बिहार का फ़ैसला एक सबक है

Santosh Bhartiyaबिहार चुनाव बीत गया, लेकिन बिहार चुनाव की धूल अभी बाकी है. यह धूल किसी को सीख देगी, यह पता नहीं, पर जनता ने इस धूल से सीख ली है और जनता ने एक  फ़ैसला भी दिया है. यह ़फैसला भी दोहरी धार वाल फ़ैसला  है.बिहार चुनाव ने यह बताया कि मुद्दों के ऊपर बातचीत  करना किसी को पसंद नहीं आता, लेकिन अगर मुद्दों के ऊपर स्वयं प्रधानमंत्री बात न करें, तो यह ज़्यादा

खतरनाक है. मुद्दों के ऊपर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बात न करें, तो यह उस ़खतरे को और बढ़ाता है. दरअसल, चुनाव लोक शिक्षण का सबसे बड़ा माध्यम है. कोई दल या नेता कितनी समझ रखता है, जनता को लेकर उसके मन में कितना विश्वास है और वह जनता को ग़ैर समझदारी के दलदल से कितना बाहर निकालना चाहता है, इन सबकी परीक्षा का केंद्र कोई भी चुनाव होता है. जब यह चुनाव लोकसभा या किसी विधानसभा का हो, तो इस परीक्षा केंद्र की गंभीरता बढ़ जाती है. हम एक बार किसी परीक्षा में उत्तीर्ण हो गए, तो उसी तरीके से दूसरी परीक्षा भी उत्तीर्ण कर लेंगे, इस धारणा को बिहार चुनाव ने ग़लत साबित कर दिया. केंद्र का चुनाव लोकसभा में अभूतपर्व बहुमत के साथ भाजपा ने जीता और उसने उस चुनाव में कांग्रेस को पूर्ण रूप से दोषी ठहराया. कांग्रेस की नीतियों का दिवालियापन, कांग्रेस के नेताओं का मुद्दों को न समझ पाना और समझ कर भी ग़लत जवाब देना भाजपा के पक्ष में गया. भाजपा ने सोचा कि वही तरीका वह बिहार विधानसभा चुनाव में अपना कर पुन: बहुमत प्राप्त कर लेगी. भाजपा यह भूल गई कि बिहार चुनाव, जो हाल में संपन्न हुए और लोकसभा चुनाव, जो डेढ़ साल पहले संपन्न हुए, उनमें बड़ा अंतर है. डेढ़ साल का अंतर है. यह डेढ़ साल का समय लोगों को यह जानने के लिए काफी है कि डेढ़ साल पहले जो वायदे हुए, उन पर कोई अमल हुआ या नहीं. डेढ़ साल पहले हुए चुनाव में भाजपा ने यह कहीं नहीं कहा कि जब वह आएगी, तो पांच साल के बाद क़दमों की शुरुआत करेगी और पांच साल तक वह क्या क़दम उठाए जाएंगे, इसके बारे में सोच-विचार, खाका खींचने, विश्लेषण, बुद्धिजीवियों की बैठकों, कुछ करो या न करो की रणनीति पर चलेगी. और, जब एक ऐसा व्यक्ति प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के बतौर चुनाव लड़ रहा था, जो राज्य का मुख्यमंत्री भी रह चुका है, तो देश के लोगों ने विचारधारा पर ध्यान नहीं दिया. देश के लोगों ने कांग्रेस के नकारापन के ख़िलाफ़  उस व्यक्ति की बातों पर भरोसा किया, जिसे राष्ट्रीय स्तर पर परखना बाकी था.

