अरविंद केजरीवाल राजनीति की नई उम्मीद हैं

अरविंद केजरीवाल ने कई राजनीतिक मान्यताओं को बदला है. हालांकि, उन्होंने कोई नई रणनीति नहीं बनाई. कांग्रेस और भाजपा के प्रति मतदाताओं के गुस्से को ही अपना हथियार बनाया, लेकिन अब वे बदलाव के ट्रेंड सेटर के तौर पर उभर रहे हैं. ज़ाहिर है कि अब उनकी निगाहें लोकसभा चुनाव की ओर हैं, जिसके लिए उन्हें कई नई पहल करनी होंगी. नीतियों के माध्यम से समस्याओं का हल खोजना होगा, अन्ना हजारे को साथ लेना होगा और देश के भीतर जगी नई राजनीतिक उम्मीद को क़ायम रखना होगा.


arrind-ki-rajneetiअरविंद केजरीवाल ने विधानसभा में विश्‍वास का मत जीत लिया. और विश्‍वास का मत भी इस अंदाज़ में जीता कि कांग्रेस के सामने समर्थन करने के अलावा कोई चारा नहीं रहा और भारतीय जनता पार्टी टुकुर-टुकुर अरविंद केजरीवाल को मुख्यमंत्री पद की कुर्सी पर बैठते हुए असहाय सी देखती रही. दरअसल, भारतीय जनता पार्टी ने ये मान लिया था कि कांग्रेस की नीतियों के ख़िलाफ़ देश में गुस्सा है, नरेंद्र मोदी का साथ है, पंद्रह साल का उनका वनवास है, जो 2013 में ख़त्म हो जाएगा और डॉ. हर्षवर्धन दिल्ली के नये मुख्यमंत्री बनेंगे. भारतीय जनता पार्टी इतना ज्यादा अतिउत्साह, अतिआत्मविश्‍वास में थी कि उसने प्रचार में सभी नेताओं को नियोजित ढंग से लगाया ही नहीं. उनका आत्मविश्‍वास तो स़िर्फ कांग्रेस के ख़िलाफ़ रोष और नरेंद्र मोदी की सभाओं में उपजी भी़ड को लेकर हद से ज्यादा ब़ढ गया था. अपने इसी चश्मे की वजह से वो दिल्ली के लोगों का गुस्सा नहीं देख पाए, जो जितना कांग्रेस के प्रति था, उतना ही भारतीय जनता पार्टी के प्रति भी था. लोगों को लगता था कि भारतीय जनता पार्टी ने विपक्ष की भूमिका का ठीक से निर्वहन नहीं किया. न उसने दिल्ली में किया, न उसने केंद्र में बैठी सरकार के ख़िलाफ़ पार्लियामेंट के अंदर किया. स़डकों पर तो भारतीय जनता पार्टी रस्मी तौर पर ही दिखाई दी. उसने कहीं पर भी कांग्रेस की नीतियों का विरोध ही नहीं किया. वो नीतियों का विरोध कर भी नहीं सकती थी, क्योंकि आर्थिक नीतियां उसकी और कांग्रेस की समान हैं. भाजपा की शिकायत स़िर्फ इतनी है, जो नरेंद्र मोदी अपनी सभाओं में कहते हैं कि कांग्रेस ने खुली उदारवादी आर्थिक नीतियों को ठीक से लागू नहीं किया, उसे वे ठीक से लागू करेंगे. अगर लोगों को ये पता होता कि अरविंद केजरीवाल को इतनी सीटें मिलेंगी तो ये निश्‍चित था कि अरविंद केजरीवाल को दिल्ली में स्पष्ट बहुमत से ज्यादा सीटें मिलतीं. अगर अन्ना हजारे उनके समर्थन में दिल्ली में प्रचार कर देते, तो भी अरविंद केजरीवाल को स्पष्ट बहुमत मिल जाता. लेकिन अरविंद केजरीवाल का दुर्भाग्य यह था कि उनका हृदय से साथ देने वाले लोग भी उन्हें 12 से 14 सीटों से ज्यादा देने को तैयार नहीं थे. पूरा मीडिया इस मामले में असफल साबित हो गया. सारे शास्त्रकार असफल साबित हो गए. कांग्रेस और भाजपा के रणनीतिकार इस मसले में मात खा गए. मात तो वैसे अरविंद केजरीवाल के साथियों ने भी खाई. जब योगेंद्र यादव ने दिल्ली में सर्वे कराया तो उन्होंने आम आदमी पार्टी को 47 सीटें दीं. ये 47 सीटें अरविंद केजरीवाल के प्रचार का हथियार बनीं. दरअसल, अरविंद केजरीवाल ने हर उस चीज़ का प्रचार के लिए इस्तेमाल किया, जिसका वे कर सकते थे. उन्होंने योगेंद्र यादव की साख़ का, उनके इन्स्टीट्यूट का भरपूर इस्तेमाल किया, बिना ये बताए कि योगेंद्र यादव उनकी ही पार्टी के नेता हैं. जो लोग योगेंद्र यादव को विभिन्न टीवी चैनलों में चुनाव का विश्‍लेषण करते हुए देखते थे, उन्होंने योगेंद्र यादव की उसी छवि को ध्यान रखा. इसीलिए जितना मीडिया असफल हुआ, जिसने अधिकांश संख्या 12 से 14 बताईं, वहीं मेरा मानना है कि योगेंद्र यादव भी फेल हुए, जिन्होंने 47 सीटें बताईं, लेकिन आईं 28.

