आडवानी बड़े या भागवत

आडवाणी बेहद अनुभवी राजनेता हैं. संघ  प्रमुख मोहन भागवत भी उनसे उम्र औरअनुभव में उन्नीस ही पड़ते हैं. शायद यही वजह है कि चौतरफा हमलों के बावजूद वह चुप्पी साधे हैं. वह केवल अपने सही व़क्त का इंतज़ार कर रहे हैं. मोहन भागवत चाहते हैं कि संघ का नियंत्रण एक बार फिर से भाजपा पर स्थापित हो जाए. मुश्किल यह है कि आडवाणी की छवि इतनी बड़ी हो गई है कि उनको साधने में संघ का चाबुक भी नाकाम हो रहा है. भागवत की परेशानी की यही मुख्य वजह है.भारत का राजनीतिक आसमान इन दिनों अलग तरह के बादलों से घिरा हुआ है. देश का मुख्य विपक्षी दल अपने ही अंतर्विरोधों से घिरा हुआ है. उसके अपने महारथियों ने तो तलवार खींच ही ली है, आरएसएस का नियंत्रण भी भाजपा पर से मानो छूटता दिख रहा है. शिमला में हल्की ठंडक थी. भाजपा के सभी नेता चिंतन बैठक में शामिल होने शिमला पहुंच चुके थे. कई मुख्यमंत्री थे. लगभग सभी राज्य के अतिथि थे. सुबह आठ बजे नाश्ते पर सब मिले क्योंकि उसके बाद बैठक शुरू होने वाली थी. जसवंत सिंह सीधे बैठक में आने वाले थे. अचानक नरेंद्र मोदी ने राजनाथ सिंह को संबोधित कर सभी को कहा कि अहमदाबाद लौट रहे हैं, क्योंकि वहां दंगों का अंदेशा पैदा हो गया है. मोदी ने जसवंत सिंह की किताब और सरदार पटेल को लेकर उनके रुख़ पर कहा कि पटेल समुदाय गुजरात में शांति भंग करने जा रहा है. कोई कुछ नहीं बोला. राजनाथ सिंह ने कहा कि बैठक से पहले पार्लियामेंटरी बोर्ड की बैठक कर लेते हैं. बैठक में राजनाथ सिंह ने कहा कि नरेंद्र मोदी का कहना है कि जसवंत सिंह पर कार्रवाई हो, नहीं तो वे गुजरात वापस जा रहे हैं. उपस्थित सभी लोगों ने कहा कि जसवंत सिंह को पार्टी से निकाल देना चाहिए. केवल आडवाणी उस बैठक में ख़ामोश रहे. बाद में उन्होंने कहा कि वे इस फैसले से सहमत नहीं थे. उस बैठक में आडवाणी एक नेता की तरह नहीं, बल्कि सामान्य नेता की तरह व्यवहार करते रहे.

3advani-bade-ya-bhagwatरअसल मानसिक उलझन भाजपा में कम है, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में ज़्यादा है. ऐसा नहीं है कि यह उलझन आज पैदा हुई है, यह उलझन तो सालों पुरानी है. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा दोनों ही अपनी मानसिक उलझन से पैदा हुई बीमारी को पहचानना ही नहीं चाहते. यह बीमारी ही उनके अंतर्द्वंद्व और सिकुड़ने का मुख्य कारण है.