डेढ़ साल के बाद यह पता चला कि केंद्र सरकार का नेता, जो बिहार में घूम रहा है, उसके खाते में बड़े-बड़े वायदे अभी भी हैं, बड़ी-बड़ी घोषणाएं अभी भी हैं, लेकिन मध्यम वर्ग एवं निम्न-मध्यम वर्ग, जो वोट देता है या राय बनाता है, के लिए उसके पास कुछ नहीं है. क्योंकि, डेढ़ साल में बिहार के लोगों ने देखा कि उनकी ज़िंदगी में कोई फर्क़ नहीं आया और फर्क़ न आने का ठीकरा उन्होंने भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के ऊपर फोड़ दिया. उन्हें लगा कि राज्य सरकार कुछ कर ही नहीं सकती, अगर केंद्र सरकार की नीतियां राज्य सरकार के पक्ष में न हों. इसका यह जवाब कि अगर भाजपा की सरकार होगी, तो केंद्र और राज्य की सरकारें एक सुर में बोलेंगी, बिहार के लोगों ने अस्वीकार कर दिया. लोगों ने स्वयं को इतना खामोश रखा कि न भाजपा कुछ समझ पाई, न मीडिया कुछ समझ पाया और न सर्वे करने वाले कुछ समझ पाए. यही नहीं, भाजपा के विरोधी भी जनता के मन को, मूड को नहीं समझ पाए.

भाषा जिसमें पाकिस्तान आया, भाषा जिसमें बड़े-बड़े महान शब्द आए, भाषा जिसमें आरक्षण आया और भाषा जिसमें हिंदू एवं मुसलमान आए, भाषा जिसमें पहली बार मुसलमानों को देश का हिस्सा न मानने की गंध आई, उसने सारे देश के लोगों को आश्चर्य चकितकर दिया. और, जब देश के लोग आश्चर्य चकित हुए, तो बिहार के लोग कैसे न होते. तब लोगों ने व्यक्तित्व की तुलना की और उस तुलना में उन्हें लगा कि नीतीश कुमार का भाषण संयमित है. नीतीश कुमार की शालीनता और प्रधानमंत्री के धारा प्रवाह भाषण एवं शारीरिक भाषा पलड़े में ऊपर-नीचे हो गई. प्रधानमंत्री थोड़ा ऊपर हो गए पलड़े में और नीतीश कुमार थोड़ा नीचे हो गए.

इसके अलावा एक वैचारिक प्रयोग बिहार की जनता ने नकार दिया. आरक्षण के ऊपर संघ प्रमुख मोहन भागवत के बयान कि इसकी विवेचना होनी चाहिए, से लोगों को लगा कि यह उन्हें एक इशारा है कि अगर बिहार का चुनाव भाजपा जीतती है, तो सारे देश में आरक्षण को लेकर न केवल बहस होगी, बल्कि एक आयोग बनेगा, जो आरक्षण को लेकर नई सिफारिशें करेगा, जिनमें आरक्षण का आधार बदल दिया जाएगा और फिर उसे लेकर देश में एक नई लड़ाई शुरू होगी. शायद ये बातें लोगों को पसंद नहीं आईं. लालू यादव के ख़िलाफ़  जिस तरह व्यक्तिगत हमले प्रधानमंत्री से लेकर भारतीय जनता पार्टी के हर नेता ने किए, उसे भी बिहार ने पसंद नहीं किया. लालू यादव का जंगलराज, प्रधानमंत्री की डेढ़ साल पहले हुई अप्रतिम विजय, केंद्र सरकार के सारे  मंत्रियों का बिहार में गली-गली गांव-गांव घूमना और इसके  बावजूद भारतीय जनता पार्टी के नेता आपसी बातचीत में चुनाव से पहले कहने लगे कि लड़ाई कांटे की है. मेरा माथा तभी ठनका था और मैं अपने अ़खबार में एवं टेलीविजन चैनलों में इस अंतर्विरोध को नहीं समझ पाता था कि जहां पर लालू यादव का जंगलराज हो, उनके ख़िलाफ़  सजाओं के कसीदे पढ़े जा रहे हों और जहां विशाल बहुमत से जीती भारतीय जनता पार्टी  चुनाव लड़ रही हो, वहां भाजपा नेता आपसी बातचीत  में कांटे की टक्कर कह रहे हैं!  इसका मतलब कि भारतीय जनता पार्टी के छोटे नेताओं को चुनाव में हार का अंदाज़ा हो गया था, लेकिन भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेता अपने किसी हसीन सपने में खोए हुए थे.