देश की जनता राजनीति के रंग-ढंग से नाराज़ है. लोगों की समस्याएं राजनीति के रंग-ढंग ने ब़ढाई हैं, उनके रास्ते इस राजनीति ने बंद किए हैं. चाहे वे किसी भी जाति के हों, किसी भी समुदाय के हों या किसी भी आर्थिक वर्ग के हों, देश में कोई भी सुखी नहीं है. क्योंकि किसी को जीवन की आशा नहीं दिखाई देती, विकास की आशा नहीं दिखाई देती. इसीलिए लोग इस प्रचलित राजनीति को तो़डना चाहते हैं. लोग चाहते हैं कि राजनीति में अच्छे लोग आएं, सुलझे हुए लोग आएं, जनता के बीच के लोग आएं, लेकिन जैसा कि अक्सर होता है, अरविंद केजरीवाल भी अब किसी भी तरह के लोगों को साथ लेने में कोई परहेज नहीं बरत रहे.

पर ये 28 सीटें आना महत्वपूर्ण नहीं है. महत्वपूर्ण है दिल्ली का वो गुस्सा, दिल्ली के लोगों की वो तकलीफ़, जो उन्हें पिछले साठ सालों से झेलने को मिल रही है. उनकी सुनवाई न कांग्र्रेस में होती थी, न भारतीय जनता पार्टी में होती थी. ऐसे दल जो दिल्ली विधानसभा में दो या तीन सीटें लेकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते थे, उनके ख़िलाफ़ भी लोगों का गुस्सा था. इसीलिए मायावती जी की बहुजन समाज पार्टी दिल्ली के चुनाव में प्रतिशत के तौर पर भी साफ़ हुई और संख्या के तौर पर तो बिल्कुल साफ़ हो गई. दरअसल, कांग्रेस का सारा का सारा आधार खिसक कर आम आदमी पार्टी के साथ चला गया. दिल्ली में यह पहली बार हुआ कि झुग्गी-झोप़िडयों में लोगों ने पैसे नहीं लिए, झुग्गी-झोप़िडयों में शराब कम बंटी. आम तौर पर ये माना जाता रहा है कि झुग्गी-झोप़िडयां और अनधिकृत कॉलोनियां कांग्रेस का ट्रम्प कार्ड हैं, जहां पर एक रात या दो रात पहले शराब बंटती है, पैसा बंटता है और वोट कांग्रेस के पास आ जाता है. इस बार ऐसा नहीं हुआ. इस बार लोगों ने अपने आप अरविंद केजरीवाल को अपने यहां मीटिंग करने को बुलाया. लोगों ने अपने आप अरविंद केजरीवाल को समर्थन दिया. उन्होंने अरविंद केजरीवाल को राजनीतिक तंत्र के ख़िलाफ़ उपजे अपने गुस्से का हथियार बना लिया. ये हथियार लोगों का हथियार था, जिसका चुनाव में उन्होंने इस्तेमाल किया. इसके बाद की कहानी तो और मज़ेदार है, क्योंकि अरविंद केजरीवाल लोगों के गुस्से का प्रतीक बन रहे हैं, इस बात का पता न मीडिया को चला और न चुनाव विश्‍लेषकों को चला और न चुनाव पूर्व सर्वे करने वालों को चला. इससे एक चीज़ साफ होती है कि सारे विश्‍लेषण, सारे सर्वे ढाक के तीन पात हैं. ये लोगों को बेवकूफ़ बनाने के लिए होते हैं. यही हालत सीटों की राजस्थान में रही. किसी ने वसुंधरा राजे की इतनी सीटें आने की कल्पना नहीं की थी. हालांकि, अशोक गहलोत की वजह से वसुंधरा राजे सत्ता में आएंगी, ये तो उन्होंने मान  लिया था, लेकिन इतनी सीटों के साथ आएंगी, यह किसी