वर्ष 2008 में ग्लोबल इकोनॉमी स्लो डाउन (वैश्विक मंदी) आया. उस समय वित्त मंत्री पी चिदंबरम थे. हिंदुस्तान में सेंसेक्स टूट गया था, लेकिन आम भावना यह थी कि इस मंदी का हिंदुस्तान में कोई असर नहीं होने वाला है. उन दिनों टाटा वग़ैरह का प्रदर्शन बहुत अच्छा रहा था और एक धारणा यह बनी कि भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व की अर्थव्यवस्था की ज़रूरत नहीं है. भारतीय अर्थव्यवस्था ने विश्व अर्थव्यवस्था को कई तरह के रास्ते भी दिखाए. उन दिनों जब यूरोपीय आर्थिक संकट की वजह से किसी देश में मंदी आती थी तो वह हिंदुस्तान के लिए एक अवसर माना जाता था. टाटा ने लैंडरोवर का अधिग्रहण कर लिया. हमारे दूसरे उद्योगपतियों ने भी कई कंपनियां अधिग्रहीत कीं. एक मोटे अनुमान के मुताबिक़, लगभग 150 बिलियन डॉलर की विदेशी कंपनियां भारतीयों ने खरीदीं.
प्रणब मुखर्जी वित्त मंत्री बने और दूसरा स्लो डाउन (मंदी) उनके कार्यकाल में आया. प्रणब मुखर्जी ने यह आकलन दिया कि चूंकि विश्व अर्थव्यवस्था में स्लो डाउन आया है, जिसका असर भारतीय अर्थव्यवस्था के ऊपर पड़ा है और इसी की वजह से हमारे यहां परेशानियां पैदा हो रही हैं. यह अजीब बात है कि सबसे खराब मंदी का दौर 2008 में आया था. उस समय न वित्त मंत्री ने कहा और न किसी अर्थशास्त्री ने कहा कि इससे हिंदुस्तान की अर्थव्यवस्था प्रभावित होगी. लेकिन आज स्लो डाउन आया और उसके आते ही यह बयान आया कि हमारी अर्थव्यवस्था डगमगा सकती है. चूंकि यूरोप की अर्थव्यवस्था चरमरा रही है, इसलिए हमारे यहां भी इसका विपरीत प्रभाव पड़ सकता है. इन बयानों के पीछे क्या कारण हो सकते हैं? तलाशें तो कई कारण मिलते हैं. इसमें पहला कारण हैं ओमिता पॉल, जिन्हें वित्त मंत्रालय में सलाहकार के पद पर नियुक्त किया गया. जब लोगों ने सवाल उठाया कि ओमिता को क्यों सलाहकार के पद पर नियुक्त किया गया, उनकी ज़रूरत क्या है या उनकी वित्त के क्षेत्र में महारत क्या है तो प्रणब मुखर्जी ने कहा कि शी इज़ नीडेड (उनकी ज़रूरत है).
यह अजीब बात है कि सबसे खराब मंदी का दौर 2008 में आया था. उस समय न वित्त मंत्री ने कहा और न किसी अर्थशास्त्री ने कहा कि इससे हिंदुस्तान की अर्थव्यवस्था प्रभावित होगी. लेकिन आज स्लो डाउन आया और उसके आते ही यह बयान आया कि हमारी अर्थव्यवस्था डगमगा सकती है. चूंकि यूरोप की अर्थव्यवस्था चरमरा रही है, इसलिए हमारे यहां भी इसका विपरीत प्रभाव पड़ सकता है. इन बयानों के पीछे क्या कारण हो सकते हैं?
