यह कहानी न भारतीय जनता पार्टी की है और न उसे अपना राजनैतिक चेहरा मानने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की है. यह कहानी उस दर्द की है, जिसे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का सच्चा स्वयं सेवक और भारतीय जनता पार्टी का सच्चा कार्यकर्ता पिछले पंद्रह सालों से भोग रहा है. वह आपस में बात करता है, अफसोस ज़ाहिर करता है, आंसू गिराता है और फिर भगवान से प्रार्थना करता है कि कब घड़ा भरेगा और भाजपा फिर से एक बार संघ के विचारों के आधार पर चलेगी. उसे लगता है कि मोहन भागवत की समझ शायद जगे और कुछ करिश्मा हो. संघ और भाजपा के साथ जीने-मरने के जज़्बे से जुड़े कार्यकर्ताओं से बात करने के बाद भाजपा के शक्तिहीन होने की जो कहानी सामने आई है, उसकी शुरुआत लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा से होती है.
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को लगा कि वी पी सिंह की नीतियों के फलस्वरूप भारतीय समाज खंड-खंड बंट गया है, इसलिए कुछ ऐसा हो कि समाज जुड़े. संघ की इस इच्छा को अटल बिहारी वाजपेयी नहीं पहचान पाए, पहचाना लालकृष्ण आडवाणी ने और उन्होंने सर संघ चालक सहित संघ के प्रमुख लोगों के सामने प्रस्ताव रखा कि वह राम को लेकर, राम मंदिर बनाने के लक्ष्य की घोषणा कर देश भर में यात्रा करेंगे. उनका कहना था कि राम ने शबरी के बेर खाए, आम आदमी के प्रतीक वानर-भालुओं को लेकर, जो उस समय के आदिवासी थे, आतंक के प्रतीक रावण पर हमला किया. राम का प्रभाव लंका, इंडोनेशिया, नेपाल मलेशिया सहित कई देशों में पाया जाता है. संघ को लगा कि इससे भारतीय समाज जुड़ेगा और उसने रथयात्रा की न केवल अनुमति दी, बल्कि उसकी पूरी तैयारी भी की.
लालकृष्ण आडवाणी का उद्देश्य शायद कुछ और था और घोषित उद्देश्य के विपरीत यात्रा कुछ ही दिनों में मुसलमानों के विरुद्ध जिहाद में बदल गई. सारे देश में ऐसा माहौल बनाया जाने लगा कि बाबरी मस्जिद गिराई भी जाएगी और मुसलमानों को सबक भी सिखाया जाएगा. इस रथयात्रा ने 1947 के बाद दूसरी बार देश में भयानक सांप्रदायिक बंटवारे की कोशिश की. वी पी सिंह की सरकार गिरी, चंद्रशेखर की सरकार बनी. सात महीने के बाद वह भी गिरी और चुनाव हुए. राजीव गांधी की हत्या हुई. चुनावों में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और नरसिंहाराव प्रधानमंत्री बने. भाजपा ने चुनाव राम मंदिर बनाने के नाम पर लड़ा था, लेकिन उसे जनता ने नहीं चुना. नरसिंहाराव के कार्यकाल में भी भाजपा कार्यकर्ता विश्व हिंदू परिषद के नाम पर राम मंदिर बनाने का अभियान गांव-गांव चलाता रहा. आख़िर में अयोध्या में कारसेवा की घोषणा की गई. इस बीच विधानसभाओं के चुनाव हुए और उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी. नरसिंहाराव ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया, सुप्रीम कोर्ट के आदेश, अदालत में हलफनामा देने के बावजूद कल्याण सिंह ने बाबरी मस्जिद के ध्वंस में पूरी भूमिका निभाई. जब बाबरी मस्जिद ध्वंस हो गई, तब नरसिंहाराव नींद से जागे और उन्होंने भाजपा की चार राज्य सरकारों को बर्ख़ास्त करा दिया. इसके बाद भी लोकसभा चुनावों में भाजपा को जनता ने नहीं जिताया, बल्कि पहले देवेगौड़ा और फिर गुजराल के प्रधानमंत्रित्व में सरकार बनी.
