इतिहास करवट लेने जा रहा है और जब इतिहास करवट लेने वाला होता है तो इसके संकेत वह पहले से दे देता है. पांच विधानसभा चुनावों के परिणाम हमारे सामने हैं, जो किसी की जीत या किसी की हार से बड़ा संकेत हमें दे रहे हैं. हम इससे सीख लें या न लें, यह हम पर निर्भर करता है. पर अगर हम सीख लेना चाहें तो वह बिल्कुल साफ़ और स्पष्ट है कि इतिहास करवट लेने वाला है. भारत के मतदाताओं, जिनमें असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी के लोग शामिल हैं, ने प्रतिनिधिक निर्णय दिया है. यह प्रतिनिधिक निर्णय बताता है कि बहुत सारे मुद्दे जिन्हें हमने मान लिया था कि वे अब मुद्दे नहीं हैं, दरअसल वे मुद्दे हैं. हम भले ही कहें, इन चुनावों से पहले लोग कहते थे, जिस तरह के सर्वे आए थे और ख़ासकर हमारे साथी मीडिया के लोग कहते थे कि भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है और तमिलनाडु में बराबर की लड़ाई होगी. हो सकता है कि करुणानिधि की सरकार बन जाए या हो सकता है कि जयललिता की सरकार बने, पर जयललिता की सरकार बनेगी तो बहुत थोड़े मतों से बनेगी. मतदाताओं ने इस धारणा को ख़त्म कर दिया कि भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है. उन्होंने साफ़ कर दिया कि भ्रष्टाचार एक मुद्दा है. इन चुनावों ने साबित कर दिया कि अब यह संभव नहीं है कि राजनीतिक पार्टियां चुनाव में अपने दावे करें, ज़्यादा पैसा ख़र्च करें, पैसा बांटे, मीडिया को ख़रीदें, फ़र्ज़ी सर्वे रिपोर्ट छपवाएं और यह आशा करें कि लोग उन्हें वोट दे देंगे. परफार्मेंस ज़रूरी है. निगेटिव वोटिंग की जगह पॉजिटिव वोटिंग भी होती है. पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में पॉजिटिव वोटिंग हुई. असम में फ्रैक्चर्ड पॉजिटिव वोटिंग हुई. इसी तरह पुडुचेरी में पॉजिटिव वोटिंग हुई. मतदाता परिपक्व हो गया है, उसने एक झटके में सभी को सीख दी और बहुत सारी ग़लतफ़हमियां भी दूर कीं.
देश का अगला आम चुनाव न कांग्रेस के लिए आसान होगा और न भाजपा के लिए. कांग्रेस आगे बढ़ नहीं रही है, उसमें उत्साह नहीं पैदा हो रहा है. दूसरी तऱफ भारतीय जनता पार्टी सिकुड़ रही है, विपक्ष का रोल नहीं निभा पा रही है और भरोसा नहीं जगा पा रही है कि वह लोगों की समस्याओं, चिंताओं और दर्द के निदान के लिए आंदोलन करेगी. अभी 2014 थोड़ी दूर है, तब तक हो सकता है कि इन चुनावों के संकेतों को समझ कर कोई नया समूह तैयार हो, जिसे देश के लोगों का समर्थन मिल सके.
कांग्रेस पार्टी को मतदाताओं ने यह सीख दी कि अगर वह भ्रष्टाचार के साथ खड़ी दिखाई देती है और परफार्मेंस नहीं करती है तो इससे सारे देश में नुक़सान होने वाला है. देश में संदेश गया कि करुणानिधि की पार्टी के भ्रष्टाचार के साथ कांग्रेस खड़ी है. क्या कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस सरकार अलग है? अगर अलग है तो इसका सरकार पर कोई नियंत्रण नहीं है और अगर पार्टी और सरकार एक है तो फिर इस पार्टी का ख़ुदा ही मालिक है. जब राजा को हटाना चाहिए था तब नहीं हटाया, जब राजा पर मुक़दमा चलाना चाहिए था, तब नहीं चलाया. जब राजा को हटाया तो इसका श्रेय सरकार को न जाकर सीबीआई को मिला. कांग्रेस ने बंगाल में लगातार ग़लती की और हालत यह हुई कि कांग्रेस आधी से ज़्यादा सीटें हार गई. ममता बनर्जी के ख़िलाफ़ राहुल गांधी ने बंगाल में जाकर बयानबाज़ी की. हालांकि वह संभल गए और बाद में इन बयानों से ख़ुद को दूर कर लिया. वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी का कहना है कि वे सीटें कांग्रेस इसलिए हारी, क्योंकि वहां उसने उन उम्मीदवारों को खड़ा किया, जो ममता के साथ गठबंधन का विरोध कर रहे थे.
