आख़िर श्री लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी यात्रा, दूसरी रथ यात्रा की घोषणा संसद के बाहर क्यों की, वह भी संघ और पार्टी से बात किए बिना, यह रहस्य है. जब इस रहस्य के पीछे का रहस्य तलाशने हम निकले तो हमें वह मिला, जो अजीब और आश्चर्यजनक तो था ही, विस्मयकारी भी था. आज के लोग आडवाणी जी से अपना स्कोर सैटल करने में लगे हैं. वे भ्रम फैला रहे हैं. शायद किसी को सच्ची कहानी का पता नहीं है. हम बताते हैं आडवाणी जी की यात्रा के पीछे की असली कहानी, जिसे भाजपा के उन लोगों के लिए जानना ज़रूरी है, जो भाजपा के लिए अपनी जान देने में शान समझते हैं और उनके लिए भी, जो देश की राजनीति की शतरंजी चालें जानना चाहते हैं.
पिछली चार जून को बाबा रामदेव के ऊपर रामलीला मैदान में सरकारी हमला हुआ और उनका अनशन हिकमत से समाप्त करा दिया गया. उसी व़क्त यानी चार जून को संघ के सर्वोच्च नेतृत्व ने आडवाणी जी से कहा कि वह कल यानी पांच जून को लोकसभा से त्यागपत्र दे दें और भ्रष्टाचार के ख़िला़फ यात्रा निकालें. आडवाणी जी ने इसे बचकानी सलाह कहा और अनदेखा कर दिया. लेकिन जब अन्ना हजारे ने अनशन किया और उनके समर्थन में देश में ज्वार खड़ा हो गया तो आडवाणी जी को लगा कि उनसे चूक हो गई. अत: उन्होंने अचानक लोकसभा से बाहर आकर पत्रकारों के सामने इसकी घोषणा कर दी. आडवाणी जी ने इस घोषणा से पहले न संघ से राय-मशविरा किया और न पार्टी से ही राय ली.
उधर उत्तर प्रदेश में दो यात्राएं पहले घोषित हो चुकी थीं. एक यात्रा कलराज मिश्र ने घोषित की और दूसरी राजनाथ सिंह ने. कलराज मिश्र की यात्रा का उद्देश्य सा़फ है कि वह उत्तर प्रदेश का निर्विवाद मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं. लेकिन रहस्यमय है राजनाथ सिंह की यात्रा की घोषणा.
लालकृष्ण आडवाणी जैसा नाम सालों की मेहनत के बाद बनता है. आज देश में कम ऐसे लोग हैं, जो आडवाणी जी के सामने अध्ययन और अनुभव में खड़े हो सकें. इसलिए एक काल्पनिक विकल्प आडवाणी जी के सामने और है. वह भाजपा से अलग हटकर सामान्य नागरिक की तरह देश में घूमें और लोगों को, जनता को तैयार करें, लेकिन ईमानदारी से उन्हें ग़ैर राजनैतिक बनना होगा. पर इसमें भी पेंच है.
राजनाथ सिंह ने अपने साथ उमा भारती को मिला लिया और एक यात्रा घोषित कर दी. राजनाथ सिंह अभी से उत्तर प्रदेश के एकछत्र राष्ट्रीय नेता की छवि बनाना चाहते हैं, ताकि वह प्रधानमंत्री पद पर अपना दावा कर सकें. राजनाथ सिंह की इस मंशा को भांप गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी सीनेट में प्रस्तुत की गई एक स्टडी गु्रप की रिपोर्ट को अमेरिकी सरकार की राय बता अपने को भावी प्रधानमंत्री पद का सशक्त दावेदार घोषित कर दिया. नरेंद्र मोदी का मीडिया मैनेजमेंट हुनर इसमें महत्वपूर्ण रोल निभा गया. राजनाथ सिंह का मानना है कि अगर उत्तर प्रदेश में भाजपा ने चुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया तो उसका श्रेय उन्हें मिलेगा और उनकी प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी बहुत मज़बूत हो जाएगी. वह प्रदेश अध्यक्ष भी रह चुके हैं, मुख्यमंत्री भी और अंत में केंद्रीय मंत्री और राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे हैं. नरेंद्र मोदी और राजनाथ सिंह का मानना है कि आडवाणी जी के साथ न संघ है और न पार्टी तथा उनकी उम्र उन्हें अब ज़्यादा काम नहीं करने देगी, लिहाज़ा उन्हें स्पेंस फोर्स की संज्ञा दी जा सकती है. दोनों को लगता है कि प्रधानमंत्री पद के संघर्ष में आख़िरी मुक़ाबला उन्हीं के बीच होगा. हालांकि दो उम्मीदवार अभी और हैं, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली. दोनों ही ख़ामोशी से पत्ते खेलने में माहिर हैं.
