दावों और वायदों का कारोबार

jab-top-mukabil-ho1एक राजनीतिक अनुमान के हिसाब से मध्यावधि चुनाव भी दूर नहीं है, इसलिए भारतीय जनता पार्टी ने यात्राओं की योजनाएं इस तरह बनाईं कि वह उत्तर प्रदेश में भी सक्रिय हो सके और देश भर में कार्यकर्ताओं के बीच एक संदेश जा सके, पर भाजपा इसमें कितनी सफल हुई है, इसका आकलन तो उसे ही करना होगा. अगर वह ईमानदारी से आकलन करेगी तो पाएगी कि यात्राएं बहुत लाभदायक नहीं रहीं और अगर वह अपने कार्यकर्ताओं में पब्लिसिटी का आधार लेकर कोई संदेश देना चाहेगी तो कह देगी यात्राएं बहुत सफल रहीं. पर शायद ऐसा पहली बार हो रहा है कि आडवाणी जी की यात्रा सारे देश में निकली, चाहे बिहार हो, उत्तर प्रदेश हो, मध्य प्रदेश हो, कर्नाटक हो, लेकिन वह कहीं भी लोगों का ध्यान आकर्षित नहीं कर पाई. बहुत सारी जगहों पर, छोटी जगहों पर, वह समाचारपत्रों में स्थान भी नहीं पा सकी. टेलीविज़न ने भी अब इन यात्राओं को अनदेखा करना शुरू कर दिया है.

अगर यात्राओं में भीड़ जुटती, लोग आकर्षित होते और उन्हें भरोसा होता कि इन यात्राओं से उनकी समस्याएं हल हो सकती हैं या कोई नया राजनीतिक विकल्प मिल सकता है तो मीडिया में इन यात्राओं को स्थान अवश्य मिलता. इसका मतलब यही निकलता है कि लोग राजनीतिक पहल करने से निराश हो गए हैं. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव को लेकर दीपावली के दिन कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह और राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष अजीत सिंह के बीच मुलाकात हुई, जिसमें मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला हुआ. अजीत सिंह समझदार हैं, उन्होंने राजनीतिक प्रासंगिकता की गंभीरता को पहचाना और कांग्रेस भी अपनी घोषित रणनीति से पीछे हटी तथा अकेले चुनाव लड़ने की जगह उसने उत्तर प्रदेश में मिलकर चुनाव लड़ने का नया रास्ता अख्तियार किया. लेकिन क्या कांग्रेस स़िर्फ अजीत सिंह के सहारे उत्तर प्रदेश में कोई कमाल दिखा सकती है? शायद नहीं. इसलिए हो सकता है कि वह आने वाले दिनों में कुछ और राजनीतिक दलों के साथ अपने क़दम मिलाए या उन्हें साथ लेने की कोशिश करे.

उत्तर प्रदेश में जो तीसरे शख्स चुनाव यात्रा पर हैं, वह बाबा रामदेव हैं. उनकी सभाओं में छोटी जगहों पर भी भीड़ हो रही है और अब उनके निजी चैनल में इन यात्राओं को बहुत ही होशियारीपूर्वक दिखाकर उनका प्रचार किया जा रहा है, क्योंकि मीडिया उनकी यात्रा को उस तरह नहीं दिखा रहा है, जिस तरह दिखाना चाहिए. शायद इसलिए, क्योंकि बाबा रामदेव की यात्रा का उद्देश्य कांग्रेस की मु़खाल़िफत और शायद मायावती, भारतीय जनता पार्टी या समाजवादी पार्टी को उसके मुकाबले समर्थन देना है. आख़िर में बाबा रामदेव कह सकते हैं कि उत्तर प्रदेश में लोग, कांग्रेस के मुक़ाबले जो भी उम्मीदवार जीत रहा हो, उसे वोट दें. बाबा रामदेव की बात लोग कितना मानेंगे, नहीं कहा जा सकता, लेकिन अभी भी उनका आकर्षण उनका पुराना योग कार्यक्रम है. बाबा रामदेव की पूछ अभी भी एक अच्छे योग शिक्षक की पूछ है. वह जहां जाते हैं, सवेरे लोग उनसे योगासन सीखने आते हैं और उसी में बाबा रामदेव किसी न किसी व्यक्तित्व को बुलाकर आम लोगों को उसका संबोधन कराते हैं.