दादा प्रणब मुखर्जी का आकलन करने के लिए कई पहलुओं को देखना पड़ेगा. पहला पहलू है नौकरशाही. नौकरशाही की प्रतिक्रिया, नियुक्ति में देरी, पोस्टिंग्स-ट्रांसफर में देरी. दूसरा है मेजर पॉलिसी डिसीजन (नीति निर्णय) में देरी. तीसरा पहलू है प्रधानमंत्री और दूसरे मंत्रियों के साथ उनके रिश्ते. चौथा है वित्त मंत्री के रूप में जितनी उनसे आशाएं थीं, क्या वे पूरी हुईं? एलआईसी का चेयरमैन डेढ़ साल तक और ओरियंटल इंश्योरेंस कंपनी का चेयरमैन दो साल तक अप्वाइंट नहीं हुआ. 2010 में तीन बैंकों के चेयरमैन तीन-तीन महीने देर से नियुक्त हुए. तीन महीने तक उक्त पद खाली पड़े रहे. इस साल कुछ बैंकों में एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर नियुक्त होने थे, जिनकी नियुक्ति एक बोर्ड करता है, जिसका चेयरमैन रिजर्व बैंक का गवर्नर होता है. 6 महीने पहले नियुक्तियां हो गईं, लेकिन वित्त मंत्रालय ने दादा के इस्ती़फे तक इन्हें क्लीयर नहीं किया. पैरालिसिस की स्थिति आ गई है. इसका असर बैंकों पर पड़ रहा है. जहां पर ये लोग काम कर रहे हैं, वहां पर काम नहीं हो रहा है, क्योंकि इन्हें दूसरे बैंकों में जाना है और जहां इन्हें जाना है, वहां काम ठप पड़े हैं, क्योंकि जब तक ये नहीं आएंगे, तब तक फैसले कौन लेगा.
इस तरह प्रणब मुखर्जी साहब ने 12 बैंकों को, अपना फैसला न लेने के कारण पैरालाइज (पंगु) कर दिया. ये नियुक्तियां क्यों नहीं हो रही हैं? जब मैंने छानबीन की तो पता चला कि दरअसल दादा अपने तीन लोगों को, अप्वाइंटमेंट कमेटी के फैसले के खिला़फ तीन बैंकों में लाना चाहते थे और चूंकि यह संभव नहीं हुआ, इसलिए उन्होंने अप्वाइंटमेंट कमेटी की स़िफारिशों को मंज़ूरी ही नहीं दी. ये तीनों व्यक्ति तीन छोटे बैंकों के चेयरमैन हैं, लेकिन दादा इन्हें तीन बड़े बैंक देना चाहते थे. आईडीबीआई में सीएमडी नियुक्त होना है और सेबी में दो नियुक्तियां होनी हैं. ये सारे पद दो साल से खाली पड़े हैं. सेबी बहुत महत्वपूर्ण संस्थान है. यूटीआई के चेयरमैन का पद पिछले डेढ़ साल से खाली पड़ा है. यहां पर ओमिता पॉल अपने भाई श्री खोसला को लाना चाहती थीं. यूटीआई में अमेरिकन कंपनी विदेशी साझीदार है और उसमें एक क्लॉज पड़ा हुआ है, चेयरमैन हैज टू बी अप्वाइंटेड विद कंसर्न ऑफ ऑल पार्टीज (सभी की सहमति से चेयरमैन की नियुक्ति होनी है).
दादा अपने तीन लोगों को, अप्वाइंटमेंट कमेटी के फैसले के खिला़फ तीन बैंकों में लाना चाहते थे और चूंकि यह संभव नहीं हुआ, इसलिए उन्होंने अप्वाइंटमेंट कमेटी की स़िफारिशों को मंज़ूरी ही नहीं दी. ये तीनों व्यक्ति तीन छोटे बैंकों के चेयरमैन हैं, लेकिन दादा इन्हें तीन बड़े बैंक देना चाहते थे. आईडीबीआई में सीएमडी नियुक्त होना है और सेबी में दो नियुक्तियां होनी हैं. ये सारे पद दो साल से खाली पड़े हैं.