ने नहीं माना था. अरविंद केजरीवाल ने पूरा प्रचार बिल्कुल उस तरह किया, जिस तरह छात्र आंदोलनों में होता है. उन्होंने वैसे ही नवजवानों को उद्वेलित किया. उन्होंने वैसे ही कार्यकर्ताओं को देश भर से बुलाया. बहुत सारे कार्यकर्ता तो देश भर से अपने आप आए. वो यहां पर आकर परेशानी में भी रहे. कुछ अच्छी तरह भी रहे. लेकिन काम सबने बराबर किया. और दिल्ली में हर जगह आम आदमी पार्टी के पक्ष में माहौल बनाने का काम जिस तरह से कार्यकर्ताओं ने दिल्ली में किया वो एक ऐसी अदभुद घटना थी, जिसे लोग भूल चुके थे. नब्बे के दशक से पहले इसी तरह से प्रचार होता था. राजनीतिक दलों के पास कार्यकर्ता थे. लेकिन इस बार राजनीतिक दलों के पास कार्यकर्ता नहीं रहे. राजनीतिक दलों ने आरोप लगाया कि अरविंद केजरीवाल ने पैसा देकर दो हज़ार दिहा़डी पर लोगों को अपने पक्ष में प्रचार करने के लिए आरक्षित कर लिया है. दरअसल, वो ये समझ नहीं पाए कि अरविंद केजरीवाल के पक्ष में नवजवान क्यों प्रचार करने को उतर गया है? उनके पक्ष में क्यों विदेश से लोग प्रचार करने के लिए आ रहे हैं? ये कोई समझ नहीं पाया. हम भी समझ नहीं पाए. हम अरविंद केजरीवाल को अतिउत्साही चुनावी योद्धा के रूप में देखते रहे. लेकिन अरविंद केजरीवाल का वह अति उत्साह दिल्ली की जनता को ये भरोसा दे गया कि यही श़ख्स है जो उनके ग़ुस्से का हथियार बन सकता है. अरविंद केजरीवाल ने पारंपरिक राजनीति नहीं की. अपारंपरिक राजनीति की, उन्होंने सीधी राजनीति की. जिसमें कांग्रेस और भाजपा या पत्रकार, मीडिया, चुनाव विश्‍लेषक उनकी रणनीति समझते रहे. अरविंद केजरीवाल ने कोई रणनीति नहीं बनाई. उन्होंने स़िर्फ एक काम किया. लोगों के बीच जाकर उन्होंने भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के प्रति अपने स़ख्त रवैये को लेकर ये विश्‍वास दिला दिया कि वो कांग्रेस और भाजपा के साथ समझौता नहीं करेंगे और यही दिल्ली के लोगों के दिल को जीत गया. अब जब विधानसभा में अरविंद केजरीवाल की जीत हो गई है और उन्होंने कांग्रेस के प्रति ज़रा भी नर्म रवैया अपनाए बिना, जिस तरह से विधानसभा में अपना भाषण दिया, वो ये बताता है कि अरविंद केजरीवाल ने कुर्सी के लिए समझौता नहीं किया.

अरविंद केजरीवाल को यह भी साफ़ करना है कि क्या बाज़ार आधारित आर्थिक नीतियां चलेंगी? किसान की फ़सल और उसकी ज़मीन का क्या होगा? जल, जंगल, ज़मीन का निजीकरण हो रहा है, क्या अरविंद केजरीवाल उसे रोकेंगे? या उसका साथ देंगे. देश की नदियां विदेशी कंपनियों को बेची जा रही हैं, अरविंद केजरीवाल उसका समर्थन करेंगे या उसका विरोध करेंगे? ये सवाल हैं जिन सवालों का जवाब अरविंद केजरीवाल को जल्दी से जल्दी देना प़डेगा, क्योंकि 2014 का लोकसभा चुनाव सिर पर है.