कांग्रेस पार्टी आंध्र में भी चुनाव हारी. दोनों जगह उसके फ़ैसले ग़लत साबित हुए. देश के पैमाने पर मोटे तौर पर यह लगा कि कांग्रेस पार्टी उन विषयों के प्रति गंभीर नहीं है, जिनका रिश्ता इस देश की जनता के मर्म, दर्द और तकलीफ़ से है. असम में कांग्रेस जीती, लेकिन मनमोहन सिंह या सोनिया की कांग्रेस नहीं जीती. वहां कांग्रेस जीती तरुण गोगोई के काम, दिग्विजय सिंह की रणनीति और परवेज़ हाशमी की मुसलमानों के बीच की गई कोशिशों की वजह से. चुनाव परिणामों से बहुत पहले दिग्विजय सिंह ने कह दिया था कि असम में कांग्रेस जीतने वाली है, क्योंकि वहां विपक्ष बंटा हुआ है. दिग्विजय सिंह का यह राजनीतिक आकलन बहुत सही था. उन्होंने होशियारी के साथ यह आकलन तब किया, जब वहां आख़िरी दौर का मतदान समाप्त हो गया. अगर वह यही बात पहले कह देते तो शायद विपक्ष वहां एक होने की कोशिश करता. एक होने के बाद भी शायद कुछ संभव नहीं हो पाता, क्योंकि उन सभी के हित अलग-अलग थे. कांग्रेस इस सरकार के बनने से ख़ुश हो सकती है, केरल में अपनी सरकार बनने से ख़ुश हो सकती है, लेकिन यह देखना होगा कि कितनी सीटों से उसने अपनी सरकार बनाई है. अगर केरल के वामपंथियों, ख़ासकर मॉर्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में अंतर्कलह नहीं होती और वह जी-जान से चुनाव लड़ती तो कांग्रेस के लिए वहां सरकार बनाना मुश्किल हो जाता. इसमें कोई दो राय नहीं है कि केरल का एक चरित्र बन गया है कि वहां की जनता सरकार बनाने वाली पार्टियों को हर पांच साल में बदल देती है.
सोनिया गांधी के लिए सोचने का वक़्त है कि वह कैसे कांग्रेस पार्टी को सक्रिय करें. अगर वह कांग्रेस को सक्रिय नहीं कर पातीं, अपने सांसदों को प्रेरित नहीं कर पातीं कि वे चुनाव क्षेत्रों में जाएं और पार्टी की जीत के लिए जी-जान लगाएं तो उन्हें कम से कम गुजरात और उत्तर प्रदेश में वैसी ही हार का सामना करना पड़ेगा, जैसे इस बार तमिलनाडु या बंगाल में करना पड़ा है. सोनिया गांधी समझदार हैं. जो उनसे मिलने जाता है, उनकी समझदारी की दाद देता हुआ वापस लौटता है, पर विडंबना यह है कि सोनिया गांधी उन बातों, जिन्हें आम आदमी समझता है, जिन्हें पार्टी का साधारण कार्यकर्ता समझता है, को समझ कर भी पार्टी चला नहीं पातीं. यह यक्ष प्रश्न है, जिसका उत्तर अगर कहीं है तो स़िर्फ सोनिया गांधी के पास. कांग्रेस के नेताओं के पास भी इसका उत्तर नहीं है. जिन नेताओं से हम बात करते हैं, वे भी आश्चर्यचकित रहते हैं. पर कांग्रेस इस मामले में ज़्यादा अनुशासित है कि उसके नेता बंद कमरों में एक-दूसरे का विरोध करते हैं, ताकि जनता के सामने उनके मतभेद न आने पाएं. लेकिन कांग्रेस कितनी सीख लेगी, पता नहीं. उसने सीख न लेने की कसम खाई है. उसके सांसद घरों में, दिल्ली में या विदेशों में आराम फरमाते रहते हैं. कांग्रेस के पास ऐसी कोई योजना नहीं है कि वह अपने सांसदों को उत्तर प्रदेश में आने वाले चुनावों में उतारे या उन प्रदेशों में साल भर पहले उनकी ड्यूटी लगा सके, जहां चुनाव होने वाले हैं. कांग्रेस के पास सांसदों की अच्छी-खासी संख्या है, लेकिन कोई रोड मैप नहीं है, इच्छाशक्ति नहीं है कि वह अकेले सरकार बनाने की योजना बना सके.
