अन्ना ने एक अच्छा मौक़ा गंवा दिया

jab-top-mukabil-ho1अन्ना हजारे पर चारों तऱफ से हमला हो रहा है. एक तऱफ राजनीतिज्ञ हमला कर रहे हैं तो दूसरी तऱफ मीडिया हमला कर रहा है. राजनीतिज्ञ दो तरह से हमले कर रहे हैं. पहला हमला उनकी छवि को बिगाड़ने का हो रहा है, जिसका नेतृत्व श्री दिग्विजय सिंह कर रहे हैं. और दूसरा हमला उनकी छवि को भुनाने का हो रहा है, जिसका नेतृत्व श्री मोहन भागवत और भारतीय जनता पार्टी के तमाम नेता कर रहे हैं. दोनों ही लोग अन्ना हजारे को देश के राजनीतिक परिदृश्य से ख़त्म कर देना चाहते हैं. शायद अन्ना हजारे इस लायक़ हैं भी. जो आदमी वहां चूक करे, जहां देश के भविष्य की बात हो, तो उसके साथ ऐसा ही व्यवहार होना चाहिए. अन्ना हजारे ने ख़ुद कोई प्रयास नहीं किया और न ही उनके साथियों ने प्रयास किया कि देश की जनता उनके साथ जुड़े. उन्होंने एक सही मुद्दा चुना और देश के लोगों को लगा कि हां, यही वह व्यक्ति है, जो उनके सपनों को साकार करने की दिशा में कम से कम एक क़दम चल सकता है. उसका कोई स्वार्थ नहीं. लोगों ने अन्ना में गांधी, जयप्रकाश और लोहिया की छवि देखी. इसलिए सारे देश के वे लोग जो तकली़फ में ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं, वे नौजवान जिनके सामने भविष्य नहीं है, वे औरतें जो अपने परिवार की आर्थिक स्थिति को लेकर हमेशा चिंतित रहती हैं. सभी लोग चाहे वे उत्तर के रहने वाले हों या पूरब के हों, पश्चिम के हों या दक्षिण के हों, अन्ना हजारे के पक्ष में लामबंद हो गए. अन्ना हजारे को यह पता भी नहीं है कि जिन दिनों उन्होंने उपवास किया या अनशन किया, उस दौरान देश में हज़ारों लोगों ने अनशन किया. मैं कई ऐसे लोगों को जानता हूं, जो अनशन करते हुए मृत्यु के दरवाज़े तक पहुंच गए थे. उनमें शहडोल के श्याम बहादुर नम्र एक नाम है, जिन्हें पुलिस ने उनके अनशन के 12वें दिन गिरफ़्तार किया. उसके एक दिन बाद अन्ना हजारे का अनशन टूटा. मैं इसलिए कह रहा हूं कि अन्ना हजारे इसी व्यवहार के लायक़ हैं, क्योंकि अन्ना हजारे को जो करना चाहिए था, उन्होंने वह नहीं किया. अन्ना हजारे को यह समझना चाहिए, जब लोगों की आकांक्षाएं, लोगों के सपने किसी बात से जुड़ते हैं तो फिर व्यक्तिगत फैसले के दायरे में अपने क़दम का निर्धारण करना, लोगों के साथ छल करना है.

अन्ना हजारे के पास आ़खिरी मौक़ा बचा है. अगर वह सोचेंगे कि जब चाहें देश में निकलेंगे और लोगों का समर्थन उन्हें मिल जाएगा, जो शायद मुमकिन नहीं. अगर वह तीन या चार महीने के बाद निकलते हैं, तो बहुत देर हो चुकी होगी. तब वह उन लोगों को एक वाजिब तर्कदे देंगे, जिनका लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास नहीं है. जो या तो तानाशाह हैं या अतिवादी हैं.