भाजपा व संघ का कार्यकर्ता निराश नहीं हुआ, बल्कि अगले चुनावों की प्रतीक्षा करने लगा. फिर आम चुनाव हुए और भाजपा ने सरकार बनाई. एक बार सरकार तेरह दिन चली और दूसरी बार तेरह महीने चली. इसके बाद चार साल के लगभग चली. शाइनिंग इंडिया के नारे के साथ चुनाव में उतरी भाजपा ख़ुद अपनी चमक खो बैठी. अब यहां से आपको असली कहानी बताते हैं. भाजपा का सार्वजनिक और लोकप्रिय चेहरा हमेशा अटल बिहारी वाजपेयी रहे. उनकी बात पार्टी के नेता और संघ के लोग कम मानते थे, लेकिन जनता स़िर्फ अटल बिहारी वाजपेयी को ही पहले जनसंघ और बाद में भाजपा का चेहरा मानती रही. बलराज मधोक को पार्टी से निकालने के बाद दीन दयाल उपाध्याय अध्यक्ष बने. उनकी रहस्यमय हत्या या मृत्यु के बाद पार्टी को नया जीवनदान देने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी को पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया था, इसीलिए क्योंकि जनता में उनकी साख बहुत थी.
संघ ने भाजपा का अध्यक्ष नितिन गडकरी को बनवा तो दिया, लेकिन अब उसके सामने सा़फ हो गया है कि दिल्ली में बैठे अनंत कुमार, सुषमा स्वराज, वेंकैय्या नायडू, जेटली, राजनाथ सिंह और आख़िर में आडवाणी उन्हें सफल नहीं होने देंगे. इन सब में गडकरी की उम्र राजनीति में छोटी है, लेकिन संघ गडकरी को सफल होते देखना चाहता है. गडकरी ने संघ को बताया है कि जब भी वह कुछ नया करना चाहते हैं तो ये लोग उनका विरोध करते हैं. संघ और गडकरी के सामने सवाल है कि वे इस स्थिति से कैसे निकलें.
पार्टी का तो हाल स़िर्फ इस वाकये से जाना जा सकता है कि सन् 89 में उत्तर प्रदेश के भाजपा विधायक राजनाथ सिंह ने अटल बिहारी वाजपेयी को पार्टी से निकालने की मांग कर डाली थी. कारण स़िर्फ इतना था कि अटल बिहारी वाजपेयी कट्टर रुख़ नहीं अपना रहे थे. अटल बिहारी वाजपेयी का कद बढ़ाने में गुजरात की उस घटना ने योगदान किया, जिसमें शंकर सिंह बाघेला ने भाजपा से पहला विद्रोह किया था. शंकर सिंह बाघेला भाजपा के व्यवहार से दु:खी थे, विशेषकर नरेंद्र मोदी से. वह गांधीनगर से दूर एक गांव में अपने समर्थकों के साथ चले गए और भाजपा तोड़ने की योजना बनाने लगे. अटल बिहारी वाजपेयी गांधीनगर गए और वीवीआईपी गेस्ट हाउस में ठहरे. उन्होंने भैरो सिंह शेखावत को शंकर सिंह बाघेला से मिलने भेजा. शेखावत जी ने शंकर सिंह बाघेला से जाकर मुलाक़ात की और उन्हें वाजपेयी जी से मिलने के लिए तैयार किया. बाघेला गांधीनगर आए और अटल जी से मिले. उन्होंने अन्य तकलीफों के साथ अटल जी से कहा कि नरेंद्र मोदी को दिल्ली ले जाइए, भाजपा में कलह और गुटबाज़ी इन्हीं की वजह से है. अटल जी ने बाघेला से पार्टी में बने रहने के लिए कहा, जिसे शंकर सिंह बाघेला ने मान लिया. गेस्ट हाउस से हवाई अड्डा जाते हुए अटल बिहारी वाजपेयी की कार को घेरा गया, हमले की कोशिश हुई और नारे लगे कि 7 करोड़ में अटल की धोती बिकी. ये सारे लोग नरेंद्र मोदी और विश्व हिंदू परिषद के थे. शंकर सिंह बाघेला की बग़ावत को रोकना अटल जी का पहली बार बड़ा कद दिखाया गया.