उत्तर प्रदेश राजनीतिक युद्ध का ताज़ा मैदान है. मुलायम सिंह यादव की जगह इस चुनाव में अखिलेश यादव का टेस्ट होने वाला है. मुलायम सिंह यादव की थोड़ी तबियत भी ख़राब है और वह लोकसभा चुनाव की रणनीति बना रहे हैं, लेकिन अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश चुनाव को ध्यान में रख ज़्यादातर ज़िलों में घूमने की योजना बनाकर रथ यात्रा पर हैं. अखिलेश की सभाओं की जुटी भीड़ या उनके भाषण अभी भी भारतीय जनता पार्टी के दो नेताओं की सभाओं में जुटी भीड़ और उनके भाषणों के मुकाबले ज़्यादा मायने रखते हैं, पर अखिलेश यादव एक चीज में असफल हो रहे हैं, यह कि वह अभी भी इस चुनाव को जातीय दायरे से बाहर निकाल कर सामाजिक दायरे में नहीं ले जा पाए हैं. समाज के ग़रीब और पिछड़े तबके उनके साथ आएं, यह विश्वास अखिलेश यादव अभी तक पैदा नहीं कर पाए. अखिलेश यादव पूरी कोशिश कर रहे हैं, लेकिन वह कोशिश सफलता की दहलीज़ पर आती है और वापस चली जाती है. अखिलेश यादव को अपने कार्यकर्ताओं में जिस तरह का उत्साह फूंकना चाहिए और बाक़ी दूसरे सामाजिक ग्रुपों के कार्यकर्ताओं को आकर्षित करना चाहिए, उसमें कुछ कमी दिखाई दे रही है, लेकिन इन सबके मुक़ाबले एक महिला है, जो चट्टान की तरह खड़ी है.

मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री हैं और वह यह इंप्रेशन दे रही हैं कि विपक्ष के बिखराव की स्थिति में बसपा ही उत्तर प्रदेश में सबसे बड़े दल के रूप में उभरेगी. हो सकता है, उसकी सीटें कुछ कम हों, लेकिन मायावती मानती हैं कि उनकी सीटें बढ़ेंगी. उनके दल के लोग उत्साहित हैं, उन्हें लगता है कि कोई भी राजनीतिक नेता इतना बड़ा क़द नहीं बना सका, जितना बड़ा कद मायावती का है. देश के विपक्षी दल एक बार मायावती को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार भी घोषित कर चुके हैं. अब मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री हैं और वह लोगों को यह संदेश सफलतापूर्वक दे रही हैं कि उत्तर प्रदेश में उनके मुक़ाबले कोई नहीं है और न कोई होगा. इस संदेश का मुक़ाबला अभी तो कोई विपक्षी नेता नहीं कर पा रहा है. अफवाहें यहां तक फैल रही हैं कि ब्राह्मण समाज मायावती का साथ छोड़ रहा है. सच चुनाव में सामने आएगा, लेकिन मायावती ने एक होशियारी बरती है कि उन्होंने अगर ब्राह्मण समाज के मौजूदा एमएलए का टिकट काटा है तो उसी के परिवार के दूसरे आदमी को वहां से टिकट दे दिया है. उन्होंने ब्राह्मण समाज की दावेदारी को चुनौती नहीं दी है, बल्कि ऐसे लोग, जो ब्राह्मण समाज में दाग़दार साबित हो गए थे और जिनसे लोग नाराज़ थे, उन्हें बदलने की बात उन्होंने कही. यही काम उन्होंने दूसरे समाज के लोगों और दलित समाज के साथ किया. जिसके ऊपर भी उन्होंने कोई शंका देखी, जिसे भी दाग़दार पाया, उसे उन्होंने बदला. यह काम दूसरी पार्टियां नहीं कर पा रही हैं. उन्हें लगता है कि अगर उन्होंने अपने उम्मीदवार बदले तो वे चुनाव में नुक़सान पहुंचाएंगे. जबकि मायावती ऐसा नहीं सोचतीं. इसलिए पहली नज़र में राजनीतिक रणनीति और राजनीतिक समझदारी में मायावती बाक़ी सारे राजनीतिक दलों से आगे हैं.

अन्ना हजारे एक राजनीतिक भूल कर रहे हैं, क्योंकि इस देश के लोग इंसान से रूबरू होकर, नेता से रूबरू होकर उसके विचार सुनना चाहते हैं. जब विचार सुनेंगे तो फैसला लेंगे कि इसमें कितना तथ्य है और कितना नहीं है. अन्ना हजारे उत्तर प्रदेश के लोगों के बीच न जाकर सारे देश में अपने प्रति संदेह भरा अविश्वास पैदा कर रहे हैं. उत्तर प्रदेश में किसका राज होगा, कितने विधायक किस दल के जीतेंगे, यह तो भविष्य के गर्भ में है, पर इतना ज़रूर है कि अभी भी मायावती प्रथम स्थान पर, समाजवादी पार्टी यानी मुलायम सिंह यादव एवं अखिलेश यादव की टीम दूसरे स्थान पर और तीसरे स्थान पर लड़ाई है कांग्रेस-अजीत सिंह और भारतीय जनता पार्टी के बीच.