आडवाणी जी ने पदाधिकारियों की बैठक में सोच-समझ कर अनंत कुमार का चुनाव किया, जो उनकी यात्रा की रूपरेखा और कार्यक्रम बनाएंगे. इस बैठक में महत्वपूर्ण बातें हुईं, जिन्हें आपको आगे बताएंगे, पर पहले अनंत कुमार को क्यों चुना, यह जानिए. आडवाणी जी सुषमा स्वराज और अरुण जेटली को चुन नहीं सकते थे, क्योंकि दोनों लोकसभा और राज्यसभा में नेता हैं. नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री हैं, इसलिए वह भी नहीं चुने जा सकते थे. राजनाथ सिंह से आडवाणी जी चिढ़ते हैं और उन्हें पता है कि वह प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं, इसीलिए उन्होंने अनंत कुमार को चुना. आडवाणी जी किसी भी ऐसे आदमी को इस समय ऊपर नहीं उठाना चाहते, जो प्रधानमंत्री पद की दौड़ में है. नरेंद्र मोदी, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली तो दौड़ में प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, पर राजनाथ सिंह को वही देख पा रहे हैं, जो राजनीति समझते हैं.
राजनाथ सिंह के बारे में माना जाता है कि वह अंतिम क्षणों में अपने पत्ते खेलते हैं. उन्होंने अपने को उत्तर प्रदेश में सीमित कर लिया है. वहां विधानसभा में अच्छी सीटें आ गईं तो उनका दावा अपने आप मज़बूत हो जाएगा. उन्होंने एक ओर कलराज मिश्र से समझौता किया कि वह उन्हें मुख्यमंत्री पद के लिए समर्थन देंगे, बदले में कलराज मिश्र उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए समर्थन देंगे. दूसरी ओर उन्होंने पिछड़ी जाति की बड़ी नेता उमा भारती को अपने साथ यात्रा में शामिल किया, जिसकी वजह से उनकी सभाओं में बड़ी भीड़ होगी और जितनी उनकी सभाओं में भीड़ होगी, उतना ही पार्टी में राजनाथ सिंह का दबाव बढ़ेगा. राजनाथ सिंह ने अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष कार्यकाल में पहली चुनौती आडवाणी जी को ही दी थी. आज स्थिति यह बन गई है कि प्रत्यक्ष उम्मीदवार प्रधानमंत्री पद के लिए पार्टी में नरेंद्र मोदी हैं, लेकिन परोक्ष उम्मीदवार राजनाथ सिंह बनते जा रहे हैं.
नरेंद्र मोदी और राजनाथ सिंह का मानना है कि आडवाणी जी के साथ न संघ है, न पार्टी तथा उनकी उम्र उन्हें अब ज़्यादा काम नहीं करने देगी. दोनों को लगता है कि प्रधानमंत्री पद के संघर्ष में आख़िरी मुक़ाबला उन्हीं के बीच होगा. हालांकि दो उम्मीदवार अभी और हैं, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली. दोनों ही ख़ामोशी से पत्ते खेलने में माहिर हैं.
आडवाणी जी अपने को प्रधानमंत्री पद का सबसे बड़ा और सबसे सशक्त उम्मीदवार मानते हैं, लेकिन ये चारों उन्हें कुछ नहीं मानते. इनके न मानने के पीछे भी कारण हैं. जब भाजपा में फैसले की घड़ी आती है, तब संघ महत्वपूर्ण रोल निभाता है. सबके विरोध के बावजूद आख़िर संघ ने नितिन गडकरी को भाजपा का अध्यक्ष बनवा ही दिया. सर संघ चालक मोहन भागवत जी ने सार्वजनिक रूप से घोषणा की थी कि डी फोर में से कोई भी भाजपा का अगला अध्यक्ष नहीं होगा. इन चारों का मानना है कि संघ का समर्थन किसी हालत में आडवाणी जी को नहीं मिलेगा. इसीलिए प्रथम पंक्ति में नरेंद्र मोदी ने खुद को हिंदू चेहरा दिखाकर पेश किया, लेकिन उससे पहले राजनाथ सिंह ने अपने को आगे रखने की बिसात बिछा दी.
