी मानसिकता जनता की आकांक्षा, उसकी चाह और उसके सपने को समझने की नहीं बन पाई है. कांग्रेस अभी भी जनता की परेशानियां नहीं जानना चाहती, बल्कि सोचती है कि वह जैसा चाहेगी, वैसे ही जनता को भरमा लेगी. इसलिए शायद वह न तो जनता को समझ पा रही है और न ही अपने कार्यकर्ताओं के मन को. सबसे पहले सोनिया गांधी के बीते 7 मार्च को दिए गए बयान को देखें. सोनिया गांधी ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की हार का कारण ग़लत टिकट वितरण और महंगाई को बताया. वहीं राहुल गांधी ने कहा कि नेतृत्व नहीं, नेता ज़िम्मेदार हैं. इन दोनों के बयानों में भी हार की पूरी ज़िम्मेदारी दिग्विजय सिंह और परवेज़ हाशमी पर थोपने का इशारा नज़र आता है.
कांग्रेस द्वारा लिया जाने वाला फैसला और कांग्रेस के भीतर फैलाई जा रही बातें वैसी ही हैं कि कोई जान बूझकर खुद को अधमरा करे और फिर ज़हर भी खा ले और कहे कि हमने दवा खाई है. इस पूरी कहानी में कांग्रेस भविष्य की इबारत लिखने जा रही है. भविष्य की इबारत में 2012 और 2013 में होने वाले हिमाचल, गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र के चुनाव में अपने लिए हार का फैसला खुद लिखा जाने वाला है. उसके बाद 2014 में आने वाला लोकसभा चुनाव अलग भविष्य लेकर आएगा, ऐसा नहीं मानना चाहिए. इसलिए हमने खोजबीन की, जांच-पड़ताल की, ताकि हमें सच्चाई का पता चल सके और जिन कारणों को कांग्रेस तलाशना नहीं चाहती या नहीं तलाश पा रही है, उन कारणों को हम तलाशें और कांग्रेस के लोगों के सामने रखें, क्योंकि कांग्रेस का मरना देश में लोकतंत्र के मरने की एक और शुरुआत है. देश में कांग्रेस का मज़बूत रहना, लोकतंत्र के लिए उतना ही ज़रूरी है, जितना लोकतंत्र के हित में भारतीय जनता पार्टी का मज़बूत रहना, वामपंथी दलों का मज़बूत रहना और समाजवादी दलों का मज़बूत रहना. ये दोनों पक्ष और बाक़ी छोटे-छोटे पक्ष अपने सिद्धांत देश के सौ करोड़ से ज़्यादा लोगों के सामने रखें और सभी लोग लोकतंत्र के इस ख़ूबसूरत बग़ीचे में सभी फूलों को खिलाएं, यह बहुत ज़रूरी है कि आपके सामने हम अनोखी कहानी जो सच में घटी और जिसे कांग्रेस के नेताओं ने घटित किया, उसे रख रहे हैं.