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ गुरु गोलवलकर के समय जिस वैचारिक रास्ते पर चला, वह बाला साहब देवरस के संघ प्रमुख बनने के आख़िरी दिनों में अर्धविराम पर ठिठक गया. बाला साहब देवरस सन 73 में संघ प्रमुख बने और 94 तक रहे. यह समय भारतीय राजनीति में महान उथल-पुथल का रहा. इंदिरा गांधी इसी समय शीर्ष पर रहीं, वे हारी भी और जीती भी. उनकी हत्या भी इसी दौर में हुई. आपातकाल भी इसी दौर में लगा और पहली बार संघ कार्यकर्ता बड़े पैमाने पर जेल गए. संघ के नेता और कार्यकर्ता जेल से छूटे भी तथा देश भर में बात फैल गई कि अधिकांश माफी मांग कर या अंडरटेकिंग देकर छूटे है. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री बने और विशाल बहुमत से जीते. उनकी जीत में, कुछ संघ नेताओं का दावा था कि संघ का बहुत बड़ा हाथ है. राजीव गांधी के ख़िला़फ जब वीपी सिंह और विपक्ष का आंदोलन चला तो, संघ ने भी दावा किया कि वह उसका मुख्य हिस्सा है. इससे पहले इंदिरा गांधी के ख़िला़फ जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में भी संघ की सक्रिय हिस्सेदारी थी. इसका सबूत नानाजी देशमुख और गोविंदाचार्य का शीर्ष पर रहना था. दोनों को ही संघ ने एक फैसले के तहत जनसंघ में भेजा था और दोनों ने ही अपनी भूमिका सक्षमता से निभाई.

यही दौर था जब राजीव गांधी के ख़िला़फ आंदोलन चला और विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी और वामपंथियों के समर्थन से केंद्र में सरकार बनी. संघ को एक ऐसे व्यक्ति की ज़रूरत पड़ी जो सरकार और संघ और भाजपा के बीच तालमेल तो करे ही, उनके बीच पैदा होने वाली समस्याओं को भी हल करे. संघ ने यह ज़िम्मेदारी भाउराव देवरस पर डाली और उन्होंने इसे बख़ूबी निभाया. देवरस निर्णय लेने वाले व्यक्ति थे. उन्होंने ही यह रणनीति बनाई थी कि वीपी सिंह का मुक़ाबला भाजपा मंदिर आंदोलन से करें. इसके परिणामस्वरूप वीपी सिंह की सरकार गिर गई. हालांकि वीपी सिंह के बाद चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने, फिर नरसिम्हा राव, देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल. अटल बिहारी वाजपेयी बहुत बाद में प्रधानमंत्री बने. लेकिन उसकी भूमिका तो भाऊ देवरस ने ही रखी थी.

सन 94 तक बाला साहब देवरस संघ प्रमुख रहे और भाजपा को लगा कि वह दिल्ली की सत्ता प्राप्त कर सकती है. उनके बाद 94 से 2000 तक रज्जू भइया संघ प्रमुख रहे. रज्जू भइया के समय में मंदिर बनाओ आंदोलन चला, क्योंकि देवरस जी के समय में ही बाबरी मस्जिद शहीद हो गई थी. अटल जी प्रधानमंत्री बने, सरकार नहीं चल पाई. सदन में गिर गई, फिर चुनाव हुए, भाजपा के नेतृत्व में पुनः सरकार बनी. अटल जी प्रधानमंत्री बने और वर्ष 2000 में रज्जू भइया ने अपनी बीमारी के कारण के.सी.सुदर्शन को संघ प्रमुख नामित कर दिया. यह पहली बार हुआ.

यहां से संघ के चरित्र में बदलाव शुरू हुआ. रज्जू भइया आख़िरी प्रमुख थे. जो भाजपा नेताओं में वरिष्ठ थे. सुदर्शन जी अनुभव, उम्र, काम सब में अटली जी से तो कनिष्ठ थे ही, आडवाणी जी से भी कनिष्ठ थे. अटल जी संघ के लोगों से बातें तो करते थे. पर फैसले अपने मन से लेते थे. उन्होंने कभी संघ की राय सरकार चलाने में नहीं मानी और इसमें उन्हें आडवाणी जी का समर्थन मिला. जिसे भी भाजपा से संपर्क का काम संघ ने सौंपा वह ज़्यादा असरदार नहीं रहा. संघ के कुछ नेताओं को लगता था कि भाजपा ग़लतियां कर रही है, उन्होंने इसकी आवाज़ भी उठाई पर संघ प्रमुख ने इसे अनसुना कर दिया.

