ऐसे खत्म हुआ अन्ना का अनशन

annaप्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने एक मंत्रिमंडलीय साथी से कहा कि अन्ना बदमाश हैं और उनके साथी बदमाशी कर रहे हैं. आम तौर पर मनमोहन सिंह इस भाषा के लिए जाने नहीं जाते, लेकिन शायद देश में चल रहे अन्ना हजारे के आंदोलन का दबाव इतना था कि वह भाषा की शालीनता भूल गए. उसी तरह, जैसे मनीष तिवारी उम्र और राजनैतिक शिष्टाचार के सामान्य नियम भूलकर अन्ना हजारे को तुम और भ्रष्टाचार में लिप्त बता बैठे. प्रधानमंत्री ने अपने सहयोगी से यह भी कहा कि वह समझ नहीं पा रहे हैं, जब बातचीत में एक क़दम बात बढ़ती है तो बात बन क्यों नहीं पा रही है, तो उस सहयोगी ने कहा कि वार्ता करने वालों की टीम तो आपने ही बनाई है. इस पर प्रधानमंत्री का जवाब था कि इन लोगों ने जो कहा, मैंने वैसा कर दिया. इस सहयोगी के अनुसार, प्रधानमंत्री ख़ुद अभी परेशान हैं.

प्रधानमंत्री शायद इसलिए परेशान हैं, क्योंकि उन्हें आज भी समझ में नहीं आ रहा कि आंधी-पानी के बावजूद, एक ऐसे आदमी के साथ, जिसके पास न पैसा है और न संगठन, कैसे सारा देश खड़ा हो गया. देश के हर हिस्से में हर वर्ग के लोग, हर जाति और धर्म से रिश्ता रखने वाले लोग, हर उम्र के लोग, बच्चों से लेकर बूढ़े तक भ्रष्टाचार के ख़िला़फ लड़ाई में अन्ना हजारे के साथ खड़े हो गए, मानों ख़ुद अन्ना हजारे हों. नारा लगना शुरू हो गया, मैं भी अन्ना, तुम भी अन्ना. जो बाज़ार में जुलूस नहीं निकाल सकते, वे अपने मुहल्लों में जुलूस निकालने लगे. औरतें-बच्चे प्रभात फेरी निकालने लगे.

प्रधानमंत्री के पास कोई राजनैतिक कार्यकर्ता नहीं पहुंच पाता. उनकी आंख का काम उनका गृह मंत्रालय करता है. जब चौदह अगस्त को कैबिनेट की एक समिति में प्रधानमंत्री ने जानना चाहा कि यदि सोलह अगस्त से अन्ना अनशन करते हैं तो क्या होगा, तो गृहमंत्री चिदंबरम का कहना था कि पांच सौ से पांच हज़ार तक मुश्किल से लोग आएंगे. इस पर दूसरे कैबिनेट मंत्री कमल नाथ ने कहा कि आप तो रामदेव के समय भी यही कह रहे थे, लेकिन बीस हज़ार आ गए. पर रामदेव के आंदोलन को कुचलने के गुमान में डूबे गृहमंत्री ने कहा कि उनके पास आई बी है, जिसने उन्हें ख़बर दी है.

अगर ऐसी आई बी, यानी इंटेलिजेंस ब्यूरो है, जो इस बात का आकलन नहीं कर पाई कि अन्ना हजारे के साथ देश के आम आदमी की भावना जुड़ गई है और वह इस लड़ाई को लड़ने निकल पड़ेगा, तो आई बी को सुधारने की ज़रूरत है. वैसे इस पर विश्वास नहीं होता, क्योंकि इस आंदोलन में हर स्तर के अधिकारियों के परिवार वाले या उनके नज़दीकी सक्रिय रूप से शामिल हैं. मुझसे एक केंद्रीय मंत्री के अतिरिक्त निजी सचिव ने बताया कि वह रामलीला मैदान में अन्ना के आंदोलन को देखने गया तो वह इतना प्रभावित हो गया कि उसने अपनी बेटी के नाम पर पांच हज़ार एक रुपये की रसीद कटवा ली और अपना समर्थन इस आंदोलन को दे दिया. रामलीला मैदान में तीस से चालीस हज़ार आदमी-औरतें हमेशा डटे रहे. उनके खाने-पीने के लिए सामान देने में दिल्ली वालों में होड़ मच गई. आलू, आटा, केला, जूस, मिठाई, जिसके जो वश में था, लेकर वहां पहुंच गया. अन्ना की रसोई खुल गई. कोई भूखा न रहा. ज़बरदस्ती सामान की मदद देने वाले दिल्ली के बाहर से भी आने लगे.