जब भाजपा ने एनडीए का निर्माण किया और लगा कि सरकार बन सकती है, तो सवाल आया कि प्रधानमंत्री कौन बनेगा. जार्ज फर्नांडिस जैसे लोगों का मूड भांप आडवाणी जी ने बयान दिया कि अटल जी ही प्रधानमंत्री बनेंगे. आडवाणी भी चाहते थे और पार्टी के नेता भी चाहते थे कि आडवाणी प्रधानमंत्री बनें, पर उनका चेहरा कट्टरपंथी का चेहरा था, जिसे भाजपा के अलावा एनडीए में शामिल दूसरे दल किसी क़ीमत पर स्वीकार नहीं करने वाले थे. आडवाणी के हाथ से प्रधानमंत्री पद फिसल कर अटल जी के पास चला गया, क्योंकि वह चेहरा न केवल सार्वजनिक था, बल्कि लोकप्रिय भी था. अटल जी के प्रधानमंत्री बनने के साथ उन्हें ब्रजेश मिश्र, प्रमोद महाजन और रंजन भट्टाचार्य ने घेर लिया. शायद यह आडवाणी जी को अच्छा नहीं लगा. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के बहुत से विश्वसनीय कार्यकर्ता मानते हैं कि यही वह समय था, जब आडवाणी जी ने अटल जी और पार्टी के साथ संघ से भी बदला लेने की जाने या अनजाने कोशिश शुरू कर दी. अटल जी यदि सरकार आडवाणी जी को चलाने देते तो शायद यह न होता, पर सरकार तो ब्रजेश मिश्र, प्रमोद महाजन और रंजन भट्टाचार्य के क़ब्ज़े में चली गई थी.
संघ के समर्पित नेताओं का कहना है कि आडवाणी जी ने गृहमंत्री रहते हुए एनडीए के कॉमन मिनिमम प्रोग्राम को स्वीकार किया और पार्टी का प्रोग्राम छोड़ दिया. सालों से राम मंदिर बनाने की घोषणा करने वाली पार्टी का आडवाणी जैसा नेता कहने लगा कि जब भाजपा का बहुमत अकेले दम पर होगा, तभी मंदिर बनाया जा सकता है. संघ के लोगों का कहना है कि आडवाणी घुट रहे थे, उन्हें लगता था कि सब बनाया उन्होंने है और उन्हें ही मौक़ा नहीं मिला. इसीलिए किसी दूसरे दल ने अपने दल का एजेंडा नहीं छोड़ा, लेकिन भाजपा ने छोड़ दिया, जिसके पीछे केवल आडवाणी का दिमाग़ था. इसमें उन्हें प्रमोद महाजन का साथ मिला. संघ के लोगों का कहना है कि आडवाणी चाहते तो अटल जी लालकिले से घोषणा कर सकते थे कि मैं गठबंधन का प्रधानमंत्री हूं, पर पार्टी अलग है. इससे पार्टी पर लोगों का विश्वास नहीं टूटता और न कार्यकर्ता नाराज़ होता कि भाजपा ने मंदिर मुद्दा तो छोड़ ही दिया है.
आडवाणी जी ने अपनी नई टीम बनाई, जिसके लेफ्टिनेंट अरुण जेटली, अनंत कुमार, वेंकैय्या नायडू, सुषमा स्वराज, यशवंत सिन्हा और नरेंद्र मोदी थे. अरुण जेटली और नरेंद्र मोदी रणनीति बनाने लगे और पार्टी के भीतर का सत्ता और वैचारिक समीकरण बदलने लगा. संघ के लोगों का गुस्सा अरुण जेटली पर है, जिनके बारे में वे कहते हैं कि उन्होंने सबसे ज़्यादा पार्टी का अहित किया है. उदाहरण के रूप में इन समर्पित लोगों का कहना है कि अरुण जेटली ने अयोध्या में अविवादित भूमि को विवादित भूमि से जोड़ दिया, जहां मंदिर बन सकता था. अरुण जेटली के लड़े बहुत से मुक़दमों को भी संघ को लोग घृणा से देखते हैं. यहां भी एक उदाहरण दिया जाता है, स्टेनली मोर्गन का, जिसे जेटली ने बचाया. वह जानते थे कि इससे देश को नुक़सान है, फिर भी उन्होंने मोर्गन का मुक़दमा लड़ा. जेटली ने एक बार कहा कि वह उनका प्रोफेशन है, इसलिए उसका विचार से कोई संबंध नहीं है. आज संघ के लोग कहते हैं कि पार्टी की दुर्दशा का मुख्य कारण अरुण जेटली हैं, जो विचार को जीवन से अलग मानते हैं. संघ के लोगों को अफसोस है कि एक ओर दीनदयाल उपाध्याय जैसा व्यक्ति उनकी पार्टी बना रहा था, जिसका आचार, विचार और व्यवहार एक था, आज अरुण जेटली पार्टी बना रहे हैं, जिनके आचार, विचार और व्यवहार में कोई समानता नहीं है.
