हिंदुस्तान सबसे बड़ा प्रजातंत्र होने के बावजूद दुनिया का 72 वां सबसे भ्रष्ट देश है. दुनिया में 86 ऐसे देश हैं, जहां भारत से कम भ्रष्टाचार है. आज़ादी के बाद से ही हम भ्रष्टाचार के साथ जूझ रहे हैं. भ्रष्टाचार के खिला़फ कारगर क़ानून बनाने की योजना इंदिरा गांधी के समय से चल रही है. 42 साल गुज़र गए, फिर भी हमारी संसद लोकपाल क़ानून बना नहीं सकी. यह जानकर हर भारतीय का सिर शर्म से झुक जाता है. क्या हम भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए कुछ नहीं कर सकते? इसी सवाल को लेकर लोगों में ग़ुस्सा है. किशन बापट बाबूराव हज़ारे उ़र्फ अन्ना हज़ारे का अनशन भ्रष्टाचार के खिला़फ लोगों के क्रोध की अभिव्यक्ति है.
अन्ना हज़ारे महाराष्ट्र के अहमदनगर ज़िले के हैं, ग़रीब परिवार से आते हैं और उन्होंने स़िर्फ सातवीं कक्षा तक की पढ़ाई की है. अन्ना सेना में ड्राइवर के रूप में नौकरी करते थे. जो समय बचता, उसमें वह गांधी और विनोबा भावे की किताबों को पढ़ते थे. इन महापुरुषों की प्रेरणा की वजह से उन्होंने नौकरी छोड़ दी और वह सामाजिक कार्यकर्ता बन गए. महाराष्ट्र के रालेगन गांव में उन्होंने शराब के खिला़फ आंदोलन किया, फिर गांववालों के साथ मिलकर चेक डैम और कैनाल बनवाया. इसके बाद अन्ना हज़ारे ने क़रीब 77 गांवों में श्रमदान के ज़रिए गांववालों की मदद की. अपने सामाजिक जीवन में अन्ना ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. साल 2000 में अन्ना ने महाराष्ट्र में एक आंदोलन छेड़ा, जिसकी वजह से महाराष्ट्र सूचना का अधिकार क़ानून बनाया गया. यही क़ानून सूचना का अधिकार क़ानून 2005 का आधार बना. 1998 में जब समाज कल्याण मंत्री ने उनके खिला़फ डिफेमेशन केस दर्ज किया, तब शिवसेना-भाजपा सरकार ने अन्ना हज़ारे को जेल भी भेजा. जनता ने हंगामा किया, सरकार को उन्हें छोड़ना पड़ा. इस अनशन के पहले से ही अन्ना हज़ारे भ्रष्टाचार के खिला़फ लड़ाई के प्रतीक रहे हैं.
लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में ब्यूरोक्रेसी से लेकर जजों के साथ-साथ प्रधानमंत्री कार्यालय भी हो, इसमें भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए. लेकिन लोकपाल को शासन करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता है. क़ानून बनाने का काम संसद का है, शासन करने का अधिकार कार्यपालिका का है और न्यायपालिका को ग़लतियों की सज़ा देने का हक़ है. यही प्रजातंत्र का आधार है. लोकपाल को क्या-क्या अधिकार मिलें और क्या नहीं मिलें, इस बात पर देशव्यापी बहस होनी चाहिए. विशेषज्ञों की राय लेनी चाहिए, ताकि लोकपाल की नियुक्ति और उसे दिए गए अधिकारों की वजह से प्रजातंत्र का संतुलन न बिगड़ जाए.