जिस गांधी टोपी को कांग्रेस और पूरी राजनैतिक बिरादरी ने द़फन कर दिया था और जो स़िर्फ कांग्रेस सेवा दल के आधिकारिक समारोहों की औपचारिकता रह गई थी, उसे अन्ना के आंदोलन ने भ्रष्टाचार की लड़ाई का प्रतीक बना दिया. बच्चे, बूढ़े और जवान सारे देश में इस टोपी को पहने नज़र आने लगे. आज़ादी के बाद का राष्ट्रीय ध्वज आज़ादी की लड़ाई के तिरंगे के स्वरूप में लोगों के हाथ में भ्रष्टाचार के खिला़फ लड़ाई का मुख्य हथियार बन गया. लोगों से कटी सरकार और विपक्ष यह समझ ही नहीं पाए कि अन्ना की लड़ाई में लोग कैसे और क्यों शामिल हो गए.

इसीलिए विपक्ष शुरू में ख़ामोश रहा और उसे लगा कि इसे कांग्रेस के राजनैतिक नुक़सान में बदलने देना चाहिए, जिसका फायदा उसे ही मिलेगा. जब सोलह अगस्त को अन्ना को उनके साथियों के साथ गिरफ़्तार किया गया तो संपूर्ण विपक्ष की एक ही प्रतिक्रिया थी कि अन्ना को ग़लत गिरफ़्तार किया गया है. उन्हें अनशन करने देना चाहिए था. तीन दिनों के बाद लोग अपने आप घरों में वापस चले जाते. उन्होंने अन्ना को सलाह दी कि उन्हें संसदीय मर्यादा और तंत्र का सम्मान करना चाहिए. दरअसल उन्हें लग रहा था कि अन्ना की भाषा राजनैतिक व्यवस्था के ख़िला़फ एक बग़ावत है, जिसमें कांग्रेस के साथ वे भी लपेट में आ जाएंगे.

राजनीति बड़ी जटिल चीज है और उससे भी जटिल हैं हमारे राजनेता. ये जो सोचते हैं, वह बोलते नहीं हैं और जो बोलते हैं, वह कभी करते नहीं हैं. सरकार ने जन लोकपाल बिल को फिर से उलझा दिया है. टेबल थपथपा कर सांसदों और राजनीतिक दलों ने बता दिया कि प्रजातंत्र में लोकमत का कोई महत्व नहीं रह गया है. जब अनशन शुरू हुआ था, तब भी लोकपाल बिल स्थायी समिति के पास था और आज भी स्थिति वही है. अन्ना का अनशन खत्म हो गया, लेकिन अपने पीछे कई सवालों को छोड़ गया. जब वह अनशन पर बैठे, तब उन्होंने यह ऐलान किया था कि जब तक संसद से जन लोकपाल बिल पास नहीं होगा, तब तक वह अनशन और धरना करते रहेंगे. टीम अन्ना और सरकार के मंत्रियों के बीच अनशन के दौरान क्या-क्या बातचीत हुई, किसने क्या वायदे किए और किसने विश्वासघात किया? अन्ना के अनशन और समझौते की पूरी कहानी बता रही है यह एक्सक्लूसिव रिपोर्ट.

चौदह अगस्त से अन्ना से निपटने की कमान कपिल सिब्बल और चिदंबरम के हाथ में थी. दोनों बड़े वकील हैं. दोनों की भाषा महान है. दोनों को लगता है कि हथियार बंद आंदोलन भी उनका दुश्मन है और अहिंसक आंदोलन भी उनका दुश्मन है. पहले नक्सलवादियों को सेना द्वारा गोलियों से भुनवाने की घोषणा करने वाले गृहमंत्री अचानक ख़ामोश हो गए. सोलह अगस्त को एक तऱफ अन्ना को गिरफ़्तार किया गया तो दूसरी तऱफ कपिल सिब्बल, चिदंबरम और अंबिका सोनी ने एक प्रेस कांफ्रेंस की. इस प्रेस कांफ्रेंस को सारे देश ने देखा और देश को लगा कि ये उसके मंत्रियों जैसी प्रेस कांफ्रेंस नहीं है. यह तो घमंड में डूबी सरकार का भ्रष्टाचार के समर्थन में किया गया शंखनाद है.