संघ में अपना जीवन देने वाले स्वयं सेवकों का कहना है कि अरुण जेटली की रणनीति के परिणामस्वरूप विचारवान और संघ के प्रति निष्ठावान लोग पार्टी में हाशिये पर चले गए या पार्टी से बाहर जाने के लिए मजबूर हो गए. वहीं पार्टी में जनाधार विहीन, एरिस्ट्रोकेट व पश्चिमी शैली में जीवन जीने वाले नेता स्थापित हो गए. ये ऐसे लोग हैं, जो ऐशोआराम में पल रहे हैं और विचारधारा से दूर हैं. आडवाणी, नरेंद्र मोदी और अरुण जेटली की वजह से जो लोग भाजपा के दृश्य से ग़ायब हो गए, उनमें पहला नाम हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार का है, जिन्हें भारत के सर्वाधिक ईमानदार मुख्यमंत्रियों में माना जाता है. जम्मू कश्मीर में चमन लाल गुप्त हाशिये पर चले गए हैं. उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह को पार्टी छोड़नी पड़ी और लालजी टंडन ख़ामोश हो गए हैं. झारखंड में बाबूलाल मरांडी ने पार्टी छोड़ दी और करिया मुंडा ने पार्टी मामलों में रुचि लेनी बंद कर दी है. मध्य प्रदेश में पहले उमा भारती के ज़रिए सुंदरलाल पटवा को किनारे कराया, फिर उमा भारती को ही पार्टी से निकाल दिया. अब शिवराज सिंह चौहान उनके अपने आदमी हैं. महाराष्ट्र में तो सारे ग्रासरूट नेता प्रमोद महाजन के लिए हाशिये पर फेंक दिए गए, केवल गोपीनाथ मुंडे बच गए, क्योंकि वह प्रमोद महाजन के रिश्तेदार थे. गुजरात में पहले शंकर सिंह बाघेला को निकालने के लिए स्थितियां बनाईं. बाद में हीरेन पंड्या का नंबर आया. राजस्थान में भैरो सिंह शेखावत को दिल्ली लाकर वसुंधरा राजे के लिए मैदान खुला छोड़ दिया गया. आंध्र प्रदेश में वेंकैय्या नायडू के लिए पूरी पार्टी की बलि चढ़ा दी गई. आज वसुंधरा राजे, राजनाथ सिंह, वेंकैय्या नायडू, अनंत कुमार इन तीनों के मुख्य हथियार बने हुए हैं.
भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी, नरेंद्र मोदी और अरुण जेटली का डेडली काम्बीनेशन है. लालकृष्ण आडवाणी का मानना था कि यदि उन्हें प्रधानमंत्री घोषित कर चुनाव लड़ा जाएगा तो देश भाजपा को वोट देगा. इस विचार को अरुण जेटली ने अपने तर्कों से पुष्ट कर आडवाणी के मन की आख़िरी हिच दूर कर दी. लेकिन जनता ने आडवाणी के चेहरे को अटल बिहारी वाजपेयी के चेहरे से बेहतर नहीं माना. नरेंद्र मोदी के बारे में संघ के निष्ठावान लोगों का कहना है कि वह हाई प्रोफाइल व्यक्ति हैं. बदला चुकाने की उनकी मानसिकता है, वह किसी का विरोध भूल नहीं पाते. उनके लिए स़िर्फ साध्य महत्वपूर्ण है, साधन नहीं, किसी भी तरह से हो, उद्देश्य प्राप्त होना चाहिए. बेहद प्रचार कर अपने व्यक्तित्व को लोगों के सामने एकमात्र उपाय के रूप में पेश करना तथा सबको साथ ले चलने की जगह अपनी इच्छा लादना उनकी आदत है. अपने लिए लॉबी बनवाना तथा अपने को सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानना नरेंद्र मोदी का स्वभाव है. इस तिकड़ी के तीसरे व्यक्ति अरुण जेटली बड़े वकील हैं. वह विद्यार्थी परिषद में थे तथा छात्र राजनीति में उन्होंने बड़ी हैसियत पाई, लेकिन जैसे ही उन्होंने वकालत की ज़िंदगी शुरू की, वह संघ के राष्ट्रहित और राष्ट्रप्रेम के बुनियादी सिद्धांत भूल गए. देश का नेता बनने के लिए जिस बुनियादी गुण को संघ प्रमुख मानता है, अरुण जेटली के लिए वह बेमानी है. संघ के लोगों के पास अरुण जेटली द्वारा लड़े गए मुक़दमों की लंबी सूची है. संघ के लोग इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि अरुण जेटली बड़े वकील तो बन गए, पर बड़े नेता बनने के सारे गुण भूल गए. आज अरुण जेटली अकेले हैं, जिनसे देश के पूंजीपतियों के संबंध हैं. नब्बे में जब आडवाणी ने अटल बिहारी वाजपेयी की जगह लेने के लिए अपने लोगों की टीम बनाई थी, तब इनका दर्जा लेफ्टिनेंट का था. आज जब आडवाणी बूढ़े हो गए हैं तो उनके सारे लेफ्टिनेंट जनरल हो गए हैं और आडवाणी उनकी बात कहने वाले नेता मात्र रह गए हैं. इस तिकड़ी ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और बीजेपी के रिश्ते की कड़ियों को भी प्रभावित किया है.
संघ के लोगों का कहना है कि भाजपा की असली ताक़त वे हैं तथा चुनाव के समय बूथ तक का मैनेजमेंट वे करते हैं. इसीलिए भाजपा की संरचना में संगठन मंत्री का बड़ा महत्व है, जो संघ द्वारा भेजा व्यक्ति होता है. इस पद पर सुंदर सिंह भंडारी, गोविंदाचार्य, नरेंद्र मोदी, संजय जोशी जैसे व्यक्ति रह चुके हैं और आज रामलाल संगठन मंत्री हैं. इस पद की हैसियत को बर्बाद करने की कहानी भी दिलचस्प है. आज तो संगठन मंत्री डरा हुआ है, क्योंकि वह अपने पहले के दो संगठन मंत्रियों का हश्र देख चुका है. भाजपा के केंद्रीय कार्यालय में ढाई करोड़ रुपये की चोरी हुई. इसकी जांच की मांग न भाजपा में किसी ने की और न भाजपा के संगठन मंत्री रामलाल ने, जो बुनियादी तौर पर संघ के प्रतिनिधि हैं. ऐसा लगता है मानों पूरा तंत्र सड़ने लगा है.
गोविंदाचार्य को संघ ने अपना प्रतिनिधि बना भाजपा में संगठन मंत्री के तौर पर भेजा. गोविंदाचार्य के ऊपर संघ को पूरा भरोसा था कि वह भाजपा को भटकने नहीं देंगे. गोविंदाचार्य भाजपा को हमेशा संघ की विचारधारा पर चलने के लिए प्रेरित भी करते थे और दबाव भी डालते थे. मज़बूत होती तिकड़ी को गोविंदाचार्य का तरीक़ा पसंद नहीं आया और उन्होंने अटल जी का वैसे ही इस्तेमाल किया, जैसे बाद में उमा भारती का किया था. गोविंदाचार्य संघ के व्यक्ति थे, लेकिन भाजपा में रहते उनका चेहरा सार्वजनिक हो गया और वह कार्यकर्ताओं में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय हो गए. गोविंदाचार्य को हटाने की रणनीति बनी और उन पर एक महिला राजनेता से नज़दीकी का आरोप लगाया गया. अचानक अख़बारों में गोविंदाचार्य और उस महिला राजनेता के संबंधों की खबरों की बाढ़ आ गई. गोविंदाचार्य इस घटिया राजनैतिक हमले से इतने आहत हो गए कि उन्होंने भाजपा से अपने को दूर कर लिया. यह घटना 1999 में हुई.