पुडुचेरी और आंध्र प्रदेश में कांग्रेस ने जो फैसला लिया, वह ग़लत साबित हुआ. कांग्रेस के नेताओं को यह पता था कि उनका फैसला ग़लत है, लेकिन उनमें ग़लत फैसला लेने के बाद उसे सुधारने की कोई परंपरा है नहीं. इंदिरा जी के बाद यह परंपरा खत्म हो गई. अगर नेता अपने ग़लत फैसले को सुधार ले तो वह महान नेता कहलाता है. कांग्रेस में इस समय कोई महान नेता नहीं है, स़िर्फ नेता हैं और उन्हें पांच राज्यों में हुए चुनाव से सबक लेना चाहिए.
भारतीय जनता पार्टी इन पांच राज्यों के चुनाव में कांग्रेस की खराब हालत पर बहुत ख़ुश है. एक तऱफ जहां कांग्रेस ख़ुश है कि वह ममता के साथ बंगाल में अपने को हारा हुआ नहीं मान रही है, असम और केरल में उसने सरकार बना ली. वह तमिलनाडु को याद नहीं करना चाहती. भारतीय जनता पार्टी इससे बिल्कुल उलट अपनी हार को देखना ही नहीं चाहती. उसके अध्यक्ष नितिन गडकरी एक अक्षम अध्यक्ष के रूप में सामने आए हैं. न तो वह पार्टी को उत्साहित कर सके, न कार्यकर्ताओं में जोश भर सके, न गुटबाज़ी दूर कर सके और न खुद को एक ऊर्जावान, उत्साही, विवेकशील अध्यक्ष के रूप में स्थापित कर सके. नतीजे के तौर पर पार्टी के वरिष्ठ नेताओं, चाहे आडवाणी जी हों, चाहे सुषमा जी हों, अरुण जेटली हों, राजनाथ सिंह हों, मुरली मनोहर जोशी हों, किसी को भी वह संगठन के काम में लगने के लिए प्रेरित नहीं कर सके. नितिन गडकरी जसवंत सिंह जैसे लोगों को पार्टी में ले तो आए, लेकिन उनका इस्तेमाल नहीं कर सके. अब वह कोशिश कर रहे हैं कि उमा भारती को पार्टी में ले आएं, लेकिन उमा भारती को मध्य प्रदेश नहीं जाने देंगे. उन्हें यदि पार्टी में आना है तो उत्तर प्रदेश में काम करना होगा. ऐसा लगता है, जैसे उत्तर प्रदेश में भाजपा के पास ऐसा कोई नेता नहीं बचा है, जो वहां पार्टी को पुनर्जीवित कर सके. यह पहला उदाहरण होगा,जिसमें कोई राजनीतिक पार्टी अपने वरिष्ठ नेता को आईएएस अफसरों की तरह एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में स्थानांतरित करेगी. यह नितिन गडकरी की सोच का दिवालियापन है. भारतीय जनता पार्टी मूर्छित अवस्था में जाती दिख रही है. इन चुनावों में इसका जैसा हाल हुआ है, उससे डर इस बात का है कि लोकसभा में अब इसकी बात में कोई दम रहेगा या नहीं. इन पांच प्रदेशों में भारतीय जनता पार्टी के पास पहले जितनी सीटें थीं, इनमें एक भी सीट का इज़ा़फा नहीं हुआ, बल्कि आधे से ज़्यादा सीटों का नुक़सान हुआ है. असम इसका उदाहरण है. सवाल सीटों का नहीं है, पार्टी को मुखर बनाने का है, पार्टी में ऊर्जा भरने का है, हारने के बावजूद पार्टी में लड़ाई लड़ने की क्षमता विकसित करने का है. नितिन गडकरी पार्टी के अध्यक्ष होने के नाते इनमें से कुछ नहीं कर सके.