सन 2000 से 2009 तक सुदर्शन संघ प्रमुख रहे. भाजपा चुनाव हारी और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने. संघ में कई बार चिंतिंत नेताओं ने सवाल उठाए कि भाजपा में बुराइयां आ गई हैं, नेता कांग्रेस के नेताओं की तरह व्यवहार कर रहे है, इस पर हस्तक्षेप करना चाहिए पर, यह हुआ नहीं. क्योंकि संघ नेताओं को लगता था कि उन्हें राजनीति की समझ नहीं है और वे यदि हस्तक्षेप करेंगे तो कहीं भाजपा की राजनैतिक गति रोकने का इल्ज़ाम उन पर न लग जाए. संघ के वरिष्ठ नेता सेफ गेम खेल रहे थे.

भाजपा के अध्यक्षों के बारे में जानना भी दिलचस्प होगा. 80 से 86 तक अटल बिहारी वाजपेयी भाजपा के अध्यक्ष थे. सन 86 से 91 तक आडवाणी जी अध्यक्ष थे और इसी समय राजीव गांधी के ख़िला़फ आंदोलन चला और वी पी सिंह की सरकार बनी भी, सरकार गिरी भी. सन 91 से 93 तक मुरली मनोहर जोशी भाजपा अध्यक्ष बने जब बाबरी मस्जिद शहीद हुई. जोशी दोबारा नहीं चुने जा सके क्योंकि भाजपा पर अटल जी और आडवाणी जी का क़ब्ज़ा था. संघ ने काफी हस्तक्षेप करने की कोशिश की, पर जोशी जी ने संघ की बात पार्टी चलाने में नहीं मानी. दरअसल उन दिनों संघ आडवाणी जी की सोच को अपना राजनैतिक सोच बना चुका था. जोशी के बाद फिर आडवाणी भाजपा अध्यक्ष बनें और उन्हें संघ का पूरा समर्थन मिला. 98 से 2000 तक कुशाभाऊ अध्यक्ष रहे. कुशाभाऊ ने न कोई फैसला लिया और जैसे अटल जी या आडवाणी जी पार्टी को चलाना चाहते थे, चलाने दिया. 2000 से 2001 तक बंगारू लक्ष्मण अध्यक्ष रहे और उनका मशहूर नोट कांड हुआ. बाद में जना कृष्णमूर्ति अध्यक्ष बने तथा वह भी केवल एक साल अध्यक्ष रहे. जना कृष्णमूर्ति को अध्यक्ष बनाने तथा बाद में वैंकैय्या नायडू को अध्यक्ष बनाने के पीछे कारण था कि भाजपा को दक्षिण में बढ़ाना है. दो साल का वैंकैय्या का कार्यकाल न संघ को पसंद आया और न आडवाणी को. इस समय तक अटल जी को भाजपा नेपथ्य में फेंक चुकी थी. दो हज़ार चार से दो हज़ार छह तक आडवाणी फिर अध्यक्ष बन गए लेकिन जिन्ना की समाधि पर उन्हें धर्मनिरपेक्ष बनाने पर उन्हें त्याग पत्र देना पड़ा. आडवाणी भाजपा में सबसे लंबे समय तक अध्यक्ष रहने वाले व्यक्ति हैं और उन्हें भारत के संभावित प्रधानमंत्री के तौर पर आम चुनाव लड़ने और हार जाने का गौरव भी मिल चुका है. दो हज़ार छह से दो हज़ार नौ तक राजनाथ सिंह अध्यक्ष हैं.

इस लंबे समय में आख़िर संघ क्यों भाजपा को राजनैतिक रूप से कमज़ोर होते देखता रहा, यह सवाल है. और इसका जवाब भी एक ही है कि जो तर्क आठ साल पहले दिया गया था संघ नेताओं द्वारा कि वे राजनीति नहीं समझते, आडवाणी जी ज़्यादा समझदार और सक्षम हैं, वही तर्क आज भी दिया जा रहा है.

संघ के नेता चाहे सुदर्शन जी रहे हों या अब नए संघ प्रमुख मोहन भागवत. ये सब आडवाणी जी से ख़ौफ खाते हैं. आडवाणी जी के नेतृत्व में भाजपा की हार के बाद भागलपुर और पटना गए संघ प्रमुख मोहन भागवत ने संघ के तीन नेताओं को आडवाणी जी से मिलकर त्यागपत्र देने का संदेश देने भेजा. तीनों नेता आडवाणी जी से मिले, लेकिन त्यागपत्र देने का मोहन भागवत का संदेश नहीं दिया. मोहन भागवत ने भागलपुर और पटना में यह बात ख़ुद उनसे मिलने गए लोगों से कही.