उस विदेशी कंपनी ने यह आपत्ति कर दी कि मिस्टर खोसला डज नॉट हैव एक्सपीरिएंस (श्री खोसला के पास अनुभव नहीं है). उसने खोसला के लिए सहमति नहीं दी और ओमिता पॉल ने और किसी को नियुक्त होने नहीं दिया. एसबीआई का मामला तो और मज़ेदार है. ओ पी भट्ट सेवानिवृत्त हुए और इन्होंने प्रदीप चौधरी को नया चेयरमैन बना दिया. ओ पी भट्ट के समय एक सीएमडी हुआ करता था और एक एमडी. इन्होंने एक सीएमडी बना दिया और तीन एमडी बना दिए. एसबीआई में पॉलिसी पैरालिसिस हो गया, क्योंकि तीन एमडी थे और तीनों के काम डिवाइड नहीं थे. तीनों में किसके पास सत्ता ज़्यादा है या कौन अपने को सुप्रीम साबित कर सकता है, इसकी होड़ लग गई. इसकी वजह से विश्व की एक रेटिंग एजेंसी ने एसबीआई की रेटिंग डाउन कर दी. मज़ेदार बात यह है कि उसने रेटिंग डाउन करने के लिए कोई आर्थिक कारण नहीं दिए, बल्कि उसने कहा कि पॉलिसी डिसीजन हैज बीन वेरी पुअर (कमज़ोर नीति निर्णय). अब सवाल यह है कि फैसले लेता कौन है? फैसला तो प्रणब मुखर्जी को ही लेना था. श्री एस एस एन मूर्ति सीबीडीटी के चेयरमैन थे. उन्हें सेवानिवृत्त करके ट्रिब्यूनल का सदस्य बनाया गया. सीबीडीटी के चेयरमैन पद पर ओमिता पॉल के गुरुभाई को लाना था. वह ब्लैक मनी कमेटी के चेयरमैन थे. ओमिता पॉल चाहती थीं कि वह ब्लैक मनी कमेटी के साथ-साथ सीबीडीटी के चेयरमैन भी हो जाएं. फाइल कैबिनेट सेक्रेट्री के पास गई, लेकिन उन्होंने इसे एप्रूव नहीं किया, बल्कि टाल दिया. वह सीबीडीटी के चेयरमैन नहीं बन पाए, केवल ब्लैक मनी कमेटी के चेयरमैन रह गए.
पॉलिसी मैटर में सबसे बड़ा उदाहरण वोडाफोन का है. वोडाफोन के मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसला दिया, जिसका सार यह है कि यू हैव डन रांग थिंग टू टैक्स वोडाफोन इन इंडिया (आपने भारत में वोडाफोन पर टैक्स लगाकर ग़लत किया है). इसके बाद वित्त मंत्री ने वोडाफोन पर रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स लगा दिया. सुप्रीम कोर्ट ने एकदम सा़फ कहा कि यू कैन नॉट टैक्स वोडाफोन (आप वोडाफोन पर टैक्स नहीं लगा सकते). फिर यह रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स का क्लॉज क्यों डाला. जब हमने वोडाफोन के साथ घटी इस घटना की जांच की तो वित्त मंत्रालय के लोगों ने कहा कि इसके बारे में अगर कोई कुछ भी बता सकता है तो मिसेज ओमिता पॉल बता सकती हैं, क्योंकि वह फैसला उन्होंने ही लिया था. अगर इसके पीछे पैसा है तो विदेशी कंपनी बड़ा पैसा दे नहीं सकती, क्योंकि वोडाफोन पहले ही यूके में रिश्वत के मामले में फंसी हुई है. ब्रिटिश और अमेरिकी कंपनी अपने यहां यह अंडरटेकिंग दे चुकी हैं कि वे फेयर प्रैक्टिस करेंगी. छोटे-मोटे मामले तो निकाले जा सकते हैं, लेकिन अगर कई सौ करोड़ का मसला हो तो यह मुश्किल हो जाता है. इन लोगों ने अपने यहां अंडरटेकिंग दे रखी है कि ये रिश्वत नहीं देंगे और अगर कोई भी ऐसी चीज़ साबित होती है तो कंपनियों के निदेशक जेल जा सकते हैं.
फाइनेंस सेक्टर सेंट्रल सब्जेक्ट (केंद्रीय सूची) में आता है और कोई भी राज्य सरकार न इसके ऊपर क़ानून ला सकती है और न अध्यादेश, लेकिन किसी ने इसे चुनौती नहीं दी और वित्त मंत्रालय इसके ऊपर खामोश रहा, क्योंकि प्रणब मुखर्जी के पास इसके ऊपर बैठक करने के लिए समय ही नहीं था. भारत में दो लाख करोड़ रुपये का माइक्रो फाइनेंस सेक्टर खत्म हो गया है. कह सकते हैं कि चैप्टर क्लोज. यह पॉलिसी पैरालिसिस का एक सटीक उदाहरण है.