मुझे पूरा विश्वास है कि वह अपने पद से इस्ती़फा नहीं देंगे और वह इस हार को अपनी हार के रूप में नहीं लेंगे. भारतीय जनता पार्टी से कोई सहमत हो या न हो, लेकिन उसका विपक्ष का रोल सक्षमता से कैसे निभे, इसमें हर उस आदमी की रुचि होगी, जिसका लोकतंत्र पर विश्वास है. ज़रूरत इस बात की है कि पार्टी को एक ऐसा अध्यक्ष मिले जो पूरे संगठन में नए सिरे से ऊर्जा भर सके. आज ऐसे दो लोग हो सकते हैं, लालकृष्ण आडवाणी जी, जिन्हें अध्यक्ष के रूप में पार्टी का पूरा संचालन सौंपा जाए और आज़ादी दी जाए कि वह किस तरह का दिशानिर्देश या दिशा लोकसभा और राज्यसभा के लिए तय करना चाहते हैं, ताकि भारतीय जनता पार्टी विपक्ष के रूप में अपना रोल निभा सके. दूसरा नाम जसवंत सिंह का है. जसवंत सिंह को शायद आज भी पता नहीं होगा कि उन्हें क्यों पार्टी से निकाल दिया गया, यह भी पता नहीं होगा कि उन्हें पार्टी में पुनः क्यों लिया गया. लेकिन अब जबकि वह पुनः पार्टी में ले लिए गए हैं और अगर आडवाणी जी पार्टी का संचालन स्वीकार नहीं करते हैं तो जसवंत सिंह दूसरे ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्हें अध्यक्ष के रूप में पार्टी का संचालन दिया जा सकता है. उनकी छवि एक उदारवादी नेता की छवि है, जिनमें अटल बिहारी वाजपेयी की झलक दिखती है. भारतीय जनता पार्टी का सक्रिय होना लोकतंत्र के लिए भी बहुत ज़रूरी है.
संपूर्ण वामपंथ अपनी राजनीति और बुनियादी उद्देश्यों से भटक गया है. उसकी पहचान केरल से नहीं, बंगाल से मानी जाती है. 34 साल का शासन और उसके बाद ऐसी विदाई! आज वामपंथ के सामने चुनौती है. वामपंथी अगर अपने बुनियादी उद्देश्यों को लेकर संघर्ष के रास्ते पर उतरते हैं और ग़रीबों के संघर्ष को उठाते हैं, लेकिन ग़रीबों का मतलब स़िर्फ मज़दूरों का संघर्ष नहीं, किसानों, दलितों और अल्पसंख्यकों का संघर्ष भी इसमें शामिल है, तब शायद वामपंथ खुद को पुनर्जीवित कर सके. बिहार में कभी वामपंथियों की थोड़ी सी पकड़ थी, इसके अलावा हिंदी क्षेत्र में कभी भी वामपंथियों की पकड़ नहीं रही. अब वामपंथी केरल और बंगाल से भी उखड़ गए हैं. केरल में अगली बार उनका सत्ता में आना इस पर निर्भर करेगा कि अच्युतानंदन जी की जगह नया नेता कौन होगा. बंगाल में मॉर्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के पास इस समय कोई नेता नहीं है. भूतपूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने पिछले विधानसभा चुनाव से पहले ज्योति बसु की सलाह नहीं मानी. ज्योति बसु को वी पी सिंह ने सलाह दी थी कि बंगाल में मुसलमानों से पिछले 34 सालों में किए गए वादों को अगर पूरा नहीं किया गया तो आपका सत्ता में वापस आना मुश्किल है. बुद्धदेव ने ज्योति बसु को आश्वासन दिया था कि वह उन वादों को पूरा करेंगे. विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपील की और मुसलमानों ने पिछले चुनाव में वामपंथियों का साथ दिया, लेकिन बुद्धदेव ने उन वादों को पूरा नहीं किया. इसका परिणाम इस चुनाव में निकला. संपूर्ण अल्पसंख्यक समुदाय, बंगाल में अल्पसंख्यक समुदाय से मतलब मुस्लिम समाज से है, वामपंथ से एकबारगी कटकर तृणमूल कांग्रेस के साथ जुड़ गया. वामपंथी अपनी आलोचना करेंगे, आत्मावलोकन करेंगे, लेकिन असली जगह नहीं पहुंच पाएंगे. चुनाव से एक साल पहले कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव ए वी वर्धन से मेरी बात हुई. वर्धन साहब इस राय से सहमत थे. चुनाव के चार महीने पहले मॉर्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात से मेरी बातचीत हुई, वह भी इस बात से सहमत थे, लेकिन उन्होंने बंगाल में अपनी ग़लतियां सुधारने की कोशिश नहीं की. हो सकता है कोशिश की हो और बुद्धदेव भट्टाचार्य ने न मानी हो. अंत में परिणाम निकला वामपंथियों की संपूर्ण सफाई. वामपंथियों के सामने अब एक अंतिम अवसर है. अगर वे जनता का संघर्ष लेकर खड़े रहेंगे तो उनकी प्रासंगिकता बची रहेगी, अन्यथा वह भी समाप्त होने का डर पैदा हो गया है.
