पिछले सालों में भारत में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सबसे मशहूर रहे कांड का नाम बोफोर्स कांड है. इस कांड ने राजीव गांधी सरकार को दोबारा सत्ता में नहीं आने दिया. वी. पी. सिंह की सरकार इस केस को जल्दी नहीं सुलझा पाई और लोगों को लगा कि उन्होंने चुनाव में बोफोर्स का नाम केवल जीतने के लिए लिया था. कांग्रेस ने इस स्थिति का फायदा उठाया और देश से कहा बोफोर्स कुछ था ही नहीं. यदि होता तो वी. पी. की सिंह सरकार उसे जनता के समक्ष अवश्य लाती. सी. बी. आई. की फाइलों में इस केस का नंबर है-आर.सी. 1(ए)/90 ए.सी.यू.-आई.वी.एस.पी.ई.,सी.बी.आई., नई दिल्ली. सी.बी.आई. ने 22.01.1990 को इस केस को दर्ज किया था, ताकि वह इसकी जांच कर सच्चाई का पता लगा सके.
इस केस को दर्ज करने के लिए सी.बी.आई. के आधार सूत्र थे- कुछ तथ्य परिस्थितिजन्य साक्ष्य, मीडिया, रिपोट्र्स, स्वीडिश नेशनल ब्यूरो के ऑडिट रिपोर्ट, ज्वाइंट पार्लियामेंटरी कमेटी की रिपोर्ट में आए कुछ तथ्य और कंट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल ऑफ इंडिया की रिपोर्ट. यद्यपि 1987 के बाद से ही देश में बोफोर्स सौदे को लेकर काफी बहसें और शंकाएं खड़ीं कर दी गईं थीं और इस सवाल को राजनीतिक सवाल भी बना दिया गया था. मामला इतना गंभीर बन गया था कि संसद को संयुक्त संसदीय समिति बनानी पड़ी. लेकिन सरकार ने अपनी जांच एजेंसी को इसकी जांच नहीं सौंपी. जब 1989 में सरकार बदली तब यह निर्णय हुआ कि इसकी जांच कराई जाए, तभी सी.बी.आई. ने इसकी एफ.आई.आर. लिखी.
सी.बी.आई. ने जब उपरोक्त रिपोर्ट का अध्ययन किया, तब उसे लगा कि सन 1982 से 1987 के बीच कुछ पब्लिक सर्वेंट्स ने (हिंदी में इन्हें लोक सेवक कहते हैं, पर हम पब्लिक सर्वेंट्स लिखेंगे) कुछ खास असरदार व्यक्तियों के साथ मिलकर आपराधिक षड्यंत्र किया और रिश्वत लेने और देने का अपराध किया है. ये व्यक्ति देश व विदेश से संबंध रखते थे. सी.बी.आई. ने यह भी नतीजा निकाला कि ये सारे लोग धोखाधड़ी, चीटिंग और फोर्जरी के भी अपराधी हैं. यह सब उसी कांट्रैक्ट के सिलसिले में हुआ, जो 24.3.1986 को भारत सरकार और स्वीडन की कंपनी ए.बी. बोफोर्स के बीच संपन्न हुआ था.
एक निश्चित प्रतिशत धनराशि बोफोर्स कंपनी द्वारा रहस्यमय ढंग से स्विट्जरलैंड के पब्लिक बैंक अकाउंट्स में जमा कराई गई और भारत सरकार के पब्लिक सर्वेंट्स को और उनके नामांकित लोगों को दी गई, जबकि भारत सरकार ने सभी आवेदनकर्ताओं को सूचित कर दिया था कि इस सौदे में कोई बिचौलिया नहीं रहेगा.
भारत सरकार अच्छी तोपें खरीदना चाहती थी, ताकि वह सीमाओं को और सुरक्षित कर सके. उसने जब इसके लिए अच्छी तकनीक की तलाश की तो तीन देश सामने आए – फ्रांस, आस्ट्रिया, और स्वीडन. इसमें भी अंत में फ्रांस और स्वीडन ही रह गए क्योंकि स्वीडन और आस्ट्रिया ने मिलकर एक ग्रुप-सा बना लिया था. स्वीडन की कंपनी ने आस्ट्रिया की कंपनी को आश्वासन दिया था कि तोप वे देंगे और गोला-बारूद आस्ट्रिया देगा. आस्ट्रिया इस आश्वासन के बाद पीछे हट गया और स्वीडन की बोफोर्स कंपनी फ्रांस की सोफमा कंपनी के मुकाबले में बची रह गई.