बीस दिन पहले मध्यप्रदेश में गुप्त रूप से संघ के सभी नेता, सुदर्शन, जोशी, भागवत सहित बैठे. इनके बीच तीन सवाल थे, 1. भाजपा को अनदेखा कर दें, 2. भाजपा को सुधारें या 3. एक नया संगठन बनाएं. बातचीत का नतीजा निकला कि तीनों काम नहीं हो सकते. इसलिए भाजपा के लोगों से ही अपील करो कि वे ख़ुद अपने को सुधारें और सार्वजनिक बयान से बचें. ऐसा ही फैसला कई बार सुदर्शन जी के संघ प्रमुख रहते लिया गया. किसी की हिम्मत ही नहीं होती थी कि आडवाणी जी से कोई कुछ कहे.

आडवाणी चाहते हैं कि भाजपा संघ के दबाव से मुक्त हो जाए. लेकिन वे इसे हमेशा दबी ज़ुबान से ही कहते रहे. समय से न कहने का परिणाम सामने आ रहा है कि अब उनके कुछ कहने का मतलब ही नहीं रहा गया है.

एक व़क्त था जब संघ की इज़्ज़त उसके विरोधी भी करते थे. हिंदू संस्कृति में विश्वास रखने वाले अपने बच्चों को शाखा में भेजते थे. बच्चे बड़े होकर विद्यार्थी परिषद और बाद में पार्टी में जाते थे. पर यह परिपाटी कमज़ोर हो रही है. संघ में घुन लग गया है. सत्ता दो बार मिली केंद्र में, राज्यों में भी मिली और इसने संघ को सत्ता की बीमारियों के बीच फंसा दिया. मोहन भागवत कोशिश कर रहे हैं कि वे संघ को पुनः नियंता की स्थिति में लाएं पर अब यह उनके बस में ही नहीं रह गया है. संघ की मध्यप्रदेश की गुप्त बैठक में एक नतीजा यह भी निकला कि भाजपा में बाहरी तत्व इतने ज़्यादा हो गए हैं कि भाजपा का बिगड़ना स्वाभाविक है. बाहरी तत्व से मतलब जो संघ से न संबंधित हों, केवल राजनीति से संबंधित हों.

ऐसे लोगों में सुषमा स्वराज, यशवंत सिंहा, अरुण शौरी, मेनका गांधी प्रमुख है. जसवंत सिंह निकाल ही दिए गए हैं. खंडूरी और मेनका गांधी अपना स्वर तीखा कर चुके हैं. भाजपा से जुड़े लोगों में, वसुंधरा राजे अलग रास्ते की तलाश में हैं.

आडवाणी क्या सत्ता की सुविधा के प्रेम में त्यागपत्र नहीं दे रहे या फिर उनका भाजपा को इस हालत में छोड़ना कर्तव्य से भागना लग रहा है. आडवाणी भाजपा के उत्थान और पतन दोनों के ज़िम्मेदार हैं. अगर वे लोकसभा के चुनावों के साथ ही त्यागपत्र दे देते तो आज वे सबसे इज़्ज़त वाले नेता माने जाते तथा भाजपा और संघ उन्हें हाथ जोड़ कर वापस बुलाते. लेकिन आडवाणी उस अवसर को चूक गए. मनोनीत या संभावित प्रधानमंत्री के प्रचार के दौर में उनके दाएं-बाएं, उनकी पुत्री प्रतिभा व पुत्र जयंत का बैठना भी भाजपा में इशारा कर गया कि यहां भी परिवारवाद की संभावना है. जसवंत सिंह के मसले पर आडवाणी का चुप रहना बताता है कि वह उस समय नहीं बोलते जब उन्हें बोलना चाहिए. लेकिन सब कुछ के बाद भी आडवाणी का कद आज भी मोहन भागवत या संघ के किसी भी नेता से बड़ा है. यही संघ और भाजपा की सबसे बड़ी मुश्किल भी है और सबसे बड़ी संभावना भी.


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