हालांकि, दिल्ली के गलियारों में एक ख़बर गर्म है कि लोदी कॉलोनी के अमन होटल में राहुल गांधी जिम जाते हैं. राहुल गांधी से शीला दीक्षित ने कहा कि अरविंद केजरीवाल को अगर समर्थन दिया तो ये कांग्रेस के हित में होगा, वर्ना भारतीय जनता पार्टी, आम आदमी पार्टी के विधायकों को इस्तीफ़ा दिला देगी या कांग्रेस के विधायकों को ख़रीद लेगी. चूंकि, आठ ही कांग्रेस के विधायक चुनकर आए हैं, हो सकता है कि इनमें पांच लोग बीजेपी की तरफ चले जाएं. क्योंकि कोई भी चुनाव नहीं चाहता. इसलिए उन्हें आम आदमी पार्टी का समर्थन करना चाहिए. राहुल गांधी को शीला दीक्षित ने लगातार दो दिन जब ये समझाया तो राहुल गांधी के दिमाग़ में ये आ गया कि आम आदमी पार्टी का समर्थन करना चाहिए. उसी जिम में उनकी मुलाक़ात कुछ लोगों से हुई, जिन लोगों को राहुल गांधी ने ग्रीन सिग्नल दे दिया कि आम आदमी पार्टी का समर्थन करना चाहिए. हालांकि, कांग्रेस में लोग यह मानते हैं कि अब कांग्रेस अगले दस सालों तक दिल्ली की राजनीति से ग़ायब हो गई है, क्योंकि अरविंद केजरीवाल का एजेंडा लोगों का एजेंडा है. कांग्र्रेस और भाजपा इस एजेंडे पर कभी नहीं चलतीं. लोगों को अगर अरविंद केजरीवाल के क़दम भा गए तो अगले चुनाव में, चाहे वह छह महीने में हों या साल भर में हों, अरविंद केजरीवाल एक प्रचंड बहुमत के साथ दिल्ली में आएंगे. इसलिए कांग्रेस में बहुत सारे लोगों का कहना है शीला दीक्षित और राहुल गांधी ने मिलकर दिल्ली की कांग्रेस को साइनाइड खिला दिया है. इतना ही नहीं, उन लोगों का यह भी कहना है कि कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी का समर्थन कर ये संकेत दे दिया है कि वह अब राष्ट्रीय स्तर पर भी अप्रसांगिक होने के लिए तैयार है और उसका सारा आधार अरविंद केजरीवाल के साथ अगर चला जाए तो उन्हें कोई चिंता नहीं होगी. दरअसल, बीजेपी और कांग्रेस अरविंद के राजनीति के इस प्रयोग को समझ ही नहीं पाईं. क्योंकि अरविंद केजरीवाल का दिल्ली में किया गया प्रयोग सोचा समझा, योजना बनाकर किया गया प्रयोग नहीं था और टे़ढा-मे़ढा प्रयोग भी नहीं था, इसीलिए हर चीज़ में रहस्य देखने वाले लोग अरविंद केजरीवाल के इस क़दम को नहीं समझ पाए. लेकिन अरविंद केजरीवाल के इस प्रयोग का असर कांग्रेस और भाजपा शासित राज्यों में दिखना शुरू हो गया है. महाराष्ट्र में बिजली की दरें कम हों, इसके लिए सरकार चिंतित हो गई और संजय निरूपम ने एक चिट्ठी लिखकर कांग्रेस की राजनीति में हंगामा ख़डा कर दिया. वहीं हरियाणा सरकार ने बिजली के दाम कम कर दिए हैं. उत्तर प्रदेश सरकार ने किसानों को 12 घंटे बिजली देने का वायदा कर दिया है. वसुंधरा राजे ने सामान्य रहन-सहन और गा़िडयों के क़ाफ़िले की संख्या को घटाने का ़फैसला लिया है. और भी राज्य हैं जो दिल्ली के लोगों को देश की नब्ज़ मानकर शायद कुछ ़फैसले करेंगे. इसलिए अरविंद केजरीवाल का दिल्ली में जीतना राष्ट्रीय स्तर पर कई तरह के भविष्य के संकेत देता है. लेकिन अरविंद केजरीवाल के दिल्ली में जीतने का थो़डा-सा और विश्‍लेषण करना चाहिए. अरविंद केजरीवाल ने समस्याओं को विचारधारा का रूप दे दिया. समस्या चाहे बिजली की हो, चाहे पानी की हो, उन्होंने दिल्ली में उसी को विचारधारा बना दिया. जबकि विचारधारा के आधार पर समस्याओं को सुलझाने के क़दम उठाए जाते