अन्ना के पहले के आंदोलनों और इस बार के आंदोलन में ज़मीन-आसमान का फर्क़ है. पहले वह गांववालों के साथ मिलकर आंदोलन करते थे. इस बार शहरी युवाओं के दिलों पर छा गए. इंटरनेट के सोशल नेटवर्क पर आजकल स़िर्फ अन्ना का नाम है. अन्ना हज़ारे के आंदोलन की पृष्ठभूमि सरकारी महकमों में घोटालों, ए राजा, कलमा़डी और नीरा राडिया जैसे लोगों ने तैयार की. भ्रष्टाचार के खिला़फ सुप्रीम कोर्ट के जजों के बयानों और फैसलों ने अन्ना हज़ारे के आंदोलन को प्रमाणिकता प्रदान की है. इसके अलावा देश के मध्यम वर्ग को लगता है कि भ्रष्टाचार की वजह से भारत का विकास नहीं हो पाया है. यही वजह है कि भ्रष्टाचार से परेशान जनता ने दिल खोलकर अन्ना का साथ दिया. अन्ना हज़ारे लोकपाल बिल को लागू करने के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं. सरकार ने भी एक लोकपाल बिल का मसौदा तैयार किया है. अन्ना हज़ारे का मानना है कि सरकार के मसौदे से बना लोकपाल एक कमज़ोर लोकपाल होगा, जो भ्रष्टाचार से लड़ने में अक्षम है.
अन्ना हज़ारे ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश संतोष हेगड़े, कर्नाटक के लोकायुक्त प्रशांत भूषण और क़ानून एवं प्रशासन के कई जानकारों के साथ मिलकर लोकपाल क़ानून का एक मसौदा तैयार किया है. इसे जन लोकपाल बिल का नाम दिया गया. अन्ना हज़ारे चाहते हैं कि सरकार जो बिल लाना चाहती है, उसका मसौदा तैयार करने में जन लोकपाल बिल बनाने वालों को भी शामिल किया जाए. प्रधानमंत्री ने लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करने के लिए मंत्रियों का एक समूह बनाया है. समस्या यह है कि प्रधानमंत्री ने जिन पांच मंत्रियों को यह दायित्व सौंपा है, उनमें से कई ऐसे हैं, जो खुद संदेह के घेरे में हैं. इस समूह में एक नाम था शरद पवार का. शरद पवार को अचानक से प्याज़ की क़ीमत बढ़ना भ्रष्टाचार नहीं लगता है. सब्ज़ी और खाने-पीने के सामानों की जमा़खोरी और कालाबाज़ारी की वजह से आई महंगाई में कुछ भी ग़लत नहीं नज़र आता है. शरद पवार ने इस समूह से इस्ती़फा दे दिया, लेकिन सवाल सरकार की सोच का है. महंगाई से जूझ रही जनता शरद पवार पर कैसे भरोसा कर सकती है. दूसरा नाम है कपिल सिब्बल, जो देश के बड़े वकील हैं. उन्हें देश के सबसे बड़े 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में भी कोई गड़बड़ी नज़र नहीं आती है. सरकार को यह समझना पड़ेगा कि ऐसी पहल से जनता का भरोसा नहीं जगता है. इसके अलावा इस समूह में पी चिदंबरम और प्रणव मुखर्जी हैं. इन दोनों की छवि मनमोहन सिंह की तरह ईमानदार नेता की नहीं है.
कुछ विश्लेषक जन लोकपाल बिल के खतरे से चिंतित हैं. पहला खतरा यह था कि लोकपाल क्या देश की सबसे शक्तिशाली संस्था बन जाएगा. क्या यह सरकार के कामकाज को प्रभावित करेगा. क्या यह सुप्रीम कोर्ट को बाईपास कर जाएगा. कुछ लोगों को इस बात की चिंता है कि भ्रष्टाचार के खिला़फ यह आंदोलन कहीं प्रजातंत्र विरोधी और विकास विरोधी आंदोलन न बन जाए. समझने वाली बात यह है कि प्रजातंत्र और राजनीति के लिए लोकपाल जैसी संस्था नई नहीं है. दुनिया में 50 से ज़्यादा ऐसे देश हैं, जहां लोकपाल जैसी संस्था मौजूद है. अंग्रेज़ी में इसे ओम्बड्समैन कहते हैं. इसका मतलब है प्रशासनिक शिकायत जांच अधिकारी. ओम्बड्समैन उस अधिकारी को कहा जाता है, जो आम जनता की शिकायत पर किसी भी मामले की जांच करता है. उसे सरकार या संसद द्वारा नियुक्त किया जाता है. आधुनिक युग में इसे सबसे पहले 1809 में स्वीडन में लागू किया गया. नार्वे, स्वीडन और फिनलैंड जैसे विकसित प्रजातंत्र में ओम्बड्समैन को विशेष अधिकार मिला है. वह सरकार के कोई भी काग़ज़ात, जानकारी प्राप्त कर सकता है. किसी भी गड़बड़ी के अंदेशे पर वह बिना किसी शिकायत के जांच आदेश कर सकता है. भ्रष्ट और ग़ैर कानूनी काम करने वाले अधिकारियों को सज़ा दिलवा सकता है. इन देशों के सरकारी महकमों में भ्रष्टाचार लगभग न के बराबर है. अन्ना हज़ारे और उनके सहयोगियों द्वारा बनाया गया जन लोकपाल बिल इन्हीं देशों के क़ानून की प्रतिलिपि है.