संघ ने नरेंद्र मोदी को भाजपा का संगठन मंत्री बनाकर भेजा. नरेंद्र मोदी का उद्देश्य गुजरात था और केशो भाई पटेल थे. वह हमेशा से गुजरात के मुख्यमंत्री बनना चाहते थे. उन्होंने संघ को तैयार किया कि उन्हें गुजरात भेजा जाए. संघ इसके लिए मान गया और उसने नरेंद्र मोदी को वापस गुजरात और संजय जोशी को भाजपा का संगठन मंत्री बनाया, जो अब तक गुजरात संभाल रहे थे.
संजय जोशी मैकेनिकल इंजीनियर हैं और इंजीनियरिंग कॉलेज में ही वह संघ के संपर्क में आए. भाऊराव देवरस की सलाह पर उन्होंने इंजीनियरिंग की प्राध्यापकी से त्यागपत्र दे दिया और संघ के पूर्णकालिक प्रचारक बन गए. भाऊराव देवरस ने पाया कि संजय जोशी जल्दी फैसला लेते हैं तथा ग्रासरूट वर्कर हैं. वह लो प्रोफाइल हैं तथा महत्वाकांक्षाविहीन हैं. अत: उन्होंने संजय जोशी को भाजपा का अहमदाबाद नगर का संगठन मंत्री बनवा दिया. पांच साल बाद उन्हें भाजपा की गुजरात इकाई का राज्य सचिव बना दिया गया. जब नरेंद्र मोदी गुजरात वापस गए तो संजय जोशी को 2001 में भाजपा का राष्ट्रीय संगठन मंत्री बना दिया गया. बस यहीं से नरेंद्र मोदी की जलन संजय जोशी से शुरू हो गई. वह यह हज़म नहीं कर पाए कि गुजरात का ही कोई व्यक्ति उनकी जगह कैसे उनसे ज़्यादा योग्य माना गया और संगठन मंत्री बना दिया गया.
संजय जोशी स्वभाव में बिलकुल नरेंद्र मोदी से उलट थे. वह लो प्रोफाइल, साधारण रहन-सहन में विश्वास करने वाले, जैसा प्रचारक करते हैं या समाजवादी और साम्यवादी रहते हैं, साध्य के साथ साधन को भी उतना ही महत्व देते हैं, प्रचार से दूर रहने वाले, सबसे मिलने वाले और सबकी सुनने वाले, लॉबी बनाने के ख़िला़फ तथा ग्रासरूट काम में विश्वास करने वाले व्यक्तिहैं. उन्होंने संगठन मंत्री रहते हुए भाजपा पर संघ के विचारों पर चलने के लिए हमेशा दबाव बनाए रखा. भाजपा कार्यकर्ता अध्यक्ष के यहां कम, संजय जोशी के यहां ज़्यादा जाता था. इसी बीच आडवाणी पाकिस्तान गए और उन्होंने लाहौर में जिन्ना को लेकर मशहूर लाइन लिखी. संघ ने जोशी से कहा कि वह आडवाणी से इस्ती़फा ले लें. संजय जोशी ने बिना हिचक आडवाणी से अध्यक्ष पद से इस्ती़फा ले लिया. संजय जोशी ने संघ की बात मान अपने लिए राजनैतिक क़ब्र खोद ली. अचानक भाजपा के मुंबई अधिवेशन में एक सीडी बंटी. इस सीडी में एक व्यक्ति एक महिला के साथ था तथा अफवाह फैली कि यह व्यक्ति भाजपा का संगठन मंत्री संजय जोशी है. संजय जोशी ने भी गोविंदाचार्य की तरह तत्काल अपना त्यागपत्र दे दिया. अब जाकर तथ्य सामने आ रहे हैं और सीडी की सच्चाई भी सामने आ रही है.
सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले की जांच जब सुप्रीम कोर्ट के आदेश से सीबीआई ने प्रारंभ की, तब अचानक उसे बालकृष्ण चौबे ने बताया कि संजय जोशी के ख़िला़फ तथाकथित सेक्स सीडी उसी ने अन्य अफसरों के साथ भाजपा अधिवेशन में बांटी थी. बालकृष्ण चौबे गुजरात एटीएस में इंस्पेक्टर थे. उन्होंने सीबीआई से कहा कि यह सीडी फर्ज़ी है, गुजरात में बनी है और इसे एटीएस के बड़े अधिकारी के कहने पर बनाया गया, जिसे बंटवाने में वह ख़ुद शामिल हैं. इसमें नरेंद्र मोदी का इशारा था या अमित शाह का, अभी यह खुलासा आना बाक़ी है, लेकिन संजय जोशी को बरबाद करने के तार इन्हीं दोनों से जुड़े हैं. संजय जोशी की मदद हरेन पंड्या और गोरधन झड़पिया करते थे. संघ के सुदर्शन से लेकर मोहन भागवत तक संजय जोशी की संगठन क्षमता के कायल और राजनैतिक दक्षता के प्रशंसक थे. लेकिन इस फर्ज़ी सीडी ने उन्हें विवादास्पद बना दिया. बाद में यह सीडी हैदराबाद की फोरेंसिक लैब में फर्ज़ी पाई गई और संजय का चेहरा किसी के धड़ पर लगा साबित हुआ.
एक नई बात भाजपा के कोनों से फैलाई जा रही है कि संजय जोशी की सीडी में दिख रही महिला सोहराबुद्दीन की पत्नी कौसर बी जैसी है. सीबीआई ख़ामोश है कि दो दिन तक कौसर बी गुजरात एटीएस के क़ब्ज़े में जिस बंगले में थी, वहां क्या हुआ. शायद सीबीआई के पास इसका जवाब है और हो सकता है, वह अदालत में इसका खुलासा करे. आज संघ के दिवंगत नेता और जीवित नेता शर्म से ख़ुद से आंखें चुरा रहे होंगे कि यह कैसा संगठन है, जिसके मुखिया अपने ही कार्यकर्ताओं को सेक्स के फर्ज़ी जाल में फंसा रहे हैं.
संघ के निष्ठावान लोग दु:खी हैं तथा वे अपने भोलेपन को अब अपनी मूर्खता मानते हैं. उनका कहना है कि हमारा संगठन साधु स्वभाव के लोगों का संगठन है तथा राष्ट्र के लिए प्राण देने का जज़्बा रखता है. उनके प्रमुखों को छद्म नहीं आता तथा यदि उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति ने कुछ कहा, जिस पर वे विश्वास करते आए हैं, तो उसे मान लेते हैं. लालकृष्ण आडवाणी को संघ में लालजी के नाम से पुकारते हैं. लालजी ने ही सुषमा स्वराज, वेंकैय्या नायडू और अरुण जेटली को संघ की नज़र में सर्वश्रेष्ठ बनाया. अब जब संघ हक़ीक़त का सामना कर रहा है तो इस संकोच में है कि परिवार के मुखिया को दु:ख कैसे पहुंचाए. हालांकि संघ के सामने अब स्पष्ट हो गया है कि संघ से रिश्ता रखने वाले लोगों को कैसे भाजपा में हाशिये पर डाला गया. यहां तक कि संघ के लोगों को टिकट नहीं दिए गए तथा दिए गए तो वहां से, जहां वे हार जाएं.
संघ के सामने अब यह भी साफ हो गया है कि अरुण जेटली, वेंकैय्या नायडू, जसवंत सिंह, सुषमा स्वराज व यशवंत सिन्हा न कभी वैचारिक लड़ाई लड़ सकते हैं और न वैचारिक हमला या वैचारिक बचाव कर सकते हैं. और विडंबना यह है कि यही लोग आज भाजपा की पहचान हैं. इसीलिए संघ को लगता है कि भाजपा अपनी पहचान एक सार्थक विरोधी दल के रूप में खो चुकी है और कांग्रेस का दूसरा चेहरा बन गई है. आज भाजपा में आडवाणी जी और नरेंद्र मोदी के अलावा कोई वोट खींचने वाला चेहरा नहीं बचा है. देश के लोग इन दोनों के अलावा गोविंदाचार्य और उमा भारती को जानते हैं. लेकिन जसवंत सिंह को लेने में जितनी जल्दी दिखाई जाती है, गोविंदाचार्य और उमा भारती का नाम तक भाजपा में नहीं लिया जाता है. संघ के सिद्धांतशास्त्री माने जाने वाले एम जी वैद्य ने अपने लेख में लिखा है कि जसवंत सिंह को लिया तो ठीक किया, न लेते तो कोई नुकसान नहीं होता, लेकिन गोविंदाचार्य, उमा भारती और संजय जोशी को लेते तो पार्टी को ज़्यादा फायदा होता. भाजपा को चलाने वाला गुट इसे एम जी वैद्य की सनक कहता है.