हैं. और जो क़दम विचारधारा के आधार पर नहीं उठाए जाते, उन क़दमों का स्थायित्व बहुत दिनों तक नहीं रहता. सवाल ये है कि पानी का संरक्षण कैसे हो, पानी लोगों को कैसे मिले, पानी बिकने के पीछे कौन लोग हैं, इसका पैसा कहां-कहां जाता है और क्या दिल्ली में हर एक को पानी देने की नीति बनाई जानी चाहिए? उसी तरह बिजली और इसके उत्पादन पर विचार होना चाहिए. कोयला ख़त्म हो रहा है, पानी ख़त्म हो रहा है, बिजली दिल्ली में ख़ुद बन नहीं रही है. क्या ऐसा नहीं हो सकता कि सूरज की रोशनी का उपयोग किया जाए और हर मोहल्ले का और हर उद्योग का एक बिजली घर बन जाए? संभव है, पर ये निर्भर करता है नीति पर. हालांकि, हम ये नहीं कह सकते कि अरविंद केजरीवाल के दिमाग़ में ये सारी बातें नहीं होंगी. पर जो चीज़ हमें दिखाई दी, वो ये कि समस्याओं को विचारधारा नहीं बनाना चाहिए, बल्कि विचारधारा या नीति बनाकर समस्याओं को उनके आधार पर हल करना चाहिए, तभी ग़रीब और वंचित को फ़ायदा मिल पाएगा. देश की जनता राजनीति के रंग-ढंग से नाराज़ है. लोगों की समस्याएं राजनीति के रंग-ढंग ने ब़ढाई हैं, उनके रास्ते इस राजनीति ने बंद किए हैं. चाहे वे किसी भी जाति के हों, किसी भी समुदाय के हों या किसी भी आर्थिक वर्ग के हों, देश में कोई भी सुखी नहीं है. क्योंकि किसी को जीवन की आशा नहीं दिखाई देती, विकास की आशा नहीं दिखाई देती. इसीलिए लोग इस प्रचलित राजनीति को तो़डना चाहते हैं. लोग चाहते हैं कि राजनीति में अच्छे लोग आएं, सुलझे हुए लोग आएं, जनता के बीच के लोग आएं, लेकिन जैसा कि अक्सर होता है, अरविंद केजरीवाल भी अब किसी भी तरह के लोगों को साथ लेने में कोई परहेज नहीं बरत रहे. उनके दल में भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस या समाजवादी पार्टी के नेता ध़डल्ले से शामिल हो रहे हैं और शामिल होने के बाद लोगों में असर डाल रहे हैं कि अब वही अरविंद केजरीवाल के ख़ास हैं और अरविंद केजरीवाल ने उन्हें टीम केजरीवाल में शामिल कर लिया है. दिल्ली आम तौर पर संपन्न है. यहां झुग्गी-झोप़डी में रहने वाल भी कूलर हीटर, एयर कंडीशंड जैसी चीज़ों का इस्तेमाल करता है. लेकिन इसके बावजूद दिल्ली में लोगों के पास खाने को रहने को जगह नहीं है. अगर दिल्ली में यह हाल है, या दिल्ली का सामान्य आदमी अपनी ज़िंदगी को लेकर गुस्सा है तो अंदाज़ा लगाना चाहिए कि देश का क्या हाल होगा? देश के जितने भी सीमावर्ती प्रदेश हैं, उन सबमें नक्सलवाद या उग्रवाद बुरी तरह से ब़ढ रहा है. कश्मीर से देखना शुरू करें और बंगाल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और केरल होते हुए कहीं भी चले आएं, आपको हर जगह नक्सलवाद और उग्रवाद की फ़सल दिखाई देगी. ये नक्सलवाद अब किनारे के प्रदेशों से होकर बीच के प्रदेशों में आ गया है. बिहार में आ गया है, महाराष्ट्र में आ गया है. छत्तीसग़ढ में आ गया है. मध्य प्रदेश में आ गया है. उत्तर प्रदेश में आ गया है. ये समस्याओं को हल न कर पाने के गुस्से से उपजा नक्सलवाद है. लोग कहते हैं कि शांतिपूर्ण ढंग से समस्याएं नहीं सुलझाई जा सकतीं. मुझे लगता है कि यहां पर अरविंद केजरीवाल की प्रासंगिकता है. अरविंद केजरीवाल अगर समस्याओं को सुलझाने में एक समझदार इंसान का रोल निभाते हैं और एक ऐसे मुख्यमंत्री बनते हैं जो लोगों की समस्याओं