कौन है मायावती का सलाहकार? कम से कम कोई राजनीतिक व्यक्ति तो नज़र नहीं आता. जो सामने हैं नसीमुद्दीन सिद्दीकी और स्वामी प्रसाद मौर्य, ये सब हाशिए के लोग हैं. अधिकारियों में वह किसकी राय लेती हैं? माना जाता है कि वह शशांक शेखर सिंह की राय लेती हैं, लेकिन फैसला मायावती की समझ का ही होता है. इस स्थिति में उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति में हलचल मच सकती थी या लोग फैसला लेने में समझदारी दिखा सकते थे, अगर अन्ना हजारे भी वहां घूमते, लेकिन वह या तो लोगों का सामना नहीं कर पा रहे हैं या अपनी टीम के ऊपर लगे आरोपों से विचलित हैं या फिर उनकी शारीरिक स्थिति ख़राब है, इसलिए उन्होंने अचानक मौन व्रत की घोषणा कर दी और कहा कि जब तक मौन व्रत चलेगा, मैं कहीं पर भी यात्राओं पर नहीं जाऊंगा. अन्ना हजारे एक राजनीतिक भूल कर रहे हैं, क्योंकि इस देश के लोग इंसान से रूबरू होकर, नेता से रूबरू होकर उसके विचार सुनना चाहते हैं. जब विचार सुनेंगे तो ़फैसला लेंगे कि इसमें कितना तथ्य है और कितना नहीं है. अन्ना हजारे उत्तर प्रदेश के लोगों के बीच न जाकर सारे देश में अपने प्रति संदेह भरा अविश्वास पैदा कर रहे हैं. उत्तर प्रदेश में किसका राज होगा, कितने विधायक किस दल के जीतेंगे, यह तो भविष्य के गर्भ में है, पर इतना ज़रूर है कि अभी भी मायावती प्रथम स्थान पर, समाजवादी पार्टी यानी मुलायम सिंह यादव एवं अखिलेश यादव की टीम दूसरे स्थान पर और तीसरे स्थान पर लड़ाई है कांग्रेस-अजीत सिंह और भारतीय जनता पार्टी के बीच. इन दोनों में से कोई भी तीसरे या चौथे स्थान पर आएगा. पीस पार्टी भी धीरे-धीरे अपना दावा ठोकती जा रही है. उत्तर प्रदेश के अधिकांश उपचुनावों में पीस पार्टी ने दूसरे नंबर पर रहकर अपनी प्रासंगिकता साबित की है. पीस पार्टी किसके साथ जुड़ती है या किसे अपना समर्थन देती है या उसके साथ कितना मुस्लिम वोट जुड़ता है, यह उत्तर प्रदेश के चुनाव का एक बड़ा फैक्टर होगा. पहले कहते थे कि प्रधानमंत्री पद का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है. अब शायद यह इतना सार्थक नहीं रहा. अब प्रधानमंत्री पद का रास्ता सारे देश से होकर जाता है, ऐसा कह सकते हैं, पर इसके बावजूद उत्तर प्रदेश महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है, लेकिन वह यह भूमिका निभाए तो कैसे निभाए? उत्तर प्रदेश में राजनीतिक समझदारी का अभाव है, राजनीतिक पहल का अभाव है और विकास के लिए राजनीतिक कल्पनाशीलता का अभाव है. यही उसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी दिखाई दे रही है.

ज़रूरत इस बात की है कि उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री पद का दावा करने वाले लोग कुछ तो ऐसा कहें, जिससे लोगों को लगे कि यह आदमी या यह महिला बाकियों से बेहतर है, पर अभी तो दावों और वायदों का कारोबार हो रहा है और इन दावों और वायदों के कारोबार में क्रम वही है यानी मायावती प्रथम स्थान पर, मुलायम सिंह दूसरे स्थान पर, तीसरे और चौथे स्थान के लिए कांग्रेस, अजीत सिंह और भाजपा के बीच लड़ाई और इन सबके बीच पीस पार्टी. देखना मज़ेदार होगा कि उत्तर प्रदेश के लोगों को उनके विकास के लिए समर्पित कोई पार्टी या सरकार इस चुनाव में मिल पाएगी या नहीं.


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