आप देश के प्रधानमंत्री हैं राज्य के मुख्यमंत्री नहीं

Santosh Bhartiyaबीती 15 जुलाई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कौशल विकास योजना की लंबी-चौड़ी शुरुआत की. विज्ञान भवन में एक और बड़ा जमावड़ा हुआ. इन सारे प्रयासों का सभी को स्वागत करना चाहिए. हम भी स्वागत कर रहे हैं. लेकिन, 15 तारीख को ही प्रधानमंत्री ने एक और करिश्मा किया. उन्होंने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की इफ्तार पार्टी में जाने से मना कर दिया. सा़फ मना नहीं किया, बल्कि उन्होंने उस समय कुछ मुख्यमंत्रियों की बैठक बुला ली. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कुछ भी करने का अधिकार है. यह सत्य है कि नरेंद्र मोदी जी जब मुख्यमंत्री थे, तब भी वह किसी इफ्तार पार्टी में नहीं गए और न उन्होंने अपने यहां इफ्तार पार्टी दी. इफ्तार पार्टी में मुस्लिम और ग़ैर मुस्लिम, दोनों को आमंत्रित किया जाता है. दरअसल, एक यह प्रतीक है कि हिंदू और मुसलमान साथ में बैठकर खाएं-पीएं और एक-दूसरे से प्यार की बातें करें.

हम बहुत सारे दिन मनाते हैं, जिनका सांकेतिक मतलब होता है. वे चीजें अमल में कितनी आती हैं, कितनी नहीं आतीं, यह बाद की बात है. लेकिन इसके बावजूद हम उन्हें मनाते हैं. यह ठीक उसी तरह है, जैसे सत्य बोलना आवश्यक है, अहिंसा परम धर्म है, लेकिन हम जीवन में कभी सत्य नहीं बोलते और कभी अहिंसा का पालन नहीं करते. इसके बावजूद हम सत्य और अहिंसा का आदर करते हैं और बड़े आदर के साथ इन वाक्यों को दोहराते हैं. हम जब श्मशान घाट जाते हैं, तो हमें अक्सर लगता है कि दो दिन की ज़िंदगी है, क्या किसी से बैर करना, क्या किसी से झगड़ा करना, क्या किसी की बुराई करना, जाना खाली हाथ है. पर जैसे ही हम श्मशान घाट से निकलते हैं, हम रेडियो चला देते हैं और श्मशान घाट में ली हुई प्रतिज्ञा फौरन भूल जाते हैं. और, किसे कैसे परेशान करना है, यह 15 मिनट के भीतर हम सोचने लगते हैं या किससे किस तरीके से बदला निकालना है, यह हम 15 मिनट के भीतर ही सोचने लगते हैं.

रोजा इफ्तार, ईद मिलन, होली मिलन जैसे नाम या अवसर किसी मजहब से नहीं जुड़े हैं. ये एक सम्मान के प्रतीक हैं. अगर मुख्यमंत्री रहते हुए श्री नरेंद्र मोदी ने मुसलमानों को नहीं बुलाया, इफ्तार पार्टी नहीं दी, उनके यहां समारोहों में नहीं गए या किसी इफ्तार की दावत में नहीं गए, तो यह गुजरात की परिस्थिति में मान्य हो सकता है. लेकिन, जब व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री हो, तब उसके ऊपर यह ज़िम्मेदारी आ जाती है कि वह देश में रहने वाले तमाम तबकों को यह भरोसा दे कि उनके लिए प्रधानमंत्री के मन में आदर की भावना है, स्नेह की भावना है और वह उनके धार्मिक त्योहारों एवं रीति-रिवाजों में शामिल होने से परहेज नहीं करते. प्रधानमंत्री होने का मतलब देश में रहने वाले तमाम वर्गों का प्रधानमंत्री होना है. आप हिंदू

रीति-रिवाजों को कितना भी मानें, लेकिन उससे ज़्यादा आवश्यक है कि उनके रीति-रिवाजों को मानें, जो संख्या में कम हैं, लेकिन आपके देश में रहते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यही नहीं कर रहे हैं. ऐसा न करने से देश के अल्पसंख्यक तबकों में यह संदेश जा रहा है कि प्रधानमंत्री के मन में उनके लिए कोई आदर नहीं है.