आडवाणी जी के पक्ष में संघ का कोई नेता नहीं है. इसके कई कारण हैं. संघ के सभी लोग आडवाणी जी से आयु और अनुभव में कम हैं. जब आडवाणी जी प्रचारक थे, तब ये सब छोटे कद के स्वयंसेवक या प्रचारक थे. आडवाणी जी की कार्यशैली अब तक यह रही है कि फैसला लो और उसे सुनाओ. इससे संघ के लोग कभी सहमत नहीं हुए, मजबूरी में स्वीकार करते रहे. अब उन्हें लग रहा है कि शेर बूढ़ा हो गया है और कहावत भी है कि जब शेर बूढ़ा होता है तो गीदड़ भी उसका शिकार कर लेता है. संघ के सारे लोग चार जून को दी गई अपनी सलाह कि आडवाणी जी रामदेव की मदद करें और देश में भ्रष्टाचार के ख़िला़फ यात्रा करें, का अस्वीकार पचा नहीं पा रहे हैं और जले-भुने बैठे हैं. आडवाणी जी के पिछले काम विश्व हिंदू परिषद नहीं भूली है. कार्यकर्ताओं का समर्थन संघ के साथ है, पर कट्टर आम लोगों का समर्थन विश्व हिंदू परिषद के साथ है. भाजपा में संघ के बिना कोई पद भले पा जाए, पर प्रधानमंत्री बन जाए, यह असंभव है. यह बात आडवाणी जी के शिष्य जानते हैं. इसीलिए उनके प्रथम शिष्य नरेंद्र मोदी ने अपना दांव खेल दिया.
संघ के बाद भाजपा में कौन आडवाणी जी के साथ है, यह देखना भी ज़रूरी है. जब पदाधिकारियों की बैठक हुई तो उसमें कई सवाल उठे. पहला यह कि अनंत कुमार के ऊपर भ्रष्टाचार के इतने आरोप हैं, उन्हें क्यों चुना जा रहा है, दूसरा यह कि इस यात्रा का कलराज मिश्र और राजनाथ सिंह की यात्रा पर क्या प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि उन्हें तो पार्टी ने घोषित किया है. सवाल यह भी उठा कि इस यात्रा की आवश्यकता क्या है, सवाल उठा कि चार जून को आपने क्या किया था तथा यह भी उठा कि क्या आपने सबसे चर्चा कर ली है? सबसे महत्वपूर्ण सवाल इस बैठक में उठा कि आपकी अभी कोई पब्लिक अपील है भी क्या? यह मतलब निकाला जा सकता है कि आडवाणी जी के साथ भाजपा भी पूरी तरह नहीं है, पर इस स्थिति का एक परिणाम यह निकलेगा कि यह साबित हो जाएगा कि आडवाणी जी का पार्टी पर वर्चस्व है या नहीं तथा दूसरा यह निकलेगा कि भाजपा में इतनी खींचतान शुरू हो जाएगी कि आडवाणी जी अकेले पड़ कर परेशान हो जाएंगे. यह परेशानी उन्हें कहीं थक कर रिटायरमेंट की ओर न ले जाए, यह डर आडवाणी जी के कई साथियों को है.
इसकी बानगी पहले मिल चुकी है. जब भाजपा में अध्यक्ष पर फैसला होना था, तब मोहन भागवत जी मुरली मनोहर जोशी के यहां दोपहर का खाना खाने गए थे. होना यह चाहिए था कि वह आडवाणी जी के यहां जाते, पर उन्होंने उन्हें अनदेखा किया. उन्होंने वहीं पहली बार यह घोषणा की कि डी फोर में से कोई अध्यक्ष नहीं बनेगा. डी फोर का मतलब अरुण जेटली, वैंकैय्या नायडू, सुषमा स्वराज और अनंत कुमार है. यह शब्द संभवत: जानबूझ कर मोहन भागवत ने प्रयोग किया था. आडवाणी जी उस समय नेता प्रतिपक्ष थे अत: उनके पार्टी अध्यक्ष बनने का कोई सवाल ही नहीं था. वह आडवाणी जी से मिले भी नहीं थे. ऐसे में मदन दास देवी ने मोहन भागवत से कहा कि आप आडवाणी जी के यहां नाश्ता कीजिए, अच्छा नहीं लगता कि आप उनसे न मिलें. मोहन भागवत ने कहा कि नाश्ते में क्या दिक्कत है, नाश्ता करेंगे. संघ में अभी भी यह परंपरा है कि शीर्ष स्थान में रहने वाले आठ-दस में एक व्यक्ति की राय का भी सम्मान होता है. जब वहां मदन दास देवी पहुंचे तो वहां मौजूद पत्रकारों ने पूछा कि आडवाणी का क्या रहेगा तो मदन दास देवी ने कहा कि आडवाणी जी नेता हैं, नेता रहेंगे. पर यह प्रतिक्रिया मदन दास देवी ने दी थी, मोहन भागवत ने नहीं. संघ से जुड़े एक प्रचारक की प्रतिक्रिया है कि दरअसल यह मदन दास देवी की चालाकी थी, जिसने आडवाणी जी के नेता होने का भ्रम कायम रखा, अन्यथा जब मोहन भागवत उनके यहां नहीं गए, तभी स्थितियां सा़फ हो गई थीं.