करुणानिधि का साथ देकर कांग्रेस ने अपने लिए कांटे बो दिए हैं. इसमें कोई दो राय नहीं है कि उसने भ्रष्टाचार के आरोप लगने पर अपने मुख्यमंत्री, सांसद और सहयोगी दल के मंत्री के खिला़फ कार्रवाई की. सांसद सुरेश कलमाडी पर कार्रवाई तब हुई, जब उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, तब उन्हें पार्टी से निकाला गया. सारी कार्रवाई व़क्त निकल जाने के बाद की गई. हमारे यहां कहावत है कि अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत. कांग्रेस, खासकर सोनिया गांधी को ऐसा प्रभावी नेतृत्व देश को दिखाना होगा, जिसकी बात सरकार और पूरी पार्टी माने. अन्यथा कांग्रेस के लिए उत्तर प्रदेश का चुनाव जीतना तो दूर की चीज, लोकसभा चुनाव में भी इतने सांसद जुटाने मुश्किल हो जाएंगे, जो सरकार या गठबंधन की सरकार बनाने के लिए ज़रूरी होते हैं.
तमिलनाडु, पुडुचेरी और आंध्र के संकेत क्या हैं? जयललिता भी बहुत ईमानदार नहीं हैं. पिछली बार भ्रष्टाचार के आरोप में ही जनता ने उनके खिला़फ करुणानिधि को वोट दिया था, लेकिन करुणानिधि के परिवार, सहयोगियों, उनकी बेटी के सहयोग से ए राजा ने जिस तरह तमिलनाडु और सारे देश में लूट मचाई, उसने जनता को संशय में डाल दिया. करुणानिधि की हार या जीत का इंतजार सारे देश को था. अगर उनकी पराजय पांच या दस सीट से होती तो यह देश के लोगों के लिए चिंता की बात होती, क्योंकि इससे यह संदेश मिलता कि भ्रष्टाचार अब देश में चिंता का विषय नहीं रहा, लेकिन तमिलनाडु के लोगों ने ऐसा फैसला लिया, जैसा देश के लोग उम्मीद कर रहे थे. देश के लोग चाहते थे कि करुणानिधि बुरी तरह हारें, क्योंकि उनकी पार्टी और उनके रिश्तेदारों का भ्रष्टाचार जयललिता के भ्रष्टाचार से हज़ार गुना बड़ा था. तमिलनाडु के लोगों ने एक सच्चे हिंदुस्तानी मतदाता होने का कर्तव्य निभाया. हिंदुस्तान में जब मतदाता को मौक़ा मिलता है, वह अपना कर्तव्य निभाता है. यही कर्तव्य मतदाता ने बंगाल में निभाया. वहां पिछले 34 सालों में पहली बार लोगों ने आज़ादी से वोट डाले. ममता बनर्जी की छवि, उनका लड़ाकू चेहरा, लोगों को दिए आश्वासन, वामपंथ से निराशा और ममता के प्रति आशा जैसे कई सवाल थे. लेकिन जब आप वोट ही न डाल पाएं तो ये सवाल स़िर्फ दिमाग़ मे बने रह जाते हैं. बंगाल में चुनाव आयोग की भूमिका महत्वपूर्ण रही. बंगाल से मेरे दोस्तों ने मुझे फोन करके बताया कि पिछले 30-35 सालों में पहली बार लोगों ने अपनी मर्जी से अपने उम्मीदवारों को वोट दिए. जब लोगों ने वोट डाले तो ऐसा बदला लिया, जो इतिहास में एक नया पन्ना जोड़ गया.