बिहार चुनाव यह बताता है कि केंद्र सरकार को जुमलेबाजी, बयानबाजी छोड़कर झूठ की दुनिया से बाहर निकलना होगा. उसे सचमुच उन लोगों के लिए काम करना होगा, जो प्यासे हैं, भूखे हैं, बीमार हैं, अधनंगे हैं और जिन्हें हम दलित, आदिवासी, पिछड़े एवं मुसलमान कहते हैं. अगर उनके पक्ष में भाजपा सरकार की नीतियां कुछ नहीं करतीं, तो फिर बड़ी-बड़ी योजनाओं का जो सपना प्रधानमंत्री दिखा रहे हैं, वह उन्हें 2019 में वैसी हार दिला सकता है, जैसी 2015 के चुनाव ने बिहार में दिलाई है. और, यह बात मैं स़िर्फ भारतीय जनता पार्टी के लिए नहीं कह रहा हूं. यह बात कांग्रेस के लिए लागू हो चुकी है और यही बात अब भारतीय जनता पार्टी के  लिए लागू होने वाली है.

टेलीविजन चैनलों पर दबाव डालकर प्रोग्राम बदलवा देना, टेलीविजन चैनलों के ऊपर अपना चेहरा लाकर लंबी-लंबी बातें करना, अ़खबारों को अपनी मुट्ठी में कर लेना, अ़खबारों के ऊपर दबाव डालना, अ़खबार मालिक को डरा देना, ताकि वह अपने पत्रकारों को कोड़े लगाए आदि से चुनाव नहीं जीता जाता. अ़खबार न चुनाव जिताते हैं और न हराते हैं. टेलीविजन पर दिखने वाला चेहरा न लोगों को पसंद आता है और ज़्यादा दिखने पर उसकी कमियां ज़्यादा नज़र आती हैं. चेहरा वही इतिहास     में दर्ज हो पाता है, जो ग़रीबों, भूखों, नंगों, पिछड़ों एवं मुसलमानों की ज़िंदगी में बदलाव लाने की बात करे. यहां मैं स्वर्ण ग़रीबों की बात इसलिए नहीं कर रहा हूं, क्योंकि जब इन सबकी ज़िंदगी में बदलाव आएगा, तो स्वर्ण ग़रीबों की ज़िंदगी में बदलाव आएगा ही आएगा. लेकिन, अगर स्वर्ण ग़रीबों की ज़िंदगी में बदलाव लाने की योजना बनेगी, तो उससे पिछड़ों, मुसलमानों, दलितों एवं आदिवासियों की ज़िंदगी में बदलाव नहीं आएगा. इस बारीकी को भारतीय जनता पार्टी शायद अभी नहीं समझना चाहती.

इसलिए विनम्रता से निवेदन श्री नरेंद्र मोदी से, अरुण जेटली से, क्योंकि ये दोनों आज सरकार चला रहे हैं. इन्हें चाहिए कि तुरंत विशेषज्ञों के साथ बैठकर ऐसी आर्थिक नीतियां बनाएं, जो देश के ग़रीबों, गांवों, किसानों एवं नौजवानों को कुछ आशा दें. प्रधानमंत्री जी, विश्वास कीजिए, देश के लोगों की आशा खत्म हो रही है. उन्हें भरोसा नहीं रहा कि उनकी ज़िंदगी में अगले तीन सालों में भी कोई परिवर्तन आ पाएगा या नहीं. और, आपकी जीत की मुख्य वजह यह थी कि आपने लोगों को भरोसा दिलाया था कि आपके प्रधानमंत्री बनते ही बहुत बड़ा परिवर्तन आएगा. अब अगर आप यह भाषा इस्तेमाल करेंगे कि मेरे पास कोई जादू की छड़ी नहीं है, तो आप और आप जिनके उत्तराधिकारी हैं यानी मनमोहन सिंह, दोनों में कोई फर्क़ नहीं रह जाएगा.


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