अन्ना हजारे और बाबा रामदेव का इन पांच राज्यों में न घूमना शुभ संकेत है. शुभ संकेत इसलिए है, क्योंकि अन्ना हजारे की भाषा कांग्रेस विरोधी थी और बाबा रामदेव तो कांग्रेस की जड़ में मट्ठा डालने का ही काम कर रहे थे. इससे ये जनता की शक्ति के प्रतीक न बने रहकर कांग्रेस पार्टी की विरोधी ताक़त के प्रतीक बन रहे थे. इन्होंने कभी जनता की ताक़त, खराब होते लोकतंत्र, खराब होते चुनाव और आशाएं तोड़ते नेताओं को अपना निशाना नहीं बनाया. इन्होंने एक-एक मुद्दा पकड़ा और उस मुद्दे को लेकर पार्टी विशेष का विरोध करना शुरू कर दिया. इस विरोध में भी कभी दोनों नेता एक मंच पर नहीं आए. ऐसा लगा कि जैसे साख की लड़ाई चल रही हो. अन्ना हजारे बड़े या बाबा रामदेव. इस श्रेय की लड़ाई को हिंदुस्तान के आम आदमी ने आंसू भरी आंखों से देखा और उसे लगा कि उसने अन्ना हजारे या बाबा रामदेव का साथ देकर शायद कोई बड़ी ग़लती की. इस चुनाव के समय लोगों की अपेक्षा थी कि अन्ना हजारे और बाबा रामदेव कोई ऐसा घोषणापत्र जारी करेंगे, जिसमें लिखा होगा कि जो आदमी इन-इन बिंदुओं के बारे में अपनी राय सा़फ करेगा, इन बिंदुओं का समर्थन करते हुए जनता का साथ देने का वायदा करेगा, उसे जनता वोट दे.
वे सारे लोग, जो अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के साथ महीनों अपना कामकाज छोड़कर लगे रहे, आज निराश हैं. उन्हें लगा कि उन्होंने जिस उत्साह से इन दोनों का समर्थन किया, ये लोग उसके योग्य, पात्र नहीं हैं. हमारे लोकतंत्र के लिए यह वैसा ही दु:खद समय है, जैसा सुखद समय आज से कुछ महीनों पहले आया था. जब लगा था कि अन्ना हजारे और रामदेव जैसे लोग देश में घूमेंगे. अब ऐसे नेता नहीं हैं, जो सत्ता में न जाकर जनता की बात करें, जनता के बीच जाएं, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया. हिंदुस्तान का नौजवान इन दोनों के साथ खड़ा हो गया था. उसे अपनी बेरोज़गारी से लड़ने का, भ्रष्टाचार से लड़ने का, धुंधला सा ही सही, एक रास्ता नज़र आने लगा था. इन लोगों ने समझा कि ये जब चाहेंगे, तब हिंदुस्तान की जनता इनके साथ खड़ी हो जाएगी और इन्होंने लोगों की नब्ज न समझ कर अपने दिमाग़ के हिसाब से काम करना शुरू कर दिया. हिंदुस्तान के लोग, खासकर हिंदुस्तान के नौजवान निराश हो गए.
इस चुनाव के समय लोगों की अपेक्षा थी कि अन्ना हजारे और बाबा रामदेव कोई ऐसा घोषणापत्र जारी करेंगे, जिसमें लिखा होगा कि जो आदमी इन-इन बिंदुओं के बारे में अपनी राय सा़फ करेगा, इन बिंदुओं का समर्थन करते हुए जनता का साथ देने का वायदा करेगा, उसे जनता वोट दे. वे सारे लोग, जो अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के साथ महीनों अपना कामकाज छोड़कर लगे रहे, आज निराश हैं. उन्हें लगा कि उन्होंने जिस उत्साह से इन दोनों का समर्थन किया, ये लोग उसके योग्य, पात्र नहीं हैं. हमारे लोकतंत्र के लिए यह वैसा ही दु:खद समय है, जैसा सुखद समय आज से कुछ महीनों पहले आया था. जब लगा था कि अन्ना हजारे और रामदेव जैसे लोग देश में घूमेंगे. अब ऐसे नेता नहीं हैं, जो सत्ता में न जाकर जनता की बात करें, जनता के बीच जाएं, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया.