मदन दास देवी और आडवाणी जी में बहुत गहरी दोस्ती है. आडवाणी जी पहली रथ यात्रा के बाद भाजपा को इतनी कामयाबी दिला चुके हैं कि अब वह करवट भी बदलते हैं तो लोग डर जाते हैं. इस भ्रम को मदन दास देवी ने अब तक बनाए रखा. मदन दास देवी ने अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में पूरे समय संघ की ओर से भाजपा को चलाया. उन्हीं के भेजे विद्यार्थी परिषद के अच्छे-बुरे नेता अब तक भाजपा को चलाते रहे हैं. भाजपा का नीचे तक का तंत्र मदन दास देवी के इशारों पर चलता था. कमान उनके हाथ थी. मोहन भागवत के फैसलों को वह रोकने या टालने की कोशिश करते थे. मदन दास देवी की कार्यकुशलता और समझदारी का एक उदाहरण हमारे सामने है. लगभग इसी समय पटना में संघ की बैठक हुई. उसमें मदन दास देवी ने अपना मशहूर बयान दिया कि भारत के गृहमंत्री पी चिदंबरम बहुत अच्छे और कार्यकुशल हैं, क्योंकि इन्होंने नक्सलवादियों से लड़ाई छेड़ दी है. भाजपा कार्यकर्ताओं में सवाल उठा कि जो विरोधी दल में है, जिसका इस्ती़फा पार्टी रोज़ मांगती है, जो सर्टिफिकेट मांगने नहीं आया, उसे क्यों मदन दास देवी ने सर्टिफिकेट दिया? यह उनकी राजनैतिक परिपक्वता है या अपरिपक्वता? ऐसे समझदार मदन दास देवी ने आडवाणी जी का भ्रम एक साल और चलाया.
अब संघ में बदलाव हुआ है. मदन दास देवी को प्रमुख प्रचारक बनाया गया है. उनका अब भाजपा से कुछ लेना-देना नहीं है. संघ ने सुरेश सोनी को भाजपा का पालक अधिकारी बनाया है. इसलिए संघ आडवाणी जी का साथ देगा, इसमें संदेह है और अशोक सिंघल आडवाणी जी के खुलेआम विरोधी हैं. इनके सबके विरोध की जड़ में आडवाणी जी की कार्यशैली है, जिसका सूत्र है, फैसला करो और ख़बर दो. वह डोमीनेंट रोल प्ले करना चाहते हैं. संघ के लोग एक उदाहरण देते हैं. वाजपेयी जी के प्रधानमंत्री रहते किसी उप प्रधानमंत्री की ज़रूरत नहीं थी. हमेशा गृहमंत्री ही दूसरे नंबर पर होता है और आडवाणी जी गृहमंत्री थे. उन्होंने अपने आप को उप प्रधानमंत्री घोषित करवाया, जबकि न तो संघ इसके हक़ में था और न पार्टी. आडवाणी जी नरेंद्र मोदी की कार्यशैली और बढ़ती लोकप्रियता से असुरक्षित महसूस करने लगे थे. इसीलिए उन्होंने अपने को सेकेंड इन कमान घोषित करवाया. आज हाल यह है कि आडवाणी जी की आयु और उनके अनुभव को देखते हुए संघ और भाजपा में लोग चुप हैं. अब स्थिति यह आ गई है कि उनकी यात्रा साबित करेगी कि उनकी पार्टी में स्थिति क्या है. अगर यात्रा नहीं हुई तो यह उनके रिटायरमेंट की अघोषित घोषणा होगी.
आडवाणी जी के सामने इस स्थिति में विकल्प क्या हैं? संघ और भाजपा के लोगों का कहना है कि उन्हें इसी समय, जब उनके शिखर पर होने का भ्रम बना है, रिटायर हो जाना चाहिए. उन्हें स्वयं घोषणा करनी चाहिए कि मैंने अपनी पारी खेल ली, अब मैं सलाह-मशविरा दूंगा. तुम सब काम करो क्योंकि तुम मेरे बच्चों की तरह हो. जब पार्टी सत्ता में आएगी तो वह उन्हें ससम्मान राष्ट्रपति बनाएगी, वैसे ही, जैसे उसने भैरो सिंह शेखावत जी को उप राष्ट्रपति बनाया था. पर लोगों को शक है कि आडवाणी जी यह कर पाएंगे. थोड़े दिन पहले की बात है, जब आडवाणी ने जिन्ना पर टिप्पणियां की थीं. इसके बाद वह संजय जोशी से उलझ गए. उलझ ही नहीं गए, उन्हें पार्टी से ही निकलवा दिया, ठीक उसी तरह, जैसे मुखौटा शब्द पर स़फाई के बाद भी अटल जी ने गोविंदाचार्य को अवकाश लेने पर विवश किया और बाद में कार्यकारिणी से हटा दिया. यही आडवाणी जी ने संजय जोशी के साथ किया.