अब टूजी स्कैम का मामला लें. जब टूजी स्कैम हुआ तो चिदंबरम वित्त मंत्री थे. उनके और राजा के बीच नोट का आदान-प्रदान हुआ. उसी तरह के नोट निश्चित तौर पर वित्त मंत्रालय और दूरसंचार मंत्रालय के बीच में भी भेजे गए होंगे, लेकिन वित्त मंत्रालय ने कोई भी ठोस फैसला नहीं लिया. उसके द्वारा ठोस फैसला न लेने के कारण हिंदुस्तान से दूरसंचार क्षेत्र लगभग खत्म होने की कगार पर आ गया है. दूरसंचार क्षेत्र से बड़ी कंपनियां भाग गईं. उससे ज़्यादा महत्वपूर्ण पहलू यह है कि दूरसंचार क्षेत्र में जिन कंपनियों के पांच करोड़ या दस करोड़ के टर्नओवर थे, वे बंद होने की कगार पर हैं. प्रॉविडेंट फंड बिल, माइक्रो फाइनेंस बिल अधूरे पड़े हुए हैं. एफडीआई के बारे में फैसला पिछले कई सालों से रुका पड़ा है. जाते-जाते प्रणब मुखर्जी ने फैसला लिया कि हम एफडीआई में और छूट देंगे. माइक्रो फाइनेंस बिल को तो उन्होंने बहुत खूबसूरती के साथ टाल दिया. बांग्लादेश में डॉ. खान ने एक बहुत ही खूबसूरत कॉन्सेप्ट डेवलप किया, जिसमें गांवों में किसानों को महाजनों से छुटकारा पाने का रास्ता बताया गया. किसान जब महाजन के पास जाता है तो उसे बहुत ऊंची ब्याज़ दर पर पैसा मिलता है. बैंक उसे पैसा देते नहीं. हमारे यहां भी माइक्रो फाइनेंस बिल आया, जिसमें बैंक किसानों को क़र्ज़ देंगे या बैंक द्वारा नामित कंपनियां उन्हें क़र्ज़ देंगी. इससे किसान अब खेती के साथ-साथ अपने छोटे उद्योग के लिए क़र्ज़ ले पाएगा. माइक्रो फाइनेंस सेक्टर उन राज्यों में तेज़ी से फलने-फूलने लगा, जो ग़रीब थे. कुछ दिनों के बाद आंध्र सरकार एक अध्यादेश ले आई.
मज़े की बात है कि फाइनेंस सेक्टर सेंट्रल सब्जेक्ट (केंद्रीय सूची) में आता है और कोई भी राज्य सरकार न इसके ऊपर क़ानून ला सकती है और न अध्यादेश, लेकिन किसी ने इसे चुनौती नहीं दी और वित्त मंत्रालय इसके ऊपर खामोश रहा, क्योंकि प्रणब मुखर्जी के पास इसके ऊपर बैठक करने के लिए समय ही नहीं था. भारत में दो लाख करोड़ रुपये का माइक्रो फाइनेंस सेक्टर खत्म हो गया है. कह सकते हैं कि चैप्टर क्लोज. यह पॉलिसी पैरालिसिस का एक सटीक उदाहरण है. दो साल से माइक्रो फाइनेंस बिल लंबित है. ग़रीब राज्यों में अब किसानों को, कमज़ोर वर्गों को कोई भी पैसा देने के लिए तैयार नहीं है. अब वे फिर से महाजनों के शिकंजे में जा चुके हैं. अगर सरकार के विभिन्न विभागों के बिलों पर नज़र डालें तो सबसे ज़्यादा लंबित बिल वित्त मंत्रालय के मिलेंगे, क्योंकि प्रणब मुखर्जी के पास इन बिलों को देखने के लिए समय ही नहीं था. प्रॉविडेंट फंड बिल अटका हुआ है, गार का मामला (जनरल एंटी अव्याडेंस रूल्स, जीएएआर), ब्लैक मनी का मामला, ये सारे मामले बिना किसी पॉलिसी डिसीजन (नीति निर्णय) के अधर में लटके हुए हैं.