एक आखिरी आशा थी कि इन चुनावों में ये दोनों लोग जाएं और लोगों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए शिक्षित करें, लोगों के मन में लोकतंत्र के लिए विश्वास पैदा करें और उन लोगों के मन में डर बैठाएं, जिनके आचार-विचार लोकतंत्र के खिला़फ हैं. अगर ये दोनों मिलकर स़िर्फ एक कैंपेन इन पांच राज्यों में कर देते कि उसे वोट मत दो, जो अपराधी है, जो दाग़ी है, तो भी लोग समझते कि उन्होंने जिनमें अपना विश्वास व्यक्त किया था, वे अभी भी सामर्थ्य रखते हैं. ऐसा नहीं हुआ, ये लोग नहीं घूमे, लेकिन इसके बावजूद इन चुनावों में आम आदमी तो खड़ा होने की कोशिश कर ही रहा है. जगह-जगह नौजवानों के नुक्कड़ नाटक हो रहे हैं, कवि गीत लिख रहे हैं. कवि सम्मेलनों एवं मुशायरों में भ्रष्टाचार, राजनेताओं की काहिली और लोकतंत्र को डसने वाले सांपों पर रचनाएं सुनाई जा रही हैं. पंद्रह-पंद्रह हजार लोगों की भीड़ में कवि और शायर जनता के मन की व्यथा कह रहे हैं. ऐसा लगता है कि देश की चेतना नए सिरे से जगने वाली है.
जिस चीज को भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस नहीं समझ रही है, वह यह है कि गांव की चौपालों तक में भ्रष्टाचार को लेकर चर्चाएं हो रही हैं और लोग टेलीविजन और अ़खबारों के माध्यम से सच्चाई को पहचानने की कोशिश भी कर रहे हैं. हो सकता है कि ये चुनाव किसी को जिताएं, किसी को हराएं या कुछ लोगों को जिताएं, कुछ लोगों को हराएं या फिर हो सकता है कि कम वोट पाने वाले कई लोग मिलकर सरकार बना लें, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि आने वाले लोकसभा चुनाव में जनता का कोई करिश्मा सामने नहीं आ पाएगा. एक समय जनता का विश्वास प्राप्त किए हुए अन्ना हजारे और रामदेव जैसे लोग भले ही आज जनता से दूर रहकर अपने लिए संदेह के बादल निर्मित करें, पर आम लोगों के बीच में बहुत सारे ऐसे लोग पैदा हो गए हैं, जिनके मन में न केवल लोकतंत्र को लेकर विश्वास है, बल्कि वे इस स्थिति को बदलने के लिए आतुर भी हैं. यही नई पीढ़ी, यही नए लोग हिंदुस्तान के लोकतंत्र के प्रति आशा की किरण हैं. ज़रूरत इस बात की है कि इन आशा की किरणों को मुरझाने न दिया जाए. हालांकि हिंदुस्तान का मीडिया, हिंदुस्तान का टेलीविजन और हिंदुस्तान के अ़खबार ऐसी किसी भी पहल को प्रोत्साहन नहीं देंगे. इसके बावजूद देश के नौजवान, देश के चिंतनशील लोग मीडिया के समर्थन के बिना अपनी जगह पर खड़े हैं और छोटी-छोटी जगहों पर विश्वास के नए संबल पैदा कर रहे हैं. पांच राज्यों के ये चुनाव नए नेतृत्व के निर्माण की पहली आहट के गवाह बनेंगे, ऐसा हमें लगता है.