यह देश विश्वास का मारा हुआ है. इस देश ने हर उस आदमी पर भरोसा किया, जिसने कहा कि हम समस्याओं से निजात दिलाएंगे. एक ओर नेहरू, इंदिरा, राजीव एवं वी पी सिंह तो दूसरी ओर जनता ने डॉ. राम मनोहर लोहिया और जेपी पर भरोसा किया. लोहिया ने सबसे पहले मिली-जुली सरकार की शुरुआत की थी. लोगों ने भरोसा किया, लेकिन उनकी समस्याएं हल कम हुईं, उल्टे और बढ़ गईं. धीरे-धीरे देश के लोग उस जगह पर पहुंच रहे हैं, जहां पर यह सवाल खड़ा हो गया है कि वे किसी पर भरोसा करें या न करें. ऐसे समय में अन्ना हजारे और बाबा रामदेव हमारे सामने आए हैं. अन्ना हजारे एवं रामदेव और जेपी, लोहिया एवं नेहरू आदि में बुनियादी फर्क़ है. पहले के लोगों ने विचारों के आधार पर समर्थन मांगा, जबकि रामदेव और अन्ना हजारे ने समस्याओं के आधार पर समर्थन मांगा है. यह बुनियादी फर्क़ देश को एक नए विश्वास और अविश्वास के चौराहे पर खड़ा कर देने वाला है. देश के लोग एक और धोखा न खाएं, इसलिए उन्हें अन्ना हजारे और रामदेव के वैचारिक और मानसिक स्तर को समझने की ज़रूरत है.
बाबा रामदेव या अन्ना हजारे के साथ जन समर्थन क्यों है? देश में कोई भी भ्रष्टाचार के ख़िला़फ खड़ा होगा, उसे जनता का समर्थन मिलेगा. इन लोगों को जनता का समर्थन इसलिए मिलता है, क्योंकि ये आशा जगाते हैं. लोग राजनीतिक दलों से निराश हो चुके हैं, सरकार और सत्ता से निराश हो चुके हैं. निराश होने की वजह यह है कि पिछले एक साल में एक के बाद एक इतने घोटालों का पर्दाफाश हुआ है कि लोगों को एक साथ सारे घोटालों का नाम भी याद रखना मुश्किल हो गया है. आम आदमी का सामना हर रोज इस भ्रष्ट तंत्र होता है. जब वह नेताओं के बारे में सोचता है, उसे भ्रष्ट व्यक्ति का चेहरा नज़र आता है. संसद की ओर देखता है तो निराशा और भी बढ़ जाती है. अधिकारियों की ओर देखता है तो उनमें एक घूसखोर नज़र आता है. सुप्रीम कोर्ट को छोड़कर ऐसी कोई भी संस्था नहीं बची है, जिससे देश की जनता को कोई उम्मीद बची हो. देश में बेरोज़गारी, अशिक्षा और महंगाई है. आतंकवाद की वजह से पूरे देश में डर और ख़ौ़फ का माहौल है. ढाई सौ से भी ज़्यादा ज़िले नक्सलवाद की गिरफ़्त में आ चुके हैं. ऐसे में बाबा रामदेव और अन्ना हजारे आशा की किरण की तरह दिखते हैं. जब ये आवाज़ देते हैं तो लोग घर से बाहर निकल पड़ते हैं. बाबा रामदेव को इस बात के लिए श्रेय मिलना चाहिए कि उन्होंने भ्रष्टाचार और काले धन के ख़िला़फ लोगों को जागरूक किया.