को लेकर 24 घंटे चिंतित रहता है तो अरविंद केजरीवाल देश में एक नई आशा पैदा करेंगे और नक्सलवाद या उग्रवाद जैसी समस्याओं से निपटने के लिए एक नया दरवाज़ा खोलेंगे. दरअसल, देश का मुख्य सवाल आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक है. लोग अरविंद केजरीवाल से जानना चाहेंगे हैं कि उनकी आर्थिक नीतियां क्या हैं? क्या चलती हुई मौजूदा बाज़ार व्यवस्था के पक्ष में वे हैं या इस पूरी अर्थव्यवस्था को बदल कर वो जनाभिमुखी अर्थव्यवस्था को शुरू करना चाहेंगे, जिसमें हर आदमी को करने के लिए कुछ हो? अगर अरविंद केजरीवाल ये दर्शन सफाई से सामने रखते हैं तो अर्थव्यवस्था को लेकर, समाज व्यवस्था को लेकर और शिक्षा व्यवस्था को लेकर देश के लोगों को उनमें एक नया नेता दिखाई देगा. और अगर अरविंद केजरीवाल भी भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस की तरह से बाज़ार आधारित अर्थनीति का समर्थन करते हैं तो अरविंद केजरीवाल अपने लिए असफलता का दरवाज़ा ख़ुद खोल लेंगे. अरविंद केजरीवाल को यह भी साफ़ करना है कि क्या बाज़ार आधारित आर्थिक नीतियां चलेंगी? किसान की फ़सल और उसकी ज़मीन का क्या होगा? जल, जंगल, ज़मीन का निजीकरण हो रहा है, क्या अरविंद केजरीवाल उसे रोकेंगे? या उसका साथ देंगे. देश की नदियां विदेशी कंपनियों को बेची जा रही हैं, अरविंद केजरीवाल उसका समर्थन करेंगे या उसका विरोध करेंगे? ये सवाल हैं जिन सवालों का जवाब अरविंद केजरीवाल को जल्दी से जल्दी देना प़डेगा, क्योंकि 2014 का लोकसभा चुनाव सिर पर है. इसीलिए जब तक नई आर्थिक नीतियां नहीं बनतीं, सत्ता का विकेंद्रीकरणा नहीं होता, तब तक उठाए गए सारे क़दम काउंटर प्रोडक्टिव भी हो सकते हैं, ये ख़तरा बना रहेगा. अरविंद केजरीवाल ने अपनी टीम बनाई है. उनका साथ सुप्रसिद्ध वकील प्रशांत भूषण, मनीष सिसोदिया, संजय सिंह, कुमार विश्‍वास और शाज़िया इल्मी जैसे लोग दे रहे हैं. ये सारे लोग समझदार लोग हैं और इन्होंने अपनी भाषा से बताया है कि उनका पक्ष जनता की तरफ़ है, उनका रुख़ जनता के साथ है. इसके बावजूद उनके एक साथी की भाषा असभ्य, गाली-गलौज भरी व शिष्टता से परे है. अरविंद को यह कहावत ध्यान रखनी चाहिए कि एक मछली सारे तालाब को गंदा करती है. लेकिन अरविंद केजरीवाल की सबसे ब़डी प्रशंसा इसलिए करनी चाहिए कि उन्होंने नवजवानों की एक ऐसी खेप ख़डी कर दी जो दिमाग़ी तौर पर कांग्रेस और भाजपा के नवजवान नेताओं के सामने बौद्धिक चुनौती पेश कर रहे हैं. अरविंद केजरीवाल ने पूरी एक नवजवानों की पी़ढी को दिमाग़ी तौर पर प्रभावित किया है. ये भाजपा और कांग्रेस के नवजवानों का मुक़ाबला, जिनमें ल़डके और लडकियां दोनों शामिल हैं, बख़ूबी हर जगह करते दिखाई देते हैं. अगर ये सारे उत्साही नवजवान, जिनमें बदलाव के प्रति आस्था नये सिरे से पैदा हुई है, अगर ये नीतियों पर भी साफ़ हो जाएं तो भारतीय राजनीति में अरविंद केजरीवाल की ये बेमिसाल देन होगी. आशा है कि इस बारे में अरविंद केजरीवाल अवश्य सोच रहे होंगे. अरविंद केजरीवाल और अन्ना हजारे में शुरू से एक मतभेद रहा. अन्ना हजारे का ये मानना था बदलाव का रास्ता लोकसभा से जाता है, जबकि अरविंद का ये मानना था कि अगर हम दिल्ली विधानसभा जीत जाते हैं तो उससे देश में एक नई आशा पैदा होगी. आज फिर दो रास्ते हमारे सामने हैं.