संघ ने भाजपा का अध्यक्ष नितिन गडकरी को बनवा तो दिया, लेकिन अब उसके सामने साफ हो गया है कि दिल्ली में बैठे अनंत कुमार, सुषमा स्वराज, वेंकैय्या नायडू, जेटली, राजनाथ सिंह और आख़िर में आडवाणी उन्हें सफल नहीं होने देंगे. इन सब में गडकरी की उम्र राजनीति में छोटी है, लेकिन संघ गडकरी को सफल होते देखना चाहता है. गडकरी ने संघ को बताया है कि जब भी वह कुछ नया करना चाहते हैं तो ये लोग उनका विरोध करते हैं. संघ और गडकरी के सामने सवाल है कि वे इस स्थिति से कैसे निकलें. संघ के एक निष्ठावान ने तो कहा कि गडकरी अगर ज़्यादा कुछ करना चाहेंगे तो एक सीडी उनके ख़िला़फ भी आ जाएगी.
दूसरी ओर संघ का रिश्ता गोविंदाचार्य और संजय जोशी से वैसे ही बना हुआ है, जैसे पहले था. संघ के सात बड़े हैं, मोहन भागवत, भैय्या जी जोशी, दत्तात्रेय होशबोले, एम जी वैद्य, सुरेश सोनी, मदनदास देवी और इंद्रेश जी. इन सबसे गोविंदाचार्य और संजय जोशी का हर दूसरे दिन का मेलमिलाप चल रहा है. मोहन भागवत, भैय्या जी जोशी और मदनदास देवी गोविंदाचार्य के ख़ास संपर्क में हैं. इन दिनों संघ की ओर से सुरेश सोनी भाजपा को देख रहे हैं, लेकिन मदनदास देवी भाजपा का मोह नहीं छोड़ पा रहे हैं. संघ के लोगों का कहना है कि अकेले मदनदास देवी हैं, जो अरुण जेटली को संरक्षण दे रहे हैं. हालांकि बाक़ी लोग अरुण जेटली और उनके साथियों की वजह से हुई भाजपा की हालत से दु:खी और चिंतित हैं.
सब भाजपा को साख वाले विपक्षी दल के रूप में देखना चाहते हैं. संघ के लोग दु:खी हैं कि उनकी इज़्ज़त केवल बची हुई है, साख समाप्त हो रही है. इसका असर संघ पर भी पड़ा है. अब प्रचारक स़िर्फ अपनी प्रोफाइल बना रहे हैं तथा भाजपा में जाने और चुनाव लड़ने का रास्ता इसे मानते हैं. जो प्रचारक सीधे राजनीति में नहीं जा पाते, वे गॉड फादर का रोल तलाशने लगते हैं. भाजपा के द्वारा आए इस रोग से संघ के लोग परेशान हैं. संघ के निष्ठावान कार्यकर्ता ही नहीं, भाजपा के राष्ट्रीय कार्यालय में काम करने वाले लोग भी खुलेआम इस स्थिति से चिंतित हैं तथा बिना डर के कहते हैं कि गोविंदाचार्य, संजय जोशी, उमा भारती, कल्याण सिंह और बाबूलाल मरांडी जैसे लोगों को तत्काल भाजपा में वापस बुलाना चाहिए. इनका मानना है कि किसी को निकालने या सज़ा देने की जगह अगर ये वापस आते हैं तो भाजपा की अगले आम चुनाव में लड़ाई में वापसी हो जाएगी. संघ के निष्ठावान कार्यकर्ता मोहन भागवत और भैय्या जी जोशी की तऱफ देख रहे हैं कि कब उनकी नींद टूटती है और ज़ुबान खुलती है. संघ के साथ जीवन गुजार रहे एक कार्यकर्ता का कहना है कि अरुण जेटली, मोदी और आडवाणी के बारे में पता नहीं, लेकिन गोविंदाचार्य और संजय जोशी की लाशें झंडेवालान ज़रूर जाएंगी.