अन्ना हजारे की मांग के समर्थन में सारा देश ख़डा हुआ, लेकिन देश जन लोकपाल के अलावा भी बहुत सारे सवालों पर खड़ा हुआ. उसे लगा कि चलो एक मुद्दा यह मिला. पर एक आदमी शायद बाक़ी मुद्दों को भी सामने लेकर आए और देश को असली लोकतंत्र के दायरे में ले जाने की कोशिश करे. इसलिए बच्चे, बूढ़े, नौजवान, औरतें, अमीर-ग़रीब हर जाति के लोगों ने अन्ना हजारे को समर्थन दिया. हो सकता है, राजनीतिक दलों के लोग उनके साथ खड़े हुए हों, पर कोई भी अपना झंडा लेकरखड़े होने की हिम्मत नहीं कर पाया. भारतीय जनता पार्टी के नेता शिव पुरोहित जब अपनी पार्टी का झंडा लेकर आज़ाद मैदान में अन्ना हजारे का समर्थन करने पहुंचे तो अन्ना के लोगों ने उनको वापस कर दिया. अगर बिना झंडे के कोई गया तो वह इस देश के नागरिक की हैसियत से गया. जो भी बिना झंडे के देश के नागरिक होने की हैसियत से गया, उसका स्वागत होना चाहिए. हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई सब अन्ना के आंदोलन में थे. अन्ना इस ताक़त को नहीं पहचान पाए. अन्ना हजारे अगर इस ताक़त को पहचानते तो वह इतने बीमार नहीं थे कि वह चल फिर नहीं सकते थे. वह नरेश त्रेहान के अस्पताल से निकले और हवाई जहाज़ और कार में बैठकर अपने गांव पहुंचे. गांव से वैसे ही वह वापस आ सकते थे. देश की उन तमाम जगहों पर जा सकते थे, जहां के लोगों ने सारे ख़तरे उठाकर अपने काम को रोका और अपना निस्वार्थ समर्थन अन्ना हजारे को दिया. अन्ना हजारे ने सोचा, अब तो ये लोग खड़े ही हो गए हैं हमारे पक्ष में. हम जब आवाज़ देंगे, तब लोग फिर खड़े हो जाएंगे. अन्ना हजारे यह भूल गए कि जनता का उभार, अगर उसमें विश्वास का जामन न डाला जाए तो फिर विश्वास दूध ही दूध रहता है, दही नहीं बन पाता. दूध खराब हो जाता है थोड़े दिनों के बाद. विश्वास का जामन अन्ना हजारे ने लोगों के मन में नहीं डाला. डालने का एक ही तरीक़ा था कि वह देश में हर जगह जाते. उत्तर से शुरू करते, दक्षिण से शुरू करते, कहीं से भी शुरू करते. लेकिन लोगों के बीच जाकर यह कहते कि यह मेरा आंदोलन है, आप मेरे साथ रहिए. अगर अन्ना हजारे यह करते तो, न उनके खिला़फ दिग्विजय सिंह की रणनीति सफल हो पाती, न मोहन भागवत की उनके श्रेय को छीनने की और न ही अन्ना के चेहरे पर कोई नक़ाब चढ़ाने की कोशिश सफल हो पाती. दूसरी तऱफ मीडिया, जो इस मुल्क में बड़े पैमाने पर न केवल बड़े पैसे वालों से निर्देशित होता है, चूंकि वे मालिक हैं, बल्कि अ़खबार वालों में बहुत सारे ऐसे हैं, जो राजनीतिक दलों के नेताओं के हमप्याला, हमनिवाला हैं. वे अपने राजनीतिक मित्रों को उपकृत करने के लिए कुछ भी कर सकते हैं. ये सारे लोग अन्ना पर हमला कर रहे हैं और अन्ना के साथी परेशान हैं. उनका कहना है कि यह तो हमने कहा ही नहीं. ये हमले हमारे ऊपर क्यों हो रहे हैं. शायद ये हमले नहीं हो पाते. अरविंद केजरीवाल से मेरी बात हो रही थी. उन्हें बहुत दुख था कि न उनका किरण बेदी से कोई झगड़ा है और न ही किसी और से कोई विवाद है, लेकिन लोग उनको एरोगेंट क्यों कह रहे हैं? रोज़-रोज़ उन्हें नए विभूषण क्यों दिए जा रहे हैं? विशेषण क्यों दिए जा रहे हैं? अरविंद केजरीवाल की समझ में मुश्किल से आएगा कि इनका जवाब क्या है. इनका एक ही जवाब था, जो उन्होंने नहीं दिया, और एक ही जवाब है, जो वह अगर चाहें तो दे सकते हैं. अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी, मनीष सिसौदिया या किसी और के लोगों के बीच जाने से काम नहीं बनेगा, क्योंकि लोगों ने उन्हें विश्वास नहीं दिया था, समर्थन नहीं दिया था. लोगों ने अन्ना हजारे को समर्थन दिया था. अन्ना हजारे बीमार ही सही. कुर्सी पर ही बैठकर अगर देश में घूमते हैं और स़िर्फ हाथ हिलाते हैं तो चमत्कारिक बदलाव देखने को मिलेगा. साथ ही उस समय मीडिया के वे लोग जो अन्ना हजारे की छवि धूमिल कर रहे हैं या राजनीतिक दलों के लोग, जो येन-केन-प्रकारेण उन्हें राजनीतिक प्रदृश्य से ग़ायब करना चाहते हैं, वे सारे लोग मुंह की खाएंगे और फिर उनकी हिम्मत अन्ना हजारे का विरोध करने की नहीं होगी.