जब लोकसभा में सीटें 116 आईं, तब एहसास हुआ कि संजय जोशी की अहमियत क्या है. इसके बाद भी दो साल तक अपनी ज़िद पर अड़े रहे और अब जाकर उन्होंने अपनी मौन सहमति दी तो संजय जोशी पार्टी में वापस आए. संजय जोशी उत्तर प्रदेश के इंचार्ज हैं. वहां कार्यकर्ताओं में उत्साह है. उनकी ही कुशलता है कि राजनाथ सिंह और उमा भारती एक साथ घूम रहे हैं. संजय जोशी के आने का किसी ने विरोध नहीं किया. नरेंद्र मोदी ने कहा था कि संजय जोशी अगर वापस आएंगे तो वह पांच मिनट में इस्ती़फा दे देंगे, पर जब संजय जोशी आए तो नरेंद्र मोदी ने मुंह नहीं खोला. आडवाणी जी के उप प्रमुख सलाहकार सुधींद्र कुलकर्णी ने देश में बहुत जगहंसाई कराई है, पर संघ और भाजपा के प्रमुख नेताओं को हैरानी है कि आडवाणी जी किसी से सलाह नहीं लेते. उनकी प्रमुख सलाहकार उनकी बेटी प्रतिभा आडवाणी हैं, उनके सभी फैसलों के पीछे प्रतिभा आडवाणी हैं. संघ के एक वरिष्ठ नेता ने मुझसे बात करते हुए कहा कि आडवाणी जी ने किताब लिखी है, माई कंट्री माई लाइफ. अब उसके आगे जोड़ना चाहिए, माई डॉटर, माई वाइफ. आडवाणी जी को अपनी बेटी और पत्नी के अलावा किसी पर भरोसा नहीं है. उनकी आज तक की राजनैतिक या ग़ैर राजनैतिक यात्राएं बिना पत्नी और बेटी के पूरी ही नहीं हुई हैं.
लालकृष्ण आडवाणी जैसा नाम सालों की मेहनत के बाद बनता है. आज देश में कम ऐसे लोग हैं, जो आडवाणी जी के सामने अध्ययन और अनुभव में खड़े हो सकें. इसलिए एक काल्पनिक विकल्प आडवाणी जी के सामने और है. वह भाजपा से अलग हटकर सामान्य नागरिक की तरह देश में घूमें और लोगों को, जनता को तैयार करें, लेकिन ईमानदारी से उन्हें ग़ैर राजनैतिक बनना होगा. पर इसमें भी पेंच है. चंद्रशेखर जी के सर्वाधिक नज़दीक रहे कमल मोरारका ने मुझे पिछले दिनों एक किस्सा सुनाया. चंद्रशेखर जी ने कमल मोरारका से कहा कि मैंने आज अटल जी से कहा कि आप भाजपा छोड़िए, मैं जनता पार्टी छोड़ता हूं और शरद पवार कांग्रेस छोड़ते हैं. तीनों एक साथ देश में घूमें. इससे देश में निराशा दूर होगी और नया विश्वास जागेगा. एक नया राजनैतिक विकल्प भी बनेगा. कमल मोरारका के पूछने पर कि अटल जी ने क्या कहा, चंद्रशेखर जी ने बताया कि अटल जी ने कहा कि आप दोनों कर सकते हैं, पर मैं नहीं कर सकता. चंद्रशेखर जी के क्यों पूछने पर अटल जी ने कहा कि चंद्रशेखर जी, आप आरएसएस वालों को नहीं जानते. ये जीने नहीं देंगे. यह था सन् अस्सी का समय और अब है दो हज़ार ग्यारह. हो सकता है, आडवाणी जी भी हिम्मत न करें. अगर हिम्मत करेंगे तो इतिहास उन्हें एक बड़ा मौक़ा दे सकता है, लेकिन इतिहास द्वारा दी जाने वाली यह दस्तक आडवाणी जी के कान में पहुंचेगी, इसमें संदेह है.