अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जैसे लोगों को सावधान हो जाना चाहिए. इतने दिनों के बाद भी उन्हें यह समझ में नहीं आ रहा है कि कौन-सा सवाल उठाना चाहिए और कौन-सा नहीं. एक वक़्त आता है, जिसे अंग्रेजी में सेचुरेशन प्वाइंट कहते हैं. शायद जो नहीं होना चाहिए, वह हो रहा है, यानी लोकतंत्र सेचुरेशन प्वाइंट की तऱफ ब़ढ रहा है. जिन परंपराओं और प्रावधानों की वजह से लोकतंत्र सर्वश्रेष्ठ प्रणाली के रूप में जाना जाता है, वे परंपराएं और प्रावधान भारत में किसी भी राजनीतिक दल को अब रास नहीं आ रहे हैं. इतनी छोटी-सी बात अन्ना हजारे और बाबा रामदेव को समझ में क्यों नहीं आ रही है. उनके जैसे लोग इस भ्रम में क्यों हैं कि देश में लोकतांत्रिक तरीक़े से आवाज़ सुनी जाएगी.
अन्ना हजारे और बाबा रामदेव को एक सिद्धांत को और समझना होगा. हमारा क़ानून कहता है कि 4 लाख करो़ड रुपये चुराने की सज़ा भी वही है, जो 4 आने चुराने की है. आखिरकार चोरी तो चोरी ही है. न्यायालय सत्ता की दलील पर कहता है कि 4 आने चुराने वाले को पहले सज़ा दो और 4 लाख करो़ड रुपये चुराने वाले को सज़ा देने में देर करो. शायद इसीलिए इन दिनों कई माननीय न्यायाधीश ग़लती से क़ानून के शिकंजे में आ गए हैं. सरकार जिसे चाहे, उसे बेईमान क़रार दे दे, जिसे चाहे अपमानित कर दे, जिसे चाहे देशद्रोही साबित कर दे और जब कुछ न कर सके तो उसे आतंकवादी क़रार दे दे. जब इसमें उसका साथ विपक्ष के नाते काम कर रही पार्टियां देने लगें, तो यही कहा जा सकता है कि लोकतंत्र सेचुरेशन प्वाइंट की तऱफ ब़ढ रहा है.
अन्ना हजारे और बाबा रामदेव की समझ राजनीतिक रूप से भी बहुत छोटी है. उन्हें यह क्यों नहीं दिखाई प़ड रहा कि उनका सामना किससे है. ग़ुंडागर्दी की बात छो़ड दें तो राजनीतिक तौर से उनका सामना मुलायम सिंह, लालू यादव, नीतीश कुमार, शरद यादव, और रामविलास पासवान जैसे जंगजू नेताओं से है. उनका राजनीतिक विरोध करने में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी पीछे चली गई है, अब उनका सामना कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की ओर से ये नेता कर रहे हैं. इन नेताओं का वजूद आंदोलनों से बना है. ये सारे नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया और लोकनायक जयप्रकाश नारायण के शिष्य कहलाते हैं.
अन्ना हजारे के साथियों पर बहुत गंभीर आरोप हैं. किरण बेदी ने इकॉनोमी क्लास की टिकट लेकर बिजनेस क्लास का किराया वसूला और दोनों के बीच का अंतर संस्था में जमा करा दिया. अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया के साथ प्रशांत भूषण पर भी कई आरोप हैं. बाबा रामदेव के साथी आचार्य बालकृष्ण को सीबीआई ने जेल में भेज दिया, लेकिन सत्ता और विपक्ष से जु़डे लोग किसी भी आरोप के दायरे में नज़र नहीं आ रहे हैं. इसका मतलब यह है कि अगर भ्रष्टाचार या कालेधन को लेकर ज़रा भी त़ेज आवाज़ होगी, तो उसे सत्ता और सत्ता की बी टीम विपक्ष अपने लिए विद्रोह की संज्ञा दे देंगे. विद्रोह की सज़ा भारत के संविधान में है. पहले माना जाता था कि भ्रष्टाचार करना देशद्रोह का काम है, लेकिन पिछले 20 वर्षों में इसमें परिवर्तन आ गया है. अब भ्रष्टाचार के खिला़फ आवाज़ उठाना देशद्रोह है.
अगर इस छोटी-सी बात को अन्ना हजारे और रामदेव समझ जाएं तो वे ़खुद भी तकली़फ से बचेंगे और दिल्ली में सत्ता और विपक्ष का लुकाछिपी का खेल खेलने वाले राजनीतिज्ञ भी तकली़फ से बचेंगे. इन सबके साथ मुंबई में नरीमन प्वाइंट पर बैठे पूंजीपति या पैसे वाले लोग भी आराम से सो पाएंगे.
एक डर के कारण इनके आराम में खलल प़ड रहा है और वह डर है कि अन्ना हजारे और रामदेव की वजह से अगर लोगों में कुछ नई आशाएं जग गईं और इन आशाओं की पूर्ति अगर ये लोग न कर पाए तो लोगों में निराशा पैदा होगी, जो अराजकता और नक्सलवाद को ब़ढावा दे सकती है. अगर जब देश में अन्ना हजारे और रामदेव जैसे लोग थो़डी सभ्यता सीख जाएं और खामोशी अख्तियार कर लें तो ब़डे पैसे वालों का डर समाप्त हो सकता है.