बिहार के चुनाव हो चुके थे और कांग्रेस दो सौ करोड़ रुपये खर्च करने और राहुल गांधी के सघन प्रचार अभियान के बावजूद पूरी तरह हार गई. तभी लगा था कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में उस हार से सबक़ लेगी और उत्तर प्रदेश में उन ग़लतियों को नहीं दोहराएगी, जो बिहार में दोहराई गई थीं. लोकसभा के चुनाव में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के 21 सांसद जीते और इस जीत ने यह मुग़ालता पैदा किया कि प्रदेश में कांग्रेस रिवाइव हो रही है. उत्तर प्रदेश के कांग्रेस कार्यकर्ताओं में उत्साह चरम पर था. उसी समय राहुल गांधी ने भी बयान दिया कि कांग्रेस के लिए सदस्यता अभियान शुरू किया जाएगा और जो अपने यहां सबसे ज़्यादा सदस्य बनाएंगे, उन्हें ही प्रदेश कांग्रेस कमेटी का सदस्य बनाया जाएगा और उन्हीं लोगों के बीच में से प्रदेश समिति के लोग, ज़िला अध्यक्ष और ब्लॉक अध्यक्ष चुने जाएंगे. कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने जी जान लगाकर सदस्यता अभियान चलाया. अपने पैसे से घूमें और सचमुच उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी की सदस्यता अभूतपूर्व स्तर पर पहुंच गई. कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने जी जान लगाकर, किसी ने चार हज़ार किसी ने पांच हज़ार, किसी ने दस हज़ार, किसी ने बीस हज़ार, किसी ने पचास हज़ार सदस्यता और जेनुईन सदस्य बनाए. गांव-गांव, मोहल्ले-मोहल्ले गए और कांग्रेस का बहुत दिनों के बाद लोगों से रिश्ता जो़डने की कोशिश की. लोगों को यह अंदाज़ा था कि अब जो संगठन बनेगा, उसमें उन कार्यकर्ताओं को जगह मिलेगी, जिन्होंने सदस्यता अभियान सफलता पूर्वक पूरा करने में जान लगा दी है. लोग प्रतीक्षा कर रहे थे कि अचानक पीसीसी के सदस्यों की सूची सामने आ गई. पीसीसी के सदस्यों की सूची आते ही कांग्रेस कार्यकर्ताओं को लगा जैसे उन्हें धोखा दिया गया हो.
कांग्रेस द्वारा लिया जाने वाला फैसला और कांग्रेस के भीतर फैलाई जा रही बातें वैसी ही हैं कि कोई जान बूझकर खुद को अधमरा करे और फिर ज़हर भी खा ले और कहे कि हमने दवा खाई है. इस पूरी कहानी में कांग्रेस भविष्य की इबारत लिखने जा रही है. भविष्य की इबारत में 2012 और 2013 में होने वाले हिमाचल, गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र के चुनाव में अपने लिए हार का फैसला खुद लिखा जाने वाला है. उसके बाद 2014 में आने वाला लोकसभा चुनाव अलग भविष्य लेकर आएगा, ऐसा नहीं मानना चाहिए.
हुआ यह कि सारे देश में कांग्रेस संगठन बनाने के मुख्य ज़िम्मेदार ऑस्कर फर्नांडिस थे. उन्होंने उत्तर प्रदेश में पवन घटवार, जेडी सीलम, कंग, सूरज और निर्मला सावंत को ज़िम्मेदारी सौंपी. सूरजजी राजस्थान के हैं, निर्मला सावंत महाराष्ट्र की हैं, कंग सरदारजी हैं. जीडी सीलम और पवन घटवार सांसद हैं. इन पांचों ने मिलकर प्रदेश में पीसीसी के सदस्यों की सूची तैयार की. सूची बनाने में सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदारी जीडी सीलम साहब और पवन घटवार ने निभाई. उन्होंने जो लिस्ट ऑस्कर फर्नांडिस को दी, उस पर ऑस्कर फर्नांडिस ने दस्त़खत कर दिए. उस दौरान भी प्रदेश में दिग्विजय सिंह और परवेज़ हाशमी ज़िलों-ज़िलों में घूम रहे थे, लेकिन उनसे इसके बारे कोई राय नहीं ली गई. कांग्रेस के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं ने बताया कि पीसीसी के सदस्य बनाने में बड़ी धांधली हुई. इसलिए जिन लोगों ने सदस्यता अभियान चलाया, उन्हें कोई जगह नहीं मिली, बल्कि जिन्होंने बड़ी गाडि़यां दीं, जिन्होंने उनके रहने पर होटलों में पैसे खर्च किए, गिफ्ट दिए, जिन्होंने उनको कुछ और भी दिया. वे लोग पीसीसी के सदस्य बन गए. इसके बाद दिल्ली में बैठकर ज़िला कांग्रेस के अध्यक्ष और ब्लॉक कांग्रेस के अध्यक्ष बनाए गए. मज़े की बात यह है कि दिल्ली से जब ज़िला कांग्रेस के अध्यक्ष और ब्लॉक कांग्रेस के अध्यक्ष की सूची लखनऊ ऑफिस में भेजी गई. इसमें जो नाम और फोन नंबर थे, तो लखनऊ के कांग्रेस दफ्तर को उन लोगों से संपर्क करने में पसीना आ गया, क्योंकि न तो उनमें से बहुत सारे नाम मैच कर रहे थे और न ही उनके फोन नंबर कहीं मौजूद थे. यह संगठन जिस तरह से बना, वहीं से कांग्रेस ने अपनी हार की भविष्यवाणी खुद लिखनी शुरू कर दी. पीसीसी और ब्लॉक अध्यक्ष का संगठन बनने के बाद यह संगठन दिग्विजय सिंह को सौंप दिया गया. दिग्विजय सिंह और परव़ेज हाशमी से कहा गया कि अब वे चुनाव की तैयारी करें. ये लोग जहां भी गए कार्यकर्ताओं ने इनका ज़बरदस्त विरोध किया. इन लोगों की परेशानी यह थी कि दोनों न कांग्रेस नेतृत्व की आलोचना कर सकते थे और न जो हुआ है, उसे नकार सकते थे. इन लोगों ने नए आश्वासन देने शुरू किए कि जो काम करेगा और अच्छा काम करेगा, उसे ही टिकट देंगे और कांग्रेस के लोगों को ही टिकट दिया जाएगा. संयोग से उसी समय राहुल गांधी का दूसरा बयान आ गया. राहुल गांधी का पहला बयान सदस्यता अभियान को लेकर था कि संगठन बनाओ और संगठन में से लोग चुने जाएंगे. पवन घटवार, जीडी सीलम और कांग की कमेटी ने ऑस्कर फर्नांडिस से संगठन बनवाया, जो भ्रष्टाचार की बुनियाद पर बना. अब राहुल गांधी का दूसरा बयान आया कि टिकट उसी को दिए जाएंगे, जो साफ और स्वच्छ छवि के होंगे. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस कार्यकर्ताओं में एक बार फिर विश्वास जगा. नतीजा यह हुआ कि कार्यकर्ताओं ने फिर कांग्रेस के लिए काम करना शुरू कर दिया.
टिकट बंटवारे का समय आया, क्योंकि चुनाव की घोषणा होने वाली थी. चुनाव आयोग ने घोषणा कर दी. अचानक उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की टिकट बांटने में राहुल गांधी का घर और ऑफिस सबसे महत्वपूर्ण हो गया. वहां पर राहुल गांधी के दोस्त कहें, उनके सचिव कहें, उनके राजनीतिक सलाहकार कहें, उनके मैनेजर कनिष्क सिंह के नेतृत्व में एक गु्रप का गठन हुआ. उस गु्रप में पहला नाम मोहन प्रकाश, दूसरा नाम सलीम शेरवानी, तीसरा नाम राज बब्बर, चौथा नाम बेनी