कपिल सिब्बल और पी चिदंबरम बड़े वकील हैं. सुप्रीम कोर्ट में इनके साथियों का कहना है कि ये दोनों मंत्री बनने से पहले एक क्लाइंट से एक पेशी पर जाने का चार से पांच लाख रुपया लेते थे, भले जज आकर अगली तारीख़ दे दे. इनके संपर्क में आज भी वे ही हैं, जो एक पेशी पर पांच लाख रुपये देने की हैसियत रखते हैं. कांग्रेस कार्यकर्ताओं को छोड़ दीजिए, कांग्रेस सांसद भी दोनों से नहीं मिल सकते. इसीलिए दोनों को देश की जनता का आंदोलन करना और अन्ना का समर्थन करना अपने ख़िला़फ बग़ावत लगा. इनके टीवी पर आते ही लोग टीवी बंद करने लगे, क्योंकि उन्हें इनकी बॉडी लैंग्वेज अब अपने प्रतिनिधि या राजनेता जैसी नहीं लगती.

तिहाड़ जेल में बंद अन्ना और तिहाड़ के बाहर हज़ारों लोग अन्ना के समर्थन में. सारे देश में लोग अन्ना के समर्थन में लामबंद होने लगे. सोलह अगस्त की शाम सरकार को समझ में आया कि उससे ग़लती हुई. अब अन्ना ने जेल से निकलने से इंकार कर दिया. लेकिन सरकार को चार दिनों बाद समझ में आया कि चिदंबरम और कपिल सिब्बल को सामने से हटा लेना चाहिए. कपिल सिब्बल के बयानों ने देश में अन्ना के समर्थन में और लोगों को खड़ा कर दिया. सरकार ने सलमान ख़ुर्शीद को सामने किया. सलमान ख़ुर्शीद की ज़िम्मेदारी थी कि पर्दे के पीछे होने वाले फैसलों को वह जनता के सामने रखें. सलमान ख़ुर्शीद का चेहरा और भाषा सौम्य हैं, पर समस्या का कोई हल इन्हें भी समझ में नहीं आ रहा था. सरकार चाह रही थी कि जल्दी से जल्दी अनशन टूटे, क्योंकि उसे मीडिया से पता चल रहा था कि हर बीता दिन अन्ना का समर्थन बढ़ा रहा है.

प्रधानमंत्री ने मंत्रियों से बाहर हाथ-पांव मारने शुरू कर दिए. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने कहा कि भैय्यू जी महाराज को बुलाकर अन्ना से बात की जाए. केंद्रीय मंत्री एस एम कृष्णा ने श्री श्री रविशंकर को बुलाने का सुझाव दिया. प्रधानमंत्री ने दोनों को बुला लिया, पर दोनों को एक-दूसरे के बारे में नहीं बताया. भैय्यू जी महाराज राष्ट्रसंत कहे जाते हैं और लगभग हर महाराष्ट्रियन नेता के गुरु भी हैं और सहोदर भी. अन्ना हजारे से भी उनके अंतरंग संबंध हैं. दिल्ली आते ही वह पहले सलमान ख़ुर्शीद से, फिर प्रधानमंत्री से और बाद में अन्ना हजारे से मिले. अब तक अन्ना हजारे मंच पर ही सबसे मिलते रहे हैं, पर वह भैय्यू जी महाराज से बंद टैंट में एक घंटे तक मिले. उनके हाथ में एक काग़ज़ था. अन्ना ने उस काग़ज़ को पढ़ा तथा भैय्यू जी महाराज की व्यक्तिगत गारंटी पर वह उस पर दस्त़खत करने को तैयार हो गए. उन्होंने पेन भी निकाल लिया, लेकिन उसी समय टैंट में एक व्यक्ति ने प्रवेश किया. उसे देखते ही अन्ना बिफर से गए. यह थे महाराष्ट्र के अतिरिक्त गृह सचिव सारंगी. सारंगी को किसी ने नहीं बुलाया था, लेकिन उन्हें लगा कि वह यदि बातचीत में अपना चेहरा दिखाएं तो उन्हें प्रशंसा मिल सकती है. अन्ना ने भैय्यू जी से कहा कि वह बाद में बात करेंगे. वह काग़ज़ अन्ना के पास रह गया, जिसे अरविंद केजरीवाल ने बाद में देखा और अस्वीकार कर दिया. इन सबने अन्ना को बताया कि यह सरकार का धोखा है.