दिल्ली आम तौर पर संपन्न है. यहां झुग्गी-झोप़डी में रहने वाल भी कूलर हीटर, एयर कंडीशंड जैसी चीज़ों का इस्तेमाल करता है. लेकिन इसके बावजूद दिल्ली में लोगों के पास खाने को रहने को जगह नहीं है. अगर दिल्ली में यह हाल है, या दिल्ली का सामान्य आदमी अपनी ज़िंदगी को लेकर गुस्सा है तो अंदाज़ा लगाना चाहिए कि देश का क्या हाल होगा? देश के जितने भी सीमावर्ती प्रदेश हैं, उन सबमें नक्सलवाद या उग्रवाद बुरी तरह से ब़ढ रहा है.

अगर अन्ना हजारे जी की बात के पीछे की रणनीति को परखें, अगर यही माहौल अरविंद केजरीवाल दिल्ली विधानसभा की जगह लोकसभा के लिए देश भर में बनाते और लोकसभा का चुनाव लड़ते, तो आज लोग पागलों की तरह देशभर से अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल के पीछे खड़े दिखाई देते, क्योंकि लोगों का गुस्सा अन्ना ने समझा था कि वह सिस्टम के प्रति है. अरविंद ने उस गुस्से का एक रूप देखा. अरविंद के दिल्ली के प्रयोग का एक ख़तरा है. अगर अरविंद का प्रयोग दिल्ली में अगले चार महीने में, तीन महीने में असफल हो गया या कहीं पर थोड़ा सा डाइल्यूट हो गया तो सारे देश में लोगों को लगने लगेगा कि यह प्रयोग करने लायक नहीं है. शायद इसीलिए अन्ना हजारे पूरे तौर पर लोकसभा का चुनाव लड़ना चाहते थे. हालांकि, अरविंद के साथ दो श़ख्स ऐसे हैं जो अरविंद को दिमाग़ी तौर पर बांध कर रखने वाले व्यक्तित्व हैं, जिनमें पहला नाम योगेंद्र यादव का है जो बुनियादी तौर पर हिंदुस्तान की ग़रीब जनता के पक्षधर हैं और दूसरा नाम प्रो. आनंद कुमार का है, जो शुरू से डॉ. लोहिया और जय प्रकाश जी की विचारधारा के मिले-जुले मूर्त रूप हैं. प्रो. आनंद कुमार जवाहर लाल नेहरू विश्‍वविद्यालय में प्रोफेसर हैं, लेकिन उनकी भाषा-शैली, उनका रहन-सहन और चीज़ों को समझने की क्षमता अरविंद केजरीवाल के लिए एक बड़ी मदद है. जहां तक योगेंद्र यादव का सवाल है वो किशन पटनायक के विश्‍वस्त साथी रहे हैं और किशन पटनायक ने अपनी सारी ज़िंदगी हमेशा ग़रीबों की चिंता में काटी और उनके लिए लड़े. वो डॉ. लोहिया के ऐसे नौजवान दोस्त थे, जिन्होंने संसद में बड़ी-बड़ी बहसों को जन्म दिया था. मुझे आज भी किशन पटनायक और ओमप्रकाश दीपक की जोड़ी याद है. ओमप्रकाश दीपक अद्भुत श़िख्सयत थे. शायद आज का ज़माना जिस तरह से अरविंद केजरीवाल का स्वागत कर रहा है अगर अरविंद केजरीवाल और अन्ना हजारे को किशन पटनायक और ओमप्रकाश दीपक जैसे व्यक्तित्वों का साथ मिला होता तो आज यह लड़ाई सामाजिक संदर्भों की सभी सबसे बड़ी लड़ाई बन जाती. अभी भी वक्त है. अरविंद केजरीवाल देश के बारे में जो भी सोचते हैं उसे वे जाकर अन्ना हजारे को बताएं. अन्ना हजारे को