जांच में सी.बी.आई. के सामने यह बात आई कि ए.बी.बोफोर्स कंपनी ने यह सौदा भारत में कुछ पब्लिक सर्वेंट्स के साथ मिलकर आपराधिक षड्यंत्र करके हासिल किया है, ये सभी निर्णय लेने की प्रक्रिया के जिम्मेदार व्यक्ति थे जबकि इन्हें मालूम था कि ये जिस गन सिस्टम (तोप) के पक्ष में निर्णय दे रहे हैं, वह दूसरी गन सिस्टम के मुकाबले तकनीकी रूप से कमजोर है.
अचानक बोफोर्स की कहानी फिर हिंदुस्तान की राजनीति में बहस का विषय बन गई. पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव हो रहे हैं, वोट डाले जा रहे हैं, दो दौर के मतदान हो चुके थे, अचानक एक अख़बार में ख़बर छपी कि इंटरपोल ने क्वात्रोची के खिलाफ, सीबीआई की सलाह पर रेड कार्नर वापस ले लिया है. यह ख़बर उन लोगों ने लीक नहीं की जो कांग्रेस के राजनीतिक विरोधी हैं, बल्कि उन्होंने लीक की जो कांग्रेस के ही बनाए हुए हैं. सवाल खड़ा होता है कि क्यों यह ख़बर चुनाव के अंतिम दिनों में सामने आई या उसे रोके रखने की कोशिश नहीं की गई? क्या इसे सोनिया गांधी, या प्रधानमंत्री कार्यालय के इशारे पर लीक किया गया या इस फैसले को लेने के पीछे भी इन दोनों का हाथ था? किसने सीबीआई से कहा कि वह इंटरपोल को रेड कार्नर नोटिस वापस लेने के लिए कहे? क्वात्रोची तो वैसे ही सीबीआई के हाथ नहीं आ रहा था और न वह सरकार की प्राथमिकता पर था, तब क्यों बैठे बिठाए बोफोर्स दलाली के केस को खोल दिया गया?
कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज, सालिसिटर जनरल मिलन बनर्जी इस सारी कहानी के मुख्य पात्र हैं जिन्होंने अपनी ओर से पहल की और सीबीआई को राय दी कि, वह रेड कार्नर नोटिस वापस लेने के लिए इंटरपोल को कहे. राजनीतिक क्षेत्रोें में अंदाज़ा लगाया जाने लगा है कि कांग्रेस अपनी स्थिति को लेकर थोड़ी आशंकित है, जबकि बात इससे उलटी है. कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज गांधी परिवार के खास हैं. वह छह बार राज्यसभा में आए, लगातार कांग्रेस सरकार में मंत्री रहे और उन्होंने एक बार भी चुनाव नहीं लड़ा. उन्हें लगा कि जुआ क्यों खेलें, उन्होंने मिलन बनर्जी से बातचीत की. ज़ाहिर है, सालिसिटर जनरल और कानून मंत्री बात करेंगे ही, जब कानून मंत्री की राय होगी तो वह सालिसिटर जनरल के लिए दिशा-निर्देश का काम करेगी. कब सीबीआर्ई ने इंटरपोल को लिखा और कब नोटिस वापस हुआ, इस पर कई राय हैं. लेकिन ख़बर सामने आने का वक्त ऐसा रहा जो कांग्रेस को परेशानी में डाल गया. अब इस केस पर सितंबर में सुनवाई होगी और अदालत फैसला लेगी कि करना क्या है, पर इंटरपोल अदालत के फैसले से नहीं, सीबीआई के फैसले से प्रभावित होती है. आइए, आपको इस पूरे कांड से परिचित कराते हैं जिसने पूरे भारत की राजनीति में भूचाल ला दिया था.
फरवरी 1990 में भारत सरकार ने इस कांड की संपूर्ण जांच का अनुरोध स्विस अधिकारियों से किया. इसके लिए भारत सरकार ने स्विस अधिकारियों को लेटर रोगेटरी भेजा, जिसे दिल्ली की विशेष अदालत ने जारी किया. इसमें यह मांग की गई कि स्विस अधिकारी यह बताएं कि ए.बी.बोफोर्स ने ए.ई.सर्विसेज को कब और कितना पैसा दिया है.