दूसरी तऱफ श्री श्री रविशंकर मंच पर कई बार आकर अन्ना से मिले और नीचे उतर कर उन्होंने संवाददाताओं से कहा कि वह समझौता करा देंगे और यह कि उनके पास अच्छी ख़बर है, लेकिन यह अच्छी ख़बर कभी सच्चाई में बदल ही नहीं पाई. अन्ना का अनशन कौन संत समाप्त कराए, यह भी प्रतिस्पर्धा का विषय बन गया. श्री श्री के पास प्रधानमंत्री और आडवाणी थे तो भैय्यू जी के पास प्रधानमंत्री और गडकरी थे. भैय्यू जी के पास एक अतिरिक्त पत्ता था और वह थे स्वयं अन्ना हजारे.

अचानक भैय्यू जी भी नेपथ्य में चले गए और सलमान ख़ुर्शीद तथा संदीप दीक्षित सामने आ गए. प्रधानमंत्री ने हर उस आदमी से समाधान निकालने के लिए कह दिया, जिसने उनसे कहा कि वह समाधान निकाल सकता है. अजीब-अजीब प्रस्ताव आए. कोशिश यह हो रही थी कि किसी तरह अन्ना अनशन समाप्त करें, बाक़ी बातें होती रहेंगी. इसी बीच सरकार ने अरुणा राय को आगे कर नया दांव खेला. अरुणा राय ने एक अलग लोकपाल का बिल बनाया. अरुणा राय राजस्थान में स्वयंसेवी संगठन चलाती हैं तथा सूचना के अधिकार के लिए संघर्ष करने वालों में एक हैं. इन दिनों वह सोनिया गांधी की सलाहकार समिति में हैं. अरुणा राय हर टेलीविज़न चैनल पर आईं, विशेषकर अंग्रेजी चैनलों पर और उन्होंने यह समझाने की कोशिश की कि अन्ना का आंदोलन और उनका बिल ख़तरनाक और अलोकतांत्रिक है.

जब हम और तह में गए तो पता चला कि अरुणा राय ने उन एनजीओ का नेतृत्व संभाल लिया है, जो बड़े आंदोलन में विश्वास इसलिए नहीं करते, क्योंकि उन्हें आज तक बड़ा आंदोलन खड़ा करने में सफलता मिली ही नहीं. वे छोटे-छोटे आंदोलन कर विदेशी पैसों से संगठन चलाते हैं. उन्हें लगता है कि उनकी कमीज़ से अन्ना की कमीज़ ज़्यादा स़फेद कैसे है. बहुत से स्वयंसेवी संगठनों को लगा कि आगे उनसे सवाल होंगे कि क्यों वे बड़ा आंदोलन खड़ा नहीं कर पा रहे हैं. इन सबने मिलकर अरुणा राय के नेतृत्व में अन्ना की शैली पर सवाल खड़े करने शुरू कर दिए. उनकी यह हरकत ऐसी थी, जैसे कोई पड़ोसी का अपशकुन करने के लिए अपनी आंख फोड़ ले. लोगों ने अरुणा राय की बात सुनने से इंकार कर दिया. देश में कोई जगह ऐसी नहीं थी, जहां अन्ना हजारे के पक्ष में माहौल न बना हो और नारे नहीं लग रहे हों. एक और कोशिश हुई. कुछ मुस्लिम नेताओं और दलित नेताओं ने सवाल उठाए कि यह आंदोलन उनके हित में नहीं है और यह मध्य वर्ग का आंदोलन है. देश के मुसलमानों और दलितों ने इस तर्क को अस्वीकार कर दिया और वे बड़ी संख्या में भ्रष्टाचार के ख़िला़फ चल रहे इस आंदोलन में शामिल हो गए. जिस तरह सरकार ने और विपक्षी दलों ने अन्ना हजारे को लेकर चालें चलीं, उनसे पहले श्री श्री निराश हुए और बाद में भैय्यू जी. दोनों को यह भी लगा कि अन्ना के कुछ साथी, विशेषकर अरविंद केजरीवाल समझौता नहीं होने देना चाहते. भैय्यू जी महाराज ने कोशिशें जारी रखीं और उन्होंने अरविंद केजरीवाल को समझाना चाहा कि अन्ना की ज़िंदगी ज़्यादा महत्वपूर्ण है. पर ख़ुद अन्ना ने कहा कि उनकी ज़िंदगी से ज़्यादा महत्वपूर्ण उनके मुद्दे हैं, खासकर वे मुद्दे, जिनसे आम जनता का नाता है.