अपनी रणनीति समझाएं, क्योंकि अन्ना हजारे का मानना है कि वो पार्टी और पक्ष का समर्थन नहीं करेंगे, क्योंकि संविधान में पार्टी शब्द नहीं है और अन्ना हजारे सच्चे लोकतंत्र के लिए पार्टियों को सही नहीं मानते. लेकिन इसके बावजूद इस संक्रमण काल में अगर अरविंद केजरीवाल अन्ना हजारे के पास जाते हैं और अन्ना को संपूर्ण संदर्भ बतलाते हैं और 2014 के लोकसभा चुनाव में वो किस तरह से और किन लोगों को साथ लेकर भारत की राजनीति में हस्तक्षेप करना चाहेंगे, शायद भारत की राजनीति में यह टर्निंग प्वाइंट हो सकता है. अरविंद केजरीवाल अगर यह समझते हैं कि बिना अन्ना हजारे के वो लोकसभा का चुनाव लड़कर जीत सकते हैं, तो मुझे लगता है कि उनकी सोच में कहीं अतिरेक है. आज भी दिल्ली की सरकार को देश के अधिकांश हिस्सों में अन्ना की सरकार कहा जा रहा है. लोग यह ध़डल्ले से कह रहे हैं, ऐसे उदाहरण उत्तर प्रदेश, बिहार राजस्थान, मध्य प्रदेश, जहां कहा जा रहा है कि दिल्ली प्रदेश में अन्ना की सरकार बन गई. इसमें अन्ना का कोई योगदान नहीं है अन्ना का योगदान है तो मात्र इतना कि अरविंद केजरीवाल ने अपने पूरे कैंपेन को मनोवैज्ञानिक तौर पर अन्ना के साथ जोड़ दिया था. यह रामलीला मैदान जहां अन्ना का अनशन हुआ था, अन्ना का जनलोकपाल का सपना जैसे जुमले दिल्ली के लोगों को अन्ना आंदोलन की याद दिला रहे थे. आज अरविंद केजरीवाल के पास बड़ा मौक़ा है कि वो जाएं, अन्ना हजारे से बात करें, उन्हें अपने साथ जोड़ने की कोशिश करें और देश में ग़रीब की आशा, गरीब का विश्‍वास, देश के लोगों के आखों का सपना जो अन्ना के आंदोलन ने जगाया था, उस सपने को साकार करने के लिए अन्ना को तैयार करें. उन्हें साथ लें. तभी उनके लिए 2014 के चुनावों में सफलता की आशा है अन्यथा 2014 का चुनाव किसी के भी पक्ष में जा सकता है. मैं आख़िरी पंक्तियां अरविंद जी के लिए कहना चाहता हूं. अरविंद जी, अन्ना जी का कहना है कि वो सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ हैं, क्योंकि सांप्रदायिकता देश को तोड़ देगी, लेकिन वो धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भ्रष्टाचार के भी ख़िलाफ़ हैं, क्योंकि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भ्रष्टाचार वो कभी सहन ही नहीं कर सकते और यहां से 2014 के चुनावों में अन्ना के हस्तक्षेप और अरविंद के दिमाग़ की एक बड़ी गुंजाइश दिखाई देती है. देखते हैं भविष्य इस देश की जनता के भाग्य में कोई अच्छा पन्ना जोड़ता है, नई इबारत लिखता है या नहीं. मेरा मानना है कि 2014 का चुनाव देश के भाग्य को बदलने वाला चुनाव साबित होगा.


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