जांच में यह भी पता चला कि ए.बी. बोफोर्स ने ओट्टावियो क्वात्रोची के अलावा कुछ और लोगों के साथ भी सांठ-गांठ कर ए.ई.सर्विसेज को अपना एक एजेंट बना दिया है, जिसका एग्रीमेंट उसने 15.11.1985 को किया ताकि उसे कांट्रैक्ट मिल सके. जबकि भारत सरकार की नीति थी कि कोई बिचौलिया नहीं रहेगा. क्वात्रोची इस एग्रीमेंट को करने वाले मुख्य व्यक्ति के रूप में सामने आए. ए.बी. बोफोर्स ने उन्हें 73,43,941 अमरीकी डॉलर दिए, जो उनके उस अमरीकी अकाउंट में जमा किए गए जो केवल इसी काम के लिए खोला गया था. जमा कराने की तारीख 8.9.1986 थी.
स्विस अधिकारियों ने लेटर रोगेटरी के एक हिस्से पर कार्रवाई की और भारत सरकार को आधिकारिक जानकारी दी जिसके मुताबिक ए.ई.सर्विसेज के अकाउंट में जो रकम बोफोर्स कंपनी ने जमा कराई थी, वह फिर आगे जाकर ट्रांसफर की गई. आठ दिन के अंतराल के बाद इस रकम में से 71,23,900 अमरीकी डॉलर दो किस्तों में स्विट्जरलैंड के एक बैंक में ट्रांसफर किए गए. तारीख 16.9.1986 को 7,00,000 डॉलर और तारीख 29.9.1986 को 1,23,900 डॉलर ट्रांसफर हुए. यह सारी रकम जेनेवा में यूनियन बैंक ऑफ स्विट्जरलैंड में खोले गए मै. कोलंबर इन्वैस्टमेंट लिमि. इंक नाम की कंपनी के खाते में जमा हुई. इस अकाउंट को ऑपरेट और कंट्रोल करने का अधिकार ओट्टावियो क्वात्रोची और उसकी पत्नी को था.
जब ये अकाउंट खोले गए तब ओट्टावियो क्वात्रोची दिल्ली में काम करता था और इटालियन कंपनी स्नैम प्रोगेत्ती के रीजनल डायरेक्टर के पद पर तैनात था. वह दिल्ली में कहता था, पर उसने खाते खोलते हुए जो पता लिखाया वह पता कहीं था ही नहीं.
इस रकम को ओट्टावियो क्वात्रोची के निर्देश पर फिर ट्रांसफर किया गया. मै. वेटेल्सेन ओवरसीज, एस.ए. ऑफ पनामा के अकाउंट में इसी बैंक में यह रकम ट्रांसफर हुई. ट्रांसफर करने की तारीख थी 25.7.1998. यह कंपनी पनामा में 6.8.1987 को बनाई गई और 7.8.1988 को भंग कर दी गई. दरअसल यह कंपनी सिर्फ इसलिए ही बनाई गई थी कि बैंक अकाउंट के जरिए धनराशि के अवैध लेन-देन के लिए इसे इस्तेमाल किया जा सके. इस खाते को भी क्वात्रोची और उनकी पत्नी व्यक्तिगत रूप से ऑपरेट किया करते थे.
इस साजिश में शामिल लोगों को किसी प्रकार का डर नहीं था, क्योंकि जब स्विस अधिकारी लेटर रोगेटरी पर काम कर रहे थे, उसी समय 2,00,000 अमरीकी डॉॅलर फिर से वेटेल्सेन ओवरसीज, एस.ए. अकाउंट से (जो यू.बी.एस. जेनेवा में है) निकाल कर इंटर इन्वेस्टमेंट डेवलेपमेंट कंपनी के अकाउंट में एन्सबाशेर लिमि. के पक्ष में सेंट पीटर पोर्ट गुएरन्से में ट्रांसफर किए गए. ट्रांसफर की तारीख थी-21.5.1990. इसके बाद किन अकाउंटों में यह पैसा किन देशों में गया इसकी जांच अभी जारी है, क्योंकि जांचकर्ताओं का अनुमान है कि यह कई देशों में ट्रांसफर किया गया होगा.