प्रधानमंत्री को यह बात समझाने की ज़रूरत नहीं है कि सम्मान देना उतना ही आवश्यक है, जितना सम्मान लेना. पर जो प्रधानमंत्री सारे देश को मुख्यमंत्री की तरह चला रहा हो, उससे यह अपेक्षा कैसे की जाए? मुख्यमंत्री का पद हथेली की तरह होता है. आप अपनी हथेली देखिए, आपको एक-एक रेखा समझ में आएगी. आप हथेली पलट के देखिए, तो भी आपको एक-एक नस और एक-एक झुर्री नज़र आ जाएगी. लेकिन, यदि आप अपनी पीठ देखना चाहें, पैर का पिछला हिस्सा देखना चाहें, कान का पिछला हिस्सा देखना चाहें या सिर का पिछला हिस्सा देखना चाहें, तो आप नहीं देख सकते. प्रधानमंत्री का पद ऐसा ही है. जब आप प्रधानमंत्री बनते हैं, तब आपको सारे शरीर को देखना पड़ता है, स़िर्फ हथेली को नहीं और वह हिस्सा आप नहीं देख सकते. उसे देखने के लिए एक विशेष कौशल की ज़रूरत है, कुछ आईनों की ज़रूरत है, ऐसे साथियों की ज़रूरत है, जो आपको बताएं कि सारे देश में क्या हो रहा है. सारा देश 125 करोड़ लोगों का देश हो जाता है और लगभग 28 से ज़्यादा प्रदेशों का देश हो जाता है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से यही एक छोटी चूक हो रही है. देश में मुसलमान हों, ईसाई हों, जैन हों, पारसी हों या सिख हों, इन सबके बड़े त्योहारों में शामिल होना प्रधानमंत्री का कर्तव्य है. अब यहां पर प्रधानमंत्री से एक और चूक होने वाली है. प्रधानमंत्री सिखों के त्योहारों में तो शामिल होंगे, हिंदुओं के त्योंहारों में शामिल होंगे, लेकिन ईसाई, पारसी, जैन एवं मुसलमानों के त्योहारों में शामिल नहीं होंगे. मुझे लगता है कि यह ग़लत है, ऐसा नहीं होना चाहिए. हमने जो मुख्यमंत्री रहते हुए किया, अगर उसी को हम प्रधानमंत्री रहते हुए भी लागू करेंगे, तो हम देश में नए अंतर्विरोधों, नए कंट्राडिक्शन को जन्म देंगे. बहुत सारी चीजें स़िर्फ प्यार से, अच्छी भाषा से हल हो जाती हैं. लेकिन ग़लत ढंग से कही हुई बात, कटु  भाषा में की गई बात मसलों को हल नहीं करती, दिलों को नहीं जोड़ती और प्यार नहीं बढ़ाती, बल्कि दिलों को तोड़ती है और प्यार ़खत्म कर नफरत पैदा करती है. मुझे लगता है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से यह अनुरोध करना चाहिए कि देश में रहने वाले तमाम तबकों के त्योहारों में अगर वह शिरकत करेंगे, तो उनका मान और सम्मान बढ़ेगा ही.

इतना ही नहीं, राजनीतिक रूप से भी प्रधानमंत्री एक चूक कर रहे हैं. प्रधानमंत्री विरोधी दलों की कोई बैठक नहीं बुला रहे हैं. बहुमत का अहंकार या बहुमत की दबंगई लोकतंत्र में अच्छी नहीं होती. प्रधानमंत्री के पास अभी कम सीटें हैं. राजीव गांधी के पास तो 412 सीटें थीं, लेकिन राजीव गांधी की साख ढाई साल के भीतर गिरने लगी थी. 412 के बहुमत वाली कांग्रे्रस अपने बहुमत के बोझ को नहीं संभाल पाई. प्रधानमंत्री जी, बहुमत के बोझ को ऐसा लगता है कि आप भी नहीं संभाल पा रहे हैं. आपके पास अगर 440 सीटें होंती, तो भी लोकतंत्र का सम्मान करना और विरोधी दलों से दो महीने, तीन महीने में एक बार विचार-विमर्श करना लोकतंत्र की मांग है. अगर आप यह करेंगे, तो लगेगा कि आपकी लोकतंत्र में आस्था है. कोई दो राय नहीं है, मेरे मन में कोई दुविधा नहीं है यह मानने में कि आपके मन में लोकतंत्र के लिए सम्मान है. आप भारत में पैदा हुए, भारत में पैदा हुआ हर शख्स लोकतंत्र का सम्मान करेगा ही, पर उसे व्यक्त करना पड़ेगा और बताना भी पड़ेगा कि उसके मन में लोकतंत्र के लिए सम्मान है. इसलिए आप भारत में रहने वाले तमाम वर्गों के किसी एक त्योहार में शामिल होइए या उन्हें अपने यहां बुलाइए और विपक्षी दलों को भी अपने यहां आमंत्रित कीजिए, उनसे विचार-विमर्श कीजिए.

इस देश में रहने वाले एक नागरिक के नाते और एक पत्रकार होने के नाते प्रधानमंत्री से यह निवेदन करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूं.


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