लोकपाल के पास भ्रष्टाचार से लड़ने की सारी शक्तियां हों, इसमें किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए. लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में ब्यूरोक्रेसी से लेकर जजों के साथ-साथ प्रधानमंत्री कार्यालय भी हो, इसमें भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए. लेकिन लोकपाल को शासन करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता है. क़ानून बनाने का काम संसद का है, शासन करने का अधिकार कार्यपालिका का है और न्यायपालिका को ग़लतियों की सज़ा देने का हक़ है. यही प्रजातंत्र का आधार है. लोकपाल को क्या-क्या अधिकार मिलें और क्या नहीं मिलें, इस बात पर देशव्यापी बहस होनी चाहिए. विशेषज्ञों की राय लेनी चाहिए, ताकि लोकपाल की नियुक्ति और उसे दिए गए अधिकारों की वजह से प्रजातंत्र का संतुलन न बिगड़ जाए. अच्छी बात यह है कि अन्ना हज़ारे और उनके साथी लोगों के सुझावों और विशेषज्ञों की राय को शामिल करने में संकोच नहीं कर रहे हैं. वे स़िर्फ यह चाहते हैं कि लोकपाल क़ानून का जो मसौदा तैयार हो, उसमें अधिकारियों के अलावा सामाजिक कार्यकर्ताओं और क़ानून के जानकारों की भी भागीदारी हो. बातचीत से इस क़ानून का मसौदा तैयार किया जाए.
भ्रष्टाचार की लड़ाई लोकपाल बिल के क़ानून बनने मात्र से खत्म नहीं होने वाली है. अन्ना हज़ारे ने जिस आंदोलन की नींव रखी है, उसे न्यायसंगत निष्कर्ष पर ले जाना होगा. जैसा महात्मा गांधी और लोकनायक जय प्रकाश नारायण ने किया. इसके लिए शहरी युवाओं के साथ-साथ ग्रामीण युवकों, वनवासियों, मज़दूरों एवं किसानों को भी इस आंदोलन में शामिल करने की ज़रूरत पड़ेगी. इन सबको संगठित करना पड़ेगा. देश के अलग-अलग गांवों और शहरों में जाकर लोगों को जागरूक करना पड़ेगा. ऐसे आंदोलनों में कलाकारों, नाट्यकर्मियों, लेखकों और कवियों की भूमिका भी बढ़ जाती है. उन्हें भी इस युद्ध की तैयारी करनी होगी. अन्ना हज़ारे ने कहा है कि यह आज़ादी की दूसरी लड़ाई है तो आज़ादी की पहली लड़ाई की तरह ही इस आंदोलन को सुनियोजित और संगठित करना होगा, ताकि शहर के नौजवानों के साथ आम जनता भी इसमें अपना योगदान कर सके. यह अभी शुरुआत है. भ्रष्टाचार के खिला़फ लड़ाई लंबी चलने वाली है. आम जनता को आगे आना होगा और राजनीतिक दलों को अपनी इच्छाशक्ति का प्रमाण देना होगा.