बाबा रामदेव की कुछ कमज़ोरियां भी हैं. सबसे बड़ी कमज़ोरी विचारधारा को लेकर है. किसी आंदोलन का नेतृत्व करना आसान काम नहीं है. इसके लिए भविष्य की साफ तस्वीर का होना ज़रूरी है. बाबा रामदेव भ्रष्टाचार से लेकर व्यवस्था परिवर्तन तक की बात तो करते हैं, लेकिन उनके पास भविष्य का कोई नक्शा नहीं है. बाबा रामदेव ने काले धन को लेकर पूरे देश को आंदोलित करके अनोखा काम किया है, लेकिन वह यह नहीं समझ पाए कि प्रजातंत्र में हर जाति, धर्म, वर्ग के लोगों का सहयोग लेना ज़रूरी होता है. एक सफल आंदोलन की पहचान यही है कि वह किसी वर्ग, जाति और धर्म के लोगों को नाराज़ नहीं करता. जेपी और लोहिया के आंदोलन की यह ख़ासियत होती थी कि कोई उनके आंदोलन का समर्थन करे या न करे, लेकिन वे किसी को विरोध करने का मौक़ा नहीं देते थे. बाबा रामदेव ने साध्वी ॠतंभरा से भाषण दिलवा कर देश के कई लोगों को नाराज़ कर दिया. बाबा रामदेव की इसी कमज़ोरी ने सरकार को यह हिम्मत दी कि वह रात के अंधेरे में पुलिसिया कार्रवाई कर सकी. बाबा रामदेव की यह भूल भ्रष्टाचार के ख़िला़फ देशव्यापी आंदोलन के लिए बहुत बड़ा झटका साबित हुई.
कांग्रेस पार्टी ने बाबा रामदेव को सरकारी ताक़त का एहसास करा दिया. पहली बार बाबा रामदेव बैकफुट पर नज़र आ रहे हैं. कांग्रेस पार्टी अब बाबा के साम्राज्य की क़ानूनी कमज़ोरियां तलाश रही है. बाबा के पास इतने पैसे कहां से आए, टैक्स दिया या नहीं दिया, विदेश में कहां-कहां पैसे निवेश किए, कहां-कहां क़ानून तोड़ा गया. गुरु शंकरदेव के गुम होने की वजह और रामदेव के साथी राजीव दीक्षित की मौत के रहस्य के बारे में भी पता लगाया जा रहा है. लेकिन सवाल है कि सरकार यह सब अब क्यों कर रही है. वह भी तब, जब चार-चार मंत्री एयरपोर्ट पर मिलने जाते हैं. कांग्रेस के कई नेताओं के रामदेव से पुराने संबंध रहे हैं. तब बाबा रामदेव की पड़ताल क्यों नहीं हुई. सरकार ने बाबा रामदेव की संस्था को आर्थिक मदद क्यों दी. राजनीति भी अजब-ग़ज़ब खेल कराती है. इसलिए जब सरकार और बाबा के बीच का क़रार टूटा, तब सरकार ने अपनी ताक़त दिखा दी. रात के व़क्त जब क़रीब 20 हज़ार लोग टेंट के अंदर सो रहे थे, तब पुलिस ने जो किया, उससे पूरे देश में सनसनी फैल गई. पुलिस की यह हरकत किसी भी नज़रिए से सही नहीं कही जा सकती. वैसे इस भगदड़ के दौरान बाबा रामदेव ने जो किया, उसका भी आकलन लोग कर रहे हैं. पुलिस की कार्रवाई सख्त थी. उन्हें दिल्ली से हरिद्वार भेज दिया गया. उन्होंने मायावती से नोएडा में आंदोलन करने की इजाज़त मांगी, लेकिन मायावती ने इसे ठुकरा दिया. बाबा का आंदोलन अब हरिद्वार के पतंजलि योगपीठ में सीमित हो गया है. सरकार जो सवाल बाबा रामदेव से पूछ रही है, उसमें कई सवाल ऐसे हैं, जिनका जवाब रामदेव के पास है, लेकिन कुछ ऐसे सवाल भी हैं, जिनका जवाब बाबा रामदेव के पास नहीं है. रामदेव के आंदोलन का पहला लक्ष्य काला धन वापस लाना है और विदेशी बैंकों में काला धन जमा करने वालों को बेनक़ाब करके उन्हें दंडित करना है. इस मुहिम में बाबा के साथ पूरे देश को खड़ा होना चाहिए. लेकिन एक सवाल उठता है कि क्या देश का काला धन स़िर्फ विदेशी बैंकों में है. देश में जो काला धन है, जमाखोरी है, कालाबाज़ारी है, उसका क्या होगा. बाबा रामदेव को विदेशों में जमा काले धन के साथ देश के अंदर मौजूद काले धन को बाहर निकालने के लिए भी अपनी मुहिम में जगह देनी चाहिए.