कांग्रेस और उसकी सरकार ने सारे मामले को ग़ैर ज़िम्मेदारी के साथ, टालने वाले अंदाज़ में लिया, वहीं भाजपा ने अन्ना का पहले चरण में विरोध किया, लेकिन जब अन्ना ने सांसदों को घेरने का आह्वान किया और देश भर में सांसदों को घेरा जाने लगा तो भाजपा दसवें दिन इस नतीजे पर पहुंची कि उसे अन्ना का समर्थन करना चाहिए, ताकि कांग्रेस के ख़िला़फ पैदा हुए गुस्से का उसे राजनीतिक फायदा मिल सके. उसने यू टर्न लिया और अन्ना के लोगों के पास संदेश भेजा कि वे लोग उससे मिलें तो वह समर्थन कर देगी. संयोग से उसी दिन सलमान ख़ुर्शीद के साथ बातचीत में प्रशांत भूषण एवं केजरीवाल को लगा कि वे पांच अप्रैल की स्थिति में पहुंच गए हैं. उन्होंने भाजपा नेताओं से मिलने का फैसला लिया. भाजपा नेताओं ने उनका समर्थन कर दिया. अब कांग्रेस को लगा कि वह ट्रैप हो रही है.

कांग्रेस ने फिर भैय्यू जी महाराज को बीच में डाला और उनसे कहा कि वह अन्ना हजारे को तैयार करें. भैय्यू जी ने सलमान ख़ुर्शीद, कपिल सिब्बल और प्रधानमंत्री से मिलकर मांगें तैयार कीं. उधर केजरीवाल को लगा कि कांग्रेस को ही फैसला लेना है और उन्हें कुछ संकेत देना चाहिए. वह पहले भैय्यू जी महाराज से मिलना नहीं चाहते थे, लेकिन अब मिलने के लिए तैयार हो गए. कांग्रेस ने पतंग को थोड़ी ढील और दी. लोकसभा में चर्चा को टाला. शुक्रवार की रात और शनिवार की सुबह सलमान ख़ुर्शीद से भैय्यू जी महाराज, प्रशांत भूषण, केजरीवाल एवं मेधा पाटेकर मिले. अब मांग स़िर्फ इतनी बची थी कि लोकसभा में चर्चा हो और लोकसभा आश्वासन दे.

शनिवार को लोकसभा की बैठक शुरू हुई, जिसमें उस पर पहला दबाव था अन्ना हजारे के अनशन का और दूसरा दबाव था अन्ना की उस घोषणा का कि अगर शनिवार तक फैसला नहीं हुआ तो देश भर से लोग दिल्ली की ओर कूच करें. दिल्ली आने का अन्ना का आह्वान लोकसभा भंग करने के आंदोलन में भी बदल सकता था. इस सारी बहस और आंदोलन के बीच सोनिया गांधी अमेरिका में अपने कैंसर का इलाज करा रही हैं. कैंसर फैल चुका है. सोनिया गांधी की अनुपस्थिति में पार्टी और सरकार बिखरी दिखाई दी. राहुल गांधी से जिस परिपक्वता की अपेक्षा थी, वह दिखाई नहीं दी. ऐसे समय में, जब संकट हो, तब आवश्यकता होती है नेतृत्व की. राहुल गांधी के पास नेतृत्व देने का व़क्त नहीं है. उनके लिए यह सुनहरा मौक़ा था, जब वह सामने आ सकते थे और देश के सामने अपना दावा ठोंक सकते थे. उन्होंने लोकसभा में भाषण दिया, जिसका सारांश था कि उन्होंने मसले को और उलझा दिया. इसीलिए लोकसभा की बहस में किसी ने उनके सुझावों को गंभीरता से नहीं लिया.