प्रसाद वर्मा, पांचवा नाम सलमान खुर्शीद, छठा नाम श्रीप्रकाश जायसवाल और सातवां नाम रशीद मसूद का जुड़ा. इन सात लोगों ने मिलकर पूरे उत्तर प्रदेश की सीटों का बंटवारा किया. इन सात लोगों ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं को दो नंबर पर रखा और जो उनकी समझ से जीत सकते थे उन्हें एक नंबर एक पर रखा गया. दूसरी पार्टियों के हारे हुए उम्मीदवारों के नाम रखे और यह तर्क दिया कि अगर चुनाव नहीं जीते तो कांग्रेस कार्यकर्ताओं को टिकट देने से क्या फायदा. इसलिए टिकट उसे दो, जो चुनाव जीत सके और इसके लिए इस टीम ने संदेश भेजने शुरू किए. समाजवादी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी और दूसरी पाटियों से जुड़े हुए लोगों को संदेश जाते थे कि राहुल गांधी आपसे मिलना चाहते हैं. वे लोग राहुल गांधी से मिलने आते थे, चाय राहुल गांधी पिलाते थे और जिस आदमी की चाय की प्याली में राहुल गांधी अपने हाथ से चीनी मिला दें, उसे माना जाता था कि उसका टिकट फाइनल हो गया. जिसकी चाय की प्याली में राहुल गांधी चीनी नहीं मिलाते थे, माना जाता था कि उस आदमी को राहुल गांधी ने अप्रूव नहीं किया है. जिसकी प्याली में राहुल गांधी के हाथों चीनी मिल गई, उसे कह दिया जाता था कि आपका टिकट पक्का है. जाइए आप चुनाव की तैयारी कीजिए. जिन लोगों ने दो साल अपने क्षेत्र में काम किया, पैसा खर्च किया, कांग्रेस के लिए माहौल तैयार किया, जो कांग्रेस के व़फादार थे उनकी टिकट इस टीम ने काट दी. इस टीम ने इसलिए टिकट काट दी, क्योंकि इस टीम में मोहन प्रकाश का कांग्रेस में कोई परिचय नहीं है. यह समाजवादी पार्टी से आए हैं, समझदार हैं, आंदोलनकारी हैं, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के नेता रहे हैं. राज बब्बर समाजवादी पार्टी से आए हैं, बेनी प्रसाद वर्मा समाजवादी पार्टी से आए हैं, रशीद मसूद समाजवादी पार्टी से आए हैं. इसलिए इस टीम ने कनिष्क को और राहुल गांधी को यह समझा दिया कि उन्हीं को टिकट दो, जो जीत सकते हैं. एक बाहरी कांग्रेस तैयार हो गई. कांग्रेस में दो हिस्से हो गए, एक बाहरी कांगेस और एक अंदरूनी कांग्रेस. लगा जैसे सिंडीकेट का ज़माना लौट आया है. फिर जो बाहरी कांग्रेस थी, उसके खिलाफ असली कांग्रेस का विद्रोह शुरू हो गया. टिकटें दी गईं, उन टिकटों का विरोध विपक्षी उम्मीदवारों ने उतने कारगर ढंग से नहीं किया, जितना विरोध कांग्रेस के अंदर के लोगों ने किा, जो खुद को असली कांग्रेसी मानते थे. इसलिए राहुल गांधी जहां-जहां गए, वहां अधिकांश जगहों पर उनका विरोध करने वाले, उन्हें काला झंडा दिखाने वाले विपक्ष के लोग नहीं, बल्कि कांग्रेस के ही लोग थे. तब दिग्विजय सिंह को कार्यकर्ताओं को फोन करना पड़ा कि जो भी हो गया, होने दीजिए. सरकार बनेगी, हमलोग सरकार में आएंगे. मिलीजुली सरकार बनेगी और आपका एडजस्टमेंट होगा. कार्यकर्ताओं ने उनसे बात करने से मना कर दिया. कार्यकर्ता कांग्रेस का चुनाव प्रचार करने की बजाय उसके विरोध में लग गए.