आम आदमी का सामना हर रोज इस भ्रष्ट तंत्र होता है. जब वह नेताओं के बारे में सोचता है, उसे भ्रष्ट व्यक्ति का चेहरा नज़र आता है. संसद की ओर देखता है तो निराशा और भी बढ़ जाती है. अधिकारियों की ओर देखता है तो उनमें एक घूसखोर नज़र आता है. सुप्रीम कोर्ट को छोड़कर ऐसी कोई भी संस्था नहीं बची है, जिससे देश की जनता को कोई उम्मीद बची हो. देश में बेरोज़गारी, अशिक्षा और महंगाई है. आतंकवाद की वजह से पूरे देश में डर और ख़ौ़फ का माहौल है. ढाई सौ से भी ज़्यादा ज़िले नक्सलवाद की गिरफ़्त में आ चुके हैं. ऐसे में बाबा रामदेव और अन्ना हजारे आशा की किरण की तरह दिखते हैं.
बाबा रामदेव ने अब तक अपने आंदोलन या पार्टी की कोई समग्र और संगठित विचारधारा पेश नहीं की है. वह अपने शिविरों और रैलियों में राजनीति के बारे में बातें करते हैं. उनकी बातों से लगता है कि वह भारत में स्वदेशी व्यवस्था, अंग्रेजी भाषा के बहिष्कार, गौ हत्या के विरोध और अखंड भारत के पैरोकार हैं. रामदेव के भाषणों से जो बात निकल कर आती है, उससे यही लगता है कि उनकी विचारधारा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा एक जैसी है. रामलीला मैदान में बाबा रामदेव ने कहा कि स्विस बैंकों से चार सौ करोड़ रुपया भारत लाना है और गौ हत्या के पाप से भी देश को बचाना है. गौ हत्या को अपराध संघ भी मानता है. काले धन पर भी रामदेव ने भाजपा वाली लाइन ले ली. विदेशों में जमा काले धन को निशाना बनाया. आश्चर्य की बात यह है कि पिछले लोकसभा चुनाव में आडवाणी ने काले धन का मामला उठाया, तबसे बाबा रामदेव ने भी उस काले धन को मुख्य मुद्दा बनाया, जो विदेशों में है.
विचारधारा न होने का यही दुष्परिणाम होता है कि आप मंच से कूदते हैं, महिलाओं के वस्त्र पहनते हैं. आपको जान जाने का डर लगने लगता है, आप जान बचाकर भागने की कोशिश करते हैं. लेकिन यहीं पर नेता का चरित्र पता चलता है. जो जनता का नेता होता है, उसकी यह ख्वाहिश होती है कि उस पर पुलिसिया अत्याचार होते हुए लोग देखें. विचारधारा के अभाव में यह आंदोलन कहां पहुंचेगा, पता नहीं. उनके सारे बयान किसी सामाजिक परिवर्तन की रूपरेखा सामने नहीं रखते. इसका उदाहरण है, उनका एक बयान कि अब वह अपनी सेना बनाएंगे. आलोचना हुई तो कह दिया कि नहीं बनाएंगे. यहीं पर लोगों के विश्वास को, हो सकता है कि एक बड़ा धक्का मिले.
दुर्भाग्य की बात यह है कि देश में आज न कोई नेता है और न कोई दल, जो विचारों और सिद्धांतों के आधार पर देश को एक नया सपना दिखा सके. इसीलिए जब समस्या आधारित आंदोलनों की बात कोई करता है तो लोग उसे शक की नज़र से देखते हुए भी उसका साथ देते हैं, क्योंकि सिद्धांत और विचारधारा कहीं नज़र नहीं आते. समस्या पर आधारित आंदोलन कभी बदले हुए समाज या बदली हुई व्यवस्था का स्वरूप रख ही नहीं सकता. इसीलिए बाबा रामदेव से यह आशा करना कि वह किसी नए समाज या व्यवस्था परिवर्तन का कोई नक्शा देश के सामने रख पाएंगे, बेवकूफी है. इसके बावजूद जब देश में सरकार के घोटाले पर घोटाले सामने आ रहे हों और भारतीय जनता पार्टी सहित वामपंथी दल विपक्ष की राजनीति के सिद्धांतों का मखौल उड़ा रहे हों, ऐसे समय में अन्ना हजारे और बाबा रामदेव द्वारा उठाई गई समस्याओं का स्वागत करना चाहिए.