ओट्टावियो क्वात्रोची इटालियन पासपोर्ट पर भारत में 1967 से रह रहा था. उसने अचानक जुलाई 1993 में भारत छोड़ दिया. ऐसा उसने तब किया जब उसका नाम खुला कि वह स्विस कोर्ट में उन अपील करने वालों में से एक है, जो चाहते थे कि लेटर रोगेटरी पर कार्रवाई रुक जाए और स्विस अधिकारी जांच का काम बंद कर दें. जांच में यह बात स्पष्ट हो गई कि ओट्टावियो क्वात्रोची उस दलाली में हिस्सेदार है, जिसका हिस्सा उसे बोफोर्स तोप सौदे के बाद मिला. उसने इसका इस्तेमाल भारत के उच्च पदस्थ सिविल सर्वेंट्स और अपने लिए किया.
पर मजेदार बात यह है कि सी.बी.आई. को ओट्टावियो क्वात्रोची का पता कैसे चला कि वह बोफोर्स तोप सौदे में मुख्य भूमिका निभा चुका है, और ए.ई.सर्विसेज नाम की कंपनी का मालिक भी वही है और इसके नाम से खुले बैंक अकाउंट को भी वही ऑपरेट करता है.
यह कहानी अपराधी के हड़बड़ेपन और अपराध छुपाने की कोशिश की धमा-चौकड़ी के बीच उजागर हुई है. जब स्विस अधिकारियों ने भारत सरकार के लेटर रोगेटरी पर काम शुरू किया और स्वीडन में नेशनल ऑडिट ब्यूरो ने अलग जांच शुरू की तब बोफोर्स कंपनी से प्राप्त धन को नियंत्रित करने वाले सात खाताधारकों को लगा कि कहीं उनका नाम न खुल जाए, उन्होंने स्विस अदालतों में अपील दायर की कि यह जांच रोक दी जाए. विभिन्न अदालतों से होती हुई अपील स्विस सुप्रीम कोर्ट में पहुंची. मजे की बात है कि सी.बी.आई. को इस समय तक पता नहीं चल पाया था कि ये सात खाताधारक कौन हैं. इतना ही नहीं, सी.बी.आई. को यह भी नहीं पता चल पाया कि ए.ई. सर्विसेज का खाता कौन ऑपरेट कर रहा है.
जब स्विस सुप्रीम कोर्ट ने इन सातों की अपील खारिज कर दी तब पहली बार सी.बी.आई. को जांच अधिकारी ने सूचित किया कि सात अपीलकर्ताओं में ओट्टावियो क्वात्रोची का नाम शामिल है. जिस दिन सी.बी.आई. को क्वात्रोची के नाम पता चला उस दिन तारीख थी 23.7.1993, लेकिन इसके बाद भी सी.बी.आई. को सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाई के कागजात नहीं मिले.
यह भी आश्चर्य है कि कागजात क्यों नहीं मिले. उन दिनों प्रधानमंत्री नरसिंह राव थे. यह भी जांच का विषय है कि क्या सी.बी.आई. ने कोशिश नहीं की, या उन्हें कोशिश करने नहीं दी गई. यह भी संयोग ही कहा जाएगा कि जब नरसिंह राव की सरकार का पतन हो गया और देवगौड़ा की सरकार बनी तभी सी.बी.आई. को स्विस सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाई मिल पाई.
जनवरी 1997 में सी.बी.आई. को स्विस अधिकारियों ने दस्तावेज सौंपे. इन दस्तावेजों के अध्ययन से पहली बार पता चला कि ए.ई.सर्विसेज के अकाउंट का मुख्य लाभार्थी और ऑपरेटर ओट्टावियो क्वात्रोची और उसकी पत्नी मारिया क्वात्रोची हैं. यह भी पता चला कि वह इस सौदे को कराने में बोफोर्स की ओर से मुख्य एजेंट या बिचौलिया था, जिसने भारतीय राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों पर दबाव डाला और सौदा बोफोर्स के पक्ष में कराया. इस अकाउंट से उसने पैसा कहां, कैसे, किन तारीख़ों में और किन अकाउंटों में ट्रांसफर किया यह एक अलग कहानी है. इतना ही नहीं, उसके भारत के सर्वोच्च राजनीतिक ताकतों और सर्वोच्च नौकरशाहों से कैसे संबंध थे और उन पर कैसा दबाव था, यह भी रहस्यमयी दास्तान है.