देश के मीडिया ने, जिसमें अंग्रेजी न्यूज़ चैनल आते हैं, भ्रम की स्थिति पैदा करने की पूरी कोशिश की. उन्होंने इस बात को फैलाया कि यह आंदोलन मध्य वर्ग का आंदोलन है, जबकि हिंदी न्यूज़ चैनलों ने अपने को अन्ना के आंदोलन का एक हिस्सा बना दिया. सरकार के लिए यही चिंता की बात रही कि वह हिंदी न्यूज़ चैनलों को अन्ना से दूर करने में सफलता हासिल नहीं कर पाई. जिस तरह जनता का दबाव कांग्रेस, भाजपा, अन्य राजनैतिक दलों तथा संसद पर पड़ा, उसी तरह इस दबाव ने हिंदी चैनलों को भी मजबूर कर दिया. अधिकांश हिंदी चैनलों ने मुंबई से अपने वरिष्ठ संवाददाताओं को दिल्ली बुला लिया, ताकि उन्हें अन्ना हजारे से संपर्क करने में आसानी रहे. पर सबसे ज़्यादा रोल जनता का रहा, जिसमें अस्सी प्रतिशत भागीदारी नौजवानों की रही. नौजवानों ने जिस शांति के साथ, संयम के साथ अन्ना के आंदोलन का साथ दिया, वह बेमिसाल है. न झगड़ा, न झंझट, न लूट और न खसोट. यही नेताओं पर दबाव का सबसे कारगर हथियार बना. सरकार और राजनैतिक दलों के लिए एक और ख़तरा था. अगर वे शांतिपूर्ण आंदोलन की बात नहीं सुनते तो उन्हें नक्सलवाद को तर्क देने का अपराधी माना जाता. इस आंदोलन की सुनवाई न होने का दुष्परिणाम बड़ी संख्या में नौजवानों को नक्सलवाद के साथ जोड़ देता. अन्ना का आंदोलन देश में एक विश्वास जगा गया कि लोगों में भी ताक़त होती है. यह साबित कर गया कि नौजवानों में देश के लिए प्यार है तथा वे भी देश की समस्याओं के प्रति चिंतित हैं.

अन्ना का अनशन खत्म हो गया. अन्ना की तबीयत बिगड़ रही थी, शायद इसलिए टीम अन्ना सरकार के जाल में फंस गई. यह आंदोलन पूरे राजनीतिक तंत्र के लिए चुनौती बनकर सामने आया. देश की जनता भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए अन्ना के साथ खड़ी हो गई. सभी राजनीतिक दलों ने इस जनसैलाब की भावनाओं को समझने में न स़िर्फ ग़लती की, बल्कि उन्होंने अपनी साख को भी खो दिया. राजनीतिक चालबाजी से अनशन खत्म तो हो गया, लेकिन देश की जनता के साथ विश्वासघात हुआ है. अन्ना ने जन लोकपाल बिल को क़ानून बनाने के लिए आंदोलन किया था, लेकिन तेरह दिनों के आंदोलन के बाद यह तीन सुझावों तक सिमट कर रह गया. जन लोकपाल बिल संसद में न तो पेश किया गया और न ही इसे पास किया गया. अन्ना के तीन सुझावों पर स़िर्फ बहस हुई और इसे स्थायी समिति में भेज दिया गया. समझने वाली बात यह है कि स्थायी समिति सरकारी लोकपाल बिल पर विचार कर रही है. अन्ना के तीनों सुझावों को सरकारी लोकपाल बिल के लिए एक सुझाव माना जाएगा. स्थायी समिति में इन तीनों सुझावों पर फिर से चर्चा होगी. फिर यह फैसला होगा कि इन सुझावों को मानना है या नहीं. यानी यह मामला पूरी तरह उसी जगह पहुंच गया, जहां यह अन्ना के अनशन से पहले था. राजनीतिक दलों का यह विश्वासघात देश को महंगा पड़ने वाला है. इससे माओवादियों को यह कहने का मौक़ा मिल जाएगा कि शांतिपूर्ण आंदोलन को सुनने वाला इस देश में कोई नहीं है.


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