पुडुचेरी और आंध्र प्रदेश में कांग्रेस ने जो फैसला लिया, वह ग़लत साबित हुआ. कांग्रेस के नेताओं को यह पता था कि उनका फैसला ग़लत है, लेकिन उनमें ग़लत फैसला लेने के बाद उसे सुधारने की कोई परंपरा है नहीं. इंदिरा जी के बाद यह परंपरा खत्म हो गई. अगर नेता अपने ग़लत फैसले को सुधार ले तो वह महान नेता कहलाता है. कांग्रेस में इस समय कोई महान नेता नहीं है, स़िर्फ नेता हैं और उन्हें पांच राज्यों में हुए चुनाव से सबक लेना चाहिए. ममता बनर्जी को बंगाल के लोगों ने जिताया, चुनाव आयोग ने भी रास्ता सा़फ किया. अब ममता की बारी है. उनके पास स़िर्फ छह महीने का व़क्त है. डॉ. लोहिया कहा करते थे कि जो सरकार छह महीने के भीतर आगे किए जाने वाले कामों की नींव न डाल सके और अपना रोडमैप जनता के सामने न रख सके, वह बचे हुए साढ़े चार सालों में भी कुछ नहीं कर सकती, सिवाय जनता को निराशा देने के. बंगाल में इन्हीं छह महीनों में तय होगा कि ममता बनर्जी एक सफल मुख्यमंत्री के रूप में अपना कार्यकाल तय करेंगी या ऐसे मुख्यमंत्री के रूप में अपना कार्यकाल पूरा करेंगी, जिससे लोगों ने आशा तो बहुत लगाई थी, लेकिन हाथ लगी स़िर्फ निराशा.
देश का अगला आम चुनाव न कांग्रेस के लिए आसान होगा और न भाजपा के लिए. कांग्रेस आगे बढ़ नहीं रही है, उसमें उत्साह नहीं पैदा हो रहा है. दूसरी तऱफ भारतीय जनता पार्टी अपने अध्यक्ष के करिश्मे की वजह से लगातार सिकुड़ती जा रही है. राहुल गांधी 2014 में प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं. कांग्रेस के लोगों का कहना है कि 2014 में अपने दम पर 200 से ज़्यादा सांसद जिताकर राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनेंगे, लेकिन मुझे लगता है कि 2014 राहुल के लिए बहुत टेढ़ी खीर साबित होने वाला है. अंगूर खट्टे हैं वाली कहावत कहीं सही न हो जाए. दूसरी तऱफ भारतीय जनता पार्टी सिकुड़ रही है, विपक्ष का रोल नहीं निभा पा रही है और भरोसा नहीं जगा पा रही है कि वह लोगों की समस्याओं, चिंताओं और दर्द के निदान के लिए आंदोलन करेगी. उसी तरह एनडीए, जिसके साथ पार्टियां जुड़ी थीं और जिसकी वजह से अटल जी की सरकार चली, वह भी निष्क्रिय हो गया है. शायद इसलिए कि शरद यादव की कोशिशों पर भारतीय जनता पार्टी रोक लगा रही है और शरद यादव को लगता होगा कि जब व़क्त आएगा तो देखेंगे कि क्या स्वरूप होगा. इसमें कोई दो राय नहीं है कि शरद यादव के दिमाग़ में कोई राजनीतिक नक्शा होगा, जिसकी वजह से वह एनडीए को निष्क्रिय किए हुए हैं. कुल मिलाकर ये चुनाव पार्टियों के लिए निराशाजनक हैं, खतरे का संकेत हैं. ये उन्हें संभलने, चेतने और अपनी कार्य प्रणाली सुधारने की चेतावनी देते हैं. वहीं दूसरी ओर देश के लोगों के लिए ये चुनाव आशा की किरण हैं. आशा की किरण इसलिए कि कोई ऐसा समूह, व्यक्ति, सपना और वादा अगर सामने आता है, जिसमें लोगों को अपनी समस्याओं का समाधान निकलता दिखे तो लोग उसके साथ ज़रूर खड़े होंगे. अब यह समूह या व्यक्ति कौन होगा, अभी नहीं पता. अभी 2014 थोड़ी दूर है, तब तक हो सकता है कि इन चुनावों के संकेतों को समझ कर कोई नया समूह तैयार हो, जिसे देश के लोगों का समर्थन मिल सके.