अन्ना हजारे और बाबा रामदेव की समझ राजनीतिक रूप से भी बहुत छोटी है. उन्हें यह क्यों नहीं दिखाई प़ड रहा कि उनका सामना किससे है. ग़ुंडागर्दी की बात छो़ड दें तो राजनीतिक तौर से उनका सामना मुलायम सिंह, लालू यादव, नीतीश कुमार, शरद यादव, और रामविलास पासवान जैसे जंगजू नेताओं से है. उनका राजनीतिक विरोध करने में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी पीछे चली गई है, अब उनका सामना कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की ओर से ये नेता कर रहे हैं. इन नेताओं का वजूद आंदोलनों से बना है. ये सारे नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया और लोकनायक जयप्रकाश नारायण के शिष्य कहलाते हैं. डॉ. लोहिया और जयप्रकाश नारायण ने ग़ैर कांग्रेसी और सांप्रदायिकता विरोधी संघर्ष चलाए, लेकिन विडंबना यह है कि ये नेता कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी समर्थित सिस्टम को बचाने में लग गए हैं. अन्ना हजारे और रामदेव अपनी रणनीतिक अकुशलता से खुद तो हारेंगे ही, इस देश के उन लोगों को भी हरवा देंगे, जो तकली़फ, दु:ख और पी़डा से कराह रहे हैं. इसके पीछे कोई बहुत ब़डा कारण नहीं है. कारण यही है कि उन्होंने अपनी ल़डाई में आम लोगों को हिस्सेदारी नहीं दी.
यह अलग बात है कि अगर सरकार और सरकार का हिस्सा बन चुके विपक्ष ने अपना रवैया न बदला और आम लोगों की तकली़फ, उनकी रोटी, उनकी भूख, उनकी बीमारी और उनकी इज्जत की परवाह नहीं की तो नक्सलवाद और अराजकता का खतरा उनके दरवाज़े पर दस्तक देने लगेगा. अब भी कई प्रदेशों की सरकार की सत्ता शाम के 7 बजते-बजते स़िर्फ राजधानी और कुछ ब़डे शहरों तक ही सिमट कर रह जाती है. बाक़ी जगहों पर या तो नक्सलवादी होते हैं या अराजक तत्व. सरकारों ग़रीब वंचित लोगों के मन में चल रही आंधी को जितना अनदेखा कर रही हैं, उतना ही अनदेखा हिंदुस्तान का कॉरपोरेट जगत भी कर रहा है. कॉरपोरेट जगत सामाजिक दायित्व के तहत अपनी साधारण ज़िम्मेदारी का भी निर्वाह नहीं कर रहा है. कॉरपोरेट जगत में भी कई गुट बन गए हैं. एक गुट नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाना चाहता है, तो दूसरा गुट राहुल गांधी के पीछे ख़डा हो गया है. कुछ कॉरपोरेट घराने तो ऐसे हैं, जिन्होंने राहुल गांधी को एक रुपया और नरेंद्र मोदी को साठ पैसे की मात्रा में बजट एलोकेट कर दिया है. अपने देश में राजनीतिक दलों के बीच होने वाली ल़डाई कैसी होगी, इसका फैसला भी कुछ ब़डे घराने कर रहे हैं. वे आसानी से राजनीतिक फैसले बदलवा देते हैं. एक ज़माना था जब राजनेताओं के यहां पूंजीपति बहुत डरते हुए जाता था कि कहीं उसे कोई देख न ले, लेकिन आज पूंजीपतियों के यहां राजनेता अपनी हाज़िरी लगवाने में अपनी शान समझते हैं.
जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं, तो उनके वाणिज्य मंत्री डी पी चट्टोपाध्याय थे. एक दिन डी पी चट्टोपाध्याय एक ब्रीफकेस में 3 लाख रुपये लेकर इंदिरा जी के पास चले गए. इंदिरा जी ने उन्हें बहुत डांटा और धवन द्वारा उन्हें फौरन घर से निकाल दिया. उन्होंने निर्देश दिया कि वह यह पैसा पार्टी के कोषाध्यक्ष सीताराम केसरी को ले जाकर दे दें. आज के ब़डे नेता उसे पार्टी से ही किनारे कर देते हैं, जो उन्हें पैसे नहीं पहुंचाता. अन्ना हजारे और रामदेव इन सच्चाइयों को जब तक नहीं समझते तब तक उन्हें परेशान रहने के लिए तैयार रहना चाहिए. वे 14-15 मंत्रियों के खिला़फ भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहे हैं, तो सरकार कह रही है कि आरोप ग़लत हैं. फिर अन्ना हजारे और रामदेव लोकनायक जयप्रकाश नारायण की तर्ज़ पर व्यवस्था बदलने की बात कर रहे हैं. लोकनायक जयप्रकाश नारायण के वारिस होने का दम भरने वाले लोग अब आंदोलनों में भरोसा नहीं करते. लोगों के मन में निराशा भी जल्दी आ जाती है और ये निराशा सत्ता के लिए बहुत ब़डा सहारा होती है. हर चीज़ खरीदी जा सकती है, की तर्ज़ पर जनता के सुख, सपने और भविष्य खरीदने वाले लोग यह नहीं जानते कि आज या कल, जब जनता की तीसरी आंख खुलेगी तो उसमें बहुत कुछ भस्म हो जाएगा. अन्ना हजारे और रामदेव अपने साथ जनता चाहते हैं, लेकिन खुद जनता के साथ ख़डे होना नहीं चाहते. शायद यही इन दोनों की विडंबना है.