अब टिकटें कैसे बटीं. स्क्रीनिंग कमेटी में उनकी मीटिंग से एक दिन पहले कनिष्क के दफ्तर से एक शीट जाती थी. जिसमें यह निर्देश होता था कि इन लोगों का टिकट क्लीयर कर दिया जाए. मेरी जानकारी यह बता रही है कि कनिष्क सिंह दिग्विजय सिंह को डिक्टेट करते थे. वह डिक्टेट ही नहीं करते थे, बल्कि डिक्टेट करने के साथ-साथ उनको अपमानित भी करते थे. दिग्विजय सिंह को सूची भेज दी जाती थी कि वह उस पर दस्त़खत करें और उसे स्क्रीनिंग कमेटी को भेज दें और कहा यह जाता था कि राहुल गांधी ऐसा ही चाहते हैं. कनिष्क जिस लिस्ट को भेजते थे उस लिस्ट को फाइनल करने वालों में मोहन प्रकाश, सलीम शेरवानी, राज बब्बर, बेनी प्रसाद वर्मा, सलमान खुर्शीद, श्रीप्रकाश जायसवाल और रशीद मसूद होते थे. पूरे उत्तर प्रदेश में जिस तरह से टिकटों के बंटवारे हुए, उसने पूरी कांग्रेस पार्टी में अंदर ही अंदर भूचाल ला दिया और हमें यह दिखाई दे रहा था कि कांग्रेस किसी भी क़ीमत पर 30 से ज़्यादा सीटें जीतने वाली नहीं है, लेकिन कनिष्क सिंह और उनकी टीम ने सोचा की मीडिया को पैसे बांटकर और लोगों को बेवक़ू़फ बनाकर चुनाव जीता जा सकता है. नैतिक रूप से कहें तो राहुल गांधी और उनकी टीम ने कांग्रेस पार्टी के सारे राजनीतिक दिमाग़ों को इस चुनाव से अलग रखा. अहमद पटेल, जनार्दन द्विवेदी और मोतीलाल वोरा, जिन्होंने अभी तक कांग्रेस संगठन चलाया, उनकी हिम्मत नहीं पड़ी कि कोई भी उत्तर प्रदेश के बारे में राहुल गांधी से कुछ भी कह सकें. मैं इसका गवाह हूं. एक समारोह में मैं मौजूद था वहां एक बड़े पत्रकार ने जनार्दन द्विवेदी से कहा कि, जर्नादन द्विवेदी जी उत्तर प्रदेश के बारे में विरोधाभास है, उसके बारे में मैं आपसे बात करना चाहता हूं. जनार्दन द्विवेदी ने हाथ जो़डते हुए कहा कि उत्तर प्रदेश के बारे में, मैं कोई बात नहीं करूंगा. यह कैसा डर था जर्नादन द्विवेदी के मन में. दरअसल यह डर कनिष्क सिंह और उनकी नई टीम ने पैदा किया था. टिकटों के लिए जो शीट आती थी, कनिष्क सिंह के दफ्तर से उसके बारे में न दिग्विजय सिंह को, न परव़ेज हाशमी को, न भक्तचरण दास और न ही मधुसुदन मिस्त्री को पता होता था. भक्तशरण दास और मधुसुदन मिस्त्री स्क्रीनिंग कमेटी के सदस्य होते थे, मोहन प्रकाश के साथ. मोहन प्रकाश को स़िर्फ पता होता था, लेकिन इन दोनों को नहीं पता होता था और उस लिस्ट पर सिवाय हां करने के और कोई भी चारा नहीं होता था. दरअसल, स्क्रीनिंग कमेटी का जनाज़ा खुद मोहन प्रकाश ने निकाल दिया था, क्योंकि वह कनिष्क सिंह, बेनी प्रसाद वर्मा, राज बब्बर, श्रीप्रकाश जायसवाल और सलीम शेरवानी के साथ बैठकर स्क्रीनिंग करते थे. इन सात लोगों का जुंटा चलता था. इस जुंटे ने हद तो तब कर दी, जब बुज़ुर्ग नेता रिज़वी को बेइज्ज़त किया गया. सबसे आखिर में उनका टिकट क्लीयर किया. इसलिए जब चुनाव हो गए तो रशीद मसूद के दिलाए सात टिकटों में स़िर्फ एक जीता. बेनी प्रसाद वर्मा के यहां भी एक जीता. आरपीएन सिंह के यहां दो जीते, जितिन प्रसाद, सलमान खुर्शीद, श्रीप्रकाश जायसवाल और राज बब्बर के इलाक़े में एक भी नहीं जीता.