गांधी के ज़माने में अंग्रेजों के दलाल कम नहीं थे, लेकिन देश में उनकी कोई नहीं सुनता था. बड़े-बड़े अख़बारों में गांधी के खिला़फ अभियान चलता था, लेकिन लोग उनकी नहीं सुनते थे, गांधी की सुनते थे. जयप्रकाश नारायण के ज़माने में उनके ऊपर हमला होता था, लेकिन लोग जयप्रकाश की बात को ही सही मानते थे. गांधी ने हिंदुस्तान को आज़ाद कराया और देश को आज़ाद सरकार दी. जयप्रकाश ने देश से कांग्रेस की सरकार हटाकर राष्ट्रीय स्तर पर पहली ग़ैर कांग्रेसी सरकार दी. तीसरा आंदोलन विश्वनाथ प्रताप सिंह का था. वीपी सिंह ने जनता को साथ लिया. उन पर भी बहुत हमले हुए, लेकिन उन्होंने भी ग़ैर कांग्रेसी सरकार इतिहास में दूसरी बार देश को दी. अब यह उन सरकारों को चलाने वालों की नालायक़ी थी, जो जनहित के अपने एजेंडे को पूरा नहीं कर पाए और राजनेताओं की छवि सत्ता के लिए लड़ने-झगड़ने वालों की बन गई. जनता में यह संदेश गया कि उन्हें सरकार चलानी नहीं आती. इन दोनों से ज़्यादा भरोसा लोगों ने अन्ना हजारे को दिया. उन्हें चाहिए था कि लोगों के भरोसे को और मजबूत करने के लिए वह देश भर में घूमते. वह देखते कि इस देश में किस तरह नए परिवर्तन की संभावना उन्होंने पैदा कर दी है. पर अन्ना हजारे ने यह नहीं किया. इसलिए आज वह ऐसे आरोप झेल रहे हैं, जिसे लेकर वह और उनके साथी तिलमिला रहे हैं. आज भी अगर अन्ना हजारे और उनके साथी देश में, देश के सवालों को लेकर घूमना शुरू करें तो अभी भी कुछ नहीं बिग़डा है. उनके साथी अकेले नहीं घूमें, क्योंकि उनमें से किसी को यह हक़ नहीं है कि वे जनता से कहें कि तुम ऐसा करो. क्योंकि उनका सार्वजनिक जीवन में उतना योगदान नहीं है, जिस योगदान की बदौलत लोग उनके साथ खड़े हों. वे लोग अन्ना के साथ जुड़कर ही ब़डा काम कर सकते हैं. अगर ये अन्ना हजारे की बायीं तऱफ खड़े होंगे तो शून्य माने जाएंगे और अगर अन्ना हजारे कीदायीं तऱफ खड़े होंगे तो उनकी संख्या सौ, हज़ार, दस हज़ार, एक लाख, दस लाख, दस करोड़ हो जाएगी. क्योंकि एक अंक के दाहिनी तऱफ लगे हुए शून्य ही कोई मतलब रखते हैं, बायीं तऱफ लगे शून्य कोई मतलब नहीं रखते. अन्ना हजारे के पास आ़खिरी मौक़ा बचा है. अगर वह सोचेंगे कि जब चाहें देश में निकलेंगे और लोगों का समर्थन उन्हें मिल जाएगा, जो शायद मुमकिन नहीं. अगर वह तीन या चार महीने के बाद निकलते हैं, तो बहुत देर हो चुकी होगी. तब वह उन लोगों को एक वाजिब तर्कदे देंगे, जिनका लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास नहीं है. जो या तो तानाशाह हैं या अतिवादी हैं. ऐसे लोग कह सकते हैं कि शांतिपूर्ण आंदोलन चलाने वाले न तो आंदोलन चलाना जानते हैं और न ही सरकार शांतिपूर्ण आंदोलन को मानती है. इसलिए हमें ग़ैर संवैधानिक और हिंसक आंदोलन चलाने चाहिए. अन्ना हजारे एक बात क्यों भूल जाते हैं कि शेर की सवारी का एक ही मूल्य है. या तो शेर की पीठ पर बैठकर आप रास्ता पार कर जाएंगे या शेर आपको गिराकर खा जाएगा. हमारी कामना है कि अन्ना हजारे शेर की पीठ पर बैठकर सवारी करते हुए दिखाई दें, न कि शेर उन्हें गिराकर खा जाए. अब यह अन्ना हजारे के ऊपर है कि वह शेर को साधते हैं या फिर शेर का शिकार बनते हैं.


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